Mahatma Gandhi Ki Atmkatha महात्मा गांधी की आत्मकथा

महात्मा गांधी की आत्मकथा



Pradeep Chawla on 12-05-2019

मोहनदास करमचन्द गांधी (2 अक्टूबर 1869 - 30 जनवरी 1948) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी

दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति

आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था।। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।



सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका

में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु

सत्याग्रह करना शुरू किया। 1915 में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद

उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और

भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने,

महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व

आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।



गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे।









अनुक्रम



  • 1प्रारम्भिक जीवन

    • 1.1कम आयु में विवाह
    • 1.2विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत


  • 2दक्षिण अफ्रीका (1893-1914) में नागरिक अधिकारों के आन्दोलन
  • 31906 के ज़ुलु युद्ध में भूमिका
  • 4भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष (1916 -1945)

    • 4.1चंपारण और खेड़ा
    • 4.2असहयोग आन्दोलन
    • 4.3स्वराज और नमक सत्याग्रह (नमक मार्च)
    • 4.4हरिजन आंदोलन और निश्चय दिवस
    • 4.5द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन
    • 4.6स्वतंत्रता और भारत का विभाजन


  • 5हत्या
  • 6गांधी के सिद्धांत

    • 6.1सत्य
    • 6.2अहिंसा
    • 6.3शाकाहारी रवैया
    • 6.4ब्रह्मचर्य
    • 6.5सादगी
    • 6.6विश्वास


  • 7लेखन कार्य एवं प्रकाशन

    • 7.1पत्रिकाएँ
    • 7.2प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें

      • 7.2.1हिंद स्वराज
      • 7.2.2दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
      • 7.2.3सत्य के प्रयोग (आत्मकथा)
      • 7.2.4गीता माता
      • 7.2.5सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
      • 7.2.6अन्य


    • 7.3गाँधी पर पुस्तकें
    • 7.4कथित समलैंगिक प्रेम संबंध


  • 8गांधी और कालेनबाख
  • 9अनुयायियों और प्रभाव
  • 10पैतृक सम्पति
  • 11आदर्श और आलोचनाएँ

    • 11.1विभाजन की संकल्पना
    • 11.2हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति
    • 11.3दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक लेख
    • 11.4राज्य विरोधी


  • 12गांधी जी की आलोचना
  • 13इन्हें भी देखें

    • 13.1आगे के अध्ययन के लिए


  • 14सन्दर्भ
  • 15बाहरी कड़ियाँ






प्रारम्भिक जीवन









सन् 1876 में खींचा गया गान्धी के बचपन का चित्र जब उनकी आयु 7 वर्ष की रही होगी














पिनाकिनी सत्याग्रह आश्रम, गांधी जी






मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर सन् 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है। उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य

समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन

पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस

क्षेत्र की जैन

परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे

जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों

में शामिल थे दुर्बलों में जोश की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता।



कम आयु में विवाह









गांधीजी-कस्तूरबा ,पोरबंदर ,गुजरात ,भारत में














गांधीजी बच्चों के साथ






मई 1883 में साढे 13 साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा माखनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह

था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। लेकिन उस क्षेत्र में यही रीति

थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय

तक रहना पड़ता था। 1885 में जब गान्धी जी 15 वर्ष के थे तब इनकी पहली

सन्तान ने जन्म लिया। लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी साल उनके

पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे। मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं जो

सभी पुत्र थे। हरीलाल गान्धी 1888 में, मणिलाल गान्धी 1892 में, रामदास

गान्धी 1897 में और देवदास गांधी 1900 में जन्मे। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया। दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर वह एक औसत छात्र रहे। मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ परेशानी के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था।



विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत









गान्धी व उनकी पत्नी कस्तूरबा (1902 का फोटो)






अपने 19वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पहले ही 4 सितम्बर 1888 को गांधी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड

चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस,

शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को दिए

गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी लंदन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने अंग्रेजी

रीति रिवाजों का अनुभव भी किया जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में

जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को

हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों की ओर इशारा किया। अपनी

माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढा था उसे सीधे अपनाने की

बजाय उन्होंने बौद्धिकता से शाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंने शाकाहारी समाज

की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया

जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ

गठित करने में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन

शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछ थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना 1875 में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था।



उन्हों लोगों ने गांधी जी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों .के बारे में पढ़ने से पहले गांधी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखायी। इंग्लैंड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु बम्बई

में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल

शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये

जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये

राजकोट को ही अपना स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की

मूर्खता के कारण उन्हें यह कारोबार भी छोड़ना पड़ा। अपनी आत्मकथा

में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल

कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिस वजह से उन्होंने सन् 1893

में एक भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में, जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कारोवार स्वीकार कर लिया।



दक्षिण अफ्रीका (1893-1914) में नागरिक अधिकारों के आन्दोलन









गांधी दक्षिण अफ्रीका में (1895)






दक्षिण अफ्रीका

में गान्धी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें

प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने

से इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं

पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की

मार भी झेलनी पड़ी। उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का

सामना किया। अफ्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी

तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश

ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये

सारी घटनाएँ गान्धी के जीवन में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक

अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या

करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय

को देखते हुए गान्धी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों

के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये।



1906 के ज़ुलु युद्ध में भूमिका

1906 में, ज़ुलु (Zulu) दक्षिण अफ्रीका में नए चुनाव कर के लागू करने के बाद दो अंग्रेज

अधिकारियों को मार डाला गया। बदले में अंग्रेजों ने जूलू के खिलाफ युद्ध

छेड़ दिया। गांधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों

को सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनका तर्क था अपनी नागरिकता के दावों को

कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना

चाहिए। तथापि, अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से इंकार कर

दिया था। इसके बावजूद उन्होने गांधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि

भारतीय घायल अंग्रेज सैनिकों को उपचार के लिए स्टेचर पर लाने के लिए

स्वैच्छा पूर्वक कार्य कर सकते हैं। इस कोर की बागडोर गांधी ने थामी।21

जुलाई (July 21), 1906 को गांधी जी ने भारतीय जनमत इंडियन ओपिनिय (Indian Opinion) में लिखा कि 23 भारतीय निवासियों के विरूद्ध चलाए गए आप्रेशन के संबंध में प्रयोग द्वारा नेटाल सरकार के कहने पर एक कोर का गठन किया गया है।दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों से इंडियन ओपिनियन में अपने कॉलमों के माध्‍यम से इस युद्ध में शामिल होने के लिए आग्रह किया और कहा, यदि

सरकार केवल यही महसूस करती हे कि आरक्षित बल बेकार हो रहे हैं तब वे इसका

उपयोग करेंगे और असली लड़ाई के लिए भारतीयों का प्रशिक्षण देकर इसका अवसर

देंगे।



गांधी की राय में, 1906 का मसौदा अध्यादेश भारतीयों की स्थिति में किसी

निवासी के नीचे वाले स्तर के समान लाने जैसा था। इसलिए उन्होंने सत्याग्रह (Satyagraha), की तर्ज पर "काफिर (Kaffir)s

" .का उदाहरण देते हुए भारतीयों से अध्यादेश का विरोध करने का आग्रह किया।

उनके शब्दों में, " यहाँ तक कि आधी जातियां और काफिर जो हमसे कम आधुनिक

हैं ने भी सरकार का विरोध किया है। पास का नियम उन पर भी लागू होता है

किंतु वे पास नहीं दिखाते हैं।



भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष (1916 -1945)

गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिए लौट आए। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

के अधिवेशनों पर अपने विचार व्य‍क्त किए, लेकिन उनके विचार भारत के मुख्य

मुद्दों, राजनीति तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले पर ही आधारित थे जो एक सम्मानित नेता थे।



चंपारण और खेड़ा









1918 में खेड़ा और चंपारन सत्याग्रह के समय 1918 में गांधी






गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि 1918 में चम्पारन सत्याग्रह और खेड़ा सत्याग्रह में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाए नील (indigo)

नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे।

जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र

भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी

तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर (unhygienic); और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा

से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए

अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। यह

स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा (Kheda), गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम (ashram)

बनाया जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को

संगठित किया गया। उन्होंने गांवों का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया

जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और

इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था को भी शामिल किया गया था।

ग्रामीणों में विश्‍वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना कार्य गांवों की सफाई

करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए और उपरोक्त

वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण नेतृत्व

प्रेरित किया।



लेकिन इसके प्रमुख प्रभाव उस समय देखने को मिले जब उन्हें अशांति फैलाने

के लिए पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें प्रांत छोड़ने के लिए आदेश दिया

गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए ओर जेल, पुलिस

स्टेशन एवं अदालतों के बाहर रैलियां निकालकर गांधी जी को बिना शर्त रिहा

करने की मांग की। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और

हड़तालों को का नेतृत्व किया जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के मार्गदर्शन में

उस क्षेत्र के गरीब किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति मंजूर करने तथा खेती पर

नियंत्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक

समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस संघर्ष के दौरान ही, गांधी जी को जनता ने बापू पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित किया। खेड़ा में सरदार पटेल

ने अंग्रेजों के साथ विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया जिसमें

अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया

गया था। इसके परिणामस्वरूप, गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई।



असहयोग आन्दोलन

मुख्य लेख : असहयोग आन्दोलन


गांधी जी ने असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के खिलाफ़ शस्त्र के रूप में उपयोग किया। पंजाब में अंग्रेजी फोजों द्वारा भारतीयों पर जलियावांला नरसंहार

जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है ने देश को भारी आघात

पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। गांधीजी ने ब्रिटिश राज

तथा भारतीयों द्वारा ‍प्रतिकारात्मक रवैया दोनों की की। उन्होंने ब्रिटिश

नागरिकों तथा दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की तथा पार्टी

के आरंभिक विरोध के बाद दंगों की भंर्त्सना की। गांधी जी के भावनात्मक भाषण

के बाद अपने सिद्धांत की वकालत की कि सभी हिंसा और बुराई को न्यायोचित

नहीं ठहराया जा सकता है।

किंतु ऐसा इस नरसंहार और उसके बाद हुई हिंसा से गांधी जी ने अपना मन

संपूर्ण सरकार आर भारतीय सरकार के कब्जे वाली संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण

लाने पर केंद्रित था जो जल्‍दी ही स्वराज अथवा संपूर्ण व्यक्तिगत, आध्‍यात्मिक एवं राजनैतिक आजादी में बदलने वाला था।











साबरमती आश्रम : गुजरात में गांधी का घर






दिसम्बर 1921 में गांधी जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस.का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को स्वराज.के

नाम वाले एक नए उद्देश्‍य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता

सांकेतिक शुल्क का भुगताने पर सभी के लिए खुली थी। पार्टी को किसी एक कुलीन

संगठन की न बनाकर इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिए इसके अंदर

अनुशासन में सुधार लाने के लिए एक पदसोपान समिति गठित की गई। गांधी जी ने

अपने अहिंसात्मक मंच को स्वदेशी नीति

— में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर

अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का

कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे

अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन को सहयोग देने के लिएपुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन खादी

