Mewad Ke Guhil Vansh मेवाड़ के गुहिल वंश

मेवाड़ के गुहिल वंश



GkExams on 12-05-2019







इस वंश का संस्थापक गुहिल को माना जाता है। इसी कारण इस वंश के राजपूतों को गुहिलवंशीय कहा जाता है। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा गुहिलों को विशुद्ध सूर्यवंशीय मानते हैं, जबकि डी. आर. भण्डारकर के अनुसार ये ब्राह्मण थे। गुहिल के बाद इस वंश के मान्यता प्राप्त शासकों में बापा का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जो मेवाड़ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डॉ. ओझा के अनुसार इनका नाम बापा होकर कालभोज था तथा बापा इसकी एक उपाधि थी। बापा का 110 ग्रेन का एक सोने का सिक्का भी मिला है। ख्यातों में आलुरावल के नाम से प्रसिद्ध इस वंष का ’अल्लट10वीं सदी के लगभग मेवाड़ का शासक बना। उसने हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था तथा उसके समय में आहड़ (उदयपुर) में वराह मन्दिर का निर्माण हुआ था। आहड़ से पूर्व गुहिलवंश की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र नागदा (कैलाशपुरी के निकट) था। गुहिलों ने तेरहवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथल-पुथल के बावजूद भी अपने कुल के परम्परागत राज्य को बनाए रखा।
तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में जैत्रसिंह जैसे प्रतापी व्यक्ति ने मेवाड़ पर सराहनीय शासन किया। किन्तु इसके बाद गुहिल शासक रत्नसिंह(1302-03) के समय चित्तौड़ पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया था। इस आक्रमण के राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक कारणों के अलावा रत्नसिंह की सुन्दर पत्नी पद्मिनी को अलाउद्दीन द्वारा प्राप्त करने लालसा भी बताया जाता है। पद्मिनी की कथा का उल्लेख मलिक मुहम्मद जायसी के ‘पद्मावत नामक ग्रंथ में मिलता है। इस आक्रमण में पराजय को सुनिश्चत देख पद्मिनी ने 1600 स्त्रियों के साथ जौहर किया तथा रत्नसिंह उसकी सेना के गोरा-बादल सहित कई सैनानी वीरगति को प्राप्त हुए। कहा जाता है कि अलाउद्दीन ने यहां 30000 हिन्दुओं का कत्ल करवा दिया और चित्तौड़ का नाम बदल कर खिज्राबाद कर दिया था। इस युद्ध में राजपूतों का यह बलिदान इतिहास में चित्तौड़गढ़ के प्रथम साके के नाम से प्रसिद्ध है। गोरा-बादल की वीरता एक अमर गाथा के रूप में याद की जाती है। चित्तौड़ में गोरा-बादल के महल के खण्डहर उनके साहस और वीरता की कहानी आज भी सुना रहे हैं। पद्मिनी का त्याग और जौहर व्रत महिलाओं को एक नई प्रेरणा देता है। amp

रत्नसिंह के पश्चात् सिसोदिया शाखा के सरदार राणा हम्मीर ने मेवाड़ की दयनीय स्थिति को सुधारा। राणा लाखा (1382-1421) के समय उदयपुर की पिछोला झील का बांध बंधवाया गया था। लाखा द्वारा कराए गए निर्माण कार्य मेवाड़ की आर्थिक स्थिति तथा सम्पन्नता को बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध हुए।amp

लाखा के पुत्र मोकल ने मेवाड़ को कलात्मक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया। उसने चित्तौड़ के समिधेश्वर (त्रिभुवननारायण मंदिर) मंदिर के जीर्णोद्धार द्वारा पूर्व मध्यकालीन तक्षण कला के इस नमूने को जीवनदान प्रदान किया। उसने उदयपुर के पास स्थित एकलिंगजी के मंदिर के चारों ओर परकोटा बनवाकर उसकी सुरक्षा की समुचित व्यवस्था की। amp

