पूर्वी भारत तथा बंगाल में विद्रोह
(1) सन्यासियों का विद्रोह: बंगाल पर अधिकार करने के पश्चात ब्रिटिश सरकार ने वहाँ नई अर्थव्यवस्था स्थापित की, जिसके कारण ज़मींदार, कृषक एवं शिल्पी आदि नष्ट हो गए। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल को वहाँ के लोगों ने कंपनी के पदाधिकारियों की देन समझा। ब्रितानियों ने तीर्थ स्थानों में आने-जाने पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए, इससे सन्यासी लोग क्षुब्ध हो गए। सन्यासियों ने इस अन्याय के विरूद्ध विद्रोह किया। उन्होंने जनता के सहयोग से कँपनी कोठियों तथा कोषों पर आक्रमण किए। इन लोगों ने कँपनी के सैनिकों के विरुद्ध बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। अंत में वारेन हेस्टिंग्स को एक लम्बे अभियान के पश्चात इस विद्रोह को दबाने में सफलता मिली। इस सन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंद मठ ‘ में मिलता है।
(2) चुआर और हो का विद्रोह : मिदानपुर ज़िले की आदिम जाति के चुआर लोगों में अकाल एवं भूमि कर में वृद्धि तथा अन्य आर्थिक कठिनाइयों के विरुद्ध असंतोष था। अतः: इन लोगों ने भी बग़ावत कर दी। कैलापाल, ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने 1768 ई. में एक साथ विद्रोह किया। इस प्रदेश में 18वीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक उपद्रव होते रहे।
इस प्रकार छोटा नागपुर तथा सिंहभूम ज़िले के हो तथा मुंडा लोगों ने भी 1820-22 तक एवं पुन: 1831 ई. में विद्रोह कर दिया और कंपनी की सेना का मुक़ाबला किया। यह प्रदेश भी 1837 ई. तक उपद्रवग्रस्त रहा।
(3) कोलों का विद्रोह : ब्रितानियों ने नागपुर के कोलों के मुखिया मुंडों से उनकी भूमि छील ली और उन्हें मुस्लिम कृषकों तथा सिक्खों को दे दी। अतः: कोलों ने हथियार उठा लिए। उन्होंने 1831 ई. में लगभग 1000 विदेशियों को या तो जला दिया या मौत के घाट उतार दिया। यह विद्रोह शीघ्र हीरांची, सिंहभूम, हजारीबाग, पालामऊ तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैल गया। एक दीर्घकालीन और विस्तृत सैन्य अभियान द्वारा इस विद्रोह का दमन कर शांति स्थापित की गई।
(4) संथालों का विद्रोह : राजमहल ज़िले के संथाल लोगों में राजस्व अधिकारियों के दुर्व्यवहार, पुलिस के अत्याचार, तथा ज़मींदारों एवं साहुकारों की ज़्यादतियों के विरुद्ध असंतोष था। अतः: उन्होंने अपने नेता सिंधु तथा कान्हू के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और कंपनी के शासन के अंत होने की घोषणा कर दी तथा अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। सरकारी सेना और पुलिस ने 1856 ई. तक इस विद्रोह पर क़ाबू पा लिया। सरकार ने इन लोगों के लिए पृथक संथाल परगना बना दिया, जिससे वहाँ शांति स्थापित हो गई।
(5) अहोम विद्रोह : कँपनी ने आसाम के अहोम अभिजात वर्ग के लोगों को वचन दिया था कि बरमा युद्ध के पश्चात उसकी सेनाएँ लौट जाएँगी, जिसे कँपनी ने पूरा नहीं किया। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों ने अहोम प्रदेश को भी कंपनी राज्य में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया। परिमाण स्वरूप अहोम के लोगों ने विद्रोह कर दिया। 1828 में उन्होंने गोमधर कुँवर को अपना राजा घोषित कर दिया और रंगपुर पर आक्रमण करने की योजना बनाई। कंपनी ने अपनी शक्तिशाली सेना के द्वारा इस विद्रोह का दमन कर दिया। अहोम लोगों ने 1830 ई. में दूसरी बार विद्रोह करने की योजना बनाई, परंतु इस अवसर पर कंपनी ने शांति की नीति का पालन किया और उतरी आसाम के प्रदेश एवं कुछ अन्य क्षेत्र महाराज पुरंदर सिंह को दे दिए।
(6) खासी विद्रोह : कंपनी ने पूर्व दिशा में जैन्तिया तथा पश्चिम में गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ब्रितानियों ने ब्रह्मपुत्र घाटी को सिल्हट से जोड़ने हेतु एक सैनिक मार्ग बनाने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु बहुत से ब्रितानी, बंगाली एवं अन्य लोग वहाँ भेजे गए। ननक्लों के राजा तीर्थ सिंह ने इस कार्य का विरोध किया और गारो, खाम्पटी एवं सिंहपों लोगों के सहयोग से ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही इसने लोकप्रिय आंदोलन का रूप ले लिया। 1833 ई. में सैन्य कार्यवाही के पश्चात ही ब्रिटिश सरकारें को इस विद्रोह का दमन करने में सफलता प्राप्त हुई।
(7) पागल पंथियों और फरैजियों का विद्रोह : उतरी बंगाल में करमशाह के कुछ हिंदू-मुसलमान अनुयायी थे, जो अपने को पागलपन्थी कहते थे। करम शाह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र टीपू नामक फ़क़ीर को किसानों ने अपना नेता बनाया। टीपू ने जमींदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने 1825 ईं. में शेरपुर पर अधिकार कर लिया और अपने आपको राजा घोषित कर दिया। उसके नेतृत्व में गारो की पहाड़ियों तक उपद्रव हुए। इस क्षेत्र में 1840 तथा 1850 तक उपद्रव होते रहे।
फरैजी लोग बंगाल के फरीदपुर के वासी हाजी शरियतुल्ला द्वारा चलाए गए संप्रदाय के अनुयायी थे। ये लोग धार्मिक, सामाजिक तथा राज नैतिक क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे। शरियतुल्ला के पुत्र दादूमियां (1819-60) ने ब्रितानियों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनाई। उन्होंने जमींदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध किसानों को विद्रोह करने के लिए उकसाया। फरैजी उपद्रव 1838 से 1857 तक चलते रहे तथा अंत में इस संप्रदाय के अनेक अनुयायी वहाबी दल में शामिल हो गए।