के लिए सूत कातने में समय बिताने के लिए कहा। यह अनुशासन और समर्पण लाने

की ऐसी नीति थी जिससे अनिच्छा और महत्वाकाक्षा को दूर किया जा सके और इनके

स्थान पर उस समय महिलाओं को शामिल किया जाए जब ऐसे बहुत से विचार आने लगे

कि इस प्रकार की गतिविधियां महिलाओं के लिए सम्मानजनक नहीं हैं। इसके अलावा

गांधी जी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और

सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान (honours) को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।



असहयोग को दूर-दूर से अपील और सफलता मिली जिससे समाज के सभी वर्गों

की जनता में जोश और भागीदारी बढ गई। फिर जैसे ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर

पहुंचा वैसे फरवरी 1922 में इसका अंत चौरी-चोरा, उत्तरप्रदेश

में भयानक द्वेष के रूप में अंत हुआ। आंदोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने

के डर को ध्‍यान में रखते हुए और इस पर विचार करते हुए कि इससे उसके सभी

कार्यों पर पानी फिर जाएगा, गांधी जी ने व्यापक असहयोग[10] के इस आंदोलन को वापस ले लिया। गांधी पर गिरफ्तार किया गया 10 मार्च, 1922, को राजद्रोह के लिए गांधी जी पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाकर जैल भेद दिया गया। 18 मार्च, 1922 से लेकर उन्होंने केवल 2 साल ही जैल में बिताए थे कि उन्हें फरवरी 1924 में आंतों के ऑपरेशन के लिए रिहा कर दिया गया।



गांधी जी के एकता वाले व्यक्तित्व के बिना इंडियन नेशनल कांग्रेस उसके

जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बंटने लगी जिसके एक दल का

नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले चित्त रंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और सरदार वल्लभ भाई पटेल

ने किया। इसके अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अहिंसा आंदोलन की चरम

सीमा पर पहुंचकर सहयोग टूट रहा था। गांधी जी ने इस खाई को बहुत से साधनों

से भरने का प्रयास किया जिसमें उन्होंने 1924 की बसंत में सीमित सफलता

दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी शामिल था।[11]



स्वराज और नमक सत्याग्रह (नमक मार्च)









दांडी में गाँधी, 5 अप्रैल, 1930, के अंत में नमक मार्च






गांधी जी सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और 1920 की अधिकांश अवधि तक वे

स्वराज पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच खाई को भरने में लगे रहे और

इसके अतिरिक्त वे अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता और गरीबी के खिलाफ आंदोलन

छेड़ते भी रहे। उन्होंने पहले 1928 में लौटे .एक साल पहले अंग्रेजी सरकार

ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक नया संवेधानिक सुधार आयोग बनाया जिसमें

एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। इसका परिणाम भारतीय राजनैतिक दलों द्वारा

बहिष्कार निकला। दिसम्बर 1928 में गांधी जी ने कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस

के एक अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें भारतीय साम्राज्य को सत्ता

प्रदान करने के लिए कहा गया था अथवा ऐसा न करने के बदले अपने उद्देश्य के

रूप में संपूर्ण देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए

तैयार रहें। गांधी जी ने न केवल युवा वर्ग सुभाष चंद्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जैसे पुरूषों द्वारा तत्काल आजादी की मांग के विचारों को फलीभूत किया बल्कि अपनी स्वयं की मांग को दो साल[12] की बजाए एक साल के लिए रोक दिया। अंग्रेजों ने कोई जवाब नहीं दिया।.नहीं 31 दिसम्बर 1929, भारत का झंडा फहराया गया था लाहौर में है।26 जनवरी 1930

का दिन लाहौर में भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में इंडियन नेशनल

कांग्रेस ने मनाया। यह दिन लगभग प्रत्येक भारतीय संगठनों द्वारा भी मनाया

गया। इसके बाद गांधी जी ने मार्च 1930 में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध

में नया सत्याग्रह चलाया जिसे 12 मार्च से 6 अप्रेल

तक नमक आंदोलन के याद में 400 किलोमीटर (248 मील) तक का सफर अहमदाबाद से

दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा सके। समुद्र की

ओर इस यात्रा में हजारों की संख्‍या में भारतीयों ने भाग लिया। भारत में

अंग्रेजों की पकड़ को विचलित करने वाला यह एक सर्वाधिक सफल आंदोलन था

जिसमें अंग्रेजों ने 80,000 से अधिक लोगों को जेल भेजा।



लार्ड एडवर्ड इरविन द्वारा प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने गांधी जी के साथ विचार विमर्श करने का निर्णय लिया। यह इरविन गांधी की संधि

मार्च 1931 में हस्ताक्षर किए थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन को बंद करने के लिए

ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने के लिए अपनी रजामंदी

दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के

एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित होने वाले गोलमेज सम्मेलन

में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन गांधी जी और

राष्ट्रीयवादी लोगों के लिए घोर निराशाजनक रहा, इसका कारण सत्ता का

हस्तांतरण करने की बजाय भारतीय कीमतों एवं भारतीय अल्पसंख्‍यकों पर

केंद्रित होना था। इसके अलावा, लार्ड इरविन के उत्तराधिकारी लार्ड

विलिंगटन, ने राष्‍ट्रवादियों के आंदोलन को नियंत्रित एवं कुचलने का एक नया

अभियान आरंभ करदिया। गांधी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और सरकार ने उनके

अनुयाईयों को उनसे पूर्णतया दूर रखते हुए गांधी जी द्वारा प्रभावित होने से

रोकने की कोशिश की। लेकिन, यह युक्ति सफल नहीं थी।



हरिजन आंदोलन और निश्चय दिवस

1932 में, दलित नेता और प्रकांड विद्वान डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर

के चुनाव प्रचार के माध्यम से, सरकार ने अछूतों को एक नए संविधान के

अंतर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया। इसके विरोध में दलित हतों के विरोधी

गांधी जी ने सितंबर 1932 में छ: दिन का अनशन ले लिया जिसने सरकार को

सफलतापूर्वक दलित से राजनैतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा की गई मध्‍यस्ता

वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। अछूतों के जीवन को सुधारने

के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की शुरूआत थी। गांधी जी ने इन

अछूतों को हरिजन का नाम दिया जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। 8 मई 1933 को गांधी जी ने हरिजन आंदोलन[13] में मदद करने के लिए आत्म शुद्धिकरण का 21 दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान दलितों को पसंद नहीं आया तथापि वे एक प्रमुख नेता बने रहे। डॉ॰ अम्बेडकर ने गांधी जी द्वारा हरिजन

शब्द का उपयोग करने की स्पष्ट निंदा की, कि दलित सामाजिक रूप से अपरिपक्व

हैं और सुविधासंपन्न जाति वाले भारतीयों ने पितृसत्तात्मक भूमिका निभाई है।

अम्बेडकर और उसके सहयोगी दलों को भी महसूस हुआ कि गांधी जी दलितों के

राजनीतिक अधिकारों को कम आंक रहे हैं। हालांकि गांधी जी एक वैश्य जाति में

पैदा हुए फिर भी उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि वह डॉ॰ अम्बेडकर जैसे दलित

मसिहा के होते हुए भी वह दलितों के लिए आवाज उठा सकता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

के दिनों में हिन्दुस्तान की सामाजिक बुराइयों में में छुआछूत एक प्रमुख

बुराई थी जिसके के विरूद्ध महात्मा गांधी और उनके अनुयायी संघर्षरत रहते

थे। उस समय देश के प्रमुख मंदिरों में हरिजनों का प्रवेश पूर्णतः

प्रतिबंधित था। केरल राज्य का जनपद त्रिशुर दक्षिण भारत की एक प्रमुख

धार्मिक नगरी है। यहीं एक प्रतिष्ठित मंदिर है गुरुवायुर

मंदिर, जिसमें कृष्ण भगवान के बालरूप के दर्शन कराती भगवान गुरूवायुरप्पन

की मूर्ति स्थापित है। आजादी से पूर्व अन्य मंदिरों की भांति इस मंदिर में

भी हरिजनों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था।



केरल के गांधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा की आज्ञा से इस प्रथा के

विरूद्ध आवाज उठायी और अंततः इसके लिये सन् 1933 ई0 में सविनय अवज्ञा

प्रारंभ की गयी। मंदिर के ट्रस्टियों को इस बात की ताकीद की गयी कि नये

वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात 1 जनवरी 1934 को अंतिम निश्चय दिवस के रूप में

मनाया जायेगा और इस तिथि पर उनके स्तर से कोई निश्चय न होने की स्थिति मे

महात्मा गांधी तथा श्री केलप्पन द्वारा आन्दोलनकारियों के पक्ष में आमरण

अनशन किया जा सकता है। इस कारण गुरूवायूर मंदिर के ट्रस्टियो की ओर से बैठक

बुलाकर मंदिर के उपासको की राय भी प्राप्त की गयी। बैठक मे 77 प्रतिशत

उपासको के द्वारा दिये गये बहुमत के आधार पर मंदिर में हरिजनों के प्रवेश

को स्वीकृति दे दी गयी और इस प्रकार 1 जनवरी 1934 से केरल के श्री

गुरूवायूर मंदिर में किये गये निश्चय दिवस की सफलता के रूप में हरिजनों के

प्रवेश को सैद्वांतिक स्वीकृति मिल गयी। गुरूवायूर मंदिर जिसमें आज भी गैर

हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है तथापि कई धर्मों को मानने वाले भगवान भगवान

गुरूवायूरप्पन के परम भक्त हैं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से जनवरी माह के

प्रथम दिवस को निश्चय दिवस के रूप में मनाया गया और किये गये निश्चय को

प्राप्त किया गया। [14]। 1934 की गर्मियों में, उनकी जान लेने के लिए उन पर तीन असफल प्रयास किए गए थे।



जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के लिए चुना और संघीय योजना के

अंतर्गत सत्ता स्वीकार की तब गांधी जी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा

देने का निर्णय ले लिया। वह पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे किंतु महसूस

करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तब भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता

पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी जो अब तक

कम्यूनिसटों, समाजवादियों, व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर

व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान थी। इससे इन सभी को अपनी

अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा। गांधी जी राज के लिए किसी

पार्टी का नेतृत्व करते हुए प्रचार द्वारा कोई ऐसा लक्ष्‍य सिद्ध नहीं करना

चाहते थे जिसे राज[15] के साथ अस्थायी तौर पर राजनैतिक व्यवस्‍था के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।



गांधी जी नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के साथ ही

1936 में भारत लौट आए। हालांकि गांधी की पूर्ण इच्छा थी कि वे आजादी

प्राप्त करने पर अपना संपूर्ण ध्‍यान केंद्रित करें न कि भारत के भविष्य के

बारे में अटकलों पर। उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्‍य के रूप

में अपनाने से नहीं रोका। 1938 में राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए सुभाष बोस

के साथ गांधी जी के मतभेद थे। बोस के साथ मतभेदों में गांधी के मुख्य

बिंदु बोस की लोकतंत्र में प्रतिबद्धता की कमी तथा अहिंसा में विश्वास की

कमी थी। बोस ने गांधी जी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल की

किंतु कांग्रेस को उस समय छोड़ दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गांधी[16] जी द्वारा लागू किए गए सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया गया।



द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन

द्वितीय विश्व युद्ध 1939 में जब छिड़ने नाजी जर्मनी आक्रमण पोलैंड.आरंभ

में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का

पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के

प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध

किया। कांग्रेस के सभी चयनित सदस्यों ने सामूहिक तौर[17]

पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लंबी चर्चा के बाद, गांधी ने घोषणा की कि

जब स्वयं भारत को आजादी से इंकार किया गया हो तब लोकतांत्रिक आजादी के लिए

बाहर से लड़ने पर भारत किसी भी युद्ध के लिए पार्टी नहीं बनेगी। जैसे जैसे

युद्ध बढता गया गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग को अंग्रेजों को भारत छोड़ो आन्दोलन नामक विधेयक देकर तीव्र कर दिया। यह गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक स्पष्ट विद्रोह था जो भारतीय सीमा[18] से अंग्रेजों को खदेड़ने पर लक्षित था।



गांधी जी के दूसरे नंबर पर बैठे जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के कुछ

सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनैतिक भारतीय दलों ने आलोचना की जो अंग्रेजों के

पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही विश्‍वास रखते थे। कुछ का मानना था कि अपने

जीवन काल में अथवा मौत के संघर्ष में अंग्रेजों का विरोध करना एक नश्वर

कार्य है जबकि कुछ मानते थे कि गांधी जी पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहे हैं। भारत छोड़ो इस संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई।[19]

पुलिस की गोलियों से हजारों की संख्‍या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे

गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी और उनके समर्थकों ने

स्पष्ट कर दिया कि वह युद्ध के प्रयासों का समर्थन तब तक नहीं देंगे तब तक

भारत को तत्‍काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बार भी यह

आन्दोलन बन्द नहीं होगा यदि हिंसा के व्यक्तिगत कृत्यों को मूर्त रूप दिया

जाता है। उन्होंने कहा कि उनके चारों ओर अराजकता का आदेश असली अराजकता से

भी बुरा है। उन्होंने सभी कांग्रेसियों और भारतीयों को अहिंसा के साथ करो या मरो (अंग्रेजी में डू ऑर डाय) के द्वारा अन्तिम स्वतन्त्रता के लिए अनुशासन बनाए रखने को कहा।



गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को अंग्रेजों द्वारा मुबंई में 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को पुणे के आंगा खां महल में दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। यही वह समय था जब गांधी जी को उनके निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनका 50 साल पुराना सचिव महादेव देसाई 6 दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गए और गांधी जी के 18 महीने जेल में रहने के बाद 22 फरवरी 1944

को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का देहांत हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद गांधी

जी को भी मलेरिया का भयंकर शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्‍य और

जरूरी उपचार के कारण 6 मई 1944

को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया। राज उन्हें जेल

में दम तोड़ते हुए नहीं देखना चाहते थे जिससे देश का क्रोध बढ़ जाए।

हालांकि भारत छोड़ो आंदोलन को अपने उद्देश्य में आशिंक सफलता ही मिली लेकिन

आंदोलन के निष्‍ठुर दमन ने 1943 के अंत तक भारत को संगठित कर दिया। युद्ध

के अंत में, ब्रिटिश ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि संत्ता का हस्तांतरण कर

उसे भारतीयों के हाथ में सोंप दिया जाएगा। इस समय गांधी जी ने आंदोलन को

बंद कर दिया जिससे कांग्रेसी नेताओं सहित लगभग 100,000 राजनैतिक बंदियों को

रिहा कर दिया गया।



स्वतंत्रता और भारत का विभाजन

गांधी जी ने 1946 में कांग्रेस को ब्रिटिश केबीनेट मिशन (British Cabinet Mission) के प्रस्ताव को ठुकराने का परामर्श दिया क्योकि उसे मुस्लिम बाहुलता वाले प्रांतों के लिए प्रस्तावित समूहीकरण

के प्रति उनका गहन संदेह होना था इसलिए गांधी जी ने प्रकरण को एक विभाजन

के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा। हालांकि कुछ समय से गांधी जी के साथ

कांग्रेस द्वारा मतभेदों वाली घटना में से यह भी एक घटना बनी (हालांकि उसके

नेत्त्व के कारण नहीं) चूंकि नेहरू और पटेल जानते थे कि यदि कांग्रेस इस

योजना का अनुमोदन नहीं करती है तब सरकार का नियंत्रण मुस्लिम लीग

के पास चला जाएगा। 1948 के बीच लगभग 5000 से भी अधिक लोगों को हिंसा के

दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। गांधी जी किसी भी ऐसी योजना के खिलाफ थे

जो भारत को दो अलग अलग देशों में विभाजित कर दे। भारत में रहने वाले बहुत

से हिंदुओं और सिक्खों एवं मुस्लिमों का भारी बहुमत देश के बंटवारे[तथ्य वांछित] के पक्ष में था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग के नेता ने, पश्चिम पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पूर्वी बंगाल[तथ्य वांछित]

में व्यापक सहयोग का परिचय दिया। व्यापक स्तर पर फैलने वाले हिंदु मुस्लिम

लड़ाई को रोकने के लिए ही कांग्रेस नेताओं ने बंटवारे की इस योजना को अपनी

मंजूरी दे दी थी। कांगेस नेता जानते थे कि गांधी जी बंटवारे का विरोध

करेंगे और उसकी सहमति के बिना कांग्रेस के लिए आगे बझना बसंभव था चुकि

पाटर्ठी में गांधी जी का सहयोग और संपूर्ण भारत में उनकी स्थिति मजबूत थी।

गांधी जी के करीबी सहयोगियों ने बंटवारे को एक सर्वोत्तम उपाय के रूप में

स्वीकार किया और सरदार पटेल ने गांधी जी को समझाने का प्रयास किया कि नागरिक अशांति वाले युद्ध को रोकने का यही एक उपाय है। मज़बूर गांधी ने अपनी अनुमति दे दी।



उन्होंने उत्तर भारत के साथ-साथ बंगाल में भी मुस्लिम और हिंदु समुदाय के नेताओं के साथ गर्म रवैये को शांत करने के लिए गहन विचार विमर्श किया। 1947 के

भारत-पाकिस्तान युद्ध के बावजूद उन्हें उस समय परेशान किया गया जब सरकार

ने पाकिस्तान को विभाजन परिषद द्वारा बनाए गए समझौते के अनुसार 55 करोड़ रू0 न देने का निर्णय लियाथा। सरदार पटेल

जैसे नेताओं को डर था कि पाकिस्तान इस धन का उपयोग भारत के खिलाफ़ जंग

छेड़ने में कर सकता है। जब यह मांग उठने लगी कि सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान

भेजा जाए और मुस्लिमों और हिंदु नेताओं ने इस पर असंतोष व्य‍क्त किया और

एक दूसरे[20] के साथ समझौता करने से मना करने से गांधी जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने दिल्ली

में अपना पहला आमरण अनशन आरंभ किया जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को सभी के

लिए तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 55 करोड़ रू0 का भुगतान करने के

लिए कहा गया था। गांधी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा

से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जाएगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जाएगी।

उन्हें आगे भी डर था कि हिंदु और मुस्लिम अपनी शत्रुता को फिर से नया कर

देंगे और उससे नागरिक युद्ध हो जाने की आशंका बन सकती है। जीवन भर गांधी जा

का साथ देने वाले सहयोगियों के साथ भावुक बहस के बाद गांधी जी ने बात का

मानने से इंकार कर दिया और सरकार को अपनी नीति पर अडिग रहना पड़ा तथा

पाकिस्तान को भुगतान कर दिया। हिंदु मुस्लिम और सिक्ख समुदाय के नेताओं ने

उन्हें विश्‍वास दिलाया कि वे हिंसा को भुला कर शांति लाएंगे। इन समुदायों

में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा शामिल थे। इस प्रकार गांधी जी ने संतरे का जूस[21] पीकर अपना अनशन तोड़ दिया।



हत्या

मुख्य लेख : मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या










राज घाट (Raj Ghat):आगा खान पैलेस में गांधी की अस्थियां (पुणे, भारत) .






मैनचेस्टर गार्जियन, 18 फरवरी, 1948, की गलियों से ले जाते हुआ दिखाया गया था।



30 जनवरी, 1948, गांधी की उस समय नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई जब वे नई दिल्ली के बिड़ला भवन (बिरला हाउस के मैदान में रात चहलकदमी कर रहे थे। गांधी का हत्यारा नाथूराम गौड़से हिन्दू राष्ट्रवादी थे जिनके कट्टरपंथी हिंदु महासभा के साथ संबंध थे जिसने गांधी जी को पाकिस्तान[22] को भुगतान करने के मुद्दे को लेकर भारत को कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। गोड़से और उसके उनके सह षड्यंत्रकारी नारायण आप्टे को बाद में केस चलाकर सजा दी गई तथा 15 नवंबर 1949 को इन्हें फांसी दे दी गई। राज घाट, नई दिल्ली, में गांधी जी के स्मारक पर "देवनागरी में हे

राम " लिखा हुआ है। ऐसा व्यापक तौर पर माना जाता है कि जब गांधी जी को

गोली मारी गई तब उनके मुख से निकलने वाले ये अंतिम शब्द थे। हालांकि इस कथन

पर विवाद उठ खड़े हुए हैं।[23]जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित किया :



गांधी जी की राख को एक अस्थि-रख दिया गया और उनकी सेवाओं की याद दिलाने

के लिए संपूर्ण भारत में ले जाया गया। इनमें से अधिकांश को इलाहाबाद में

संगम पर 12 फरवरी 1948 को जल में विसर्जित कर दिया गया किंतु कुछ को अलग[24]

पवित्र रूप में रख दिया गया। 1997 में, तुषार गाँधी ने बैंक में नपाए गए

एक अस्थि-कलश की कुछ सामग्री को अदालत के माध्यम से, इलाहाबाद में संगम[24][25] नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया। 30 जनवरी2008 को दुबई में रहने वाले एक व्यापारी द्वारा गांधी जी की राख वाले एक अन्य अस्थि-कलश को मुंबई संग्रहालय[24] में भेजने के उपरांत उन्हें गिरगाम चौपाटी नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया गया। एक अन्य अस्थि कलश आगा खान जो पुणे[24] में है, (जहाँ उन्होंने 1942 से कैद करने के लिए किया गया था 1944) वहां समाप्त हो गया और दूसरा आत्मबोध फैलोशिप झील मंदिर में लॉस एंजिल्स.[26]

रखा हुआ है। इस परिवार को पता है कि इस पवित्र राख का राजनीतिक उद्देश्यों

के लिए दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन उन्हें यहां से हटाना नहीं चाहती

हैं क्योंकि इससे मंदिरों .[24] को तोड़ने का खतरा पैदा हो सकता है।



गांधी के सिद्धांत

इन्हें भी देखें: गांधीवाद


सत्य

गांधी जी ने अपना जीवन सत्य, या सच्चाई

की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने

करने के लिए अपनी स्वयं की गल्तियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की

कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग का नाम दिया।



गांधी जी ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने के लिए अपने

दुष्टात्माओं , भय और असुरक्षा जैसे तत्वों पर विजय पाना है। .गांधी जी ने

अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्य‍क्त किया जब उन्होंने

कहा भगवान ही सत्य है बाद में उन्होने अपने इस कथन को सत्य ही भगवान है में बदल दिया। इस प्रकार , सत्य में गांधी के दर्शन है " परमेश्वर " .



