1857 की क्रान्ति-देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

Devi Singh , sarju Prasad Singh

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह
जबलपुर के उत्तर में उस समय एक जागीर थी, जिसका नाम विजयराघवगढ था। पहले विजयराघवगढ और मैहर एक ही शासक के अधीन थे। जब जागीर का बँटवारा दो भाइयों में हुआ तो एक को मैहर और दूसरे को विजयराघवगढ मिला। विजयराघवगढ के जागीरदार की मृत्यु हो जाने पर कंपनी सरकार ने रियासत को प्रतिपाल्य अधिनियम (कोर्ट ऑफ वार्डस) के अंतर्गत लेकर वहाँ कंपनी सरकार का एक तहसीलदार नियुक्त कर दिया। यह व्यवस्था इसलिए की गई, क्योंकि रियासत के उत्तराधिकारी सरजू प्रसाद सिंह की अवस्था उस समय केवल पाँच वर्ष की थी।

सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय बालक सरजू प्रसाद सिंह सत्रह वर्ष के तरुण हो चुके थे। वह क्रांतिकारी स्वभाव के किशोर थे और ब्रितानियों से उन्हें घृणा थी। अपने अध्ययन काल में उन्होंने तलवार व बंदूक चलाना अच्छी तरह सीख लिया था और उन्हें घुड़सवारी में महारत हासिल हो गई थी। उनमें नेतृत्व के गुण भी स्पष्ट रूप से दिखाई देते थे।

तरुण सरजू प्रसाद सिंह ने आस-पास के जागीरदारों को मिलाकर तीन हज़ार प्रशिक्षित सैनिकों की एक सेना खड़ी कर ली। विद्रोह के पथ पर जो पहला काम उन्होंने किया, वह यह था कि कंपनी सरकार द्वारा नियुक्त तहसीलदार को मारकर उन्होंने रियासत का प्रशासन प्रबल रूप से अपने हाथ में ले लिया। दूसरा काम जो उन्होंने किया, वह यह था कि कंपनी सरकार की घुड़सवार सेना पर अधिकार करने सवारों को मारकर भगा दिया और उनके स्थान पर अपने घुड़सवार नियुक्त कर दिए ।

सरजूप्रसाद सिंह की संगठित सेना को खतरा यह था कि मिर्जापुर मार्ग से आकर ब्रितानी सेना उन पर आक्रमण कर सकती थी। उन्होंने मिर्जापुर सड़क पर अपना अधिकार करके इस खतरे को भी दूर कर दिया ।

ब्रितानी सेना के कैप्टन ऊले के नेतृत्व में 30 अक्टुबर 1857 को एक सेना ठाकुर सरतबप्रसाद सिंह से मुकाबला करने के लिए भेजी गई। उस सेना की सहायता के लिए 4 नवंबर को मेजर सुलीवान के नेतृत्व में भी एक सेना भेजी गई। सरजूप्रसाद सिंह की सेना ने उन दोनों ब्रितानी सेनाओं को छिन्न-भिन्न करके उनके हथियार लूट लिये। इस संयुक्त सेना को तहस-नहस करने के पश्चात सरजूप्रसाद सिंह की सेना ने 6 नवंबर को मुरवाड़ा के समीप एक ब्रितानी सेना पर आक्रमण कर दिया। घायल होकर सेनापति टोटलहम भाग निकला ।

अपनी इन निरंतर पराजयों से खिन्न होकर ब्रितानियों ने एक विशाल सेना 14 नवंबर को जबलपुर से भेजी। इस सेना के मेजर जॉनकिंग के मारे जाने के कारण सेना स्वयं ही भाग ख़डी हुई। इसके पश्चात एक और विशाल सेना जबलपुर से ही कैप्टेन ऊले के नेतृत्व में विद्रोहियों का दमन करने के लिए भेजी गई। इस सेना का सामना सरजूप्रसाद सिंह के सहयोगी ठाकुर देवी सिंह ने किया। वे पराजित होकर गिरफ्तार हो गए। ब्रितानियों ने अपनी सहायता के लिए रीव नरेश की सेना बुलवाई। बड़ी मुश्किल से रीवा और कंपनी सरकार की संयुक्त सेना विद्रोह का दमन कर सकी। सरजूप्रसाद सिंह को कई वर्ष बाद ब्रितानी सेना गिरफ्तार कर सकी।

ठाकुर देवी सिंह को फाँसी का दंड दिया गया और सरजूप्रसाद सिंह को आजीवन कारावास। उन विद्रोही तरूण सरजूप्रसाद सिंह ने जीवन-भर जेल की कोठरियों में सड़ने के स्थान पर जीवन-मुक्ति का उपाय अपनाया। एक दिन उन्होंने पेट में कटार मारकर आत्मबलिदान का पथ अपना लिया।




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