Veer Kunvar Singh Par Kavita वीर कुंवर सिंह पर कविता

वीर कुंवर सिंह पर कविता



GkExams on 12-04-2022


वीर कुंवर सिंह के बारें में : वीर कुंवर सिंह (veer kunwar singh in hindi) का जन्म 23 अप्रैल 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था।


80 साल की उम्र में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दिया था। कुंवर सिंह ने लोगों को जोड़कर बिहार के दानापुर और भोजपुर में हमला कर उन जगहों को अपने कब्जे में ले लिया था।


कुवंर सिंह की बहादुरी का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिंदगी के 80वें पड़ाव पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी मिट्टी को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए अंत तक लड़ते रहे।


ध्यान रहे की कुवंर सिंह (veer kunwar singh university) ने अपनी अंतिम लड़ाई जगदीशपुर के पास 23 अप्रैल, 1858 में लड़ी। इस लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी को हराते हुए कुंवर सिंह ने जगदीशपुर फोर्ट से यूनियन जैक का झंडा उतारकर ही दम लिया।


इस लड़ाई में बुरी तरह से घायल होने के बाद वो 23 अप्रैल को अपने किले वापस लौट आए और 26 अप्रैल, 1858 को उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं। कुंवर सिंह (veer kunwar singh drawing) की युद्ध नीति ऐसी थी कि अंग्रेज भी चकरा जाते थे। उन्हें छापामार युद्ध नीति में महारत हासिल थी और अंग्रेज भी उनकी नीति को भांप नहीं पाते थे।


वीर कुंवर सिंह सम्मान :




  • उनकी बहादुरी को सलाम करते हुए भारत सरकार ने उनके नाम पर स्टाम्प निकाला था।
  • वर्ष 1992 में बिहार सरकार ने आरा में उनके नाम पर विश्वविद्यालय खोला था।
  • 23 अप्रैल उनकी पुण्यतिथि पर जगह-जगह सम्मान समारोह का आयोजन किया जाता है।



  • वीर कुंवर सिंह पर कविता :


    यह मनोरंजन प्रसाद सिंह की कविता है जो प्रकार है...


    मस्ती की थी छिड़ी रागिनी, आजादी का गाना था।
    भारत के कोने-कोने में, होगा यह बताया था ॥
    उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई, और पेशवा नाना था।
    इधर बिहारी वीर बाँकुरा, खड़ा हुआ मस्ताना था ॥
    अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    नस-नस में उज्जैन वंश का बहता रक्त पुराना था।
    भोजराज का वंशज था, उसका भी राजघराना था।
    बालपने से ही शिकार में उसका विकट निशाना था।
    गोला-गोली, तेग-कटारी यही वीर का बना था।
    उसी नींव पर युद्ध बुढ़ापे में भी उसने ठाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था॥


    रामानुज जग जान, लखन ज्यों उनके सदा सहायी थे।
    गोकुल में बलदाऊ के प्रिय जैसे कुंवर कन्हाई थे।
    वीर श्रेष्ठ आल्हा के प्यारे ऊदल ज्यों सुखदायी थे।
    अमर सिंह भी कुंवर सिंह के वैसे ही प्रिय भाई थे।
    कुंवर सिंह का छोटा भाई वैसा ही मस्ताना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    देश-देश में व्याप्त चहुँ दिशि उसकी सुयश कहानी थी।
    उसके दया-धर्म की गाथा सबको याद जबानी थी॥
    रूबेला था बदन और उसकी चौड़ी पेशानी थी।
    जग-जाहिर जगदीशपुर में उसकी प्रिय रजधानी थी॥
    वहीं कचहरी थी ऑफिस था, वहीं कुंवर का थाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    बचपन बीता खेल-कूद में और जवानी उद्यम में।
    धीरे-धीरे कुंवर सिंह भी आ पहुँचे चौथेपन में॥
    उसी समय घटना कुछ ऐसी घटी देश के जीवन में।
    फैल गया विद्वेष फिरंगी के प्रति सहसा सबके मन में॥
    खौल उठा सन् सत्तावन में सबका खून पुराना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।