अहिंसा

हालांकि गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक बिल्कुल नहीं थे फिर भी इसे बड़े पैमाने [27]पर राजनैतिक क्षेत्र में इस्तेमाल करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। अहिंसा (nonviolence), अहिंसा (ahimsa) और अप्रतिकार (nonresistance)का

भारतीय धार्मिक विचारों में एक लंबा इतिहास है और इसके हिंदु, बौद्ध, जैन,

यहूदी और ईसाई समुदायों में बहुत सी अवधारणाएं हैं। गांधी जी ने अपनी

आत्मकथा द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ " (The Story of My Experiments with Truth)में दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। उन्हें कहते हुए बताया गया था:





जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्य

का मार्ग होता है किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहां अत्याचारी और

हतयारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे किंतु अंत में उनका

पतन ही होता है -इसका सदैव विचार करें।







" मृतकों, अनाथ तथा बेघरों के लिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि

स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पवित्र नाम के नीचे संपूर्णवाद का पागल विनाश

छिपा है।







एक आंख के लिए दूसरी आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी।







मरने के लिए मैरे पास बहुत से कारण है किंतु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं है।





इन सिद्धातों को लागू करने में गांधी जी ने इन्हें दुनिया को दिखाने के

लिए सर्वाधिक तार्किक सीमा पर ले जाने से भी मुंह नहीं मोड़ा जहां सरकार,

पुलिस और सेनाए भी अहिंसात्मक बन गईं थीं। " फॉर पसिफिस्ट्स."[28] नामक पुस्तक से उद्धरण लिए गए हैं।





विज्ञान का युद्ध किसी व्यक्ति को तानाशाही , शुद्ध और सरलता की ओर ले

जाता है। अहिंसा का विज्ञान अकेले ही किसी व्यक्ति को शुद्ध लोकतंत्र के

मार्ग की ओर ले जा सकता है।प्रेम पर आधारित शक्ति सजा के डर से उत्पन्न

शक्ति से हजार गुणा अधिक और स्थायी होती है। यह कहना निन्दा करने जैसा होगा

कि कि अहिंसा का अभ्यास केवल व्यक्तिगत तौर पर किया जा सकता है और

व्यक्तिवादिता वाले देश इसका कभी भी अभ्यास नहीं कर सकते हैं। शुद्ध

अराजकता का निकटतम दृष्टिकोण अहिंसा पर आधारित लोकतंत्र होगा;;;;;;संपूर्ण अहिंसा के आधार पर संगठित और चलने वाला कोई समाज शुद्ध अराजकता





वाला समाज होगा।





मैं ने भी स्वीकार किया कि एक अहिंसक राज्य में भी पुलिस बल की जरूरत

अनिवार्य हो सकती है। पुलिस रैंकों का गठन अहिंसा में विश्‍वास रखने वालों

से किया जाएगा। लोग उनकी हर संभव मदद करेंगे और आपसी सहयोग के माध्यम से वे

किसी भी उपद्रव का आसानी से सामना कर लेंगे ...श्रम और पूंजी तथा हड़तालों

के बीव हिंसक झगड़े बहुत कम होंगे और अहिंसक राज्यों में तो बहुत कम होंगे

क्योंकि अहिंसक समाज की बाहुलता का प्रभाव समाज में प्रमुख तत्वों का

सम्मान करने के लिए महान होगा। इसी प्रकार साम्प्रदायिक अव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं होगी;;;;;;





। शांति एवं अव्यवस्था के समय सशस्त्र सैनिकों की तरह सेना का कोई





अहिंसात्मक कार्य उनका यह कर्तव्य होगा कि वे विजय दिलाने वाले समुदायों

को एकजुट करें जिसमें शांति का प्रसार, तथा ऐसी गतिविधियों का समावेश हो

जो किसी भी व्यक्ति को उसके चर्च अथवा खंड में संपर्क बनाए रखते हुए अपने

साथ मिला लें। इस प्रकार की सैना को किसी भी आपात स्थिति से लड़ने के लिए

तैयार रहना चाहिए तथा भीड़ के क्रोध को शांत करने के लिए उसके पास मरने के

लिए सैनिकों की पर्याप्त नफरी भी होनी चाहिए;;;;;;सत्याग्रह

(सत्यबल) के बिग्रेड को प्रत्येक गांव तथा शहर तक भवनों के प्रत्येक ब्लॉक

में संगठित किया जा सकता हैयदि अहिंसात्मक समाज पर हमला किया जाता है तब

अहिंसा के दो मार्ग खुलते हैं। अधिकार पाने के लिए हमलावर से सहयोग न करें

बल्कि समर्पण करने की अपेक्षा मृत्यु को गले लगाना पसंद करें। दूसरा तरीका

होगा ऐसी जनता द्वारा अहिंसक प्रतिरोध करना हो सकता है जिन्हें अहिंसक

तरीके से प्रशिक्षित किया गया हो ...इस अप्रत्याशित प्रदर्शन की अनंत राहों

पर आदमियों और महिलाओं को हमलावर की इच्छा लिए आत्मसमर्पण करने की बजाए

आसानी से मरना अच्छा लगता है और अंतंत: उसे तथा उसकी सैनिक बहादुरी के

समक्ष पिघलना जरूर पड़ता है;;;;। ऐसे किसी देश अथवा समूह जिसने अंहिंसा

को अपनी अंतिम नीति बना लिया है उसे परमाणु बम भी अपना दास नहीं बना सकता

है। उस देश में अहिंसा का स्तर खुशी-खुशी गुजरता है तब वह प्राकृतिक तौर पर

इतना अधिक बढ़ जाता है कि उसे सार्वभोमिक आदर





मिलने लगता है।



इन विचारों के अनुरूप 1940 में जब नाजी जर्मनी द्वारा अंग्रेजों के द्वीपों पर किए गए हमले आसन्न दिखाई दिए तब गांधी जी ने अंग्रेजों को शांति और युद्ध [29]में अहिंसा की निम्नलिखित नीति का अनुसरण करने को कहा।





मैं आपसे हथियार रखने के लिए कहना पसंद करूंगा क्योंकि ये आपको अथवा मानवता को बचाने में बेकार हैं।आपको हेर हिटलर

और सिगनोर मुसोलिनी को आमत्रित करना होगा कि उन्हें देशों से जो कुछ चाहिए

आप उन्हें अपना अधिकार कहते हैं।यदि इन सज्जनों को अपने घर पर रहने का चयन

करना है तब आपको उन्हें खाली करना होगा।यदि वे तुम्हें आसानी से रास्ता

नहीं देते हैं तब आप अपने आपको , पुरूषों को महिलाओं को और बच्चों की बलि

देने की अनुमति देंगे किंतु अपनी निष्ठा के प्रति झुकने से इंकार करेंगे।





1946 में युद्ध के बाद दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने इससे भी आगे एक विचार का प्रस्तुतीकरण किया।





यहूदियों को अपने लिए स्वयं कसाई का चाकू दे देना चाहिए था।उन्हें अपने आप को समुद्री चट्टानों से समुद्र के अंदर फैंक देना चाहिए था।





फिर भी गांधी जी को पता था कि इस प्रकार के अहिंसा के स्तर को अटूट

विश्वास और साहस की जरूरत होगी और इसके लिए उसने महसूस कर लिया था कि यह हर

किसी के पास नहीं होता है। इसलिए उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को परामर्श

दिया कि उन्हें अहिंसा को अपने पास रखने की जरूरत नहीं है खास तौर पर उस

समय जब इसे कायरता के संरक्षण के लिए उपयोग में किया गया हो।





गांधी जी ने अपने सत्याग्रह

आंदोलन में ऐसे लोगों को दूर ही रखा जो हथियार उठाने से डरते थे अथवा

प्रतिरोध करने में स्वयं की अक्षमता का अनुभव करते थे। उन्होंने लिखा कि मैं मानता हूं कि जहां डरपोक और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा के पक्ष में अपनी राय दूंगा।[30]







प्रत्येक सभा पर मैं तब तक चेतावनी दोहराता रहता था जब तक वन्हें यह

अहसास नहीं हो जाता है कि वे एक ऐसे अंहिसात्मक बल के अधिकार में आ गए हैं

जिसके अधिकार में वे पहले भी थे और वे उस प्रयोग के आदि हो चुके थे और उनका

मानना था कि उन्हें अहिंसा से कुछ लेना देना नहीं हैं तथा फिर से हथियार

उठा लिए थे। खुदाई खिदमतगार (Khudai Khidmatgar)के बारे में ऐसा कभी नहीं कहना चाहिए कि जो एक बार इतने बहादुर थे कि बादशाह खान (Badshah Khan)के

प्रभाव में अब वे डरपोक बन गए। वीरता केवल अच्छे निशाने वालों में ही नहीं

होती है बल्कि मृत्यु को हरा देने वालों में तथा अपनी छातियों को गोली [31]





खाने के लिए सदा तैयार रहने वालों में भी होती है।



शाकाहारी रवैया

बाल्यावस्था

में गांधी को मांस खाने का अनुभव मिला। ऐसा उनकी उत्तराधिकारी जिज्ञासा के

कारण ही था जिसमें उसके उत्साहवर्धक मित्र शेख मेहताब का भी योगदान था। वेजीटेरियनिज्म का विचार भारत की हिंदु और जैन प्रथाओं में कूट-कूट कर भरा हुआ था तथा उनकी मातृभूमि गुजरात

में ज्यादातर हिंदु शाकाहारी ही थे। इसी तरह जैन भी थे। गांधी का परिवार

भी इससे अछूता नहीं था। पढाई के लिए लंदन आने से पूर्व गांधी जी ने अपनी

माता पुतलीबाई और अपने चाचा बेचारजी स्वामी से एक वायदा किया था कि वे मांस

खाने, शराब पीने से तथा संकीणता से दूर रहेंगे। उन्होने अपने वायदे रखने

के लिए उपवास किए और ऐसा करने से सबूत कुछ ऐसा मिला जो भोजन करने से नहीं

मिल सकता था, उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त दर्शन के लिए आधार जो प्राप्त कर

लिया था। जैसे जैसे गांधी जी व्यस्क होते गए वे पूर्णतया शाकाहारी बन गए। उन्होंने द मोरल बेसिस ऑफ वेजीटेरियनिज्म तथा इस विषय पर बहुत सी लेख भी लिखें हैं जिनमें से कुछ लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के प्रकाशन द वेजीटेरियन[32]में

प्रकाशित भी हुए हैं। गांधी जी स्वयं इस अवधि में बहुत सी महान विभूतियों

से प्रेरित हुए और लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के चैयरमेन डॉ0 जोसिया

ओल्डफील्ड के मित्र बन गए।



हेनरी स्टीफन साल्ट|हेनरी स्टीफन ‍साल्ट (Henry Stephens Salt)की

कृतियों को पढने और प्रशंषा करने के बाद युवा मोहनदास गांधी शाकाहारी

प्रचारक से मिले और उनके साथ पत्राचार किया। गांधी जी ने लंदन में रहते समय

और उसके बाद शाकाहारी भोजन की वकालत करने में काफी समय बिताया। गांधी जी

का कहना था कि शाकाहारी भोजन न केवल शरीर की जरूरतों को पूरा करता है बल्कि

यह आर्थिक प्रयोजन की भी पूर्ति करता है जो मांस से होती है और फिर भी

मांस अनाज, सब्जियों और फलों से अधिक मंहगा होता है। इसके अलावा कई भारतीय

जो आय कम होने की वजह से संघर्ष कर रहे थे, उस समय जो शाकाहारी के रूप में

दिखाई दे रहे थे वह आध्यात्मिक परम्परा ही नहीं व्यावहारिकता के कारण भी

था.वे बहुत देर तक खाने से परहेज रखते थे , और राजनैतिक विरोध के रूप में उपवास

रखते थे उन्होंने अपनी मृत्यु तक खाने से इनकार किया जब तक उनका मांग पुरा

नही होता उनकी आत्मकथा में यह नोट किया गया है कि शाकाहारी होना ब्रह्मचर्य में गहरी प्रतिबद्धता होने की शुरूआती सीढ़ी है, बिना कुल नियंत्रण ब्रह्मचर्य में उनकी सफलता लगभग असफल है.



