Opniveshik Kaal Me Shiksha औपनिवेशिक काल में शिक्षा

औपनिवेशिक काल में शिक्षा



GkExams on 14-11-2018


भारत की परपरागत शिक्षा प्रणाली तथा शिक्षण संस्थाओ को मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद जबरदस्त धक्का लगा और देश में राजनीतिक अस्थिरता के कारण शिक्षा के माहौल में लगातार गिरावट आने लगी। कंपनी की भारत विजय के बाद भी अंग्रेजो ने शिक्षा को निजी हाथो में ही रहने दिया। अंग्रेजी सिखाने के लिए स्कूलों का जाल बिछा देने का विचार सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के एक सिविल सेवक चालर्स ग्रांट (Charles Grant) के मन में आया। उसने शिक्षा के प्रचार के लिए अंग्रेजी भाषा को ही सबसे उपयुक्त माध्यम बताया। वास्तव में, अंगेजी शिक्षा की अग्रिम रूपरेखा का निर्माण चार्ल्स ग्रांट ने ही किया । इसीलिए उसे 'भारत में आधुनिक शिक्षा का जन्मदाता' कहा जाता है।


इसी बीच 1781 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता मदरसा (Calcutta Madrasa) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य कंपनी के भारतीय अधिकारियो को फ़ारसी (तत्कालीन कामकाज की भाषा) का कार्यसाधक ज्ञान कराना था। तत्पश्चात् सन् 1784 में हेस्टिंग के सहयोगी सर विल्किंसन् जोन्स ने एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल (Asiatic Society of Bengal) की स्थापना की, जिसने प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्क़ति के अध्ययन हेतु महत्वपूर्ण प्रयास किये । उन्होंने 'एशियाटिक रिसर्चेज' नामक पत्रिका का प्रकाशन किया, जिसका उद्देश्य भारत के गौरवशाली अतीत को प्रकाश में लाना था। नवंबर 1784 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल के सदस्य विल्किंसन् ने पहली बार मूल 'श्रीमद् भगवद् गीता' का संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया। तत्श्चात 1787 में विल्किंसन् ने 'हितोपदेश' का भी अनुवाद किया। 1789 ईo में विल्किंसन् जोन्स ने कालिदास रचित 'अभिज्ञान शाकुंतलम' का अंग्रेजी अनुवाद भी किया। इसके पश्चात सन् 1789 में विल्किंसन् जोन्स ने 'गीतगोविंद' का अंग्रेजी अनुवाद किया और उनकी मृत्यु के बाद सन् 1794 में 'इंस्टीट्यूट ऑफ़ हिन्दू लॉ' के नाम से 'मनुस्मृति' का अनुवाद प्रकाशित हुआ। वस्तुतः विल्किंसन् जोन्स तथा विल्किंसन् महोदय भारत विषयक ज्ञानशास्त्र के जन्मदाता थे। मनुस्मृति ही वह प्रथम ग्रन्थ हैं जिसका अनुवाद सबसे पहले सांस्कृत से अंग्रेजी भाषा में 'ए कोड ऑफ़ जेटू लॉज (A Code of Gentoo law) के नाम से प्रकाशित हुआ। ब्रिटिश रेजिडेंट जोनाथन डकन के प्रयत्नों के फलसवरूप 1792 ईo में बनारस में एक संस्कृत कॉलेज खोला गया, जिसका उद्देश्य हिन्दुओ के धर्म, सहतियाँ और कानून का अध्धयन और प्रसार करना था। सन् 1800 में लार्ड वेलेजली ने कंपनी के असैनिक अधिकारीयो की शिक्षा के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज (Fort William College) की स्थापना की। इस कॉलेज में अंग्रेजी-हिंदुस्तानी कोश, हिंदुस्तानी व्याकरण तथा कुछ अन्य पुस्तके प्रकाशित की गई, परन्तु यह कॉलेज सन् 1802 में निदेशकों के आदेश से बंद कर दिया गया।