    बंगाल के बैरकपुर ने आग द्रोह की सुलगाई।
    लपटें उसकी उठी जोर से दिल्ली औ’ मेरठ धाई॥
    काशी उठी लखनऊ जागा धूम ग्वालियर में छाई।
    कानपुर में और प्रयाग में खड़े हो गए बलवा।
    रणचंडी हुंकार कर उठी शत्रु हृदय थर्राना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।


    सुनकर के आह्वान, समर में कूद पड़ी लक्ष्मीबाई।
    स्वतंत्रता की ध्वजा पेशवा ने बिठूर में फहराई।
    खोई दिल्ली फिर कुछ दिन को वापस मुगलों ने पाई।
    थर-थर करने लगे फिरंगी उनके सिर शामत आई॥
    काँप उठे अंग्रेज कहीं भी उनका नहीं ठिकाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    आग क्रांति की धधक उठी, पहुँची पटने में चिनगारी।
    रणोन्मत्त योद्धा भी करने लगे युद्ध की तैयारी॥
    चंद्रगुप्त के वंशज जागे करने माँ की रखवारी।
    शेरशाह का खून लगा करने तेजी से रफ्तारी॥
    पीर अली फाँसी पर लटका, वीर बहादुर दाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    पटने का अंग्रेज कमिश्नर टेलर जी में घबराया।
    चिट्ठी भेज जमींदारों को उसने घर पर बुलवाया ।
    बुद्धि भ्रष्ट थी हुई और आँखों पर था परदा छाया।
    कितनों ही को जेल दिया और फाँसी पर भी लटकाया॥
    कुंवर सिंह के नाम किया उसने जारी परवाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।


    कुंवर सिंह ने सोचा जब उनके मुंशी की हुई तलाश।
    दगाबाज अब हुए फिरंगी इनका जरा नहीं विश्वास ॥
    उसी समय पहुँचे विद्रोही दानापुर से उनके पास।
    हाथ जोड़कर बोले वे सरकार आपकी ही है आस
    सिंहनाद कर उठा केसरी उसे समर में जाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ।


    गंगा तट पर अर्धरात्रि को हुई लड़ाई जोरों से।
    रणोन्मत्त हो देसी सैनिक उलझ पड़े जब गोरों से॥
    शून्य दिशाएँ काँप उठी तब बंदूकों के शोरों से।
    लेकिन टिके न गोरे भागे प्राण बचाकर चोरों से॥
    कुछ क्षण में अंग्रेज फौज का वहाँ न शेष निशाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    आरा पर तब हुई चढ़ाई, हुआ कचहरी पर अधिकार।
    फैल गया तब देश-देश में कुंवर सिंह का जय-जयकार॥
    लोप हो गई तब आरा से बिलकुल अंग्रेजी सरकार।
    नहीं जरा भी होने पाया मगर किसी पर अत्याचार ।।
    भाग छिपे अंग्रेज किले में, सब लुट चुका खजाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    खबर मिली आरा की तो, आयर बक्सर से चढ़ धाया।
    विकट तोपखाना था, सँग में फौजें था काफी लाया ॥
    देशद्रोहियों का भी भारी दल था उसके संग आया।
    कब तक टिकते कुंवर सिंह आरे से उखड़ गया पाया।
    अपने ही जब बेगाने थे, उलटा हुआ जमाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था॥


    हुआ युद्ध जगदीशपुर में मचा वहाँ पूरा घमासान।
    अमर सिंह का तेज देखकर दुश्मन दल भी था हैरान ॥
    महाराज डुमराव वहीं थे, ज्यों मुगलों में राजा मान।
    अमर सिंह झपटा तेजी से लेकर उन पर नग्न कृपाण॥
    झपटा जैसे मानसिंह पर वह प्रताप सिंह राणा था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ।


