BharatMuni Ka Ras Sutra भरतमुनि का रस सूत्र

भरतमुनि का रस सूत्र



Pradeep Chawla on 12-05-2019

रस का शाब्दिक अर्थ है आनंद । काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है।



काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का स्थायी भाव ही रस-दशा को प्राप्त होता है।

पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस रूप में परिणित हो जाता है।

रस को काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व माना जाता है।



उदाहरण- राम पुष्पवाटिका में घूम रहे हैं। एक ओर से जानकीजी आती हैं। एकान्त है और प्रातःकालीन वायु। पुष्पों की छटा मन में मोह पैदा करती हैं। राम इस दशा में जानकीजी पर मुग्ध होकर उनकी ओर आकृष्ट होते है। राम को जानकीजी की ओर देखने की इच्छा और फिर लज्जा से हर्ष और रोमांच आदि होते हैं। इस सारे वर्णन को सुन-पढ़कर पाठक या श्रोता के मन में रति जागरित होती है। यहाँ जानकीजी आलम्बनविभाव, एकान्त तथा प्रातःकालीन वाटिका का दृश्य उद्यीपनविभाव, सीता और राम में कटाक्ष-हर्ष-लज्जा-रोमांच आदि व्यभिचारी भाव हैं, जो सब मिलकर स्थायी भाव रति को उत्पत्र कर शृंगार रस का संचार करते हैं। भरत मुनि ने रसनिष्पत्ति के लिए नाना भावों का उपगत होना कहा है, जिसका अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और संचारी भाव यहाँ स्थायी भाव के समीप आकर अनुकूलता ग्रहण करते हैं।



आचार्यों ने अपने-अपने ढंग के रस को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है। सबसे प्रचलित परिभाषा भरत मुनि की है, जिन्होंने सर्वप्रथम रस का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में ईसा की पहली शताब्दी के आसपास किया था। उनके अनुसार रस की परिभाषा इस प्रकार है-

विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:- नाट्यशास्त्र,

अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

रस के अंग



रस के चार अंग है-

(1) विभाव

(2) अनुभाव

(3) व्यभिचारी भाव

(4) स्थायी भाव।



(1) विभाव :- जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन कारणों को विभाव कहा जाता है।

दूसरे शब्दों में- स्थायी भावों के उदबोधक कारण को विभाव कहते हैं।



विभाव के भेद



विभाव के दो भेद हैं- (क) आलंबन विभाव (ख) उद्यीपन विभाव।



(क)आलंबन विभाव- जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते है, आलंबन विभाव कहलाता है।

जैसे नायक-नायिका।



आलंबन विभाव के दो पक्ष होते है- आश्रयालंबन व विषयालंबन।

जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन कहलाता है। जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है।

उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।



(ख) उद्यीपन विभाव-जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्यीप्त होने लगता है, उद्यीपन विभाव कहलाता है।

जैसे- चाँदनी, कोकिल, कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।



(2) अनुभाव :- आलम्बन और उद्यीपन विभावों के कारण उत्पत्र भावों को बाहर प्रकाशित करनेवाले कार्य अनुभाव कहलाते है।

दूसरे शब्दों में- मनोगत भाव को व्यक्त करनेवाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते है।



अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है-

(1) स्तंभ (2) स्वेद (3) रोमांच (4) स्वर-भंग (5 )कम्प (6) विवर्णता (रंगहीनता) (7) अश्रु (8) प्रलय (संज्ञाहीनता/निश्चेष्टता) ।



अनुभाव के भेद



अतः अनुभाव के चार भेद है-

(क) कायिक (ख) मानसिक, (ग़) वाचिक और (घ) आहार्य।

यों इसके अन्य भेद भी है।



(3) व्यभिचारी या संचारी भाव :- मन में संचरण करनेवाले (आने-जाने वाले) भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते है।



व्यभिचारी या संचारी भाव स्थायी भावों के सहायक है, जो अनुकुल परिस्थितियों में घटते-बढ़ते हैं।

आचार्य भरत ने इन भावों के वर्गीकरण के चार सिद्धान्त माने हैं- (i) देश, काल और अवस्था (ii) उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृति के लोग, (iii) आश्रय की अपनी प्रकृति या अन्य व्यक्तियों की उत्तेजना के कारण अथवा वातावरण के प्रभाव (iv) स्त्री और पुरुष के अपने स्वभाव के भेद।



