रेग्यूलेटिंग एक्ट की मुख्य धाराएं उपबन्ध
प्रेसीडेन्सियों का शासन- 1773 ई. के पूर्व बंगाल, मद्रास और बम्बई की प्रेसीडेन्सियाँ एक-दूसरे से स्वतंत्र थीं। इस एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर को भारत का गवर्नर जनरल बा दिया गया और बम्बई तथा मद्रास की प्रेसीडेन्सियों को उसके अधीन कर दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को बम्बई और मद्रास की सरकारों काम-काज पर निगरानी रखने तथा आवश्यकतानुसार उनको हुक्म देने का अधिकार दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेन्सियों को किसी भी शक्ति के साथ युद्ध एवं सन्धि करने का अधिकार नहीं था.. वह आवश्यकता पड़ने पर बम्बई और मद्रास के गवर्नर तथा उसकी कौंसिल को निलम्बित या मुअत्तिल कर सकता था।
गवर्नर जनरल की परिषद् की स्थापना-
गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद् की स्थापना कि गई। इस एक्ट के वारेन हेस्टिंग्ज को गवर्नर जनरल का पद प्रदान किया गया और परिषद् के चार अन्य सदस्यों के लिए बारवेल, फ्रांसिस, क्लेवरिंग तथा मॉनसन आदि के नामों का उल्लेख किया गया था। परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया, परन्तु संचालक मण्डल की सिफारिश पर सम्राट द्वारा किसी भी समय उन्हें हटाया जा सकता था। परिषद् के रिक्त स्थानों की पूर्ति का अधिकार संचालक मण्डल को दे दिया गया।
परिषद् की कार्यविधि के सम्बन्ध में यह नियम बनाया गया था कि इसमें प्रस्तुत होने वाले मामलों पर निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे। गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् के फैसले को मानना पड़ता था। वह अपनी परिषद् के फैसलों का उल्लंघन नहीं कर सकता था। गवर्नर जनरल केवल उसी समय अपना निर्णायक मत दे सकता, जबकि परिषद् के सदस्यों के मत दो बराबर भागों में बँट जाएंगे। चूँकि परिषद् के सदस्यों की संख्या चार थी, इसलिए यदि तीन सदस्य गवर्नर जनरल के विरूद्ध संगठित हो जाते तो वे उसकी इच्छा के खिलाफ निर्णय लेकर मनमानी कर सकते थे और वह बहुत के निर्णय की उपेक्षा नहीं कर सकता था। गवर्नर जनरल का वार्षिक वेतन 25000 पौण्ड तथा परिषद् के प्रत्येक सदस्य का वेतन 10000 पौण्ड निर्धारित किया गया।
कानून बनाने का अधिकार-
गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् को कम्पनी के तमाम प्रदेशों के लिए नियम और अध्यादेश बनाने का अधिकार दिया गया, किन्तु उन्हें लागू करने से पूर्व अंग्रेज सरकार की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक कर दिया गया। ब्रिटिश सम्राट और उसकी कौंसिल को इन अध्यादेशों तथा नियमों को रद्द करने का अधिकार था।
ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण बढ़ाना-
कम्पनी को ब्रिटिश सम्राट के पूर्ण नियंत्रण में ले लिया गया। कम्पनी के कर्मचारियों, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तथा समिति के सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को प्राप्त हुआ।
कम्पनी के शासन पर संसदीय नियंत्रण स्थापित करने के लिए इस एक्ट द्वारा यह भी निश्चित कर दिया गया कि भारत के राजस्व से सम्बन्धित समस्त मामलों की रिपोर्ट कम्पनी के डाइरेक्ट ब्रिटिश वित्त विभाग के अध्यक्ष के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और सैनिक तथा राजनीतिक कार्यों की रिपोर्ट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के समक्ष रखेंगे। इस प्रकार, ब्रिटिश संसद को एक व्यक्तिगत निगम के मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया।
कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थिति शासकीय व्यवस्था में परिवर्तन-
पहले उन व्यक्तियों को कम्पनी के संचालकों (डायरेक्टर्स) को चुनने का अधिकार था, जिनके पास कम्पनी के 500 पौण्ड के शेयर थे। परन्तु इस एक्ट के अनुसार यह निश्चित कर दिया गया कि कम्पनी के संचालकों के चुनाव में वही मत देने का अधिकारी होगा, जिसके पास एक हजार पौण्ड के शेयर होंगे। जिन व्यक्तियों के पास 3, 6 व 10 हजार पौण्ड मूल्य के शेयर थे, उन्हें क्रमश: 2, 3 और 4 मत देने का अधिकार दिया गया। डायरेक्टरों की अवधि पहले एक वर्ष थी, अब चार वर्ष कर दी गई और साथ ही संचालक मण्डल (Court of Dirfectors) के एक चौथाई सदस्यों को प्रति वर्ष रिटायर होने की व्यवस्था कर दी गई। इस एक्ट में यह भी निश्चित कर दिया गया कि एक ही सदस्य को दुबारा चुने जाने के पूर्व एक वर्ष का अवकाश आवश्यक होगा।
बंगाल में सुप्रीटकोर्ट अथवा सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना-
इंग्लैण्ड के सम्राट को 1773 ई. के एक्ट के अनुसार फोर्ट विलियम के स्थान पर सुप्रीम कोर्ट ऑफ जुडिकेचर नामक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना का अधिकार दिया गया। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य 3 न्यायाधीश थे। न्यायाधीशों की नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा की जाती थी, वही उन्हें पदच्युत भी कर सकता था। मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए सर एलिंग इम्पे के नाम का उल्लेख किया गया था। मुख्य न्यायाधीश का वार्षिक वेतन 8,000 पौण्ड और अन्य न्यायाधीशों का 6,000 पौण्ड निर्धारित किया गया।
सुप्रीम कोर्ट को कम्पनी के क्षेत्राधिकार में रहने वाले अंग्रेजों और कम्पनी के कर्मचारियों के दीवानी, फौजदारी, धार्मिक और जल सेना सम्बन्धी मुकदमें सुनने का अधिकार दिया गया। इसके फौजदारी क्षेत्राधिकार से गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् के सदस्य बाहर थे। यदि वे कोई अपराध करते, तो इंग्लैण्ड में सम्राट के न्यायालयों में उनकी सुनवाई तथा दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् द्वारा निर्मित सभी नियमों, अध्यादेशों तथा कानूनों की स्वीकृति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आवश्यक थी। इसके लिए हर कानून और न्यायालय में रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ता था अर्थात् सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी उन कानूनों और निर्णयों को लागू करने से पहले लेना आवश्यक था। न्यायालय में अंग्रेज जूरी की व्यवस्था की गई थी। इसके निर्णय के विरूद्ध परिषद् सम्राट के पास अपील की जा सकती थी।
उच्च अधिकारियों का नियंत्रण-
इस एक्ट के अनुसार कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को अच्छे वेतन देने की व्यवस्था की गई, जिससे कि वे घूसखोरी या भ्रष्टाचार की ओर न झुकें। इतना ही नहीं, उन्हें भारतीय राजाओं तथा लोगों से रिश्वत या भेंट लेने की मनाही कर दी गई। कम्पनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया गया तथा निजी व्यापार करना दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया गया। गवर्नर जनरल, परिषद् के सदस्य और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को निजी व्यापार करने से रोक दिया गया। अपराधियों को कड़ा आर्थिक दण्ड देने की व्यवस्था की गई। सार्वजनिक सम्पत्ति का गबन करने वाले और कम्पनी को धोखा देने वालों को जुर्माना और सजा देने की व्यवस्था की गई।