1857 की क्रान्ति-अमरचंद बांठिया

Amarchand Banthiya

अमरचंद बांठिया

ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष अमर शहीद अमरचंद बांठिया ऐसे देशभक्त महापुरुषों में से थे, जिन्होंने 1857 के महासमर में जूझ कर क्रांतिवीरों को संकट के समय आर्थिक सहायता देकर मुक्ति-संघर्ष के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया।

अमरचंद बांठिया में धर्मनिष्ठा, दानशीलता, सेवाभावना, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता आदि गुण जन्मजात ही थे, यही कारण था कि सिन्धिया राज्य के पोद्धार श्री वृद्धिचंद संचेती, जो जैन समाज के अध्यक्ष भी थे, ने अमरचंद को ग्वालियर राज्य के प्रधान राजकोष गंगाजली के कोषालय पर सदर मुनीम ( प्रधान कोषाध्यक्ष) बनवा दिया।

अमरचंद बांठिया इस खजाने के रक्षक ही नहीं ज्ञाता भी थे। सेना के अनेक अधिकारियों का आवागमन कोषालय में प्राय: होता रहता था। बांठिया जी के सरल स्वभाव और सादगी ने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। चर्चा-परिचर्चा में ब्रितानियों द्वारा भारतवासियों पर किये जा रहे अत्याचारों की भी चर्चा होती थी। एक दिन एक सेनाधिकारी ने कहा कि आपको भी भारत माँ को दासता से मुक्त कराने के लिये हथियार उठा लेना चाहिये। बांठिया जी ने कहा- भाई अपनी शारिरिक विषमताओं के कारण में हथियार तो नहीं उठा सकता पर समय आने पर ऐसा काम करूँगा, जिससे क्रांति के पुजारियों को शक्ति मिलेगी और उनके हौसले बुलन्द हो जावेंगे।

तभी 1857 की क्रांति के समय महारानी लक्ष्मीबाई उनके सेना नायक राव साहब और तांत्या टोपे आदि क्रांतिवीर ग्वालियर के रणक्षेत्र में ब्रितानियों के विरुद्ध डटे हुए थे, परन्तु लक्ष्मीबाई के सैनिकों और ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों को कई माह से वेतन नहीं मिला था, न हि राशन पानी का समुचित प्रबन्ध हो सका था। तब बांठिया जी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए क्रांतिकारियों की मदद की और ग्वालियर का राजकोष लक्ष्मीबाई के संकेत पर विद्रोहियों के हवाले कर दिया।

ग्वालियर राज्य में सम्बन्धित 1857 के महत्वपूर्ण दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, राजकीय अभिलेखागार, भोपाल आदि में उपलब्ध है। डा. जगदीश प्रसाद शर्मा, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली के इन दस्तावेजों और अनेक सरकारी रिकॉर्डों के आधार पर विस्तृत विवरण अमर शहीद अमरचंद बांठिया पुस्तक में प्रकाशित किया है, जिसके अनुसार- 1857 में क्रांतिकारी सेना जो ब्रितानी सत्ता को देश से उखाड़ फ़ेंकने हेतु कटिबद्ध होकर ग्वालियर पहुंची थी, राशन पानी के अभाव में उसकी स्थिति बडी ही दयनीय हो रही थी। सेनाओं को महीनों से वेतन प्राप्त नहीं हुआ था। 2 जून 1858 को राव साहब ने अमरचंद बांठिया को कहा कि उन्हें सैनिकों का वेतन आदि भुगतान करना है, क्या वे इसमें सहयोग करेंगे अथवा नहीं ? तत्कालीन परिस्थितियों में राजकीय कोषाग़ार के अध्यक्ष अमरचंद बांठिया का निर्णय एक महत्वपूर्ण निर्णय था, उन्होंने वीरांगना लक्ष्मीबाई की क्रांतिकारी सेनाओं के सहायतार्थ एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया जिसका सीधा सा अर्थ उनके अपने जीवन की आहुति से था। अमरचंद बांठिया ने राव साहब के साथ स्वेच्छापूर्वक सहयोग किया तथा राव साहब प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ग्वालियर के राजकीय कोषागार से समूची धन राशि प्राप्त करने में सफ़ल हो सके। सेंट्रल इंडिया एजेंसी ऑफिस में ग्वालियर रेजीडेंसी की एक फ़ाइल में उपलब्ध विवरण के अनुसार- 5 जून 1858 के दिन राव साहब राजमहल गये तथा अमरचंद बांठिया से गंगाजली कोष की चाबियाँँ लेकर उसका दृश्यावलोकन किया। तत्पश्चात दूसरे दिन जब राव साहब बडे़ सवेरे ही राजमहल पहुंचे तो अमरचंद उनकी अगवानी के लिये मौजूद थे। गंगाजली कोष से धनराशि लेकर क्रांतिकारी सैनिकों को 5-5 माह का वेतन वितरित किया गया।

