1857 की क्रान्ति-मौलवी अहमद शाह

Maulavi Ahmad Shah

मौलवी अहमद शाह

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ज्वाज्वल्यमान नक्षत्रों में से एक मौलवी अहमदशाह भी थे। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी यह राष्ट्र-पुरूष कुशल संगठक, ओजस्वी वक्ता, क्रांतिकारी लेखक और छापामार युद्ध-कला के कुशल योद्धा थे। अंग्रेज उनसे ऐसा थर्राते थे, कि उनकी सूचना देने वाले व्यक्ति को पचास हजार रूपयों (आज के हिसाब से दो करोड़ रू.) का पुरस्कार देने की घोषणा की गई थी।

ऐसे तेजस्वी और देश-प्रेम से ओतप्रोत मौलवी अहमदशाह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के ताल्लुकेदार थे। नाना साहब का गुप्त संदेश मिलते ही उन्होंने पूरे अवध में जन-जागरण शुरू कर दिया। लखनऊ में दस-दस हजार लोगों की सभा में उन्होंने सिंह गर्जना कर दी कि, " यदि तुम स्वदेश और स्वधर्म का मंगल चाहते हो तो उसके लिये फिरंगियों को तलवार की धार उतारा देना ही एक-मात्र धर्म है। " आगरा में उन्होंने एक मजबूत संगठन बना दिया था। पूरे भारत में स्वातंत्र्य-देवी की उपासना का मंत्र फूँक रहे थे। जहाँ भी यह राष्ट्रीय संत पहुँचे, वहीं लोगों ने क्रांति-यज्ञ में सम्मिलित होने का निर्णय ले लिया। फलस्वरूप अंग्रेजों ने उनकी ताल्लुकेदारी छील ली और बन्दी बनाकर उन्हें प्राण दण्ड का आदेश भी कर दिया। किन्तु ऐसे तपोनिधि को फाँसी पर लटका देना क्या अंग्रेजों के लिये आसान था ?

मौलवी की मुक्ति - मेरठ में 10 मई को क्रांति का विस्फोट हो जाने के बाद भी लखनऊ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार 31 मई तक शांत रहा। 31 मई को लखनऊ में सैनिक छावनी के भारतीय सैनिकों ने स्वतंत्रता की पताका फहरा दी। उसके बाद सीतापुर फर्रूखाबाद, बहराइच, गोण्डा, बलरामपुर आदि स्थानों से भी अंग्रेजी शासन समाप्त कर दिया गया। फैजाबाद में मौलवी अहमदशाह अंग्रेजों के बन्दी थे अतः वहाँ तो पहले ही से जनता में जबरदस्त आक्रोश था। 5 जून को फैजाबाद में तैनात 15 वीं पलटन के जवानों और नागरिकों ने हर-हर महादेव का नारा लगते हुए सूबेदार दिलीप सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों को यमलोक भेज कर मौलवी अहमदशाह को कारागार से छुड़ा लिया। इसी के साथ 10 जून तक लगभग पूरा अवध स्वतंत्रता की खुली हवा का आनन्द लेने लगा। अवध के केन्द्र लखनऊ में भी अंग्रेज सत्ता तो समाप्त हो चुकी थी, किन्तु वहाँ के कमिश्नर हेनरी लारेंस ने एक हजार गोरे, 800 भारतीय सिपाहियों और कुछ तोपों के साथ लखनऊ की रेजीडेंसी में मोर्चा जमा लिया था। इस तरह पूरे अवध में अंग्रेज सत्ता उस रेजीडेंसी तक सिमट कर रह गई थी। नवाब वाजिदअली शाह की बेगम हजरत महल ने शासन अपने हाथ में ले लिया।

मौलवी अहमदशाह अब लखनऊ आ गये और बेगम हजरतमहल की सहायता करने लगे। इसी के साथ वे अपने आग उगलते लेखों और भाषणों से अंग्रेजी सत्ता को निर्मूल कर देने का आह्वान भी कर रहे थे। उसी का परिणाम था कि अवध का बच्चा-बच्चा शस्त्र उठाकर क्रांति के महायज्ञ में कूद पड़ा। अकेले लखनऊ में बीस हजार से अधिक लोगों ने स्वातंत्र्य समर में अपना शीश चढ़ाया था। रेजीडेंसी में मोर्चा जमाये अंग्रेजों के साथ स्वातंत्र्य सैनिकों का घमासान अब पराकाष्ठा पर था। हेनरी लारेंस की मौत हो चुकी थी। जनरल हैवलाक ने कानपुर से लखनऊ आने के लिये गंगा पार करने की धृष्टता की ही थी, कि नाना साहब ने कानपुर पर धावा बोल दिया। परिणामस्वरूप हैवलाक को लौटना पड़ा। 20 सितम्बर को हैवलॉक फिर से लखनऊ की ओर बढ़ा। इस समय नील, आउट्रम और आयर जैसे कुशल सेनापति भी उसके साथ थे। 25 सितम्बर को 1 हजार फिरंगी सैनिक और जनरल नील की बलि चढ़ने के बाद हैवलॉक रेजीडेंसी तक पहुँचने में सफल हो गया। लेकिन स्वातंत्र्य सैनिकों ने अब हैवलोक को चारों ओर से घेर लिया।