मोकल के पुत्र राणा कुंभा (1433-1468) का काल मेवाड़ में राजनीतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक उन्नति के लिए जाना जाता है। कुंभा को अभिनवभरताचार्य, हिन्दू सुरताण, चापगुरु, दानगुरु आदि विरुदों (उपाधियों) से संबोधित किया जाता था। राणा कुंभा ने 1437 में सारंगपुर के युद्ध में मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी को पराजित किया था। इस विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने अपने आराध्यदेव विष्णु के निमित्त चित्तौड़गढ़ में कीर्तिस्तंभ का निर्माण करवाया। कुंभा ने मेवाड़ की सुरक्षा के उद्देश्य से बसन्ती दुर्ग, मचान दुर्ग, अचलगढ़, कुंभलगढ़ दुर्ग आदि 32 किलों का निर्माण करवाया था। कुंभलगढ़ दुर्ग का सबसे ऊँचा भाग कटारगढ़ कहलाता है। कुंभाकालीन स्थापत्य में मंदिरों का बड़ा महत्त्व है। ऐसे मन्दिरों में कुंभस्वामी तथा शृंगारचंवरी का मंदिर (चित्तौड़), मीरां मंदिर (एकलिंगजी), रणकपुर का मंदिर अनूठे हैं। कुंभा वीर, युद्धकुशल, कलाप्रेमी के साथ-साथ विद्वान एवं विद्यानुरागी भी था। एकलिंगमहात्म्य से पता चलता है कि कुंभा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण, साहित्य, राजनीति में अत्यधिक निपुण था। संगीतराज, संगीत मीमांसा एवं सूड़ प्रबंन्ध कुंभा द्वारा लिखे संगीत ग्रंथ थे। कुंभा ने चण्डीशतक की व्याख्या, गीतगोविन्द की रसिकप्रिया टीका और संगीत रत्नाकर की टीका भी लिखी थी। कुंभा के दरबार में अनेक विद्वान थे, इनमें प्रमुख मण्डन (प्रख्यात शिल्पी), कवि अत्रि और महेश, कान्ह व्यास इत्यादि थे। अत्रि और महेश ने कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति की रचना की तथा कान्ह व्यास ने एकलिंगमहात्य नामक ग्रंथ की रचना की। इस प्रकार कुंभा के काल में मेवाड़ सर्वतोन्मुखी उन्नति पर पहुँच गया था।
मेवाड़ के वीरों में राणा सांगा (1509-1528) का अद्वितीय स्थान है। सांगा ने गागरोन के युद्ध में मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय और खातौली के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को पराजित कर अपनी सैनिक योग्यता का परिचय दिया। सांगा भारतीय इतिहास में हिन्दूपत के नाम से विख्यात है। राणा सांगा खानवा के मैदान में राजपूतों का एक संघ बनाकर बाबर के विरुद्ध लड़ने आया था परन्तु पराजित हुआ। बाबर के श्रेष्ठ नेतृत्व एवं तोपखानें के कारण सांगा की पराजय हुई। खानवा का युद्ध (17 मार्च,1527) परिणामों की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथों से निकलकर, मुगलों के हाथों में गई। यहीं से उत्तरी भारत का राजनीतिक संबंध मध्य एशियाई देशों से पुनः स्थापित हो गया। राणा सांगा अन्तिम हिन्दू राजा था, जिसके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियाँ विदेशियों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। सांगा ने अपने देश के गौरव रक्षा में एक आँख, एक हाथ और टांग गँवा दी थी। इसके अतिरिक्त उसके शरीर के भिन्न-भिन्न भागों पर तलवार के 80 घाव लगे हुये थे। सांगा ने अपने चरित्र और आत्मबल से उस जमाने में इस बात की पुष्टि कर दी थी कि उच्च पद और चतुराई की अपेक्षा स्वदेश रक्षा और मानव धर्म का पालन करने की क्षमता का अधिक महत्त्व है।


सांगा के पुत्र विक्रमादित्य (1531-1536) के राजत्व काल में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर दो आक्रमण किए जिसमें मेवाड़ को जन और धन की हानि उठानी पड़ी। इस आक्रमण के दौरान विक्रमादित्य की माँ और सांगा की पत्नी हाड़ी कर्मावती ने हुमायूँ के पास राखी भेजकर सहायता मांगी परन्तु समय पर सहायता मिलने पर कर्मावती (कर्णावती) ने जौहर व्रत का पालन किया। कुँवर पृथ्वीराज के अनौरस पुत्र बनवीर ने अवसर पाकर विक्रमादित्य की हत्या कर दी। वह विक्रमादित्य के दूसरे भाई उदयसिंह को भी मारकर निश्चिन्त होकर राज्य भोगना चाहता था परन्तु पन्नाधाय ने अपने पुत्र चन्दन को मृत्युशैया पर लिटाकर उदयसिंह को बचा लिया और चित्तौड़गढ़ से निकालकर कुंभलगढ़ पहुंचा दिया। इस प्रकार पन्नाधाय ने देश प्रेम हेतु त्याग का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया जिसका गान भारतीय इतिहास में सदियों तक होता रहेगा।

