Dharmnirpekshta Aur PanthNirpekshata Me Antar धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता में अंतर

धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता में अंतर



GkExams on 12-02-2019


26 नवंबर,1949 को भारत का संविधान बनकर तैयार हुआ था। उसी दिन की याद में ‘संविधान दिवस’ मनाते हुए दो दिन से सदन में संविधान पर चर्चा हो रही थी। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने गुरुवार को चर्चा की शरुआत करते हुए कहा कि देश में ‘सेक्युलर’ शब्द का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है और इसे बंद किया जाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अंग्रेज़ी के शब्द सेक्युलर का वास्तविक अर्थ पंथ निरपेक्ष होता है न कि धर्म निरपेक्ष। दरअसल उन्होंने इस चर्चा के बहाने विपक्ष पर इस बात के लिए एकदम सही और सटीक निशाना साधा कि उसने भारत की राजनीति में अपने फायदे के लिए इस शब्द का बहुत ज्यादा दुरुपयोग किया है। इस वार से कांग्रेस सहित समूचे विपक्ष का तिलमिलाना स्वाभाविक था, क्योंकि पूरा देश ये जानता है कि विपक्ष की पूरी राजनीति ‘सेकुलरिज्म’ पर ही टिकी हुई है। ‘सेकुलरिज्म’ वाली राजनीति आज से नहीं 1966 के दौर से जारी है।


यही वजह थी कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बयान पर नाराजगी जताते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि संविधान खतरे में है। कांग्रेस के कुछ सांसदों ने तो गृहमंत्री के बयान को असंवैधानिक और देश में असहिष्णुता फैलाने वाला बताते हुए उनकी बर्खास्तगी तक की मांग कर डाली। आइये अब धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता क्या है, इस मुद्दे पर पहले विचार करें, ताकि हमें यह पता चले कि भाजपा सही है या विपक्ष? भारतीय संविधान में बयालीसवाँ संशोधन, जो सन 1976 में हुआ, उसमे संसद को सर्वोच्चता प्रदान की गई और मौलिक अधिकारों पर निर्देशक सिद्धांतों को प्रधानता दी गई। इसमें 10 मौलिक कर्तव्यों को भी जोड़ा गया। नये शब्द– ‘समाजवादी (सोशलिस्ट), धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) और राष्ट्र की एकता और अखंडता’ को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया।



भारत में पंथनिरपेक्षता इससे पहले नहीं थी, ऐसा नहीं, किन्तु संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ शब्द के रूप में इसका उल्लेख नहीं था। आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि संविधान सभा ने लंबी बहस के वावजूद भी मूल संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द को जगह नहीं दी थी। क्या उन्हें भय था कि यह शब्द भविष्य में दुबारा भारत के विभाजन का कारण बन सकता है? बिलकुल सही बात है। देश के कुछ महान नेताओं के विचार पढ़ें तो सत्यता का अहसास हो जाएगा। यदि आप मोहनदास करम चन्द्र गांधी (गांधी जी की जीवनी.. धनंजय कौर), सरदार वल्लभ भाई पटेल (संविधान सभा में दिए गए उनके भाषण) और बाबा साहब भीम राव अंबेडकर (डा अंबेडकर सम्पूर्ण वाग्मय, खण्ड 151) के इस्लाम पर व्यक्त किये गए विचार पढ़ लें तो आपको पता चल जाएगा कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को संविधान में वो क्यों रखने के पक्ष में नहीं थे और इस शब्द को वो कितना घातक समझते थे? अंग्रेजी शब्दकोश में ‘सेकुलरिज्म’ का अर्थ बताया गया है कि वो संवैधानिक सिद्धांत या नियम, जिसके आधार पर सरकार और उसके कर्मचारी सभी धर्मों के प्रति समान और सम्मान का भाव रखते हैं तथा धर्म और धर्मगुरुओ से दूरी बनाये रखते हैं, ‘सेकुलरिज्म’ कहलाता है।



भारत में यह एक विडंबना और पाखंड ही है कि सभी पार्टिया धर्म और जाति के आधार पर वोट मांगती हैं और अपने को सेकुलर भी कहती हैं। पंथनिरपेक्षता की बात करें तो पहले पूरा यूरोप ही तथाकथित पावन ईसाई साम्राज्य के अधीन था। उस समय यूरोप में ईसा को पैगंबर, बाईबिल को धर्मपुस्तक और पोप को ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि मानना अनिवार्य था। ऐसा नहीं करने पर जान से मार दिया जाता था। ये वो समय था, जब यूरोप के राज्यों में जब एक पंथ को मानने वाला राजा हो जाता था तो वह अन्य पंथों के खिलाफ साजिश रचता था और आजीवन उन्हें नष्ट करने की कोशिश करता था। पूरे यूरोप में 13वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक करोड़ों स्त्री पुरुष और बच्चे इसी साजिश और धर्मभेद के कारण मार डाले गए और यहाँ तक कि बहुत से तो ज़िंदा ही जला दिए गए। यूरोप में सन् 1648 में वेस्टफेलिया की संधि से ‘सेक्युलरिज्म’ या धर्मनिरपेक्षता की शुरुआत हुई, जिसमे यह तय हुआ कि शासक अपने राज्य में अन्य मतावलंबियों को जान से नहीं मारेगा और उन पर मत परिवर्तन के लिए दबाव भी नहीं डालेगा।