    हौदे में थे महाराज, पड़ गई तेग की खाली वार।
    नाक कट गई पीलवान की हाथी भाग चला बाजार ॥
    अमर सिंह भी बीच सैन्य से निकल गया सबको ललकार।
    दादाजी थे चले गए, फिर लड़ने की थी क्या दरकार।
    पड़ा हुआ था शून्य महल, जगदीशपुर अब वीराना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    राजा कुंवर सिंह जा पहुंचे, अतरौलिया के मैदान
    आ पहुँचे अंग्रेज उधर से, हुआ परस्पर युद्ध महान॥
    हटा वीर कुछ कौशलपूर्वक, झपट पड़ा फिर बाज समान।
    भाग चले मिलमैन बहादुर बैल-शकट पर लेकर प्राण ॥
    आकर छिपे किले के अंदर, उनको प्राण बचाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    विजय राज कुंवर सिंह जो आजमगढ़ पर चढ़ गया।
    कर्नल डेम्स फौज ले सँग में, उससे लड़ने को आया।
    किंतु कुंवर सिंह के साथ तनिक भी नहीं समझ में टिक पाया।
    भागा वह भी गढ़ के अंदर, करके प्राणों की माया॥
    आजमगढ़ में कुंवर सिंह का फहरा उठा निशाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    चले बनारस, तब कैनिंग के जी में घबराहट छाई।
    अस्सी वर्षों के इस बूढ़े ने अजीब आफत ढाई॥
    लॉर्ड मार्क के संग फौजें सन्मुख समझ में आई।
    किंतु नहीं टिक सकीं देर तक उनने भी मुँह की खाई॥
    छिपा दुर्ग में सेनापति, उसका भी वहीं ठिकाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    आगे बढ़ते चले कुँअर, था ध्यान लगा झाँसी की ओर।
    सुनी मृत्यु लक्ष्मीबाई की लौट पड़े तब बढ़ना छोड़॥
    पीछे से पहुँचा लगर्ड, थी लगी प्राण की मानो होड़।
    गाजीपुर के पास पहुँचकर, हुआ युद्ध पूरा घनघोर॥
    विजय हाथ था कुंवर सिंह के किसको प्राण गँवाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।


    डगलस आकर जुटा उधर से, लेकर के सेना भरपूर।
    शत्रु सैन्य था प्रबल और सब ओर घिर गया था वह शर॥
    लगातार थी लड़ी लड़ाई थे थककर सब सैनिक चूर।
    चकमा देकर चला बहादुर, दुश्मन दल था पीछे दूर ।।
    पहुँची सेना गंगा तट उस पार नाव से जाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बडा वीर मर्दाना था ॥


    दुश्मन तट पर पहुँच गए जब कुंवर सिंह करते थे पार।
    गोली आकर लगी बाँह में दायाँ हाथ हुआ बेकार।
    हुई अपावन बाहु जान बस, काट दिया लेकर तलवार।
    ले गंगे, यह हाथ आज तुझको ही देता हूँ उपहार॥
    वीर मात का वही जाह्नवी को मानो नजराना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    इस प्रकार कर चकित शत्रु दल, कुंवर सिंह फिर घर आए।
    फहरा उठी पताका गढ़ पर दुश्मन बेहद घबराए॥
    फौज लिये लीग्रैंड चले, पर वे भी जीत नहीं पाए।
    विजयी थे फिर कुंवर सिंह अंग्रेज काम रण में आए ।
    घायल था वह वीर किंतु आसान न उसे हराना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    यही कुंवर सिंह की अंतिम विजय थी और यही अंतिम संग्राम।
    आठ महीने लड़ा शत्रु से बिना किए कुछ भी विश्राम॥
    घायल था वह वृद्ध केसरी, थी सब शक्ति हुई बेकाम।
    अधिक नहीं टिक सका और वह वीर चला थककर सुरधाम।॥
    तब भी फहरा दुर्ग पर उसका विजय निशाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    बाद मृत्यु के अंग्रेजों की फौज वहाँ गढ़ पर आई।
    कोई नहीं वहाँ था, थी महलों में निर्जनता छाई॥
    किंतु शत्रु ने शून्य भवन पर भी प्रतिहिंसा दिखलाई।
    देवालय विध्वंस किया और देव-मूर्तियाँ गिरवाई॥
    दुश्मन दल की दानवता का कुछ भी नहीं ठिकाना था।
    सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था ॥


