छन्द (Chhand) = The roof
छंद ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ छन्दस्]
१. वेदों के वाक्यों का वह भेद जो अक्षरों की गणना के अनुसार किया गया है । विशेष—इसके मुख्य सात भेद हैं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती । इनमें प्रत्येक के आर्षी, दैवी, आसुरी, प्रजापत्या, याजुषी, साम्नी, आर्ची और ब्राह्मी नामक आठ आठ भेद होते हैं । इनके परस्पर संमिश्रण से अनेक संकर जाति के छंदों की कल्पना की गई है । इन मुख्य सात छंदों के अतिरिक्त अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति, अतिधृति कृति, प्रकृति, आकृति, विकृति, संस्कृति, अभिकृति और उत्कृति नाम के छंद भी हैं जो केवल यजुर्वेद के यजुओं में होते हैं । वैदिक पद्य के छंदों में मात्रा अथवा लघु गूरू का कुछ विचार नहीं किया गया है; उनमें छंदों का निश्चय केवल उनके अक्षरों की संख्या के अनुसार होता है ।
२. वेद । वि॰ 'वेद' ।
३. वह वाक्य जिसमें वर्ण या मात्रा की गमना के अनुसार विराम का नियम हो । विशेष—यह दो प्रकार का होता है—वर्णिक और मात्रिक । जिस छंद के प्रति पाद में अक्षरों की संख्या और लघु गुरू के क्रम का नियम होता है, वह वर्णिक या वर्णवृत्त और जिसमें अक्षरों की गमना और लघु गुरू के क्रम का विचार नहीं, केवल मात्राओं की संख्या का विचार होता है, वह मात्रिक छंद कहलाता है । रोला, रूपमाला, दोहा, चौपाई इत्यादि मात्रिक छंद हैं । वंशस्थ, इंद्रवज्रा, उपेंद्रवज्रा, मालिनी, मंदाक्रांता इत्यादि वर्णवृत्त हैं । पादों के विचार से वृत्तों के तीन बेद होते हैं—समवृत्ति, अर्धसम वृत्ति और विषमवृत्ति । जिस वृत्ति में चारों पाद समान हों वह समवृत्ति, जिसमें वे असमानहों वह विषमवृत्ति और जिसके पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरम समान हों । वह अर्धसमवृत्ति कहलाता है । इन भेदों के अनुसार संस्कृत और भाषा के छंदों के अनेक भेद होते हैं ।
४. वह विद्या जिसमें छंदों के लक्षण आदि का विचार हो । यह छह वेद गों में मानी गई है । इसे पाद भी कहते हैं ।
५. अभिलाषा । इच्छा ।
६. स्पैराचार । स्वच्छाचार । मनमाना व्यवहार ।
७. बंधन । गाँठ ।
८. जाल । संघात । समूह । उ॰—बीज के वृद में है तम छंद कलिंदजा हुंद लसै दरसानी । —(शब्द॰) ।
९. कपट । छल । मक्कर । उ॰—(क) राजबार अस गुणी न चाही जेहि दूना कर कोज । यही छंद ठग विद्या छला सो राजा भोज ।
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