1857 की क्रान्ति-बाबू कुंवर सिंह

Babu Kunvar Singh

बाबू कुंवर सिंह

बिहार में स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियाँ वर्ष 1855 से ही प्रारम्भ हो गई थी। उस समय वहाबी मुसलमानों की गतिविधियों का केन्द्र बिहार ही था। नाना साहब पेशवा का संदेश मिलते ही पूरे बिहार में गुप्त बैठकों का दौर शुरू हो गया। पटना में किताबें बेचने वाले पीर अली क्रांतिकारी संगठन के मुखिया थे। सन् 57 की 10 मई को मेरठ के भारतीय सैनिकों की स्वतंत्रता का उद्घोष बिहार में भी सुनाई दिया। पटना का कमिश्नर टेलर बड़ा धूर्त था। मेरठ की क्रांति का समाचार मिलते ही उसने पटना में जासूसों का जाल बिछा दिया। दैवयोग से एक क्रांतिकारी वारिस अली अंग्रेजों की गिरफ्त में आ गये। उनके घर से कुछ और लोगों के नाम-पत्ते मिल गये। परिणाम स्वरूप अधिकांश स्वतंत्रता सैनानी पकड़ लिये गये और संगठन कमजोर पड़ गया। फिर भी पीर अली ने सबकी सलाह से 3 जुलाई को क्रांति का बिगुल बजाने का निर्णय ले लिया।

3 जुलाई को दो सौ क्रान्तिकारी शस्त्र सज्जित हो गुलामी का जुआ उतारने के लिये पटना में निकल पड़े, लेकिन अंग्रेजों ने सिख सैनिकों की सहायता से उन्हें परास्त कर दिया। पीर अली सहित कई क्रांतिकारी पकड़ गये, और तुरत-फुरत सभी को फाँसी पर लटका दिया गया। पीर अली को मृत्यदण्ड दिए जाने का समाचार दानापुर की सैनिक छावनी में पहुँचा। छावनी के भारतीय सैनिक तो तैयार ही बैठे थे। 25 जुलाई को तीन पलटनों ने स्वराज्य की घोषणा करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ शस्त्र उठा लिये। छावनी के अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर क्रातिकारी भारतीय सैनिक जगदीशपुर की ओर चल पड़े। सैनिक जानते थे कि अंग्रेजों से लड़ने के लिये कोई योग्य नेता होना जरूरी है और जगदीशपुर के 80 साल के नवयुवक यौद्धा कुँवर सिंह ही सक्षम नेतृत्व दे सकते हैं। दानापुर के सैनिकों के पहुँचते ही इस आधुनिक भीष्प ने अपनी मूंछों पर हाथ फेरा और अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए रणभूमि में खड़े हो गये।

वृक-युद्ध कला

कुँवर सिंह के नेतृत्व में अब क्रांतिकारियों ने आरा पर आक्रमण कर वहां के खजाने पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने पीठ दिखाने में ही अपनी कुशल समझी। अब स्वातंत्र्य सैनिक पास की गढ़ी की ओर बढ़े तथा उसको घेर लिया। अंग्रेजों ने कप्तान डनबार की अगुवाई में एक सेना गढ़ी की घेराबन्दी तोड़ने को भेजी। यह सेना सोन नदी पार कर आरा के नजदीक आ गई। रात्रि का समय था किन्तु चाँद की रोशनी हो रही थी। डनबार अपने जवानों के साथ आरा के वन-प्रदेश में घुस गया। वीर कुँवर सिंह ने अब अपनी वृक-युद्ध कला का परिचय दिया। वृक-युद्ध कला छापामार युद्ध का ही दूसरा नाम है। इसका अर्थ है- शत्रु को देखते ही पीछे हट कर लुप्त हो जाओ और अवसर मिलते ही असावधान शत्रु पर हमला कर दो। कुँवर सिंह और तात्या टोपे दोनों ही इस रणनीति के निष्णात थे।