गाँधी जी शुरू से फलाहार (frutarian),[33]

करते थे लेकिन अपने चिकित्सक की सलाह से बकरी का दूध पीना शुरू किया था.वे

कभी भी दुग्ध -उत्पाद का सेवन नही करते थे क्योंकि पहले उनका मानना था की दूध मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं होता और उन्हें गाय के चीत्कार सेघृणा (cow blowing),[34] थी और सबसे महत्वपूर्ण कारण था शपथ जो उन्होंने अपनी स्वर्गीय माँ से किया था



ब्रह्मचर्य

जब

गाँधी जी सोलह साल के हुए तब उनके पिताश्री की तबियत बहुत ख़राब थी उनके

पिता की बीमारी के दौरान वे हमेशा उपस्थित रहते थे क्योंकि वे अपने

माता-पिता के प्रति अत्यंत समर्पित थे. यद्यपि, गाँधी जी को कुछ समय की

राहत देने के लिए एक दिन उनके चाचा जी आए वे आराम के लिए शयनकक्ष पहुंचे

जहाँ उनकी शारीरिक अभिलाषाएं जागृत हुई और उन्होंने अपनी पत्नी से प्रेम

किया नौकर के जाने के पश्चात् थोडी ही देर में ख़बर आई की गाँधी के पिता का

अभी अभी देहांत हो गया है.गाँधी जी को जबरदस्त अपराध महसूस हुआ और इसके

लिए वे अपने आप को कभी माफ नहीं कर सकते थे उन्होंने इस घटना का जिक्र

दोहरी शर्म में किया इस घटना का गाँधी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा और वे 36

वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य (celibate) की और मुड़ने लगे, जबकि उनकी शादी हो चुकी थी.[35]



यह निर्णय ब्रहमचर्य (Brahmacharya) के दर्शन से पुरी तरह प्रभावित था आध्यात्मिक और व्यवहारिक शुद्धता बड़े पैमाने पर ब्रह्मचर्य और वैराग्यवाद (asceticism)

से जुदा होता है.गाँधी ने ब्रह्मचर्य को भगवान् के करीब आने और अपने को

पहचानने का प्राथमिक आधार के रूप में देखा था अपनी आत्मकथा में वे अपनी

बचपन की दुल्हन कस्तूरबा (Kasturba)

के साथ अपनी कामेच्छा और इर्ष्या के संघर्षो को बतातें हैं उन्होंने महसूस

किया कि यह उनका व्यक्तिगत दायित्व है की उन्हें ब्रह्मचर्य रहना है ताकि

वे बजाय हवस के प्रेम को सिख पायें गाँधी के लिए, ब्रह्मचर्य का अर्थ था

"इन्द्रियों के अंतर्गत विचारों, शब्द और कर्म पर नियंत्रण".[36]



सादगी

गाँधी जी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन (simple life) की और ही बढ़ना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते थे. उनकी सादगी (simplicity)

ने पश्चमी जीवन शैली को त्यागने पर मजबूर करने लगा और वे दक्षिण अफ्रीका

में फैलने लगे थे इसे वे "ख़ुद को शुन्य के स्थिति में लाना" कहते हैं

जिसमे अनावश्यक खर्च, साधारण जीवन शैली को अपनाना और अपने वस्त्र स्वयं

धोना आवश्यक है.[37]एक अवसर पर जन्मदार की और से सम्मुदय के लिए उनकी अनवरत सेवा के लिए प्रदान किए गए उपहार को भी वापस कर देते हैं.[38]



गाँधी सप्ताह में एक दिन मौन धारण करते थे.उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्हें आतंरिक शान्ति (inner peace) मिलाती है. उनपर यह प्रभाव हिंदू मौन सिद्धांत का है, (संस्कृत: - मौन) और शान्ति (संस्कृत:

-शान्ति)वैसे दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ संपर्क करते थे 37

वर्ष की आयु से साढ़े तीन वर्षों तक गांधी जी ने अख़बारों को पढ़ने से

इंकार कर दिया जिसके जवाब में उनका कहना था कि जगत की आज जो स्थिर अवस्था

है उसने उसे अपनी स्वयं की आंतरिक अशांति की तुलना में अधिक भ्रमित किया

है।



जॉन रस्किन (John Ruskin) की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last), पढने के बाद उन्होंने अपने जीवन शैली में परिवर्तन करने का फैसला किया तथा एक समुदाय बनाया जिसे अमरपक्षी अवस्थापन कहा जाता था.



दक्षिण अफ्रीका, जहाँ से उन्होंने वकालत पूरी की थी तथा धन और सफलता के

साथ जुड़े थे वहां से लौटने के पश्चात् उन्होंने पश्चमी शैली के वस्त्रों

का त्याग किया.उन्होंने भारत के सबसे गरीब इंसान के द्वारा जो वस्त्र पहने

जाते हैं उसे स्वीकार किया, तथा घर में बने हुए कपड़े (खादी) पहनने

की वकालत भी की.गाँधी और उनके अनुयायियों ने अपने कपड़े सूत के द्वारा ख़ुद

बुनने के अभ्यास को अपनाया और दूसरो को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित

किया हालाँकि भारतीय श्रमिक बेरोज़गारी के कारण बहुधा आलसी थे, वे अक्सर

अपने कपड़े उन औद्योगिक निर्माताओं से खरीदते थे जिसका उद्देश्य ब्रिटिश

हितों को पुरा करना था. गाँधी का मत था कि अगर भारतीय अपने कपड़े ख़ुद

बनाने लगे, तो यह भारत में बसे ब्रिटिशों को आर्थिक झटका लगेगा. फलस्वरूप,

बाद में चरखा (spinning wheel) को भारतीय राष्ट्रीय झंडा में शामिल किया गया. अपने साधारण जीवन को दर्शाने के लिए उन्होंने बाद में अपनी बाकी जीवन में धोती पहनी



विश्वास

गाँधी का जन्म हिंदू धर्म में हुआ, उनके पूरे जीवन में अधिकतर सिद्धान्तों की उत्पति हिंदुत्व

से हुआ। साधारण हिंदू की तरह वे सारे धर्मों को समान रूप से मानते थे, और

इसलिए उन्होंने धर्म-परिवर्तन के सारे तर्कों एवं प्रयासों को अस्वीकृत

किया। वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मो को विस्तार से

पढ़ते थे। उन्होंने हिंदू धर्म के बारे में निम्नलिखित बातें कही हैं-



हिंदू धर्म, इसे जैसा मैंने समझा है, मेरी आत्मा को पूरी तरह तृप्त

करता है, मेरे प्राणों को आप्लावित कर देता है,... जब संदेह मुझे घेर लेता

है, जब निराशा मेरे सम्मुख आ खड़ी होती है, जब क्षितिज पर प्रकाश की एक

किरण भी दिखाई नहीं देती, तब मैं भगवद्गीता

की शरण में जाता हूँ और उसका कोई-न-कोई श्लोक मुझे सांत्वना दे जाता है,

और मैं घोर विषाद के बीच भी तुरंत मुस्कुराने लगता हूं। मेरे जीवन में अनेक

बाह्य त्रासदियां घटी है और यदि उन्होंने मेरे ऊपर कोई प्रत्यक्ष या अमिट

प्रभाव नहीं छोड़ा है तो मैं इसका श्रेय भगवद्गीता के उपदेशों को देता

हूँ।[39]










गाँधी स्मृति ( जिस घर में गाँधी ने अपने अन्तिम 4 महीने बिताये, वह आज एक स्मारक बन गया है, नयी दिल्ली)






गाँधी ने भगवद् गीता की व्याख्या गुजराती में भी की है.महादेव देसाई ने गुजराती पाण्डुलिपि का अतिरिक्त भूमिका तथा विवरण के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया है गाँधी के द्वारा लिखे गए प्राक्कथन के साथ इसका प्रकाशन 1946 में हुआ था .[40][41]



गाँधी का मानना था कि प्रत्येक धर्म के मूल में सत्य और प्रेम होता है। उनका कहना है कि कुरान,

बाइबिल, जेन्द-अवेस्ता, तालमुड, अथवा गीता किसी भी माध्यम से

देखिए, हम सबका ईश्वर एक ही है, और वह सत्य तथा प्रेम स्वरूप है।
[42]

ढोंग, कुप्रथा आदि पर भी उन्होंने सभी धर्मो के सिद्धान्तों के प्रति

सवालिया रुख अख्तियार किया। वे एक अथक समाज सुधारक थे। उनकी कुछ टिप्पणियां

विभिन्न धर्मो के सन्दर्भ में इस प्रकार हैं :



किंतु जिस तरह मैं ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं कर सका, उसी तरह हिंदू

धर्म की संपूर्णता के विषय में अथवा उसके सर्वोपरि होने के विषय में भी मैं

उस समय निश्चय नहीं कर सका। हिंदू धर्म की त्रुटियां मेरी आँखों के सामने

तैरती रहती थीं। यदि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का अंग है जो ऐसा जान पड़ा कि

वह एक सड़ा और बाद में जोड़ा गया अंग है। अनेक संप्रदायों और अनेक

जाति-भेदों का होना भी मेरी समझ में नहीं आता था। केवल वेद ही ईश्वर-प्रणीत

हैं, इस बात का क्या अर्थ है। यदि वेद ईश्वर-प्रणीत हैं, तो बाइबिल और

कुरान क्यों नहीं हैं?


मुझे प्रभावित करने के लिए जिस तरह ईसाई मित्र प्रयत्नशील थे, उसी

प्रकार मुसलमान मित्र भी प्रयत्नशील थे। अब्दुल्ला सेठ मुझे इस्लाम का

अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। उसकी खूबियों की चर्चा तो वे

किया ही करते थे।[43]


जितनी जल्दी हम नैतिक आधार से हारेंगे उतनी ही जल्दी हममे धार्मिक

युद्ध समाप्त हो जायेगा ऐसी कोई बात नहीं है कि धर्म नैतिकता के ऊपर हो।

उदाहरण के तौर पर कोई मनुष्य असत्यवादी, क्रूर या असंयमी हो और वह यह दावा

करे कि परमेश्वर उसके साथ हैं कभी हो ही नहीं सकता।


मुहम्मद की बातें ज्ञान का खजाना है, सिर्फ़ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानव जाति के लिए।


बाद में उनसे जब पूछा गया कि क्या तुम हिंदू हो, उन्होंने कहा:



"हाँ मैं हूँ। मैं एक ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और यहूदी भी हूँ।"


एक दूसरे के प्रति गहरा आदर भाव होने के बावजूद गाँधी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर

एक से अधिक बार लम्बी बहस में लगे रहे। ये वाद-विवाद दोनों के दार्शनिक

मतभेद को दर्शाते हैं। ये दोनों ही उस समय के प्रसिद्ध भारतीय चिन्तक थे। 15 जनवरी 1934 को बिहार में आये भीषण भूकंप के संदर्भ में गांधी जी ने सर्वप्रथम 24 जनवरी 1934 को तिन्नवल्ली की सार्वजनिक सभा में कहा था कि भले

ही आप मुझे अंधविश्वासी ही कहें, मगर मुझ जैसा आदमी यही मानेगा कि भगवान

ने हमें हमारे पापों का दंड देने के लिए इस भयंकर भूकंप को भेजा है।...

