पिट्स इंडिया एक्ट (1784 ई.)
रेग्यूलेटिंग एक्ट जल्दबाजी में पारित किया गया था। अतः लागू होने के कुछ समय पश्चात ही इसके दोष स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगे थे। मद्रास तथा बम्बई की प्रेसीडेन्सियों पर बंगाल का पर्याप्त नियंत्रण नहीं था, जिसके कारण कम्पनी को अनावश्यक युद्धों में उलझना पड़ा था। 1781 में एक संशोधन अधिनियम पारित किया गया था, जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी गई, किन्तु प्रशासन सम्बन्धी दोष अभी भी विद्यमान थे, 1781-82 ई. में ब्रिटिश संसद वारेन हेस्टिंग्स को इंग्लैण्ड बुलाना चाहती थी, किन्तु कम्पनी के हिस्सेदारों के विरोध के कारण नहीं बुला सकी। इससे कम्पनी पर संसद का अपर्याप्त नियंत्रण स्पष्ट हो गया। अतः रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए एक सुधार विधेयक पारित करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
डुण्डास तथा फॉक्स जैसे राजनीतिज्ञों ने इस दिशा में संवैधानिक पग उठाने का प्रयत्न भी किया, परन्तु कई कारणों से वे सफल नहीं सके। अतः ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट्स ने एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे संसद ने 1748 ई. में पारित कर दिया। यह एक्ट भारत के इतिहास में पिट्स इण्डिया एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है। इस एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासन पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके द्वारा ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की गई, जो त्रुटिपूर्ण होने पर भी सन् 1858 ई. तक कम्पनी के संविधान का आधार बनी रही।