महाराणा उदयसिंह (1537-1572) ने 1559 में उदयपुर की स्थापना की थी। उसके समय (1567-68) में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था परन्तु कहा जाता है कि अपने मन्त्रियों की सलाह पर उदयसिंह चित्तौड़ की रक्षा का भार जयमल मेड़तिया और फत्ता सिसोदिया को सौंपकर गिरवा की पहाडि़यों में चला गया था। इतिहास लेखकों ने इसे उदयसिंह की कायरता बताया है। कर्नल टॉड ने तो यहाँ तक लिखा है कि यदि सांगा और प्रताप के बीच में उदयसिंह होता तो मेवाड़ के इतिहास के पन्ने अधिक उज्ज्वल होते। परन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा की राय में उदयसिंह को कायर या देशद्रोही कभी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसने बणवीर, मालदेव, हाजी खाँ पठान आदि के विरुद्ध युद्ध लड़कर अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। अकबर से लड़ते हुए जयमल और फत्ता वीर गति को प्राप्त हुये। अकबर ने चित्तौड़ में तीन दिनों के कठिन संघर्ष के बाद 25 फरवरी, 1568 को किला फतह कर लिया। अकबर जयमल और फत्ता की वीरता से इतना मुग्ध हुआ कि उसने आगरा किले के द्वार पर उन दोनों वीरों की पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर लगवा दी।

उदयसिंह के पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई,1540 को कटारगढ़ (कुंभलगढ़) में हुआ था। प्रताप ने मेवाड़ के सिंहासन पर केवल पच्चीस वर्षो तक शासन किया लेकिन इतने समय में ही उन्होंने ऐसी कीर्ति अर्जित की जो देश-काल की सीमा को पार कर अमर हो गई। वह और उनका मेवाड़ राज्य वीरता, बलिदान और देशाभिमान के पर्याय बन गए। प्रताप को पहाड़ी भाग में ’कीकाकहा जाता था, जो स्थानीय भाषा में छोटे बच्चे का सूचक है।
अकबर ने प्रताप को अधीनता में लाने के अनेक प्रयास किये परन्तु निष्फल रहे। जहाँ भारत के तथा राजस्थान के अधिकांश नरेशों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, प्रताप ने वैभव के प्रलोभन को ठुकरा कर राजनीतिक मंच पर अपनी कर्त्तव्य परायणता के उत्तर दायित्व को साहस से निभाया। उसने अपनी निष्ठा और दृढ़ता से अपने सैनिकों को कर्त्तव्यबोध, प्रजा को आशावादी और शत्रु को भयभीत रखा। अकबर मेवाड़ की स्वतन्त्रता समाप्त करने पर तुला हुआ था और प्रताप उसकी रक्षा के लिए। दोनों की मनोवृत्ति और भावनाओं का मेल होना ही हल्दीघाटी के युद्ध (18 जून,1576) का कारण बन गया। अकबर के प्रतिनिधि मानसिंह और महाराणा प्रताप के मध्य ऐतिहासिक हल्दीघाटी (जिला राजसमंद) का युद्ध लड़ा गया। परन्तु इसमें मानसिंह प्रताप को मारने अथवा बन्दी बनाने में असफल रहा, वहीं प्रताप ने अपने प्रिय घोड़े चेतक की पीठ पर बैठकर मुगलों को ऐसा छकाया कि वे अपना पिण्ड छुड़ाकर मेवाड़ से भाग निकले। यदि हम इस युद्ध के परिणामों को गहराई से देखते हैं तो पाते हैं कि पार्थिव विजय तो मुगलों को मिली, परन्तु वह विजय पराजय से कोई कम नहीं थी। इतिहासकार डॉ. के. एस. गुप्ता की इस सन्दर्भ में टिप्पणी है कि परिस्थितियों एवं परिणामों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हल्दीघाटी युद्ध में अकबर विजयश्री प्राप्त कर सका। महाराणा प्रताप को विपत्ति काल में उसके मन्त्री भामाशाह ने सुरक्षित सम्पत्ति लाकर समर्पित कर दी थी। इस कारण भामाशाह को दानवीर तथा मेवाड़ का उद्धारक कहकर पुकारा जाता है। राणा प्रताप ने 1582 में दिवेर के युद्ध में अकबर के प्रतिनिधि सुल्तान खाँ को मारकर वीरता का प्रदर्शन किया। प्रताप ने अपने जीवनकाल में चित्तौड़ और मांडलगढ़ के अतिरिक्त मेवाड़ के अधिकांश हिस्सों पर पुनः अधिकार कर लिया था। प्रताप ने विभिन्न समय में कुंभलगढ़ और चावण्ड को अपनी राजधानियाँ बनायी थीं। प्रताप के सम्बन्ध में कर्नल जेम्स टॉड का कथन है कि अकबर की उच्च महत्त्वाकांक्षा, शासन निपुणता और असीम साधन ये सब बातें दृढ़-चित्त महाराणा प्रताप की अदम्य वीरता, कीर्ति को उज्ज्वल रखने वाले दृढ़ साहस और कर्मठता को दबाने में पर्याप्त थी। अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र हुई हो। ‘हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपल्ली और दिवेर मेवाड़ का मेराथन है।अतएव स्वतन्त्रता का महान् स्तंभ, सद्कार्यों का समर्थक और नैतिक आचरण का पुजारी होने के कारण आज भी प्रताप का नाम भारतीयों के लिए आशा का बादल है और ज्योति का स्तंभ है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महाराणा प्रताप असंख्य भारतीय देशभक्तों के लिए स्वतन्त्रता के पुंज बने रहे।