ईसाई मिशनरियों ने भारत में शिक्षा देने को नितांत अव्यवहारिक बताया। उन्होंने सरकार की इस कारण आलोचना की कि वाह भारतीय भाषाओँ के विद्यालयों की उपेक्षा कर रही है। ईसाई मिशनरियों ने केवल उन्हीं स्थानों में अंग्रेजी माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान और अंग्रेजी साहित्य की शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जहाँ उन्हें सफलता मिलने की आशा थी। मिशनरियों ने आधुनिक भारतीय भाषाओ के अध्ययन को महत्व दिया। इस श्रृंखला में शब्द- कोश तैयार किये गए, व्याकरण पर पुस्तके लिखी गई. बाइबिल का भारतीय भाषाओ में अनुवाद किया गया। नारी शिक्षा के क्षेत्र में मिशनरियों ने अग्रणी कार्य किया। उन्होंने बालिकाओ के लिए विधालय खोले, अनाथायल स्थापित किए और मध्यवर्गीय एव उच्चवर्गीय महिलाओ के लिए गृह विज्ञानं व महिला शिक्षा का सुभारंभ किया। इन मिशनरियों ने अपने कार्य का प्रारंभ मुलत: मद्रास एवं बंगाल में किया। बंगाल में विलियम केरी, वार्ड तथा मार्शमैन, सीरमपुर की डच बस्ती में आकर रहे। इस प्रकार, प्रसिद्ध 'सीरमपुर त्रयी' सन् 1799 में अस्तित्व में आई। वैसे इन्हें बंगाल में कंपनी का विरोध भी झेलना पड़ा।


सन् 1813 के चार्टर एक्ट में एक लॉक रुपए का प्रावधान भारत में विद्दा के प्रसार के लिए रखा गया, जिसमे भारत में साहित्य के पुनरुद्धार तथा विकास के लिए और स्थानीय विद्वानों को प्रोत्साहन देने के लिए खर्च करने की व्यवस्था थी । इसी क्रम में राजा राममोहन राय, डेविड हेयर और सर हाइड ईस्ट के संयुक्त प्रयासों से सन् 1817 में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गई। बाद में वित्तीय समस्या के चलते इस विद्यालय का प्रबंधन कंपनी को सौप दिया गया और सन् 1854 में यह एक महाविद्याल बन गया। डेविड हेयर ने शिक्षा के प्रसार की एक नई पद्धति विकसित की, जिसमे संस्कृत और अरबी के बजाय बांग्ला और अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हेयर ने ही सबसे पहले धर्मनिरपेक्ष शिक्षा की संकल्पना प्रस्तुत की।

प्राच्य- पाश्चात्य विवाद (Orientalist - Anglicist Controversy)


लोक शिक्षा महासमिति (General Committee of Public Education) जो भारत में शिक्षा सबधी नीतियाँ बनाती थी, जिस में 10 सदस्य थे। ये सदस्य दो गुटों में विभाजित थे - एक दल प्राच्य विद्धा समर्थक दल था । जिसका नेतत्व एच. टी. प्रिंसेप के हाथ में था । प्राच्य विद्या समर्थको ने वारेन हेस्टिंग्स और लॉर्ड मिंटो की शिक्षा नीति का समर्थन किया । उन्होंने हिन्दुओं एवं मुस्लिमो के परांपरागत साहित्य के पुनरुत्थान को अधिक महत्व दिया। इस दल के लोग विज्ञान के महत्व को स्वीकार तो करते थे, किन्तु वे इसका अध्ययन भारतीय भाषाओ में करने के पक्ष में थे। दूसरा दल था - पाश्चात्य या आंग्ल शिक्षा के समर्थको का जिसका नेतत्व लॉर्ड मैकाले के पास था। यह दल शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी किए जाने के पक्ष में था। अंत में दोनों दलों ने निर्णय के लिए अपना विवाद गवर्नर जनरल के समक्ष रखा।


गवर्नर जनरल की 'कार्यकारिणी परिषद (Executive Council) का सदस्य होने के नाते 1831 में लार्ड मैकाले ने अपना महत्वपूर्ण कार्यवृत (Macaulay's Minute) लिखा और उसे परिषद के सम्मुख रखा। उसने आंग्ल दल का समर्थन करते हुए लिखा था- 'यूरोप के एक अच्छे पुस्तकालय की अलमारी का एक कक्ष भारत और अरब के समस्त साहित्य से अधिक मूल्यवान हैं।' मैकाले के कार्यवृत को गवर्नर जरनल लॉर्ड विलियम बेटिक ने 1835 में स्वीकार कर लिया। इस प्रस्ताव के अनुसार कंपनी सरकार को यूरोप के साहित्य का विकास अंग्रेजी भाषा के माध्यम से करना था। साथ ही, भविष्य में धन का व्यय इसी पर किया जाना था। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि लॉर्ड मैकाले भारतीय सांस्कृति को अंधविश्वासो की खान मानते थे।

