1857 की क्रान्ति-वीर नारायण सिंह

Veer Narayann Singh

वीर नारायण सिंह

वर्तमान मध्य प्रदेश के रायपुर नगर के चौराहे पर जय-स्तम्भ बना हुआ है, जो आज भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हुए असंख्य शहीदों की कीर्ति की कहानी की स्मृति को ताजा कर देता है। इसी स्थान पर 10 सितम्बर, 1857 ई. को अमर शहीद वीर नारायण सिंह को खुले आम फाँसी की सजा दी गई थी। अतः यह स्तम्भ आदिवासी महावीर नारायण सिंह के अद्भूत शौर्य का उद्घोषक भी है।

वीर नारायण सिंह आदिवासी क्षेत्र सोनाखान के जमींदार थे। उनके पिता का नाम श्री रामसहाय था, जिनमें वीरता, देशभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा एवं जनमंगल आदि गुण कूट-कूटकर भरे हुए थे। वीर नारायण सिंह को उनके पिता के गुण विरासत में प्राप्त हुए थे।

वीर नारायण सिंह ने 1830 ईं. में जमींदारी की बागडोर अपने हाथ में ली। इस पद पर कार्य करते हुए उन्होंने निर्भीकता एवं जनहित होने का परिचय दिया।

1856 ई. का कार्य सोनाखान की जमींदारी के लिए अभिशाप का वर्ष सिद्ध हुआ। इस वर्ष इस क्षेत्र में वर्षा नहीं होने से अकाल पड़ गया। लोग पीने के पानी के लिए तरस गए। धान का भण्डार कहा जाने वाला क्षेत्र भयंकर सूखा का शिकार हो गया।

सोनाखान के लोगों ने करोंद गाँव के एक व्यापारी से खेतों में बोने और खाने के लिए अनाज उधार देने के लिए प्रार्थना की, परन्तु उसने इनकार कर दिया। तत्पश्चात् वहाँ के लोगों ने इस सम्बन्ध में अपने लोकप्रिय जमींदार वीर नारायण सिंह से प्रार्थना की। वीर नारायण सिंह ने अकाल पीड़ितों की सहायता करने हेतु उस व्यापारी से कहा, परन्तु उसने झूठ बोलकर बहाना बनाते हुए सहायता देने से इनकार कर दिया।

इस पर वीर नारायण सिंह ने अपने कर्मचारियों को आदेश देकर व्यापारी का अन्न भण्डार खुलवाकर लोगों को अन्न बँटवा दिया और रायपुर के अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर को अपने इस कार्य के सम्बन्ध में सूचित कर दिया। उधर उस व्यापारी ने रायपुर के डिप्टी कमिश्नर के पास यह शिकायत की कि जमींदार वीर नारायण सिंह ने उसके घर पर डाका डालकर उसका सब कुछ लूट लिया है।

रायपुर का डिप्टी कमिश्नर वीर नारायण सिंह की जमींदार हड़पने और उन्हें दण्डित करने का अवसर ढूँढ रहा था। अतः उसने वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। जब वे तीर्थयात्रा से लौट रहे थे, तब उन्हें 24 अक्टूबर, 1956 ई. को बन्दी बना लिया गया और उन्हें रायपुर की जेल में डाल दिया गया। इस घटना से सोनाखान की जनता में बगावत की भावना प्रबल हो उठी।

उधर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ हो जाने के कारण जगह-जगह पर लड़ाईयाँ होने लगी। नारायण सिंह रायपुर की जेल में बन्दी होने के कारण बेचैन थे, परन्तु वे इस मौके पर कुछ कर दिखाने के लिए बेचैन थे। उन्होंने अपने ऊपर तैनात तीसरी रेजीमेण्ट के पहरेदारों को अपनी ओर मिला लिया और जेल से भाग गए। शेर पिंजड़े से भाग चुका था और अंग्रेज सरकार हाथ मलती रह गई।

जेल से भागकर वीर नारायण सिंह अपने गाँव सोनाखान पहुँचे और ब्रितानियों के विरूद्ध युद्ध की तैयारियाँ प्रारम्भ कर दीं। सर्वप्रथम उन्होंने अपने गाँव में आने-जाने वाले रास्तों पर अवरोध खड़े कर दिए और वहाँ शस्त्रों से सुसज्जित एक विशाल सेना तैयार कर ब्रितानियों के विरूद्ध संघर्ष करने हेतु तैयार हो गए। इसके अतिरिक्त उन्होंने आसपास के जमींदारों को भी साथ देने के लिए निमन्त्रण भेज दिए। रायपुर के कमिश्नर मि. इलियट ने लेफ्टिनेंट स्मिथ को आदेश दिया कि वह नारायण सिंह पर आक्रमण करके उन्हें बन्दी बना ले। स्मिथ ने एक विशाल सेना के साथ सोनाखान की ओर प्रस्थान किया। कुछ गद्दार जमींदार भी अपनी सेनाएँ लेकर स्मिथ के साथ हो लिए।