    Pradeep Chawla on 12-05-2019

    अस्सी वर्ष की उम्र में ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला देने वाले तत्कालीन शाहाबाद (अब भोजपुर) के जगदीशपुर के निवासी बाबू वीर कुंवर सिंह की वीरता की याद आज भले ही नयी पीढ़ी के जेहन में धुंधली हो गयी हो, पर आज भी उनकी लोग उनके शौर्य की गाथा गाते है. क्षत्रिय कुल के उस उज्जैन राजपूत राजा भोज के वंशज बाबू साहबजादा सिंह के पुत्र वीर कुंवर सिंह की वीरता की पहचान वर्ष 1845-46 में ही हो गयी थी, जब ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने वाले षड्यंत्र में भंडाफोड़ होने की वजह से वीर कुँवर सिंह अंग्रेजों की हिट लिस्ट में आ गए थे.







    1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में हालांकि आप जब सबसे बुजुर्ग योद्धा या क्रांतिकारी की बात करेंगे तो ज्यादातर लोग आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का ही नाम लेंगे। क्योंकि रंगून में कैद होने के बाद की उनकी एक फोटो कई किताबों या इंटरनेट पर मिल जाती है। जबकि हकीकत ये थी कि भले ही उनके बेटों को उनकी आंखों के सामने गोली मार दी गई, उनको स्वतंत्रता संग्राम के कई नायकों ने अपना नेता माना, लेकिन वो मैदान में लड़ने की स्थिति में नहीं थे।



    80 साल की उम्र का एक और योद्धा था, जिसने 1857 की क्रांति में हिस्सा लिया था। वो मैदान में ना केवल उतरा बल्कि सबसे लंबे अरसे तक अंग्रेजों से लोहा लेता रहा और जिंदा उनके हाथ भी नहीं आया। वीर क्रांतिकारी कुंवर सिंह को 1857 के इतिहास का भीष्म पितामह कहा जाता है, जो खाली विचारों से योद्धाओं को उत्साहित नहीं करता था, बल्कि उन्हीं की तरह बिस्तर पर दवाइयों के सहारे जिंदा रहने की उम्र में घोड़े पर बैठकर मैदान-ए-जंग में किले फतह करता था।







    बिहार के भोजपुर के राजसी खानदान से ताल्लुक रखते थे कुंवर सिंह। भोजपुर यानी ‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली वाले महाराजा भोज’ की नगरी। उनकी पत्नी मेवाड़ के सिसौदिया खानदान की थीं। कुंवर रहते तो गया में थे, लेकिन रिश्ता सीधे महाराणा प्रताप के खानदान से था। दोनों खानदानों की दरियादिली, साहित्य प्रेम और वीरता की दास्तानों को सुनते-सुनते बड़े हुए थे कुंवर सिंह और उनके छोटे भाई अमर सिंह।



    इधर, देश को गुलाम देखकर उनकी आत्मा कचोटती थी, लेकिन छोटे से जगदीशपुर के राजा थे वो। इतने बड़े देश पर कब्जा जमाए बैठे अंग्रेजों से अकेले कैसे टकराते, ये सोचकर मन-मसोसकर रह जाते थे। फिर 1857 के क्रांतिकारियों ने उनसे संपर्क साधा। पूरे देश सहित बिहार में भी कमल और रोटी का संदेश गुप्त बैठकों के जरिए पहुंचाया जाने लगा। हालांकि 1857 के गदर से आम आदमी पूरी तरह नहीं जुड़ा था। अंग्रेजों के चलते अपनी राजसी गद्दी खोने वाले राजा, चर्बी वाले कारतूसों से परेशान सिपाही और मुगल बादशाह को फिर से दिल्ली की गद्दी पर पूरी ताकत के साथ बैठाने का सपना देखने वाले लोग ही ज्यादातर इस जंग का हिस्सा थे।