शिक्षा का अधोमुखी निसयंदन सिद्धांत (Downward Filtration Theory Of Education)


'शिक्षा समाज के उच्च वर्ग को ही दी जाए, इस वर्ग के शिक्षित होने पर शिक्षा का प्रभाव छन-छन कर जनसाधारण तक पहुंचेगा।' शिक्षा के अधोमुखी निसयंदन सिद्धांत का वस्तुत: यही अर्थ था। इस सिद्धांत का क्रियान्वयन सरकारी नीति के रूप में लॉर्ड ऑकर्लैंड द्धारा किया गया। बहरहाल, मैकाले ने भी इसी सिद्धांत पर कार्य किया था। सन् 1854 से पूर्व उच्च शिक्षा के विकास की गति काफी धीमी थी। लॉर्ड आर्कलैण्ड ने बंगाल को 9 भागो में बाँटा और प्रत्येक जिले में विद्यालय स्थापित किए। सन् 1840 तक इस प्रकार के 40 विद्यालय स्थापित हो चुके थे। सन् 1835 में लॉर्ड विलियम बैटिक के कार्यकाल में ही कलकत्ता मेडिकल कॉलेज की आधारशिला रखी गई और सन् 1851 में पूना संस्कृत कॉलेज तथा पूना अंग्रेजी स्कूल को मिलाकर पूना कॉलेज बनया गया। संयुक्त प्रांत (United Province) (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के लेफ्टिनेंट गवर्नर जेम्स टॉमसन् ने सन् 1847 में रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की। इसे आज भारत के प्रथम इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में जाना जाता हैं ।

शिक्षा पर वुड का घोषणा-पत्र, 1854 (Wood’s Education Despatch,1854)


भारतीय शिक्षा पर एक व्यापक योजना बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रधान चालर्स वुड द्धारा 1854 में प्रस्तुत की गई। इसे ही वुड का डिस्पैच (Wood's Dispatch) कहा गया। इस प्रस्ताव में शिक्षा के उद्देश्य, माध्यम, सुधारो आदि पर विचार व्यक्त किया गया था। इस घोषणा-पत्र को 'भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा (Magna Carta of Indian Education) कहा जाता हैं।


वुड के घोषणा-पत्र के प्रमुख प्रस्ताव इस प्रकार थे:-

  • उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो और जनसाधारण की शिक्षा का माध्यम देशी भाषा।
  • शिक्षा क्षेत्र में निजी उधमों को प्रोत्साहन दिया जाए।
  • पाश्चात्य शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार हो।
  • लंदन विश्वविद्यालय की तर्ज पर कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास में विश्वविद्याल खोले जाएं,जिनका कार्य केवल परीक्षा लेना हो।
  • तकनीकी विद्याल और महाविद्याल स्थापित किए जाएं।
  • अध्यापक-प्रशिक्षण संस्थाओ की स्थापना हो तथा महिला शिक्षा पर जोर दिया जाएं।
  • हर प्रांत में शिक्षा विभाग की स्थापना की जाएं।
  • सरकारी शिक्षा का स्वरूप नितांत धर्मनिरपेक्ष हो।

वुड के घोषणा-पत्र के सुझाव पर सन् 1855 में पांच प्रांतो- बंगाल, बम्बई, मद्रास, पंजाब और उ.प्र. सीमा-प्रांत में लोक शिक्षा विभाग स्थापित किया गया तथा सन् 1857 में कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास विश्वविद्याल की स्थापना की गई। वुड का घोषणा-पत्र मुख़्यत: विवविद्यालय- स्तरीय शिक्षा से ही संबंध रखता था।

हंटर आयोग, 1882-83 (Hunter Commission, 1882-83)


विलियम हंटर की अध्यक्षता में सरकार ने सन् 1854 की शिक्षा नीति की प्रगति के लिए 1882 ई. में एक शिक्षा आयोग नियुक्त किया। इस आयोग के आठ सदस्य भारतीय थे। इस आयोग का कार्य विश्वविद्यालयो के कार्य की समीक्षा करना नहीं था, बल्कि इसे केवल प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा तक ही सीमित रखना था।


