आधुनिक भारत का इतिहास-रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने के कारण

Regulating Act Ke Parit Hone Ke Karan

रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने के कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा दीवानी की प्राप्ति और कुछ क्षेत्रों पर अधिकार के कारण इंग्लैण्ड की सरकार ने भारतीय मामलों में विशेष रूचि लेनी शुरू कर दी। पार्लियामेन्ट के सदस्यों ने यह अनुभव किया कि कम्पनी का शासन बहुत दोषपूर्ण है। अतः उसके तथा राष्ट्र के हितों को ध्यान में रखते हुए उस पर संसद का नियंत्रण स्थापित करना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए लार्ड नॉर्थ की सरकार ने 19 जून, 1773 ई. को ईस्ट इण्डिया कम्पनी रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया। इस एक्ट के बार में जी.एन. सिंह ने लिखा है, यह एक्ट महान संवैधानिक महत्ता का है, क्योंकि इसने पहली बार संसद को यह अधिकार दिया कि वह जिस तरह की चाहे, उस तरह की सरकार स्थापित करने का आदेश भारत में दे सकती थी, जो अधिकार अभी तक कम्पनी का बना हुआ था और क्योंकि संसदीय संविधियों की लम्बी परम्पराओं में से प्रथम है, जिसने भारत में सरकार का स्वरूप बदल दिया। रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे--
(1) कम्पनी का भारतीय प्रदेशों पर अधिकार और संवैधानिक कठिनाइयाँ- ईस्ट इण्डिया कम्पनी मौलिक रूप से एक व्यापारिक संस्था थी, लेकिन प्लासी और बक्सर के युद्धों में विजय प्राप्त होने के परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार और उड़ीसा में उसका राज्य स्थापित हो गया था। दूसरे शब्दों में, वह इन सूबों की वास्तविक शासक बन गई थी। ब्रिटिश कानून के अनुसार कोई भी प्राइवेट संस्था या व्यक्ति ब्रिटिश सम्राट की आज्ञा के बिना किसी विदेशी भूभाग पर अधिकार नहीं कर सकता था। अतः कम्पनी के क्षेत्राधिकार ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक अनोखा तथा विरोधी प्रश्न खडा कर दिया। इस संवैधानिक समस्या को हल करने के लिए दो ही उपाय थे-या तो ब्रिटिश सरकार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अपने अधिकार में ले ले या कम्पनी को अपने नियंत्रण में पूर्णतया मुक्त कर दे। राजनीतिक दृष्टिकोण से ये दोनों ही मार्ग त्रुटिपूर्ण थे। यदि ब्रिटिश सरकार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अपने अधिकार में ले लेती, तो इससे कोई प्रकार की राजनीतिक उलझनें उत्पन्न हो सकती थीं। विशेषतया इसलिए कि कम्पनी के अधिकार यह तर्क देने लगे थे कि उन्होंने मुगल सम्राट से बंगाल, बिहार और उड़ीसा आदि प्रदेशों की केवल दीवानी ही प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त कम्पनी इन प्रदेशों का शासन मुगल सम्राट के दीवान की हैसियत से कार्य करना उसके सम्मान के विरूद्ध था। कम्पनी के निजी प्रदेशों पर अधिकार करना उस समय की सम्पत्ति सम्बन्धी परम्परा के भी प्रतिकूल था।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक साधारण कम्पनी न होकर पूर्वी एशिया के ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधित्व करती ती। बर्क के शब्दों में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटिश वाणिज्य के विस्तार के लिए बनाई गई एक व्यवसायी संस्था (कम्पनी) मात्र प्रतीत नहीं होती थी, अपितु वस्तुतः इस राज्य की पूर्व में भेजी गई सम्पूर्ण शक्ति और प्रभुसत्ता का प्रत्यायोजन (Delegation) था। कुव्यवस्था के एक साम्राज्यवादी देश के नाम से इंग्लैण्ड की बदनामी होने का भी भय था। अतः इस संवैधानिक समस्या को ब्रिटिश सरकार ने एक एक्ट के द्वारा सुलझना ही उचित समझा।