    29 मार्च 1857 को मंगल पांडेय ने बैरकपुर में बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की 34वीं रेजीमेंट से विद्रोह का बिगुल बजा दिया। उसके बाद क्रांतिकारियों ने सैनिकों के बीच सुलग रही इस चिंगारी को देश भर की छावनियों के सैनिकों के बीच आग में तब्दील करने का फैसला किया। कम्युनिकेशन के साधनों की कमी से हरकारों के जरिए कमल और रोटी के साथ-साथ क्रांति की तारीख 10 मई का संदेश ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी राज के दुश्मनों तक पहुंचाया गया। पटना में किताबें बेचने वाले पीर अली ने इस क्रांति की बागडोर संभाल ली। लेकिन पटना का कमिश्नर टेलर काफी चालाक था। उसकी बहावी आंदोलन की वजह से पटना के सभी सरकार विरोधी तत्वों पर कड़ी नजर थी।



    पीर अली ने साथियों से मशवरा करके तीन जुलाई को क्रांति का बिगुल पटना में भी बजाना तय किया, लेकिन पहले ही कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। फिर भी दो सौ नौजवान हथियारों से लैस होकर निकले, सभी को गिरफ्तार कर लिया गया। कइयों को फांसी पर लटका दिया गया। पीर अली को फांसी की खबर मिलते ही दानापुर की सैनिक छावनी में विद्रोह हो गया और तीन सैनिक पलटनों ने हथियार उठा लिए, लेकिन कोई योग्य नेता उनके पास नहीं था। सारे सैनिक जगदीशपुर (आरा) की तरफ कूच कर गए, कुंवर सिंह से बेहतर उनके पास कोई विकल्प नहीं था। भीष्म पितामह की तरह ही 80 साल के कुंवर सिंह (बहादुर शाह जफर से सिर्फ दो साल छोटे) मातृभूमि का कर्ज चुकाने के लिए सैनिकों के साथ हथियार उठाने के लिए तैयार हो गए।



    सबसे पहले आरा में अंग्रेजों के खजाने पर कब्जा किया गया ताकि लंबी लड़ाई के लिए तैयार हुआ जा सके। दिलचस्प बात ये थी कि कुंवर सिंह को ये पता था कि अंग्रेजों से सीधी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। उनके पास ज्यादा सेना, ज्यादा हथियार, ज्यादा आधुनिक हथियार और गोला बारूद थे। इसलिए उन्होंने शिवाजी की तरह छापामार या गौरिल्ला वॉर की रणनीति अपनाई। उसी दिन से वो महाराणा प्रताप की तरह जंगलों में निकल गए। अंग्रेजों पर अचानक हमला बोलते और सीधी लड़ाई से बचते। अंग्रेजों को अलग-अलग टुकड़ियों के जरिए कई जगह पर फंसाते और उन्हें अपनी रणनीति का पता नहीं लगने देते।



    अंग्रेजी जनरल उनकी इस रणनीति से चारों खाने चित थे। ऐसे वक्त में जब 1857 के बड़े-बड़े सूरमा धराशाई हो गए, या जल्द ही गिरफ्तार हो गए, वो उन दो तीन योद्दाओं में शामिल थे, जो अपनी लड़ाई एक साल से ज्यादा समय तक खींचने में कामयाब रहे और अंग्रेज उन्हें ना पकड़ पाए और ना मार पाए।