बिहार का यह संकट तो केवल शरीर का नाश करने वाला है, मगर अस्पृश्यता-जनित

संकट तो हमारी आत्मा को नष्ट कर रहा है। इसलिए बिहार की इस विपत्ति से हमें

यह सीख लेनी चाहिए कि अपनी चंद शेष सांसो के रहते हुए हम अस्पृश्यता के इस

कलंक से मुक्ति पाकर अपने-आपको अपने सिरजनहार के समक्ष स्वच्छ हृदय लेकर

उपस्थित होने योग्य बना लें।
[44]

25 जनवरी को भी उन्होंने लोगों को इस घटना के संदर्भ में अस्पृश्यता को

महापाप मानकर त्यागने की प्रेरणा दी तथा 26 जनवरी को मदुरा में व्यापारियों

द्वारा आयोजित स्वागत समारोह में उन्होंने कहा कि मुझे तो यह विश्वास

होता जा रहा है कि हम पर यह विपत्ति अस्पृश्यता के इस महापाप के फलस्वरूप

ही आई है। मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप मेरी बात पर मन ही मन हँस कर ऐसा न

सोचें कि मैं तो आपके अंधविश्वास की वृत्ति को जगा रहा हूँ। मैं ऐसा कुछ

नहीं कर रहा हूँ।... मैं भले ही अंधविश्वासी कहा जाऊँ, लेकिन जिस बात को

मैं अपने हृदय की गहराई में महसूस कर रहा हूँ, उसे आपसे कहे बिना रह नहीं

सकता।... यदि आप भी मेरी ही तरह इस बात में विश्वास करते हों तो आप निर्णय

करने में तत्परता बरतेंगे और यह मानेंगे कि आज हम जैसी अस्पृश्यता बरतते

हैं वैसी अस्पृश्यता का विधान हिंदू शास्त्रों में नहीं है। आप मेरे इस

विचार से सहमत होंगे कि किसी भी मनुष्य को अस्पृश्य मानना एक भयंकर पाप है।

मनुष्य का अहंकार ही उससे ऐसा कहता है कि वह अन्य लोगों से श्रेष्ठ है।
[45]



गांधी जी के इस विचार को अंधविश्वास को बढ़ावा देने में सक्षम होने के कारण अविवेकपूर्ण मानते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा कि भौतिक

आपदाओं का निश्चित और एकमात्र मूल कारण कुछ खास भौतिक तथ्यों के योग से

होता है।... हमारे पाप अथवा त्रुटियाँ चाहे कितनी भी भयंकर क्यों न हों

इनमें इतना बल नहीं है कि सृष्टि के ढांचे को तहस-नहस कर सकें।
[46]



इसके उत्तर में गांधी जी ने विस्तारपूर्वक अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए लिखा कि ब्रह्मांड

में हो रही प्राकृतिक घटनाओं और मानवीय व्यवहार के पारस्परिक संबंध में

मेरा जीवंत विश्वास है और उस विश्वास के कारण मैं ईश्वर के अधिकाधिक निकट

आता गया हूँ, मुझमें विनम्रता आई है और मैं अपने को ईश्वर के सम्मुख

उपस्थित करने के लिए अधिकाधिक तैयार होता गया हूँ। यदि मैं अपने घोर अज्ञान

के कारण उस विश्वास का उपयोग अपने विरोधियों की निंदा करने के लिए करूँ तो

निश्चय ही ऐसा विश्वास पतनकारी अंधविश्वास बन जायेगा।
[47]



लेखन कार्य एवं प्रकाशन

गाँधी

जी पर हवाई बहस करने एवं मनमाना निष्कर्ष निकालने की अपेक्षा यह युगीन

आवश्यकता ही नहीं वरन् समझदारी का तकाजा भी है कि गाँधीजी की मान्यताओं के

आधार की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा जाए। सामान्य से विशिष्ट तक -- सभी

संदर्भों में दस्तावेजी रूप प्राप्त गाँधी जी का लिखा-बोला प्रायः प्रत्येक

शब्द अध्ययन के लिए उपलब्ध है। इसलिए स्वभावतः यह आवश्यक है कि इनके

मद्देनजर ही किसी बात को यथोचित मुकाम की ओर ले जाया जाए। लिखने की

प्रवृत्ति गाँधीजी में आरंभ से ही थी। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने

वाचिक की अपेक्षा कहीं अधिक लिखा है। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या

पत्रों के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त उन्होंने कई पत्रिकाएँ

भी निकालीं और उनमें प्रभूत लेखन किया। उनके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य को

निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:



पत्रिकाएँ









गाँधीजी द्वारा सम्पादित पत्र-पत्रिकाएँ






गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने नवजीवन नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ।[48] इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखा



प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें

गाँधी जी द्वारा मौलिक रूप से लिखित पुस्तकें चार हैं-- हिंद स्वराज, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, सत्य के प्रयोग (आत्मकथा), तथा गीता पदार्थ कोश

सहित संपूर्ण गीता की टीका। गाँधी जी आमतौर पर गुजराती में लिखते थे,

परन्तु अपनी किताबों का हिन्दी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते या करवाते

थे।



हिंद स्वराज

हिंद

स्वराज (मूलतः हिंद स्वराज्य) नामक अल्पकाय ग्रंथरत्न गाँधीजी ने इंग्लैंड

से लौटते समय किल्डोनन कैसिल नामक जहाज पर गुजराती में लिखा था और उनके

दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। आरंभ के

बारह अध्याय 11 दिसंबर 1909 के अंक में और शेष 18 दिसंबर 1909 के अंक में।

पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन पहली बार जनवरी 1910 में हुआ था और भारत में

बम्बई सरकार द्वारा 24 मार्च 1910 को इसके प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया गया

था। बम्बई सरकार की इस कार्रवाई का जवाब गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद

प्रकाशित करके दिया।[49]

इस पुस्तक के परिशिष्ट-1 में पुस्तक में प्रतिपादित विषय के अधिक अध्ययन

के लिए 20 पुस्तकों की सूची भी दी गयी है जिससे गाँधीजी के तत्कालीन अध्ययन

के विस्तार की एक झलक भी मिलती है।



दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास

दक्षिण

अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास मूलतः गुजराती में दक्षिण आफ्रिकाना

सत्याग्रहनो इतिहास नाम से 26 नवंबर 1923 को, जब वे यरवदा जेल में थे,

लिखना शुरू किया। 5 फरवरी 1924 को रिहा होने के समय तक उन्होंने प्रथम 30

अध्याय लिख डाले थे। यह इतिहास लेखमाला के रूप में 13 अप्रैल 1924 से 22

नवंबर 1925 तक नवजीवन में प्रकाशित हुआ। पुस्तक के रूप में इसके दो खंड

क्रमशः 1924 और 1925 में छपे। वालजी देसाई द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद

का प्रथम संस्करण अपेक्षित संशोधनों के साथ एस0 गणेशन मद्रास ने 1928 में

और द्वितीय और तृतीय संस्करण नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद ने 1950 और

1961 में प्रकाशित किया था।[50]



सत्य के प्रयोग (आत्मकथा)

आत्मकथा

के मूल गुजराती अध्याय धारावाहिक रूप से नवजीवन के अंकों में प्रकाशित

हुए थे। 29 नवंबर 1925 के अंक में प्रस्तावना के प्रकाशन से उसका आरंभ

हुआ और 3 फरवरी 1929 के अंक में पूर्णाहुति शीर्षक अंतिम अध्याय से उसकी

समाप्ति। गुजराती अध्यायों के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी नवजीवन में

उनका हिन्दी अनुवाद और यंग इंडिया में उनका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया जाता

रहा। तदनुसार प्रस्तावना का अनुवाद हिन्दी नवजीवन के 3 दिसंबर 1925 के

अंक में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी अनुवाद में आत्मकथा का पहला खंड पुस्तक के

रूप में पहली बार सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली से सन् 1928 में प्रकाशित

हुआ था। गाँधी जी की रचनाओं के स्वत्वाधिकारी नवजीवन ट्रस्ट ने अपनी ओर से

उसके हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन सन् 1957 में किया था।[51]



गीता माता

श्रीमद्भगवद्गीता

से गाँधी जी का हार्दिक लगाव प्रायः आजीवन रहा। गीता पर उनका चिंतन-मनन

तथा लेखन भी लंबे समय तक चलते रहा। सम्पूर्ण गीता का गुजराती अनुवाद,

प्रस्तावना सहित, उन्होंने जून 1929 में पूरा किया था और 12 मार्च 1930 को

नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद से अनासक्ति योग नाम से उसका पुस्तकाकार

प्रकाशन हुआ था। उसका हिंदी, बांग्ला एवं मराठी में अनुवाद भी तत्काल हो

गया था। अंग्रेजी अनुवाद इसके बाद जनवरी 1931 में संपन्न हुआ था तथा पहले

यंग इंडिया के अंक में प्रकाशित हुआ था।[52]



गीता के प्रत्येक श्लोक का अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए सहज बोधगम्य न

होने से गाँधी जी ने गीता के प्रत्येक अध्याय के भावों को सामान्य पाठकों

के लिए सहज बोधगम्य रूप में लिखा। यरवदा सेंट्रल जेल में 1930 और 1932 में

प्रत्येक सप्ताह पत्र के रूप में ये भाव भी नारायणदास गांधी को भेजे जाते

रहे ताकि उन्हें आश्रम की प्रार्थना सभाओं में पढ़े जायें।[53]

इन्हीं का प्रकाशन बाद में पुस्तक रूप में गीता-बोध नाम से हुआ। इनके

अतिरिक्त भी उन्होंने गीता पर प्रार्थना सभाओं में अनेक प्रवचन दिये थे।

गीता से गाँधी जी का जुड़ाव इस कदर था कि अपने अत्यंत व्यस्त जीवन के

बावजूद उन्होंने गीता के प्रत्येक पद का अक्षर क्रम से कोश तैयार किया

जिसमें पद के अर्थ के साथ-साथ उनके प्रयोग-स्थल भी निर्दिष्ट थे। इन समस्त

सामग्रियों का एकत्र प्रकाशन ही गीता माता के नाम से हुआ है।



सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय









सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय के प्रथम संस्करण (1958) एवं नवीन संस्करण (1997) की झलक






गाँधी जी के लिखित एवं वाचिक समग्र साहित्य के प्रकाशन हेतु भारत सरकार

द्वारा एक ग्रंथमाला के प्रकाशन का निर्णय प्रकाशन जगत में निःसंदेह एक

ऐतिहासिक कदम रहा है। इस ग्रंथमाला का उद्देश्य गाँधी जी ने दिन-प्रति-दिन

और वर्ष-प्रति-वर्ष जो कुछ कहा और लिखा उस सबको एकत्र करना था।[54]