(2) बंगाल की जनता की दुर्दशा- द्वैध शासन व्यवस्था के कारण बंगाल में शासकीय अव्यवस्था फैल गई और कम्पनी के कर्मचारियों ने लूट-मार आरम्भ कर दी, जिसके कारण वहाँ के लोगों को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा और उनकी स्थिति दयनीय हो गई। अलफ्रेड लायल लिखते हैं, मजिस्ट्रेट, पुलिस, राजस्व अधिकार भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं पर आधारित थे और विरोधी हितों के काम कर रहे थे। वे एक शासन के अधीन नहीं थे, तथा कुशासन के लिए एक-दूसरे से ईर्ष्या करते थे। देश में कोई कानून नहीं था तथा न्याय नाममात्र का था। रिचर्ड बेचर ने लिखा है, अंग्रेजों को यह जानकर दुःख होगा कि जब से कम्पनी के पास दीवानी अधिकार आए है, बंगाल के लोगों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई है। सर ल्यूयिश ने लिखा है, सन् 1765 ई. से लेकर 1772 ई. तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन इतना दोषपूर्ण एवं भ्रष्ट रहा है कि संसार-भर की सभ्य सरकारों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। उस समय अंग्रेजी नवाबों ने बहुत अधिक भ्रष्टाचार फैला रखा था। ऐसे समय में 1770 ई. में बंगाल में एक भयंकर अकाल पड़ा, जिसे कम्पनी सम्भाल नहीं सकी। कीथ के अनुसार, इस दुर्भिक्ष में बंगाल की 1/5 जनसंख्या नष्ट हो गई, परन्तु आबादी के इधर-उधर भाग जाने के कारण कम्पनी को जो घाटा हुआ, उसकी पूर्ति कम्पनी ने दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं पर दाम बढ़ाकर और टैक्स बढ़ाकर की। लैकी के अनुसार, इसके पूर्व भारतीयों को इतने बुद्धिमतापूर्ण, खोजपूर्ण तथा कठोर अत्याचारपूर्ण अनुभव नहीं हुए थे जो जिले धनी आबादी वाले और समृद्धिशाली थे, अन्ततः वे सब के सब पूर्णरूप से जनसंख्या रहित कर दिए गए। चेथम के अनुसार, भारत में आंतरिक विषमताओं का इतना अधिक विस्तार हुआ, जितना की पृथ्वी एवं आकाश का अन्तर। अतः बंगाल की जनता बहुत दुःखी हो गई और ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया।

(3) द्वैध शासन व्यवस्था- 1765 ई. में लार्ड क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था स्थापित की
थी। यह व्यवस्था बहुत दोषपूर्ण थी, क्योंकि इसमें कम्पनी तथा नवाब दोनों में से किसी ने भी शासन प्रबन्ध की जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं ली थी। परिणामस्वरूप, बंगाल में अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गई और कर्मचारियों ने लूट-मार प्रारम्भ कर दी। होरेस वालपोल और लूट का ऐसा दृश्य हमारे सामने खोला गाय है, जिसे देखकर हम काँप उठते हैं। सोने के लोभ में हम स्पेनी हैं। उसकी प्राप्ति के सूक्ष्म तरीकों में हम दक्ष हैं। वेरस्ट ने अपनी पुस्तक गवर्नर ऑफ बंगाल (1767-69) में लिखा है कि, द्वैध शासन के परिणामस्वरूप बंगाल में अत्याचारी शासन कायम हो गया। ल्यूकस ने लिखा है, 1765 से लेकर 1722 ई. तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन इतना दूषित तथा भ्रष्ट रहा कि संसार की सभ्य सरकारों में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता है। संक्षेप में, द्वैध शासन के परिणामस्वरूप बंगाल में अराजकता और अव्यवस्था फैल गई थी। कुशासन अपनी चरम सीमा पर था, व्याभिचार का बोल-बाला था। दमन और शोषण आम बात थी। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार के लिए कम्पनी के कार्यों में हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो गया था।