    सबसे पहले उन्होंने पास की एक छावनी पर कब्जा किया। अंग्रेज कप्तान डनबार को जैसे ही खबर मिली, वो एक बड़ी सेना के साथ वहां आया, लेकिन कुंवर सिंह ने पहले ही अपना घेरा हटा दिया और जंगलों में छिप गए। उसके बाद अपने जासूसों को डनबार के पीछे लगा दिया। डनबार सेना समेत जैसे ही जंगल में घुसा, कुंवर सिंह के सैनिकों ने उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। पचास अंग्रेज सैनिक ही जिंदा बच पाए। इस बुरी हार पर तिलमिलाए अंग्रेजों ने एक बड़ी सेना के साथ मेजर आयर को भेजा। उसने आरा की तरफ कूच किया, कुंवर सिंह पीछे हट गए।



    जगदीशपुर में एक और बड़ी अंग्रेजी सेना ने विंसेंट आयर के साथ घेरा डाल दिया। कुंवर सिंह के पास केवल 1700 सैनिक थे। ना लड़ना फायदेमंद होता और ना हथियार डालना ही। उन्होंने तीसरा रास्ता चुना, वो निकल भागे। राणा प्रताप और शिवाजी की तरह जंगल के चप्पे चप्पे की उनको खबर थी। अब अंग्रेजों के छोटे-छोटे जत्थों पर अचानक हमला बोलकर उनको मौत के घाट उतारने की रणनीति को अमल में लाया गया। अंग्रेजों के खेमे में हंगामा मच गया।



    इतना ही नहीं उन्होंने बिहार से निकलकर उत्तर प्रदेश तक हमले करने शुरू कर दिए। आजमगढ़, बनारस और इलाहाबाद तक कुंवर सिंह के दायरे में आ गए। इधर बेतवा के कुछ क्रांतिकारी भी उनसे आ मिले। कप्तान मिलमन की सेना को कुंवर सिंह ने जमकर शिकस्त दी और रास्ते में कर्नल डेम्स की सेना को बुरी तरह हराने के बाद कुंवर सिंह ने आजमगढ़ को घेर लिया। भाई अमर सिंह को घेरेबंदी की कमान देकर वो रात में ही बिजली की तेजी से बनारस पहुंच गए, लखनऊ के क्रांतिकारी भी उनसे आ मिले। लेकिन बनारस में तैनात अंग्रेजी अफसर लार्ड मार्कर सावधान था, उसने वहां तोपें तक तैनात कर रखी थीं।



    हालांकि कुंवर सिंह का निशाना तो जगदीशपुर था, बनारस, आजमगढ़, गाजीपुर आदि पर वो हमला केवल अंग्रेजों को उलझाने के लिए कर रहे थे। उन्होंने बनारस पर हमला बोला और बीच हमले में से सारे सैनिक धीरे से निकल गए। अंग्रेजी सेना को लगा कि वो आजमगढ़ जाएंगे, लार्ड मार्कर आजमगढ़ तक बढ़ा। अब कुंवर सिंह को आजमगढ़ की दो तरफ से रक्षा करनी थी, एक तरफ से मार्कर की सेना बढ़ रही थी, दूसरी तरफ से एक टुकड़ी कैप्टन लुगार्ड के साथ तानू नदी की तरफ बढ़ रही थी। कुंवर सिंह तानू नदी पर एक छापामार टुकड़ी पहले ही तैनात करके आए थे, और खुद वो गाजीपुर की तरफ निकल गए। तानू नदी पर इस टुकड़ी ने कई घंटों तक लुगार्ड को उलझाए रखा और बिना लुगार्ड की जानकारी के वो अगले मोर्चे पर निकल गई। जब लुगार्ड ने पुल पार किया वहां कोई नहीं था।