इसी निर्णय के तहत अनेक अधीत विद्वानों के सहयोग से सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

का प्रकाशन हुआ। यह प्रकाशन तीन भाषाओं में हुआ। अंग्रेजी में पहली बार

100 खंडों में (THE COLLECTED WORKS OF MAHATMA GANDHI नाम से) तथा संशोधित

रूप (pdf) में 98 खंडों में इसका प्रकाशन हुआ है। हिन्दी में 97 खंडों में

तथा गुजराती में 70 खंडों में यह प्रकाशकीय महाकुंभ संपन्न हुआ है। सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

(हिन्दी) में दो अतिरिक्त वैशिष्ट्य भी सम्मिलित हैं। एक तो यह कि

प्रत्येक खंड के अंत में अक्षरक्रम से शब्दानुक्रमणिका दी गयी है जिससे

अध्ययन तथा विभिन्न कार्यवश पुनरावलोकन में अत्यंत सुविधा हो गयी है; तथा

दूसरी यह कि प्रत्येक खंड के अंत में गाँधी जी का तारीखवार जीवन-वृत्तान्त

दिया गया है, जिससे सरलतापूर्वक एक नज़र में गाँधीजी के जीवन की सभी

महत्वपूर्ण घटनाओं एवं बातों की संक्षिप्त जानकारी उपलब्ध हो जाती है।



अन्य

इनके

अतिरिक्त गाँधी जी के समग्र साहित्य से चुनिंदा अंशों के संचयन तथा

विभिन्न विषयों पर केंद्रित छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का भी विभिन्न नामों से

प्रकाशन होते रहा है। इनमें दो संचयन अति प्रसिद्ध तथा अत्युपयोगी रहे हैं

और इन दोनों का प्रकाशन भी गाँधी जी के जीवन-काल में ही (अंग्रेजी में,

1945 एवं 1947 में) हो गया था:



  1. महात्मा गांधी के विचार - सं0- आर0 के0 प्रभु एवं यू0 आर0 राव (नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली)
  2. मेरे सपनों का भारत - सं0- आर0 के0 प्रभु (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद)


गाँधी जी ने जॉन रस्किन की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last) की गुजराती में व्याख्या भी की है।[55]

अन्तिम निबंध को उनका अर्थशास्त्र से सम्बंधित कार्यक्रम कहा जा सकता है

उन्होंने शाकाहार, भोजन और स्वास्थ्य, धर्म, सामाजिक सुधार पर भी विस्तार

से लिखा है।



सन् 2000 में गाँधी जी के संपूर्ण कार्य (CWMG) का संशोधित संस्करण

विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि गाँधी जी के अनुयायियों ने सरकार पर

राजनीतिक उद्देश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया.[56]



गाँधी पर पुस्तकें

कई जीवनी लेखकों ने गाँधी के जीवन-वर्णन का कार्य किया है। उनमें से दो कार्य व्यापक एवं अपने आप में उदाहरण हैं:



  1. MAHATMA (In 8 Volumes) By: D. G. Tendulkar (First Edition : January 1954) [The Publications Division, govt. of India, New Delhi]
  2. MAHATMA GANDHI -(In 10 Volumes) {The Early Phase to Last Phase} - By Pyarelal & Sushila Nayar [Navajivan Publishing House, Ahmedabad]


इस दूसरे महाग्रंथ के अंतिम खण्ड (Last Phase) का चार खण्डों में हिन्दी अनुवाद महात्मा गांधी : पूर्णाहुति नाम से प्रकाशित है।



कर्नल जी बी अमेरिकी सेना के सिंह ने कहा कि अपनी तथ्यात्मक शोध पुस्तक

देवत्व के मुखौटे के पीछे गाँधी (गाँधी: बिहाइंड द मास्क ऑफ़ डिविनिटी)

के मूल भाषण और लेखन के लिए उन्होंने अपने 20 वर्ष[57] लगा दिए।



कथित समलैंगिक प्रेम संबंध

2011 में प्रकाशित किताब ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विद इंडिया

में पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता लेखक जोसेफ़ लेलीवेल्ड ने महात्मा गाँधी और

उनके दक्षिण अफ़्रीका में रहे सहयोगी हर्मन केलेनबाख के रिश्तों को अनन्य

प्रेम सम्बन्ध बताया है। पुस्तक के प्रकाशन के समय इस कारण से भारत में

विवाद हो गया, और गाँधी के गृह राज्य गुजरात की विधान सभा ने एक संकल्प के

माध्यम से इस पुस्तक की बिक्री प्र रोक लगा दी।[58]

लेलीवेल्ड के मुताबिक, उनकी पुस्तक के आधार पर गाँधी की समलैंगी या

द्विलिंगी होने के लगाए जा रहे आंकलन गलत हैं। उन्होंने कहा, "यह किताब ये

नहीं कहती कि गाँधी समलैंगिक या द्विलिंगी थे।यह [किताब] कहती है कि

[गाँधी] ब्रह्मचारी थे, और कैलेनबाख से गहरे [दिल] से जुडे थे। और यह कोई

नई जानकारी नहीं है।" [59](यथाशब्द)।



गांधी और कालेनबाख

महात्मा

गांधी और उनके दक्षिण अफ्रीकी मित्र हरमन कालेनबाख से संबंधित दस्तावेजों

को 1.28 मिलियन डॉलर (करीब 6.88 करोड़ रुपए) में खरीद कर भारत लाया गया है।

2012 में नीलाम होने से पहले भारत सरकार ने इन्हें सोदबी नीलामी घर से

गोपनीय करार में खरीदा था। कालेनबाख दक्षिण अफ्रीका में जिम्नास्ट, बॉडी

बिल्डर और आर्किटेक्ट थे। उन्होंने एमके गांधी को कुछ ऐसे भी पत्र भेजे थे

जिन्हें कुछ समीक्षक ‘प्रेम पत्र’ कहते हैं। इन दोनों लोगों का रिश्ता काफी

विवादित रहा था।[60]



अनुयायियों और प्रभाव

महत्वपूर्ण नेता और राजनीतिक गतिविधियाँ गाँधी से प्रभावित थीं। अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के नेताओं में मार्टिन लूथर किंग और जेम्स लाव्सन गाँधी के लेखन जो उन्हीं के सिद्धांत अहिंसा को विकसित करती है, से काफी आकर्षित हुए थे।[61] विरोधी-रंगभेद कार्यकर्ता और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, गाँधी जी से प्रेरित थे।[62] और दुसरे लोग खान अब्दुल गफ्फेर खान,[63]स्टीव बिको और औंग सू कई (Aung San Suu Kyi) हैं।[64]



गाँधी का जीवन तथा उपदेश कई लोगों को प्रेरित करती है जो गाँधी को अपना

गुरु मानते है या जो गाँधी के विचारों का प्रसार करने में अपना जीवन

समर्पित कर देते हैं। यूरोप के, रोमेन रोल्लांड पहला व्यक्ति था जिसने 1924 में अपने किताब महात्मा गाँधी में गाँधी जी पर चर्चा की थी और ब्राजील की अराजकतावादी (anarchist) और नारीवादी मारिया लासर्दा दे मौरा ने अपने कार्य शांतिवाद में गाँधी के बारें में लिखा.1931 में उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी अलबर्ट आइंस्टाइन, गाँधी के साथ पत्राचार करते थे और अपने बाद के पत्रों में उन्हें "आने वाले पीढियों का आदर्श" कहा.[65]लांजा देल वस्तो (Lanza del Vasto)

महात्मा गाँधी के साथ रहने के इरादे से सन 1936 में भारत आया; और बाद में

गाँधी दर्शन को फैलाने के लिए वह यूरोप वापस आया और 1948 में उसने कम्युनिटी ऑफ़ द आर्क की स्थापना की। (गाँधी के आश्रम से प्रभावित होकर)मदेलिने स्लेड (मीराबेन) ब्रिटिश नौसेनापति की बेटी थी जिसने अपना अधिक से अधिक व्यस्क जीवन गाँधी के भक्त के रूप में भारत में बिताया था।



इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन ने गाँधी का हवाला दिया जब वे अहिंसा पर अपने विचारों को व्यक्त कर रहे थे।[66] 2007 में केन्स लिओंस अन्तर राष्ट्रीय विज्ञापन महोत्सव (Cannes Lions International Advertising Festival), अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोर ने उन पर गाँधी के प्रभाव को बताया। [67]



पैतृक सम्पति









शत वर्षीय महात्मा गाँधी की मूर्ति व्यापारिक क्षेत्र के केंद्रीय स्थान पिएतेर्मारित्ज्बुर्ग (Pietermaritzburg), दक्षिण अफ्रीका में है।






2 अक्टूबर गाँधी का जन्मदिन है इसलिए गाँधी जयंती के अवसर पर भारत में राष्ट्रीय अवकाश होता है 15 जून 2007 को यह घोषणा की गई थी कि "संयुक्त राष्ट्र महासभा " एक प्रस्ताव की घोषणा की, कि 2 अक्टूबर (2 October) को "अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाया जाएगा.[68]



अक्सर पश्चिम में महात्मा शब्द का अर्थ ग़लत रूप में ले लिया जाता है उनके अनुसार यह संस्कृत से लिया गया है जिसमे महा का अर्थ महान और आत्म का अर्थ आत्मा होता है। ज्यादातर सूत्रों के अनुसार जैसे दत्ता और रोबिनसन के रबिन्द्रनाथ टगोर: संकलन में कहा गया है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सबसे पहले गाँधी को महात्मा का खिताब दिया था।[69] अन्य सूत्रों के अनुसार नौतामलाल भगवानजी मेहता ने 21 जनवरी 1915 में उन्हें यह खिताब दिया था।[70] हालाँकि गाँधी ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि उन्हें कभी नहीं लगा कि वे इस सम्मान के योग्य हैं।[71]मानपत्र के अनुसार, गाँधी को उनके न्याय और सत्य के सराहनीये बलिदान के लिए महात्मा नाम मिला है।[72]



1930 में टाइम पत्रिका ने महात्मा गाँधी को वर्ष का पुरूष का नाम दियाI 1999 में गाँधी अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्हे सदी का पुरूष नाम दिया गया के मुकाबले द्वितीय स्थान जगह पर थे। टाइम पत्रिका ने दलाई लामा, लेच वालेसा, डॉ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, सेसर शावेज़, औंग सान सू कई, बेनिग्नो अकुइनो जूनियर, डेसमंड टूटू और नेल्सन मंडेला को गाँधी के अहिंसा के आद्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में कहा गया.[73] भारत सरकार प्रति वर्ष उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्ताओं, विश्व के नेताओं और नागरिकों को महात्मा गाँधी शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत करती है। दक्षिण अफ्रीकी नेल्सन मंडेला, जो कि जातीय मतभेद और पार्थक्य के उन्मूलन में संघर्षरत रहे, इस पुरूस्कार को पाने वाले पहले गैर-भारतीय थे।



1996 में, भारत सरकार ने महात्मा गाँधी की श्रृंखला के नोटों

के मुद्रण को 1, 5, 10, 20, 50, 100, 500 और 1000 के अंकन के रूप में

आरम्भ किया। आज जितने भी नोट इस्तेमाल में हैं उनपर महात्मा गाँधी का चित्र

है। 1969 में यूनाइटेड किंगडम ने डाक टिकेट की एक श्रृंखला महात्मा गाँधी

के शत्वर्शिक जयंती के उपलक्ष्य में जारी की।











नई दिल्ली में गाँधी स्मृति पर सहादत स्तम्भ उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर उनकी हत्या हुयी.