प्रताप की मृत्यु (19 जनवरी, 1597) के पश्चात् उसके पुत्र अमर सिंह ने मेवाड़ की बिगड़ी हुई व्यवस्था को सुधारने के लिए मुगलों से संधि करना श्रेयस्कर माना। अमरसिंह ने 1615 को जहाँगीर के प्रतिनिधि पुत्र खुर्रम के पास संधि का प्रस्ताव भेजा, जिसे जहाँगीर ने स्वीकार कर लिया। अमरसिंह मुगलों से संधि करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था। संधि में कहा गया था कि राणा अमरसिंह को अन्य राजाओं की भांति मुगल दरबार की सेवा श्रेणी में प्रवेश करना होगा, परन्तु राणा को दरबार में जाकर उपस्थित होना आवश्यक होगा।

महाराणा राजसिंह (1652-1680) ने मेवाड़ की जनता को दुष्काल से सहायता पहुँचाने के लिए तथा कलात्मक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए राजसमंद झील का निर्माण करवाया। राजसिंह ने युद्ध नीति और राज्य हित के लिए संस्कृति के तत्वों के पोषण की नीति को प्राथमिकता दी। वह रणकुशल, साहसी, वीर तथा निर्भीक शासक था। उसमें कला के प्रति रुचि और साहित्य के प्रति निष्ठा थी। मेवाड़ के इतिहास में निर्माण कार्य एवं साहित्य को इसके समय में जितना प्रश्रय मिला, कुंभा को छोड़कर किसी अन्य शासक के समय में मिला। औरगंजेब जैसे शक्तिशाली मुगल शासक से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखना तथा आवश्यकता पड़ने पर शत्रुता बढा़ लेना राजसिंह की समयोचित नीति का परिणाम था।amp
(संदर्भ- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की राजस्थान अध्ययन की पुस्तक)




सम्बन्धित प्रश्न



Comments अशोक बरवड़ on 12-05-2019

किस गुहिल शासक के समय बलबन ने आक्रमण किया





नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें Culture Current affairs International Relations Security and Defence Social Issues English Antonyms English Language English Related Words English Vocabulary Ethics and Values Geography Geography - india Geography -physical Geography-world River Gk GK in Hindi (Samanya Gyan) Hindi language History History - ancient History - medieval History - modern History-world Age Aptitude- Ratio Aptitude-hindi Aptitude-Number System Aptitude-speed and distance Aptitude-Time and works Area Art and Culture Average Decimal Geometry Interest L.C.M.and H.C.F Mixture Number systems Partnership Percentage Pipe and Tanki Profit and loss Ratio Series Simplification Time and distance Train Trigonometry Volume Work and time Biology Chemistry Science Science and Technology Chattishgarh Delhi Gujarat Haryana Jharkhand Jharkhand GK Madhya Pradesh Maharashtra Rajasthan States Uttar Pradesh Uttarakhand Bihar Computer Knowledge Economy Indian culture Physics Polity

Labels: , , , , ,
अपना सवाल पूछेंं या जवाब दें।






Register to Comment