    तब लुगार्ड को पता चला कि कुंवर सिंह तो गाजीपुर के रास्ते में हैं, तो लुगार्ड ने अपनी सेना का रुख उस तरफ कर दिया। लेकिन कुंवर सिंह ने बीच में ही मोर्चा सजा रखा था, लुगार्ड की सेना को जमकर हराया। नौ महीने से घर से बाहर जगदीश सिंह गंगा पार कर जगदीशपुर जाना चाहते थे, अब अंग्रेजी सेना ने नए सेनापति डगलस को भेजा। कुंवर सिंह ने डगलस के खेमे में गलत खबर भिजवा दी कि वो बलिया के पास हाथियों पर बैठकर सेना पार करवाएंगे, डगलस बेवकूफों की तरह वहां तैनात हो गया और कुंवर की सेना शिवराजपुर में नावों के रास्ते निकल गई। पूरी सेना को पार करवा कर आखिरी नाव में कुंवर सिंह सवार हुए कि बौखलाया डगलस वहां पहुंच गया। उसने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। कुंवर सिंह के बाएं हाथ में एक गोली लगी, कहीं पूरे शरीर में जहर ना फैल जाए ये सोचकर 1857 के उस भीष्म पितामह ने 80 साल की उम्र में अपने दाएं हाथ की तलवार से अपना ही बायां हाथ काट डाला।



    जगदीशपुर में कर्नल ली ग्रांड की सेना को कुंवर सिंह ने एक ही हाथ से बुरी तरह से हराया। 23 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह ने जगदीशपुर पर फिर से जीत प्राप्त करने के बाद अपने महल में प्रवेश किया। यूनियन जैक को उतारकर अपना झंडा फहराया, लेकिन गोली का जहर उनके शरीर में फैल चुका था। वो पहले से ही बुढ़ापे से जुड़ी सारी बीमारियों से जूझ रहे थे। तीन दिन के अंदर यानी 26 अप्रैल को उनकी मौत हो गई। बाद में 1966 में केंद्र सरकार ने उन पर एक डाक टिकट छापा तो बिहार सरकार ने 1992 में आरा में उनके नाम पर एक यूनीवर्सिटी की स्थापना की। सुभद्रा कुमारी चौहान ने झांसी की रानी पर जो कविता लिखी, उसमें बाकी क्रांतिकारियों के साथ उनके भी नाम का उल्लेख किया है।



    कुंवर सिंह की मौत के बाद क्रांति की ज्वाला उनके भाई अमर सिंह ने जलाए रखी और 1859 में नेपाल के तराई में बाकी देश के बचे हुए क्रांतिकारियों से हाथ मिलाकर लड़ाई को आगे जारी रखने के अरसे तक प्रयास किए। लेकिन ना बिहार में और ना देश में आजादी की पूरी लड़ाई में इतना वीर और दूरदर्शी कोई और नेता नहीं हुआ, जो 80 साल की उम्र में भी जवानों जैसे जोश के साथ मौत की बाजी लगाकर जंग के मैदान में उतर सके और मरते दम तक किसी के भी हाथ ना आए।



    होनहार वीरवान के होत चिकने पात



    रणबांकुरा वीर कुंवर सिंह के बाल्य काल में पढ़ाने हेतु उनके राजा पिता ने एक शिक्षक उपलब्ध कराया था. उस ज़माने में शिक्षण कार्य में मुल्ला–मौलवी ही हुआ करते थे. इस 8 वर्ष के बालक को जब पहले दिन मौलवी ने उन्हें पाठ याद करने के लिए बोला, लेकिन बालक पाठ याद करने से दो टूक शब्द में निर्भीकतापूर्वक मना कर दिया. मौलवी ने उन पर छड़ी तान दी. तभी बालक ने बाजु में रखे तलवार को म्यान से खीच कर टीचर पर ही तान दिया.



    दुहाई सरकार, याह अल्लाह और याह मौला चिल्लाते हुए कुंवर सिंह के पिता जी के चरणों में मौलवी गिर पड़े. सारा वाक्या सुनने पर वीर बालक के पिता भी फुले न समाये. पिता ने ख़ुशी के उमंग में बोले, क्षत्रिय जन्म लेने से पहले ही तलवारबाजी में निपुण होते है. इस लिए उन्होंने मौलवी को वहां से विदा कर दिया.




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