जैसे- निर्वेद, शंका और आलस्य आदि स्त्रियों या नीच पुरुषों के संचारी भाव है गर्व आत्मगत संचारी है अमर्ष परगत संचारी आवेग या त्रास कालानुसार संचारी हैं। भरत के अनुसार और अन्य आचार्यों के भी मत से पानी में उठनेवाले और आप-ही-आप विलीन होनेवाले बुदबुदों- जैसे ये संचारी या व्यभिचारी भाव स्थायी भावों के भेदों के अन्दर अलग-अलग भी हो सकते हैं और एक स्थायी भाव के संचारी दूसरे में भी आ सकते हैं। जैसे- गर्व शृंगार (स्थायी भाव रति का रस) में भी हो सकता है और वीर में भी।



संचारी भावों की संख्या



संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-

(1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय/व्यग्रता) (4) लज्जा (ब्रीड़ा) (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता) (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख) (10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) चपलता (15) दीनता (16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना) (19) घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव) (20) मति (21) बिबोध (चैतन्य लाभ) (22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति (28) मद (29) उन्माद (30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना) (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (रोग) (33) मरण



(4) स्थायी भाव :- मन का विकार भाव है। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में भावों की संख्या उनचास कही है, जिनमें तैतीस संचारी या व्यभिचारी, आठ सात्विक और शेष आठ स्थायी भाव है। भरत के अनुसार स्थायी भाव ये है- (i) रति, (ii) ह्रास (iii) शोक (iv) क्रोध (v) उत्साह (vi) भय (vii ) जुगुप्सा/घृणा (viii) विस्मय/आश्चर्य (ix)शम/निर्वेद (वैराग्य/वीतराग) (x)वात्सल्य रति (xi)भगवद विषयक रति/अनुराग



भरत ने बाद में शम या निर्वेद या शान्त को भी नवम स्थायी भाव माना। बाद के आचार्यों ने भक्ति और वात्सल्य को भी स्थायी भाव माना है। भाव का स्थायित्व वहीं होता है, जहाँ (i) आस्वाद्यत्व, अर्थात व्यावहारिक जीवन में स्पष्ट अनुरंजकता (ii) उत्कटत्व, अर्थात इतनी तीव्रता कि अन्य किसी सजातीय या विजातीय भावों में न दब या सिमट पाना (iii) सर्वजनसुलभत्व अर्थात संस्कार-रूप में हर मनुष्य में वर्तमान होना (iv) पुरुषार्थोपयोगिता, अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो की सिद्धि की योग्यता और (v) औचित्य, अर्थात भाव के विषय में आलम्बन आदि विषय की अनुकूलता हो। इन पाँच आधारों पर प्रथम नौ भाव ही स्थायी भाव हो सकते है।



अतः मन के विकार को भाव कहते है और जो भाव आस्वाद, उत्कटता, सर्वजन-सुलभता, चार पुरुषार्थो की उपयोगिता और औचित्य के नाते हृदय में बराबर बना रहे, वह स्थायी भाव है। वास्तविक स्थायी भाव के उदाहरण तो रस की परिपक्व अवस्था में ही मिल सकते है, अन्यत्र नही। जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है, जिसे विरुद्ध या अविरुद्ध भाव दबा नहीं सकते और जो विभावादि से सम्बद्ध होने पर रस रूप में व्यक्त होता है, उस आनन्द के मूलभूत भाव को स्थायी भाव कहते है।

रस के प्रकार

रस के ग्यारह भेद होते है- (1) शृंगार रस (2) हास्य रस (3) करूण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) बीभत्स रस (8) अदभुत रस (9) शान्त रस (10) वत्सल रस (11) भक्ति रस ।



रस के प्रकार

रस स्थायी भाव उदाहरण

(1) शृंगार रस रति/प्रेम (i) संयोग शृंगार : बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

(संभोग श्रृंगार): सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी)

(ii) वियोग श्रृंगार : निसिदिन बरसत नयन हमारे

(विप्रलंभ श्रृंगार): सदा रहित पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे।।(सूरदास)

हास्य रस हास तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप,

साज मिले पंद्रह मिनट, घंटा भर आलाप।

घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता,

धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी)

करुण रस शोक सोक बिकल सब रोवहिं रानी।

रूपु सीलु बलु तेजु बखानी।।

करहिं विलाप अनेक प्रकारा।।

परिहिं भूमि तल बारहिं बारा।। (तुलसीदास)

वीर रस उत्साह वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।

सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो।

तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं।। (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)

रौद्र रस क्रोध श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।

सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे।

संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।

करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े।। (मैथिली शरण गुप्त)

भयानक रस भय उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी।

चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी।। (जयशंकर प्रसाद)