कुँवर सिहं ने जासूस डनबार की पूरी-पूरी खबर उन तक पहुँचा रहे थे। जैसे ही डनबार नजदीक आया, कुँवर सिंह ने गढ़ी का घेरा उठा कर सैनिकों को जंगल में छिपा दिया। जैसे ही डनबार जंगल में घुसा, पेड़ों में छिपे भारतीय सैनिकों ने गोली-वर्षा शुरू कर दी। कप्तान डनबार पहले ही दौर में धराशायी हो गया। अंग्रेज और उनका साथ दे रहे सिक्ख सैनिक भागे तो क्रांतिकारियों ने उनका पीछे किया। अंग्रेजों की ऐसी दुर्गति हुई कि पूरी सेना में से केवल 50 सैनिक जीवित बचे। इस करारी हार से अंग्रेज तिलमिला गये। अब मेजर आयर एक बड़ी भारी सेना लेकर आरा की ओर बढ़ा। उसके पास बढ़िया तोपों भी थीं। बीबीगंज के पास हुए भीषण युद्ध में तोपों ने पासा पलट दिया। कुँवर सिंह आरा से पीछे हट कर जगदीशपुर पहुँचे। मेजर आयर भी उनके पीछे-पीछे चले आ रहे थे। अंग्रेज सेना की एक और पलटन मेजर आयर की सहायता के लिये आ गई।

दुश्मन की बढ़ी हुई शक्ति देखकर कुँवर सिंह एक रात जगदीशपुर से सत्रह सौ सैनिकों सहित निकल गये। 14 अगस्त को आयर ने किले पर कब्जा कर लिया। कुँवर सिंह अब छापामार हमले कर अंग्रेजों को परेशान करने लगे। सोन नदी के किनारे पश्चिम बिहार के वन प्रदेश में कुँवर सिंह ने अपना स्थायी डेरा जमा लिया। यहीं से टोह लगा कर वे बाहर निकलते तथा गरूड़ झपट्ट से अंग्रेजों पर हमला करते। अंग्रेज कुछ समझते उसके पहले वे फिर वन-प्रदेश में लुप्त हो जाते। उनके अनुज अमर सिंह भी उनके साथ थे। छह महीनों तक इसी प्रकार वे फिरंगियों को परेशान करते रहे। इसी के साथ वे अपना सैन्य संगठन भी मजबूत कर रहे थे। उनके गुप्तचर पूरे क्षेत्र में फैले हुए थे और स्वातंत्र्य समर के सभी समाचार उन्हें दे रहे थे।

गुप्तचरों से उन्हें सूचना मिली कि पूर्वी अवध में अंग्रेजी सेना की पकड़ कमजोर है। अब कुंवर सिंह ने आजमगढ़, बनारस और इलाहाबाद पर हमला कर जगदीशपुर का बदला लेने की योनजा बनाई। 18 मार्च 1858 को बेतवा के क्रातिकारी भी उनसे मिल गये। संयुक्त सेना ने अतरौलिया पर आक्रमण कर दिया। कप्तान मिलमन की सेना को धूल चटाते हुए कुँवर सिंह ने उसे कोसिल्ला तक खदेड़ दिया। अब उन्होंने आजमगढ़ का रूख किया। रास्ते में कर्नल डेम्स को करारी शिकस्त दे स्वातंत्र्य सैनिकों ने आजमगढ़ को घेर लिया।

दूरगामी रणनीति

अनुज अमर सिंह को आजमगढ़ की घेरेबन्दी के लिए छोड़कर अब कुँवर सिंह बिजली की गति से काशी की ओर बढ़े। रातों-रात 81 मील की दूरी तय कर क्रांतिकारियों ने वाराणसी पर आक्रमण कर दिया। लखनऊ के क्रांतिकारी भी इस समय कुँवर सिंह के साथ हो गए। लेकिन अँग्रेज़ भी चौकन्ने थे। बनारस के बाहर लार्ड मार्ककर मोर्चेबन्दी किए हुए था, उसके पास तोपें भी थीं। भीषण युद्ध होने लगा। यहाँ कुँवर सिंह ने फिर वृक-युद्ध कला की चतुराई दिखाई। देखते-देखते क्रांतिकारी सैन्य युद्ध भूमि से लुप्त हो गया। वास्तव में कुँवर सिंह ने बड़ी दूरगामी रणनीति बनाई थी। वे शत्रु-सेना को अलग-अलग स्थानों पर उलझा कर जगदीशपुर की ओर बढ़ना चाहते थे। मार्ककर भी इस भुलावे में आ गया और आजमगढ़ की ओर चल पड़ा। उधर जनरल लुगार्ड भी आजमगढ़ को मुक्त कराने के लिए तानू नदी की ओर बढ़ रहा था। अँग्रेज़ इस भ्रम में थे कि कुँवर सिंह आजमगढ़ को जीतने के लिए पूरी ताक़त लगायेंगे। इस भ्रम को पक्का करने के लिए कुँवर सिंह ने तानू नदी के पुल पर अपनी एक टुकड़ी को भी तैनात कर दिया।

