1857 की क्रान्ति-सआदत खाँ

SaAadat Khan

सआदत खाँ

सआदत खाँ शरीर और मन दोनों से ही बलिष्ठ थे। वह देखने में भी निहायत ख़ूबसूरत थे। उनके पूर्वज जोधपुर और दिल्ली के बीच के क्षेत्र मेवात के निवासी थे। आजीविका की खोज में सआदत खाँ इंदौर राज्य में जा पहुँचे। उस समय इंदौर में तुकोजीराव होलकर शासक थे। सआदत खाँ की योग्यता से प्रभावित होकर उन्होंने उन्हें अपने तोपख़ाने का प्रमुख तोपची नियुक्त कर दिया।

सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम छिड़ने पर सआदत खाँ की देशभक्ति ने ज़ोर मारा वह अपने मादरे-वतन को फ़िरंगियों से आज़ाद करने के लिए उतावला हो उठे। सआदत खाँ की पहली वफ़ादारी अपने होलकर राज्य के प्रति थी। अपने एक फ़ौजी अधिकारी वंश गोपाल के साथ सआदत खाँ ने महाराज की बातचीत और उनके व्यवहार से उन लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि महाराज की सहानुभूति उन लोगों के साथ है।

महाराज तुकोजीराव होलकर से भेंट करने के पश्चात सआदत खाँ ने सैनिकों को एकत्रित किया और उनसे कहा - तैयार जो हो जाओ। आगे बढो। ब्रितानियों को मार डालो। यह महाराजा साहब का हुक्म है।

अपने साथी की ओजस्वी वाणी सुनकर सेना के वीर हुंकार उठे और वे ब्रिटिश रेज़िडेंट कर्नल ड्यूरेंड पर हमला करने के लिए तैयार हो गए। अपने दल-बल के साथ सआदत खाँ रेजीडेंसी पर पहुँच गए और उसे घेर लिया। उस समय कर्नल ट्रेवर्स भी अपने महिदपुर कंटिजेंट के साथ इंदौेर रेजीडेंसी पर मौजूद था।

कर्नल ड्यूरेंड को यह समझते देर नहीं लगी कि सेना ने विद्रोह कर दिया है। वह अपनी कूटनीति और वाक् चाकरी के लिए मशहूर था। रेजीडेंसी के फ़ाटक पर पहुँचकर उसने अपने शब्दजाल में क्रांतिकारियों को फँसाना चाहा। सआदत खाँ इन चाल को भली भाँति जानते थे। उन्होंने कर्नल ड्यूरेंड पर गोली चला दी। सआदत खाँ की गोली कर्नल ड्यूरेंड के एक कान को उड़ाती हुई और उनके गाल को छिलती हुई निकल गई। कर्नल ड्यूरेंड भाग खड़ा हुआ। वह रेजीडेंसी के पिछले दरवाज़े से सपरिवार बाहर निकल गया और छिपता हुआ सीहोर जा पहुँचा। वहाँ ब्रितानी फ़ौज रहती थी। कर्नल ट्रेवर्स भी दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ। रेजीडेंसी में जितने ब्रितानी थे, वे सभी भाग खड़े हुए। कोठी पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया। कोठी तथा अन्य बँगले लूटकर उजाड़ दिए गए।

4 जुलाई 1857 की रात को क्रांतिकारियों ने लूट का माल अपने साथ लेकर देवास की ओर बढना प्रारंभ कर दिया। क्रांतिकारियों के पास रेजीडेंसी ख़ज़ाने से लूटे गए नौ लाख रुपये, सभी तोपें, गोला बारूद, हाथी, घोड़े और बैलगाड़ियाँ आदि सामान था। होलकर नरेश की भी नौ तोपें वे अपने साथ ले गए।

उखड़ते-उखड़ते भी ब्रितानियों के पैर जम गए और उन्होंने विद्रोह का दमन कर दिया। इंदौर के क्रांतिकारियों में से वे सआदत खाँ को तो नहीं पकड़ सके, पर कई अन्य क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार करके उन्हें निर्मम दंड दिए गए। ब्रितानी अत्याचारियों ने ग्यारह क्रांतिकारियों को गोलियों से भून डाला। इक्कीस सैनिकों तथा कुछ नागरिकों को तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ाया गया और दो सौ सत्तर सैनिकों को आजीवन कारावास का दंड दिया गया।

सआदत खाँ को ब्रितानी लोग बीस वर्ष पश्चात अर्थात् सन् 1877 में झालावाड़ से गिरफ़्तार कर सके। वह छद्म नाम से वहाँ नौकरी करने लगे थे। वह इतने ईमानदार और नेक व्यक्ति थे कि उन्होंने लूट के माल में से अपने पास कुछ भी नहीं रखा था। जिस समय वह गिरफ़्तार किए गए, उस समय उनके पास दो समय की भोजन सामग्री के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।

सआदत खाँ पर मुकदमा लगाया गया। उन्होंने किसी भी प्रकार की कमज़ोरी प्रकट नहीं की और न अपने किसी साथी को फँसाया। देशभक्ति का सर्वोच्च पुरस्कार- "फाँसी" का उपहार पाकर वह बहुत ख़ुश थे।


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