यूनाइटेड किंगडम में ऐसे अनेक गाँधी जी की प्रतिमाएँ उन ख़ास स्थानों पर हैं जैसे लन्दन विश्वविद्यालय कालेज के पास ताविस्तोक चौक, लन्दन जहाँ पर उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की। यूनाइटेड किंगडम में जनवरी 30 को “राष्ट्रीय गाँधी स्मृति दिवस” मनाया जाता है।संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका,

जहाँ पर 1893 में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी

स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं।



गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको 1937 से 1948 के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है .[74]

दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें

अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह

विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार 1948 में दिया

जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए

राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था।[75] गाँधी के मृत्यु वर्ष 1948 में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब 1989 में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है।"[76]











राज घाट, नई-दिल्ली, भारत में, उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर 1948 में गाँधी का दाह-संस्कार हुआ था






बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर 30जन्वरी, 1948

को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने 1971 में कर लिया तथा

1973 में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को

संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी

जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। एक शहीद स्तम्भ

अब उस जगह को चिन्हित करता हैं जहाँ पर उनकी हत्या कर दी गयी थी।



प्रति वर्ष 30 जनवरी को, महात्मा गाँधी के पुण्यतिथि पर कई देशों के स्कूलों में अहिंसा और शान्ति का स्कूली दिन (DENIP मनाया जाता है जिसकी स्थापना 1964 स्पेन में हुयी थी। वे देश जिनमें दक्षिणी गोलार्ध कैलेंडर इस्तेमाल किया जाता हैं, वहां 30 मार्च को इसे मनाया जाता है।



आदर्श और आलोचनाएँ









महात्मा गांधी (Józef Gosławski, 1932)






गाँधी के कठोर अहिंसा का नतीजा शांतिवाद (pacifism) है, जो की राजनैतिक क्षेत्र से आलोचना का एक मूल आधार है।



विभाजन की संकल्पना

नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी।[77] 6 अक्टूबर 1946 में हरिजन में उन्होंने भारत का विभाजन पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा:





(पाकिस्तान की मांग) जैसा की मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया

गैर-इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नही हिचकूंगाइस्लाम मानव जाति

के भाईचारे और एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध

करने के लिए.इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध के समूहों में बदल

जाए वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकडों में काट सकते

हैं पर मुझे उस चीज़ के लिए राज़ी नहीं कर सकते जिसे मैं ग़लत समझता

हूँ[...] हमें आस नही छोडनी चाहिए, इसके बावजूद कि ख्याली बाते हो रही हैं

कि हमें मुसलमानों को अपने प्रेम के कैद में अबलाम्बित कर लेना चाहिए.[78]





फिर भी, जैक होमर गाँधी के जिन्ना

के साथ पाकिस्तान के विषय को लेकर एक लंबे पत्राचार पर ध्यान देते हुए

कहते हैं- "हालाँकि गांधी वैयक्तिक रूप में विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने

सहमति का सुझाव दिया जिसके तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग अस्थायी सरकार के

नीचे समझौता करते हुए अपनी आजादी प्राप्त करें जिसके बाद विभाजन के प्रश्न

का फैसला उन जिलों के जनमत द्वारा होगा जहाँ पर मुसलमानों की संख्या ज्यादा

है।"[79].



भारत के विभाजन के विषय को लेकर यह दोहरी स्थिति रखना, गाँधी ने इससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों तरफ़ से आलोचना के आयाम खोल दिए। मुहम्मद अली जिन्ना तथा समकालीन पाकिस्तानियों ने गाँधी को मुस्लमान राजनैतिक हक़ को कम कर आंकने के लिए निंदा की। विनायक दामोदर सावरकार

और उनके सहयोगियों ने गाँधी की निंदा की और आरोप लगाया कि वे राजनैतिक रूप

से मुसलमानों को मनाने में लगे हुए हैं तथा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार

के प्रति वे लापरवाह हैं और पाकिस्तान के निर्माण के लिए स्वीकृति दे दी है

(हालाँकि सार्वजानिक रूप से उन्होंने यह घोषित किया था कि विभाजन से पहले

मेरे शरीर को दो हिस्सों में काट दिया जाएगा).[80] यह आज भी राजनैतिक रूप से विवादस्पद है, जैसे कि पाकिस्तानी-अमरीकी इतिहासकार आयेशा जलाल यह तर्क देती हैं कि विभाजन की वजह गाँधी और कांग्रेस मुस्लीम लीग के साथ सत्ता बांटने में इक्छुक नहीं थे, दुसरे मसलन हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता प्रवीण तोगडिया

भी गाँधी के इस विषय को लेकर नेतृत्व की आलोचना करते हैं, यह भी इंगित

करते हैं कि उनके हिस्से की अत्यधिक कमजोरी की वजह से भारत का विभाजन हुआ।



गाँधी ने 1930 के अंत-अंत में विभाजन को लेकर इस्राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन के विभाजन के प्रति भी अपनी अरुचि जाहिर की थी। 26 अक्टूबर 1938 को उन्होंने हरिजन में कहा था:





मुझे कई पत्र प्राप्त हुए जिनमे मुझसे पूछा गया कि मैं घोषित करुँ कि जर्मनी में यहूदियों के उत्पीडन और अरब-यहूदियों के बारे में क्या विचार रखता हूँ (persecution of the Jews in Germany).

ऐसा नही कि इस कठिन प्रश्न पर अपने विचार मैं बिना झिझक के दे पाउँगा.

मेरी सहानुभूति यहुदिओं के साथ है। मैं उनसे दक्षिण अफ्रीका से ही नजदीकी

रूप से परिचित हूँ कुछ तो जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं। इन मित्रों

के द्वारा ही मुझे लंबे समय से हो रहे उत्पीडन के बारे में जानकारी मिली.

वे ईसाई धर्म के अछूत रहे हैं पर मेरी सहानुभूति मुझे न्याय की आवश्यकता से

विवेकशून्य नही करती यहूदियों के लिए एक राष्ट्र की दुहाई मुझे ज्यादा

आकर्षित नही करती. जिसकी मंजूरी बाईबल में दी गयी और जिस जिद से वे अपनी

वापसी में फिलिस्तीन को चाहने लगे हैं। क्यों नही वे, पृथ्वी के दुसरे

लोगों से प्रेम करते हैं, उस देश को अपना घर बनाते जहाँ पर उनका जन्म हुआ

और जहाँ पर उन्होंने जीविकोपार्जन किया। फिलिस्तीन अरबों का हैं, ठीक उसी

तरह जिस तरह इनलैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रंसिसिओं का. यहूदियों को

अरबों पर अधिरोपित करना अनुचित और अमानवीय है जो कुछ भी आज फिलिस्तीन में

हो रहा हैं उसे किसी भी आचार संहिता से सही साबित नही किया जा सकता.[81][82]





हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति

जो लोग हिंसा के जरिये आजादी हासिल करना चाहते थे गाँधी उनकी आलोचना के कारण भी थोड़ा सा राजनैतिक आग की लपेट में भी आ गये भगत सिंह, सुखदेव, उदम सिंह, राजगुरु की फांसी के ख़िलाफ़ उनका इनकार कुछ दलों में उनकी निंदा का कारण बनी। [83][84]



इस आलोचना के लिए गाँधी ने कहा,"एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुना करते थे

की किस तरह अंग्रेजो से बिना हथियार लड़ा जा सकता है क्योंकि तब हथयार नही

थे।..पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नही क्योंकि इससे

हिंदू-मुसलमानों के दंगो को नही रोका जा सकता इसलिए आत्मरक्षा के लिए

सशस्त्र हो जाना चाहिए."[85]



उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के द गाँधी रीडर: एक स्रोत उनके लेखनी और जीवन का . 1938 में जब पहली बार "यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी" लिखी गई, गाँधी ने 1930 में हुए जर्मनी में यहूदियों पर हुए उत्पीडन (persecution of the Jews in Germany) को सत्याग्रह

के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों

के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने की पेशकश यह कहते हुए की





अगर मैं एक यहूदी होता और जर्मनी में जन्मा होता और अपना जीविकोपार्जन

वहीं से कर रहा होता तो जर्मनी को अपना घर मानता इसके वावजूद कि कोई सभ्य

जर्मन मुझे धमकाता कि वह मुझे गोली मार देगा या किसी अंधकूपकारागार में

फ़ेंक देगा, मैं तडीपार और मतभेदीये आचरण के अधीन होने से इंकार कर दूँगा .

और इसके लिए मैं यहूदी भाइयों का इंतज़ार नाहे करूंगा कि वे आयें और मेरे

वैधानिक प्रैत्रोध में मुझसे जुडें, बल्कि मुझे आत्मविश्वास होगा कि आख़िर

में सभी मेरा उदहारण मानने के लिए बाध्य हो जायेंगे. यहाँ पर जो नुस्खा

दिया गया है अगर वह एक भी यहूदी या सारे यहूदी स्वीकार कर लें, तो उनकी

स्थिति जो आज है उससे बदतर नही होगी. और अगर दिए गए पीडा को वे

स्वेच्छापूर्वक सह लें तो वह उन्हें अंदरूनी शक्ति और आनंद प्रदान करेगा और

हिटलर की सुविचारित हिंसा भी यहूदियों की एक साधारण नर संहार के रूप में

निष्कर्षित हो तथा यह उसके अत्याचारों की घोषणा के खिलाफ पहला जवाब होगी.

अगर यहूदियों का दिमाग स्वेच्छयापूर्वक पीड़ा सहने के लिए तयार हो, मेरी

कल्पना है कि संहार का दिन भी धन्यवाद ज्ञापन और आनंद के दिन में बदल जाएगा

जैसा कि जिहोवा ने गढा.. एक अत्याचारी के हाथ में अपनी ज़ाति को देकर

किया। इश्वर का भय रखने वाले, मृत्यु के आतंक से नही डरते.[86]







सम्बन्धित प्रश्न



Comments



नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें Culture Current affairs International Relations Security and Defence Social Issues English Antonyms English Language English Related Words English Vocabulary Ethics and Values Geography Geography - india Geography -physical Geography-world River Gk GK in Hindi (Samanya Gyan) Hindi language History History - ancient History - medieval History - modern History-world Age Aptitude- Ratio Aptitude-hindi Aptitude-Number System Aptitude-speed and distance Aptitude-Time and works Area Art and Culture Average Decimal Geometry Interest L.C.M.and H.C.F Mixture Number systems Partnership Percentage Pipe and Tanki Profit and loss Ratio Series Simplification Time and distance Train Trigonometry Volume Work and time Biology Chemistry Science Science and Technology Chattishgarh Delhi Gujarat Haryana Jharkhand Jharkhand GK Madhya Pradesh Maharashtra Rajasthan States Uttar Pradesh Uttarakhand Bihar Computer Knowledge Economy Indian culture Physics Polity

Labels: , , , , ,
अपना सवाल पूछेंं या जवाब दें।






Register to Comment