इसे आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए:-

  • सरकार प्राथमिक शिक्षा के सुधार एवं विकास की ओर विशेष ध्यान दे तथा इसका माध्यम स्थानीय भाषा ही हो। इस स्तर पर शिक्षा का नियंत्रण जिला और नगर बोर्डो को सौंपा गया।
  • माध्यमिक शिक्षा के दो खण्ड हो- पहला, विश्वविद्यालय स्तर की प्रवेश-परीक्षा के लिए विधार्थियो को तैयार करे और दूसरा, विधार्थियो को व्यावसायिक एवं व्यापारिक जीवन के लिए तैयार करे।
  • शिक्षा के क्षेत्र में निजी उधमों को बढ़वा दिया जाएं। इसके लिए सहायता अनुदान में उदारता तथा सहायताप्राप्त विधालयो को सरकारी विधालयो के बराबर मान्यता प्राप्त करने के लिए अवसर उपलब्ध हो।
  • सरकार को यथाशीघ्र माध्यमिक और कॉलेज शिक्षा से हट जाना चाहिए।

आयोग ने प्रेसिडेंसी नगरों अर्थातृ बंबई, कलकत्ता और मद्रास के अतिरिक्त अन्य सभी स्थानों पर महिला शिक्षा के पर्याप्त न होने पर खेद प्रकट किया और इसे बढ़ावा देने की सिफारिश भी की। इस आयोग की संस्तुतियों आने के बाद 20 वर्षो में माध्यमिक और कॉलेज शिक्षा में अभूतपूर्व विस्तार हुआ। इसके अलवा, अध्यापन तथा परीक्षा विश्वविद्यालय भी बनने लगे। इसी क्रम में सन् 1882 में पंजाब और सन् 1887 में इलाहाबाद विश्वविधालय की स्थापना की गई।

भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 (Indian Universities Act, 1904)


वायसराय लॉर्ड कर्जन ने सितम्बर 1901 में उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालय अधिकारियो का शिमला में एक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में पारित प्रस्ताव 'शिमला प्रस्ताव' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें 150 प्रस्ताव पारित किये गये, जो शिक्षा के सभी पक्षों से सम्बंधित थे। इसके बाद एक आयोग सर टॉमस रैले की अध्यक्षता में नियुक्त किया गया। इसका उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयो की स्थिति का अनुमान लगाना और उनके संविधान तथा कार्यक्षमता के बारे में सुझाव देना था। इस आयोग के अधिकारक्षेत्र की परिधि से प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा दूर थी। इसकी संस्तुतियों के आधार पर सन् 1904 में भारतीय विश्वविधालय अधिनियम (Indian Universities Act ,1904)पारित किया गया।


इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार थे:-

  • अध्ययन तथा शोध को बढ़ावा देने के लिये विश्वविद्यालयो में योग्य प्राध्यापकों तथा व्याख्याताओ की नियुक्ति हो और उपयोगी आधारभूत संरचना स्थापित की जाए।
  • विश्वविद्यालय के उप-सदस्यों की संख्या 50 से कम तथा 100 से अधिक न हो और उनकी सदस्यता आजीवन की बजाय केवल छह वर्ष तक के लिए हो।
  • उप-सदस्य सरकार द्धारा मनोनीत हो और उनकी कार्यवधि छह वर्ष हो।
  • उपर्युक्त अधिनियम से विश्वविद्यालयो पर सरकारी नियंत्रण बढ़ गया तथा सरकार को विश्वविद्यालय की सीनेट द्धारा पारित प्रस्ताव पर निषेधाधिकार (veto) प्राप्त हो गया।
  • दूसरे, इस अधिनियम द्धारा गैर-शासकीय कॉलेजो पर सरकारी नियंत्रण कठोर हो गया।
  • इसके अंतर्गत गवर्नर-जरनल को विश्वविद्यालय की क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करने का अधिकार मिल गया। साथ ही कालेजों को विस्वविद्यालय से संबद्ध करने का अधिकार सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया।

ब्रिटिश भारत में शिक्षा आयोग


समिति/आयोग/योजना वर्ष गवर्नर जनरल
चालर्स वुड डिस्पैच1854 लार्ड डलहौजी
हंटर आयोग1882लॉर्ड रिपन
रैल आयोग1902लॉर्ड कर्जन
सैडलर आयोग1917लॉर्ड चेम्सफोर्ड
इंचकेप आयोग1923लॉर्ड रीडिंग
हर्टोग समिति (प्राथमिक शिक्षा) 1929लॉर्ड इर्विन
लिंडसे आयोग (प्रौढ़ शिक्षा) 1929 लॉर्ड इर्विन
सार्जेट आयोग 1944 लॉर्ड वेवेल