(4) कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा शोषण और धन जमा करना- भारत में काम करने वाले कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन कम थे, लेकिन उन्हें निजी व्यापार करने का अधिकार था। अतः वे कुछ रिश्वत लेकर देशी व्यापारियों का माल अपने नाम से मँगवा लेते थे, जिससे देशी व्यापारियों को चुँगी नहीं देनी पड़ती थी। कम्पनी के कर्मचारी देशी व्यापारियों तथा जनता को कोई काम निकालने के लिए भेंट की खूब स्वीकार करते थे। इस प्रकार, कम्पनी के कर्मचारी अनुचित उपायों से धन संग्रह करके बहुत धनवान बन गई थे और इंग्लैण्ड जाकर भारत के नवाबों की तरह विलासितापूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। इसलिए कम्पनी के इन कर्मचारियों को ब्रिटिश जनता चिढ़ाने के लिए अंग्रेजी नवाब कहती थी।

कम्पनी के कर्मचारी बहुत निर्दयी तथा लालची थे। वे धन कमाने के लिए अनुचित उपायों का सहारा लेते थे। वे गरीब भारतीयों से न केवल जबरदस्ती रूपया वसूल किया करते थे, अपितु निर्दोष प्रजा पर बहुत अत्याचार भी करते थे. प्रत्येक कर्मचारी का यह उद्देश्य था कि वह भारतीयों से अधिक से अधिक धन लूटकर जल्द से जल्द इंग्लैण्ड चला जाए। जी.एन. सिंह द्वारा उद्धृत लैकी के शब्दों में, भारतीयों ने इतना चालाक और दृढ अत्याचारी शासक इसके पूर्व कभी नहीं देखा था। ऐसा देखा जाता था कि अंग्रेज व्यापारियों के आ जाने पर गाँव खाली हो जाते थे, दुकानें बन्द हो जाती थीं और सड़कें भयभीत शरणार्थियों से भर जाती थीं।

1770 ईं. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, जिसके कारण लोगों के कष्ट बढ़ गए और जनता की स्थिति और दयनीय हो गई। पुन्निया ने लिखा है कि, कम्पनी के कर्मचारी इतने निर्दय और निर्लज्ज व लोभी थे कि उन्होंने गरीब जनता के कष्टों से भी लाभ उठाया और अकाल की दशाओं का उपयोग निजी अर्थ प्राप्ति के लिए किया। जी.एन. सिंह ने लिखा है, कम्पनी के कर्मचारी इतने निर्लज्ज तथा लालची थे कि धन बटोरते समय वे अकाल पीड़ित तथा दरिद्र लोगों की विपत्तियों की भी परवाह नहीं करते थे।

कम्पनी के ये कर्मचारी अपार धन लेकर इंग्लैण्ड में संसद के निर्वाचन में व्यय करते थे और वहाँ के राजनीतिक वातावरण को दूषित करते थे। मैकला ने लिखा है, मानवीय मन उनके धन बटोरने के उपायों से काँप उठता था, जबकि मितव्ययी लोग उनके अपव्यय से आश्चर्यचकित रह जाते थे। इसलिए ब्रिटिश जनता उनसे ईर्ष्या करती थी और कम्पनी के मामलों की नीतियों पर कुछ नियंत्रण करना आवश्यक समझा।

(5) कम्पनी की पराजय-
1769 ई. में मैसूर के शासक हैदरअली ने कम्पनी को पराजित कर दिया। उसने मद्रास सरकार से अपनी शर्तें बलपूर्वक मनवा ली। इस पराजय से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। अतः इंग्लैण्ड की सरकार और वहाँ की जनता ने कम्पनी की नीतियों पर कुछ नियंत्रण करना आवश्यक समझा।

