Opniveshik Shashan Ka Arth औपनिवेशिक शासन का अर्थ

औपनिवेशिक शासन का अर्थ



Pradeep Chawla on 04-09-2018


उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया था। उसके वर्णन के अनुसार ये पहाड़ियाँ अभेद्य लगती थीं। यह एक ऐसा ख्त़ारनाक इलाका था जहाँ बहुत कम यात्री जाने की हिम्मत करते थे। बुकानन जहाँ कहीं भी गया, वहाँ उसने निवासियों के व्यवहार को शत्रुतापूर्ण पाया। वे लोग कंपनी के अधिकारियों के प्रति आशंकित थे और उनसे बातचीत करने को तैयार नहीं थे। कई उदाहरणों में तो वे अपने घर-बार और गाँव छोड़कर भाग गए थे। ये पहाड़ी लोग कौन थे? वे बुकानन के दौरे के प्रति इतने आशांकित क्यों थे? बुकानन की पत्रिका में हमें उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में इन लोगों की जो तरस खाने वाली हालत थी उसकी झलक मिलती है। उन स्थानों के बारे में उसने डायरी लिखी थी, जहाँ-जहाँ उसने भ्रमण किया था, लोगों से मुलाकात की थी और उनके रीति-रिवाजों को देखा था।


यह पत्रिका हमारे मस्तिष्क में अनेक प्रश्न खड़े करती है। किन्तु यह हमेशा हमें उत्तर देने में सहायक नहीं होती है। उसकी यह डायरी समय के केवल एक क्षण-विशेष के बारे में ही बतलाती है, लोगों तथा स्थानों के लंबे इतिहास के बारे में नहीं बतलाती। ऐसे लंबे इतिहास के लिए इतिहासकारों को अन्य रिकार्ड की ओर मुड़ना होगा। यदि हम अठारहवीं शताब्दी के परवर्ती दशकों के राजस्व अभिलेखों पर दृष्टिपात करें तो हम जान लेंगे कि इन पहाड़ी लोगों को पहाड़िया क्यों कहा जाता था। वे राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहा करते थे। वे जंगल की उपज से अपनी गुजर-बसर करते थे और झूम खेती किया करते थे। वे जंगल के छोटे-से हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास-फ़ूँस को जलाकर जमीन साफ कर लेते थे आरै राख की पोटाश से उपजाई… बनी जमीन पर ये पहाड़िया लोग अपने खाने के लिए तरह-तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगा लेते थे। वे अपने कुदाल से जमीन को थोड़ा खुरच लेते थे कुछ वर्षो तक उस साफ की गई जमीन मे खती करते थे आरै फ़िर उसे कुछ वर्षो के लिए परती छोड़ कर नए इला्के मे चले जाते थे जिससे कि उस जमीन में खोई हुई उर्वरता फ़िर से उत्पन्न हो जाती थी।


उन जंगलों से पहाड़िया लोग खाने के लिए महुआ के फ़ूल इकट्ठा करते थे, बेचने के लिए रेशम के कोया और राल और काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे। पेड़ों के नीचे जो छोटे-छोटे पौधो उग आते थे या परती जमीन पर जो घास-फ़ूस की हरी चादर-सी बिछ जाती थी वह पशुओं के लिए चरागाह बन जाती थी। शिकारियों, झूम खेती करने वालों, खाद्य बटोरने वालों, काठकोयला बनाने वालों, रेशम के कीड़े पालने वालों के रूप में पहाड़िया लोगों की ज़िंदगी इस प्रकार जंगल से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई थी। वे इमली के पेड़ों के बीच बनी अपनी झोपड़ियों में रहते थे और आम के पेड़ों की छाँह में आराम करते थे। वे पूरे प्रदेश को अपनी निजी भूमि मानते थे और यह भूमि उनकी पहचान और जीवन का आधार थी। वे बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया लोग अपने समूह में एकता बनाए रखते थे, आपसी लड़ाई-झगड़े निपटा देते थे और अन्य जनजातियों तथा मैदानी लोगों के साथ लड़ाई छिड़ने पर अपनी जनजाति का नेतृत्व करते थे।




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