इस अधिनियम की विधान परिषद के अंदर और बाहर राष्ट्रीयवादियो ने कड़ी आलोचन की । यहाँ तक कि सन् 1917 में सेडलर आयोग ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया कि सन् 1904 के अधिनियम के तहत भारतीय विश्वविद्यालय संसार में सबसे अधिक पूर्णत: सरकारी विवसविद्यालय बन गये थे। कर्जन की इस नीति का परिणाम यह भी हुआ कि विश्वविधालयो के सुधार के लिए सन् 1902 से 5 लाख रूपए वार्षिक पाँच वर्ष के लिए निश्चित किये गये और इसके बाद में सरकारी अनुवाद को सरकारी निति की एक नियमित विशेषता के रूप में जाना जाने लगा।

सरकार का प्रस्ताव, 1913 (Government Resolution, 1913)


बड़ौदा रियासत ने अपने यहाँ सन् 1906 में नि:शुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रारंभ कर दी। इसका संदर्भ देकर राष्ट्रवादियों ने सरकार से प्रश्न किया कि आखिर क्यों वह ऐसे प्रगतिशील कदम देशभर के लिए नहीं उठा रही। गोपालकृष्ण गोखले ने शिक्षा व्यापक प्रसार के लिए इस तरह की माँगे विधानपरिषद में व्यापकता से उठायी। 21 फरवरी, 1913 को सरकार ने एक शिक्षा नीति की घोषणा की। यद्यपि इस निति में गोपालकृष्ण गोखले द्रारा उठाई गई अनिवार्य नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा की माँग नकार दी गई, किंतु निरक्षरता समाप्त करने की निति को स्वीकार कर लिया गया। इस प्रस्ताव में सरकार ने प्रत्येक प्रांत में एक विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा की। सरकार ने प्रांतीय सरकारों को प्रेरित किया की वे समाज के निर्धन एवं अत्यंत पिछड़े वर्गो को मुफ्त प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करे। ततपश्चात इस क्षेत्र में गैर-सरकारी उद्यमों को भी प्रोत्साहन दिया गया।

सेडलर विश्वविद्यालय आयोग, 1917 (Sadler University Commission, 1917)

सरकार ने कलकत्ता विश्वविद्यालय की समस्याओ तथा संभावनाओं के अध्ययन हेतु लीड्स विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एनी सेडलर की अध्यक्षता में 1917 ई. में एक आयोग का गठन किया गया। इस आयोग में दो भारतीय- सर आशुतोष मुखर्जी तथा जिआउद्दीन अहमद भी थे। आयोग का विचार था कि विश्वविद्यालयी स्तर की शिक्षा की गुणवत्ता तब तक नहीं सुधरेगी, जब तक कि माध्यमिक शिक्षा का स्तर नहीं सुधारा जायेगा। अत: आयोग ने सन् 1904 के अधिनियम की निंदा की और कहा कि कॉलेज तथा विश्वविद्यालय शिक्षा का तालमेल सही नहीं है। इस आयोग की सिफारिशें इस प्रकार थी:-

  • विद्यालयी शिक्षा 12 वर्ष की हो और विद्यार्थियों को हाई स्कूल के बाद नहीं बल्कि माध्यमिक परीक्षा के बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश मिले।
  • इंटरमीडिएट के बाद स्नातक की उपाधि तीन वर्ष की हो। प्रतिभाशाली विद्यार्थीयो के लिए प्रावीण (Honours) पाठ्यक्रम साधारण (Pass) पाठ्यक्रम से अलग होना चाहिए।
  • भारत सरकार के नियंत्रण से मुक्त कर के कलकत्ता विश्वविद्यालय को बंगाल सरकार के अधीन किया जाए।
  • ढाका में एक अन्य विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए ताकि कलकत्ता विश्वविद्यालय पर भार कम हो और इसी प्रकार यह प्रयास होना चाहिए कि अन्य विश्विद्यालयो के केंद्र भी स्थापित हो।
  • कलकत्ता विश्वविद्यालय में महिलाओ कि शिक्षा के लिए एक विशेष बोर्ड बनना चाहिए और महिला शिक्षा के लिए सुविधाओं का प्रसार होना चाहिए।
  • ढाका और कलकत्ता विश्वविद्यालयो में ऐसे शिक्षा विभाग स्थापित किये जाएँ जहाँ अध्यापको के प्रशिक्षण के लिए प्रचुर सुविधायें हो।
  • सेडलर आयोग के सुझावों पर सयुंक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में एक बोर्ड ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन की स्थापना हुई। सन् 1916 और 1921 के बीच मैसूर, पटना, बनारस, अलीगढ़, ढाका, लखनऊ और उस्मानिया नामक नये विश्वविद्यालय उभर कर आये।