लखनऊ की पराजय- 23 नवम्बर को कोलिन केम्पवेल, आउट्रम और हडसन की संयुक्त सेनाओं ने भीषण संघर्ष के बाद रेजीडेंसी में घिरे अंग्रेजों को छुड़ा लिया, फिर भी हैवलाक की तो स्वातंत्र्य सैनिक के हाथों मुक्ति हो ही गई। लखनऊ के आलम बाग में जमी फिरंगी सेना अब क्रांतिकारियों पर जबरदस्त हमले की तैयार करने लगी। परिस्थिति निराशाजनक थी, किन्तु मौलवी अहमदशाह निरंतर लोगों में आशा का संचार कर रहे थे। अब युद्ध का मोर्चा खुद उन्होंने सम्भाला। 22 दिसम्बर को उन्होंने आलम-बाग में जमी अंग्रेज सेना पर हमला किया। युद्ध में वे घायल हुए तथा उन्हें पीछे हटना पडा। अब बेगम हजरतमहल ने रणक्षेत्र में तलवार उठाई, किन्तु अंग्रेजों की सहायता के लिये नई सेना आ गई इसलिए उनको भी पीछे हटना पड़ा। आखिर 14 मार्च 58 को जनरल कॉलिन ने तीस हजार सैनिकों के साथ गोमती को पार कर उत्तर की ओर से लखनऊ पर आक्रमण किया और इसे जीतने में सफलता पाई। बेगम हजरत महल तथा मौलवी अहमदशाह अंग्रेजों का घेरा तोड़ कर बच निकले।

मौलवी साहब ने अब अंग्रेजों के खिलाफ छापामार युद्ध करने का निर्णय लिया। उन्होंने लखनऊ से 45 कि.मी. दूर बारी में पड़ाव डाल दिया। बेगम छह हजार सैनिकों के साथ बोतौली में आ गई। अंग्रेज सेनापति होप ग्रांट उनके पीछे लगा हुआ था। इस समय अंग्रेजों की सेना लगभग 1 लाख सैनिकों की हो गई थी। रूईयागढ में होप ग्रांट को भी नरपतिसिंह ने सद्गति दे दी। अंग्रेजों का घेरा कसते देख अब मौलवी बरेली की ओर चल पड़े।

अहमदशाह का रणरंग - बरेली रूहेलखण्ड की राजधानी थी। अंग्रेजों ने षड्यंत्रपूर्वक सन्-1801 में अवध के नवाब से इसे छीन लिया था। पूरे रूहेलखण्ड में स्वातंत्र्य समर के लिये गुप्त संगठन खान बहादुरखान ने खड़ा किया था। 1857 के इतिहास में इस वीर पुरूष का नाम भी स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिये। 31 मई 57 को बरेली और पूरा रूहेलखंड स्वतंत्र हो गया। सेनानायक बख्त खाँ को एक बड़ी सेना के साथ दिल्ली भेज कर खान बहादुर ने रूहेलखण्ड में बादशाह के नाम पर प्रशासन चलाना शुरू कर दिया।

4 मई, 1858 को मौलवी साहब तथा बेगम हजरत महल के साथ-साथ श्रीमंत नाना सहाब पेशवा और दिल्ली के शहजादे फिरोजशाह भी बरेली पहुँच गये। खान बहादुर के साथ सभी ने यहाँ आगे के संघर्ष की रणनीति तय की। पीछे-पीछे अंग्रेज सेनापति केम्पबेल भी दौड़ा चला आ रहा था। यहाँ मौलवी अहमदशाह ने वृक-युद्ध कला की बानगी दिखाई। 5 मई को केम्पबेल का घेरा पड़ते ही वे नाना साहब के साथ बरेली से निकल गये और शाहजहाँपुर पर धावा बोल दिया। कैम्पबेल पुन: लौटा तो मौलवी साहब बिजली की तेजी से अवध की ओर बढ़े तथा छापामार युद्ध से अंग्रेजों की नाक में दम करने लगे। पूरे क्षेत्र में वे हवा की तरह घूमते और मौका लगते ही अंग्रेजों पर अचानक हमला कर देते। हताश होकर अंग्रेजों ने उनकी सूचना देने वाले को पचास हजार रूपयों के पुरस्कार की घोषणा कर दी। पोवेन का देश द्रोही राजा जगन्नाथ इस लालच में आ गया। सहायता देने के बहाने उसने इस राष्ट्रीय संत को पोवेन बुलाया और धोखे से उन्हें पकड़ लिया। इसके बाद उस विश्वासघाती ने उनका शीश उतार कर अंग्रेजों के पास भिजवा दिया।

मौलवी अहमदशाह ने ही विश्वस्त अमीर अली ने बाब रामचरण दास को श्रीराम जन्म-भूमि सौंप दी थी। बाद में अंग्रेजों ने 18 मार्च, 58 को इन दोनों ही देशभक्तों को मृत्युदण्ड दे दिया था।


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