महारानी बैजाबाई की सेनाओं के सन्दर्भ में भी ऐसा ही एक विवरण मिलता है। जब नरबर की बैजाबाई की फ़ौज संकट की स्थिति में थी, तब उनके फ़ौजी भी ग्वालियर आकर अपने अपने घोडे तथा 5 महीने की पगार लेकर लौट गये। इस प्रकार बांठिया जी के सहयोग से संकट-ग्रस्त फ़ौजों ने राहत की सांस ली। अमरचंद बांठिया से प्राप्त धनराशि से बाकी सैनिकों को भी उनका वेतन दे दिया गया। हिस्ट्री ऑफ दी इंडियन म्यूटिनी, भाग दो के अनुसार भी अमरचंद बांठिया के कारण ही क्रांतिकारी नेता अपनी सेनाओं को पगार तथा ग्रेच्युटी के भुगतान के रुप में पुरस्कृत कर सके थे।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 1857 की क्रांति के समय यदि अमरचंद बांठिया ने क्रांतिवीरों की इस प्रकार आर्थिक सहायता न की होती तो उन वीरों के सामने कैसी स्थिति होती, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। क्रांतिकारी सेनाओं को काफ़ी समय से वेतन नहीं मिला था, उनके राशन पानी की भी व्यवस्था नहीं हो रही थी। इस कारण निश्चय ही क्रांतिकारियों के संघर्ष में क्षमता,साहस और उत्साह की कमी आती और लक्ष्मी बाई, राव साहब व तांत्या टोपे को संघर्ष जारी रखना कठिन पड जाता। यद्यपि बांठिया जी के साहसिक निर्णय के पीछे उनकी अदम्य देश भक्ति कि भावना छिपी हुई थी, परन्तु अंग्रेजी शब्दकोष में तो इसका अर्थ था देशद्रोह या राजद्रोह और उसका प्रतिफ़ल था सजा ए मौत।

अमरचंद बांठिया से प्राप्त इस सहायता से क्रांतिकारियों के हौसले बुलंद हो गये और उन्होंने ब्रितानियों की सेनाओं के दांत खट्टे कर दिये और ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। बौखलाये हुए ह्यूरोज ने चारों ओर से ग्वालियर पर आक्रमण की योजना बनाई।

योजनानुसार ह्यूरोज ने 16 जून को मोरार छावनी पर पुरी शक्ति से आक्रमण किया। 17 जून को ब्रिगेडियर स्मिथ से राव साहब व तांत्या टोपे का कड़ा मुकाबला हुआ। लक्ष्मीबाई इस समय आगरा की तरफ़ से आये सैनिकों से मोर्चा ले रही थी। दूसरे दिन स्मिथ ने पूरी तैयारी से फ़िर आक्रमण किया। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी दो सहायक सहेलियों के साथ पुरुषों की वेश-भूषा की कमान संभाली। युद्ध निर्णायक हुआ, जिसमें रानी को संगीन गोली एवं तलवार से घाव लगे तथा उनकी सहेली की भी गोली से मृत्यु हो गयी। यद्यपि आक्रमणकर्ताओं को भी रानी के द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। किन्तु घावों से वे मुर्छित हो गई। साथियों द्वार उन्हें पास ही बाबा गंगादास के बगीचे में ले जाया गया, जहां वे वीरगति को प्राप्त हुई। शीघ्र ही उनका तथा सहेली का दाह संस्कार कर दिया गया।

लक्ष्मीबाई के इस गौरवमय ऐतिहासिक बलिदान के चार दिन बाद ही 22 जून 1858 को ग्वालियर में ही राजद्रोह के अपराध में न्याय का ढोंग रचकर लश्कर के भीड़ भरे सर्राफ़ा बाजार में ब्रिगेड़ियर नैपियर द्वारा नीम के पेड से लटकाकर अमरचंद बांठिया को फ़ांसी दे दी गई।

बांठिया जी की फाँसी का विवरण ग्वालियर राज्य के हिस्टोरिकल रिकार्ड में उपलब्ध दस्तावेज के आधार पर इस प्रकार है- जिन लोगों को कठोर दंड दिया गया उनमें से एक था सिन्धिया का खजांची अमरचंद बांठिया, जिसने विद्रोहियों को खजाना सौंप दिया था। बांठिया जी को सर्राफ़ा बाजार में नीम के पेड़ से टांगकर फ़ांसी दी गई और एक कठोर चेतावनी के रुप में उसका शरीर बहुत दिनों (3 दिन) तक वहीं लटकाये रखा गया।

इस प्रकार इस जैन शहीद ने आजादी की मशाल जलाये रखने के लिए कुर्बानी दी, जिसका प्रतिफ़ल हम आजादी के रुप में भोग रहे हैं। ग्वालियर के सर्राफ़ा बाजार में वह नीम आज भी है। इसी नीम के नीचे अमरचंद बांठिया का एक स्टेच्यू हाल ही में स्थापित किया गया है।


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