लेफ्टिनेंट स्मिथ ने अपनी सेना के साथ नवंबर, 1857 ई. को रायपुर के लिए प्रस्थान किया। नारायण सिंह के एक गुप्तचर ने स्मिथ की सेना को भटका दिया, जिससे वह ग़लत स्थान पर पहुँचा। अगले दिन स्मिथ को मालूम हुआ कि नारायण सिंह ने अपने गाँव के रास्ते में एक ऊँची दीवार बनाकर मार्ग को अवरुद्ध किया है और वह अँग्रेज़ों से संघर्ष हेतु पूर्ण रूप से तैयार है।

स्थिम ने करोंदी गाँव में अपना पड़ाव डालकर अपनी शक्ति में वृद्धि करके अचानक आक्रमण करने का निश्चय किया। उसने कटंगी, बड़गाँव एवं बिलाईगढ़ के जमींदारों को सेना सहित अपनी सहायता के लिए बुलाया। उसने नारायण सिंह के गाँव सोनाखान की ओर जाने वाले सारे रास्ते बंद कर दिए, ताकि वहाँ के लोगों को रसद एवं अन्य सामग्री प्राप्त न हो सके। स्मिथ के बिलासपुर से भी सहायता सेना की प्रार्थना की, परंतु उसे वहाँ से कोई सहायता प्राप्त नहीं हो सकी। इस पर रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने उसके पास अतिरिक्त सेना भेज दी। इसी समय कटंगी, बड़गाँव तथा बिलाईगढ़ के जमींदार भी अपनी सेनाओं को लेकर स्मिथ की सहायता के लिए पहुँच गए।

लेफ्टिनेंट स्मिथ ने सेना के साथ नीमतल्ला से देवरी के लिए प्रस्थान किया और अपने सहायकों को नाकाबंदी करने का आदेश दिया। नारायण सिंह के एक दूसरे गुप्तचर ने स्मिथ को मार्ग से भटका कर ग़लत स्थान पर पहुँचा दिया। बड़ी मुश्किल से वह 30 नवंबर को देवरी पहुँचा। सोनाखान से देवरी की दूरी 10 मील थी। देवरी के जमींदार रिश्ते में नारायण सिंह के काका थे, परंतु पारिवारिक वैमनस्यता के कारण वह स्मिथ की मदद करने के लिए तैयार हो गया।

स्मिथ ने देवरी के जमींदार के निर्देश में अपनी सेना को आगे बढ़ाया और वह सोनाखान से तीन मील दूरी तक पहुँच गई। जिधर अवरोध अधूरा रह गया था, उस रास्ते वह गद्दार जमींदार सेना को लेकर गया।

इधर वीर नारायण सिंह और स्मिथ सेनाओं के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया और वीर नारायण सिंह ने अपने गाँव सोनाखान को खाली कर दिया और कुछ चुने हुए योद्धाओं को लेकर पहाड़ पर जा पहुँचा और वहाँ तगड़ी मोर्चाबंदी कर ली। उन्होंने अपने पुत्र तथा परिवार के अन्य लोगों को सोनाखान से बाहर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया।

अगले दिन स्मिथ सोनाखान गाँव पहुँचा, जो खाली हो चुका था। उसने पूरे गाँव में आग लगवा दी। रात को पहाड़ से स्मिथ की सेना पर गोलियों की बौछार शुरू हो गई। विवश होकर जान बचाने के लिए स्मिथ को पीछे हटना पड़ा।

प्रथम युद्ध में नारायण सिंह ने स्मिथ को सेना सहित पीछे हटने के लिए विवश कर दिया। अब स्मिथ ने और सेना एकत्रित करके पूरे पहाड़ को चारों ओर से घेर लिया। पहाड़ पर रसद सामग्री नहीं पहुँच सकती थी। देवरी का जमींदार (नारायण सिंह का काका) स्मिथ को सारी गुप्त सूचनाएँ दे रहा था। नारायण सिंह ने निरपराध लोगों की बलि देने स्थान पर स्वयं के प्राण देकर अपने साथियों की प्राण रक्षा करने का निश्चय किया। 5 दिसंबर, 1857 ई. को नारायण सिंह ने रायपुर पहुँच कर वहाँ के डिप्टी कमिश्नर मि. इलियट के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। उस देशभक्त के लिए अँग्रेज़ों के पास एक ही पुरस्कार था और वह था-फाँसी का फँदा।

वीर नारायण सिंह 10 दिसंबर, 1857 ईं. को चौराहे पर खुलेआम लोगों के सामने फाँसी पर लटका दिया गया। रायपुर के उस चौराहे पर खड़ा हुआ जय स्तंभ आज भी इस बलिदानी की वीरता एवं देशभक्ति की गाथा को ताजा कर देता है।


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