Chaitanya MahaPrabhu Ke Pad चैतन्य महाप्रभु के पद

चैतन्य महाप्रभु के पद



GkExams on 16-02-2019

श्री चैतन्य महाप्रभु के श्रीमुख द्वारा प्रकट अष्ट महा निधि स्वरुप अष्ट श्लोक


" चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं,
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधुजीवनम्।
आनंदाम्बूधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं,
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।।"


अर्थात:- इस मायामय जगत में श्री कृष्ण संकीर्तन ही विजय को प्राप्त होता है। यही चित्त रूपी दर्पण का शोधन करता है। संसार रुपी महा दावानल को मिटने वाला है। कल्याण रूपी कुमुदिनी के विकास के लिए चन्द्रिका का विस्तार करने वाला है।विद्या रूप वधु का जीवन स्वरुप है।आनंद समुद्र को बढ़ने वाला है।पद पद पर पूर्ण अमृत का असस्वादन करवाने वाला है। बाहर भीतर से सर्वतोभावेन अन्तः करण पर्यन्त स्नान करवा देता है अर्थात सब पाप ताप नष्ट कर देता है।


"नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पित नियमित: स्मरणे न कालः।।1।।
एतादृशी तव कृपा भगवन ! ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाअनुरागः।।2।।"


अर्थात:- हे भगवन जीवो की भिन्न भिन्न रूचि को रखने के लिए ही तो आपने अपने अनेक नामो को प्रकशित किया है और प्रत्येक नाम में अपनी सम्पूर्ण शक्ति भी स्थापित कर दी है और स्मरण के विषय में देश काल शुद्धाशुद्धि का भी नियम बंधन तोड़ दिया। हाय प्रभु! आपकी तो जीवो पर ऐसी अहैतुकी कृपादृष्टि वृष्टि है, तथापि मेरा ऐसा दुर्भाग्य है की आपके नाम में मुझे अनुराग उत्पन्न नहीं हो रहा।


"तृणादपि सुनिचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरी।।3।।"


अर्थात:- जो अपने को तृण से भी नीच समझ कर, वृक्ष से भी सहनशील बन कर, अमानी हो कर, दूरसो को मान देता है केवल वही हरिनाम संकीर्तन कर सकता है।


"न धनं न जनं न सुन्दरीं,
कवितां वा जगदीश! कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे,
भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि।।4।।"


अर्थात:- हे जगदीश! मै, न धन चाहता हूँ, न जन चाहता हूँ, न सूंदर कविता ही जानता हूँ। हे प्राणेश्वर! मैं तो केवल यही चाहता हूँ की आपके श्रीचरणकमलों में मेरी जन्म जन्म में अहैतुकी भक्ति हो।


"अयि नन्दतनुज! किंकरं पतितं
मां विषमे भवाम्बूधौ।
कृपया तव पादपंकज
स्थित-धूलि-सदृशं विचिन्तय।।5।।"


अर्थात:- हे नंदनंदन वस्तुतः मैं आपका नित्य किंकर हूँ किन्तु अब निज कर्म दोष से विषय संसार सागर में पड़ा हूँ। आप शरणागत वत्सल है , मुझ अनाश्रित को, अपने चरणकमलों में संलग्न रजकण के सामान जाने, आपकी करुणा के बिना, मुझ साधनशून्य का, संसार से निस्तार का कोई उपाय नहीं है।


"नयनं गलदश्रु-धारया
वदनं गद्गद्रुद्धया गिरा।
पुलकैनिर्चितं वपुः कदा
तव नामग्रहणे भविष्यति?।।6।।"


अर्थात:- हे प्रभु! आपका नाम ग्रहण करते समय, मेरे नयनअश्रुधारा से, मेरा मुख गद्गद् वाणी से और मेरा शरीर पुलकवालियो से कब व्याप्त होगा?


"युगायितं निमेषेण
चक्षुषा प्रावृषायितम्
शून्यायितं जगत् सर्वं
गोविन्द विरहेण मे।।7।।"


अर्थात:- हे सखी! गोविन्द के विरह में मेरा निमेष मात्र काल भि युग के सामान प्रतीत होता है। मेरी आँखों ने वर्षा ऋतु का सा रूप धारण कर लिया है और यह समस्त जगत मुझे शून्य प्रतीत हो रहा हैं।


"आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-
मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा व विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नाsपरः।।8।।"


अर्थात:- वह लंपट अपनी पाद सेवा में आसक्त, मुझ दासी को प्रगाढ़ आलिङ्गं से भिंचे, या अपने दर्शन न देकर मर्माहत करते हुए पीड़ा भी पहूँचाये, या अपनी जो अभिरुचि हो सो करे, परंतु वही मेरा प्राणनाथ है। उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं।






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