(6) कम्पनी का दिवालियापन-
1765 ई. में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त करते समय क्लाइव ने यह अनुमान लगाया था कि बंगाल का कुल राजस्व 40 लाख पौण्ड होगा और खर्च आदि निकालकर कम्पनी को 1,65,000 पौण्ड की वार्षिक बचत होगी। इससे उत्साहित होकर कम्पनी के अधिकारियों ने 1766 ई. में लाभांश की दर (Dividend) 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत और 1767 में 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 121/2 प्रतिशत कर दी। पार्लियामेन्ट के सदस्य भी कम्पनी के धन-धान्य का कुछ भाग प्राप्त करना चाहते थे। अतः ब्रिटिश सरकार और कम्पनी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार को भारतीय प्रदेशों पर अधिकार जमाये रखने के बदले में चार लाख पौण्ड वार्षिक खिराज के रूप में देना स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने यह रकम कुछ वर्षों तक अदा की, परन्तु बाद में उसकी स्थिति खराब हो गई कि इस रकम को प्रतिवर्ष अदा नहीं कर सकी। यहाँ तक कि उसने 1773 ई. में ब्रिटिश सरकार से 10 लाख पौण्ड के ऋण की प्रार्थना की। इससे सरकार को मौका मिला कि वह उससे कार्यों की जाँच-पड़ताल करे।

(7) 1818 ई. के संवैधानिक सुधारों पर रिपोर्ट-
रेग्यूलेटिंग एक्ट, 1773 ई. के कारणों पर प्रकाश डालते हुए संवैधानिक सुधार विषयक रिपोर्ट में कहा गया था कि, कम्पनी का दिवालियापन संसदीय हस्तक्षेप का तात्कालिक कारण था, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण कारण अंग्रेजों में बढ़ती हुई भावना थी कि राष्ट्र सुदूर देश में शासन करने के प्रयोग की सफलता का पूर्ण उत्तरदायित्व अपने ऊपर लें और यह देखें के विदेशियों पर शासन समुचित ढंग से हो रहा है।

(8) संसदीय जाँच और लार्ड नॉर्थ का रेग्यूलेटिंग बिल-
ब्रिटिश सरकार ने ऊपर लिखे कारणों से विवश होकर कम्पनी के कार्यों की जाँच के लिए दो संसदीय समितियाँ नियुक्त की, इनमें से एक कमेटी और सीक्रेट कमेटी थी। सलेक्ट कमेटी ने 12 और सीक्रेट कमेटी ने 6 रिपोर्ट पेश की, जिनमें कम्पनी प्रशासन की बहुत अधिक आलोचना की गई थी। इन रिपोर्टों के आधार पर प्रधानमंत्री लार्ड नॉर्थ ने कम्पनी के मामलों को नियमित करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी बिल तैयार किया और 18 मई, 1773 ई. को ब्रिटिश संसद के सामने रखा।

बिल को पेश करते समय लार्ड नॉर्थ ने संसद सदस्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था, मेरे बिल की प्रत्येक धारा का उद्देश्य कम्पनी के शासन को सुदृढ़, सुव्यवस्थित और सुनिश्चित बनाना है और ऐसा केवल कम्पनी के भले के लिए ही नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भी अति आवश्यक है। एडमण्ड बर्क ने कम्पनी के कार्यों की हिमायत करते हुए इस बिल की कटु आलोचना की। उसने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, ब्रिटिश सरकार का कम्पनी के कार्यों में हस्तक्षेप नीति विरूद्ध, विवेकहीन होने के साथ-साथ देश की न्यायसंगतता तथा विधान के भी प्रतिकूल है। इसके अतिरिक्त यह बिल राष्ट्र द्वारा दिए गए अधिकार, न्याय, परम्परा और राष्ट्र के प्रति जनता के विश्वास पर आघात है।

परन्तु ब्रिटिश संसद ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और बहुत अधिक बहुमत से इस बिल को पास कर दिया। बिल पास होने के बाद रेग्यूलेटिंग एक्ट कहलाया। रेग्यूलेटिंग एक्ट के अतिरिक्त एक और एक्ट पास किया गया, जिसके अनुसार कम्पनी को 4 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से 14 लाख पौण्ड ऋण देने की व्यवस्था की गई और उसे 6 प्रतिशत से अधिक लाभांश-दर देने की मनाही कर दी गई। संसद ने कम्पनी से 4 लाख पौण्ड वार्षिक की धनराशि भी लेनी बन्द कर दी।


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