इस टुक़ड़ी ने अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए कई घंटों तक जनरल लुगार्ड को रोके रखा। इस बीच कुँवर सिंह गाजीपुर की ओर बढ़ गए। काफ़ी संघर्ष के बाद लुगार्ड ने पुल पार किया तो उसे एक भी स्वातंत्र्य सैनिक दिखाई नहीं दिया। सैनिक टुकड़ी अपना कर्तव्य पूरा कर आगे के मोर्चें पर जा डटी। हतप्रभ से लुगार्ड को कुछ समझ में नहीं आया। तभी उसे गुप्तचरों से सूचना मिली कि कुँवर सिंह तो गाजीपुर की ओर जा रहा था। लुगार्ड भी द्वुत-गति से पीछा करने लगा। कुँवर सिंह तो तैयार बैठे थे, मौका देख कर उन्होंने अचानक अँग्रेज़ों पर आक्रमण कर दिया। लुगार्ड की करारी शिकस्त हुई और वह पीठ दिखाकर भागने लगा। अब अँग्रेज़ सेनापतियों की समझ में आया कि कुँवर सिंह का लक्ष्य जगदीशपुर है तथा इसके लिए वह गंगा को पार करने की जगुत कर रहे हैं। कुँवर सिंह से युद्ध में पिटे मार्ककर और लुगार्ड के स्थान पर अब डगलस ने कुँवर सिंह को घेरने का मंसूबा बाँधा।

मात पर मात

80 वर्ष के यौद्धा कुँवर सिंह लगातार नौ महीनों से युद्ध के मैदान में थे। अब वे गंगा पार कर अपनी जन्म-भूमि जगदीशपुर जाने की तैयार कर रहे थे। डगलस भी घोड़े दौड़ाता हुआ उनका पीछा कर रहा था। यहाँ कुँवर सिंह ने युक्ति से काम लिया। उन्होंने अफ़वाह फैला दी कि वे बलियाँ के निकट हाथियों से अपनी सेना को गंगा पार करायेंगे। कुँवर सिंह की पैतरे-बाज़ियों से परेशान हो चुके अँग्रेज़ों ने फिर करारा धोखा खाया। अँग्रेज़ सेनापति डगलस वहाँ पहुँच कर प्रतीक्षा करने लगा और इधर बलियाँ से सात मील दूर शिवराजपूर में नावों पर चढ़कर कुँवर सिंह की सेना पार हो रही थी। डगलस हैरान था कि आख़िर कुँवर सिंह गंगा पार करने आ क्यों नहीं रहे। तभी उसे समाचार मिला कि कुँवर सिंह तो सात मील आगे नावों से पुण्य-सलिला गंगा को पार कर रहे हैं। वह तुरंत उधर ही दौड़ा पर जब तक डगलस शिवराजपुर पहुँचता पूरी सेना पार हो चूकी थी। अंतिम नौका पार हो रही थी जिसमें स्वयं कुँवर सिंह सवार थे। अँग्रेज़ी सेना ने उन पर गोली बरसाना प्रारंभ कर दिया। एक गोली कुँवर सिंह के बाएँ हाथ में लगी। ज़हर फैलने की आशंका को देख कुँवर सिंह ने स्वयं अपनी तलवार से कोहनी के पास से हाथ काटकर गंगा को अर्पित कर दिया। 23 अप्रैल को विजय श्री के साथ कुँवर सिंह ने जगदीशपूर के राजप्रासाद में प्रवेश किया। लेकिन गोली का विष पूरे शरीर में फैल ही गया और 3 दिन बाद ही 26 अप्रैल को उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर दिया। गौरवशाली मृत्यु का वरण कर स्वतंत्रता संघर्ष में कुँवर सिंह अजर-अमरहोगए।


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