हार्टोग समिति, 1929 (Hartog Committee, 1929)

देश में शिक्षा प्रसार के निजी एवं सरकारी प्रयासों से साक्षरता में तो वृद्धि हुई किंतु शिक्षा पद्धति के प्रति असंतोष ही बढ़ा। भारतीय सांविधिक आयोग (Indian Statutory Commission) ने सर फिलिप हर्टोग की अध्यक्षता में सन् 1929 में एक सहायक समिति नियुक्त की, जिसे शिक्षा के विकास पर रिपोर्ट देने के लिये कहा गया।


इस समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें प्रस्तुत की:-
1 . प्राथमिक शिक्षा के राष्ट्रीय महत्व पर जोर दिया और सुधार एंव एकीकरण की निति अपनाई जाए।
2 . ग्रामीण संस्कृति के छात्रों को मिडिल स्कूल तक की ही शिक्षा दी जाये, इसके बाद उन्हें औधोगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा दी जाये।
3 . विश्वविद्यालयो को सुधारने के प्रयास किये जायें तथा उच्च शिक्षा केवल उन्हीं को मिले जो उसके योग्य हों। तदोपरांत हर्टोग समिति की सिफारिश के आधार पर सन् 1935 में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का पुनगर्ठन किया गया।

वर्धा बुनियादी शिक्षा योजना, 1937 (Wardha plan for basic education, 1937)


भारत सरकार अधिनियम, 1935 के प्रावधानों के अनुसार प्रांतो को उसी वर्ष स्वायत्ता दे दी गई। इसके फलस्वरूप दो वर्षो में ही लोकप्रिय मंत्रिमंडल अपने-अपने प्रांतो में कार्य करने लगे। सन् 1937 में महात्मा गाँधी ने अपने पत्र 'द हरिजन' (The Harijan)’ में लेखों की एक श्रृंखला के माध्यम से एक शिक्षा योजना का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इसे ही वर्धा योजना (Wardha Plan) कहा गया। जाकिर हुसैन समिति ने इस योजना का ब्यौरा प्रस्तुत किया। योजना का मूलभूत सिद्धांत विलय योग्य हस्त-निर्मित वस्तुओ का उत्पादन करना था जिससे शिक्षको के वेतन का बी प्रबंध हो जाता। इसके अंतर्गत विद्यार्थी को मातृभाषा के माध्यम से सात वर्ष तक विद्या अध्यन करना था।


इस योजना की मुख्य शर्ते इस प्रकार थी:-

  1. 7 से 14 वर्ष के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य दी जाए।
  2. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही हो ताकि विद्यार्थी स्वावलंबी बन सकें।
  3. हर छात्र/ छात्रा को उसकी रूचि के अनुरूप व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त हो।

बहरहाल द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने और कांग्रेसी मंत्रिमंडल के त्यागपत्र देने से यह लागु नहीं हो सकी। इस कार्य को सन् 1947 के पश्चात राष्ट्रीय सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया।

सार्जेट योजना, 1944 (Sergeant Plan 1944)


देश में शिक्षा के विकास के लिए केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (Central Advisory Board of Education) ने 1944 ई. में एक राष्ट्रीय योजना की सिफारिश की। इस मंडल के अध्यक्ष सर जॉन सार्जेण्ट ही भारत के प्रमुख शिक्षा परामर्शदाता थे।


उन्होंने अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित सिफारिशें की:

  1. प्राथमिक विद्यालय तथा उच्च-माध्यमिक विद्यालय देश भर में स्थापित किये जाए।
  2. 6 से 11 वर्ष तक के बालक- बालिकाओ के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यापक व्यवस्था हो।
  3. 11 से 17 वर्ष की आयु के छात्र-छात्राओ के लिए छह वर्ष की शिक्षा की व्यवस्था हो।




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Comments Keshav on 13-12-2023

Opninesik kaal me sikcha ka vikas

Lllll on 19-11-2021

Opniveshik bharat me shiksha ke lashay sanrachna evam pathcharya ka vistrit vardan kijiye





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