बीभत्स रस जुगुप्सा/घृणा सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।

खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।।

गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत।

स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।। (भारतेन्दु)

अदभुत रस विस्मय/आश्चर्य आखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लखि मातु।

चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु।। (सेनापति)

शांत रस शम/निर्वेद

(वैराग्य/वीतराग) मन रे तन कागद का पुतला।

लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना।। (कबीर)

वत्सल रस वात्सल्य रति किलकत कान्ह घुटरुवन आवत।

मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत।। (सूरदास)

भक्ति रस भगवद विषयक

रति/अनुराग राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।

घोर भव नीर-निधि, नाम निज नाव रे।। (तुलसीदास)



नोट:



(1) शृंगार रस को रसराज/ रसपति कहा जाता है।

(2) नाटक में 8 ही रस माने जाते है क्योंकि वहां शांत को रस में नहीं गिना जाता। भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 माना है।

(3) भरत मुनि ने केवल 8 रसों की चर्चा की है, पर आचार्य अभिन्नगुप्त (950-1020 ई०) ने नवमोऽपि शान्तो रसः कहकर 9 रसों को काव्य में स्वीकार किया है।

(4) श्रृंगार रस के व्यापक दायरे में वत्सल रस व भक्ति रस आ जाते हैं इसलिए रसों की संख्या 9 ही मानना ज्यादा उपयुक्त है।



रस संबंधी विविध तथ्य



भरतमुनि (1 वी सदी) को काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य माना जाता है। सर्वप्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपने ग्रंथ नाट्य शास्त्र में रस का विवेचन किया। उन्हें रस संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है।



भरत मुनि के कुछ प्रमुख सूत्र



(1) विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रस निष्पतिः- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी (संचारी) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।



(2) नाना भावोपगमाद् रस निष्पतिः। नाना भावोपहिता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्ति।- नाना (अनेक) भावों के उपागम (निकट आने/ मिलने) से रस की निष्पत्ति होती है। नाना (अनेक) भावों से युक्त स्थायी भाव रसावस्था को प्राप्त होते हैं।



(3) विभावानुभाव व्यभिचारि परिवृतः स्थायी भावो रस नाम लभते नरेन्द्रवत् ।- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी से घिरे रहने वाले स्थायी भाव की स्थिति राजा के समान हैं। दूसरे शब्दों में, विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी (संचारी) भाव को परिधीय स्थिति और स्थायी भाव को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त है।



(4) रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट (11 वी० सदी) ने काव्यानंद को ब्रह्मानंद सहोदर (ब्रह्मानंद- योगी द्वारा अनुभूत आनंद) कहा है। वस्तुतः रस के संबंध में ब्रह्मानंद की कल्पना का मूल स्रोत तैत्तरीय उपनिषद है जिसमें कहा गया है रसो वै सः- आनंद ही ब्रह्म है।



(5)रस-संप्रदाय के एक अन्य आचार्य, आचार्य विश्वनाथ (14 वी० सदी) ने रस को काव्य की कसौटी माना है। उनका कथन है वाक्य रसात्मकं काव्यम्- रसात्मक वाक्य ही काव्य है।



(6) हिन्दी में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल डॉ० नगेन्द्र आदि। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत के रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की स्थिति को ह्रदय की मुक्तावस्था के रूप में मानते हैं। उनके शब्द हैं : लोक-हृदय में व्यक्ति-हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस-दशा है।




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Comments Mithilesh Kumar raman on 24-02-2022

सम्प्रदाय का अर्थ

Anurag on 24-08-2021

Ras ka Sutra likhay

दिवियाश on 10-06-2021

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Rahi on 01-03-2021

भरतमुनि का रस सूत्र नाट्यशास्त्र के छ्ठे अध्याय के कोनसे श्लोक में दिया गया है?

Veer singh on 01-12-2020

Ras shabd ka prativadan sarvpratham kisne kiya

Amuu on 12-09-2020

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Priyanka mahadeo bodade on 19-10-2019

Ras nishptyi vishyak abhinav ghupty ka ras Siddharth konsa hye?


Brathmuni ks anusar ras ke bhed on 04-08-2019

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Kapil Sharma on 07-09-2018

Bharti muni ke ras sutra ki paribhasha

Kapil on 07-09-2018

Bharti muni ke ras sutra kiParibhasha

Ratnesh on 06-11-2018

Raso.ki sankhya h naye rash kuan kaun h

Satish Ruwali on 12-05-2019

Ras sutr likhiye


Sohil on 27-05-2019

Ras sutra proper define



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