यहीं से यूरोप में दूसरे पंथों को सहन करने की शरुआत हुई, किन्तु यह भी सत्य है कि इस ‘सेक्युलरिज्म’ में विभिन्न पंथों के बीच एक दूसरे के लिए आदर-सम्मान का भाव कभी नहीं रहा, सिर्फ राजा और चर्च की धार्मिक सत्ता को एक दूसरे से अलग कर दिया गया। विदेशों में पंथनिरपेक्षता की शुरुआत सन 1776 में पहली बार तब हुई, जब स्वतंत्र अमेरिका की घोषणा होने के बाद वहां के धार्मिक मतमतांतर (पंथ भिन्नता) को देखते हुए लिखित संविधान के साथ प्रथम पंथनिरपेक्ष राज्य, संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रादुर्भाव की घोषणा की गई। यदि हम दिव्य और आध्यात्मिक भारत भूमि की बात करें तो सनातन काल से जो पंथनिरपेक्षता उसके खून में है, वह विश्व में कहीं नहीं है। हमने तो आज से 5000 साल से भी अधिक पहले यह घोषणा कर दी थी कि दुनिया के सभी लोग सुखी हों, सभी लोग रोगमुक्त रहें और सभी लोग मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी व्यक्ति को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

सनातन हिन्दू धर्म में सभी प्राणियो के कल्याण की और एक परमतत्व को देखने की जो ‘वसुधैव कुटुबकंम’ वाली सद्भावना व्यक्त की गई है, उसी की प्रेरणा से ही कालांतर में मानव-धर्म, मानवाधिकार, पंथनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता आदि आधुनिक मत का उदभव हुआ है।



यदि आज के भारत की बात करें तो यहाँ पर एक समान नागरिक संहिता लागू नहीं होने के कारण ही ‘सेकुलरिस्म’ यानि धरनिरपेक्षता विवादित और बदनाम हुई है। हमारे देश में पहले कभी ऐसा भी समय था, जब सभी धर्मों के प्रति एक समान आदर-सम्मान का भाव रखने वाले नेता और बुद्धिजीवी सेकुलर कहलाते थे। कुछ समय बाद मुसलमानों के पक्ष में बोलने वाले तथा गलत बात में भी उनका बचाव और उनकी तरफदारी करने वाले सेकुलर कहलाने लगे। सबको मालूम है कि हमारे देश पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऑन रिकोर्ड ये कहा था कि देश की संपत्ति और संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। आश्चर्य की बात है कि देश के बुद्धिजीवियों ने उस समय उनके इस विवादित बयान पर कोई पुरस्कार, सम्मान वापसी या असहिष्णुता बढ़ने का हो हल्ला नहीं किया। अब तो स्थिति ये है कि हिंदू धर्म से नफरत करने वाले, हिंदू होकर भी हिंदू धर्म की बुराई करने वाले और हिन्दू धर्म को कमजोर करने वाले सबसे बड़े सेकुलर नेता या बुद्धिजीवी हैं। यही वजह है की आज देश में एक समान नागरिक संहिता लागू करने और धर्मनिरपेक्षता की जगह पंथनिेपेक्षता अपनाने की बात हो रही है।



‘धर्म’ शब्द का विशद ज्ञान रखने वाले विद्वानों की हमेशा से ही यह राय रही है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग गलत है। काफी समय पहले महादेवी वर्मा ने हमारे देश के नेताओं से पूछा था, “हम अपने धर्म के प्रति निरपेक्ष कैसे हो सकते हैं?” उन्हें किसी नेता ने कोई जबाब नहीं दिया, क्योंकि जबाब उनके पास है ही नहीं। उनमे से अधिकतर को तो इतना भी पता नहीं होगा कि अंग्रेजी शब्द ‘रिलीजन’ का अर्थ मत, पंथ या संप्रदाय है, धर्म नहीं। धर्म का उपासना पद्धति से नहीं, बल्कि आचरण से संबंध है। मनुस्मृति का यह श्लोक प्रमाण के रूप में प्रस्तुत है-
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
अर्थात- मनु ने धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह, ज्ञान, विद्या, सत्य, क्रोध का त्याग ये धर्म के या धार्मिक होने के दस लक्षण हैं।



पंथनिरपेक्षता की यदि हम बात करें तो यह धर्मनिरपेक्षता से कहीं अधिक उपयुक्त शब्द है। आज दुनिया के अधिकतर आधुनिक देशों में इसी शब्द का उपयोग हो रहा है। यह किसी राष्ट्र में रहने वाले विभिन्न पंथों से सरकार की तटस्थता या समरूपता को दर्शाता है। जबकि धर्मनिरपेक्षता धर्म यानि ईश्वर से मनुष्य को विमुख होने का गलत सन्देश देती है। यदि आप मानव-धर्म या संविधान को ही सर्वोच्च धर्म मानते हैं तो भी यह उससे निरपेक्ष या विमुख होने का गलत सन्देश देती है। संविधान दिवस पर लोकसभा में चर्चा के दौरान अंतिम दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “देश का एक ही धर्म संविधान है।” मुझे लगता है कि धर्म शब्द को लेकर मोदी जी भी दुविधा में हैं। संविधान का पालन करना बेशक हम सब का सबसे बड़ा कर्तव्य है। किन्तु यह धर्म नहीं है, सृष्टि का एकमात्र धर्म परमात्मा है। संसार के सभी धर्मगुरुओं को चाहिए कि वो ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करने के साथ साथ सभी धर्मों की जानकारी भी रखें, तभी देश और दुनिया में सर्वधर्म समभाव संभव है।



सन 1993 में आयोजित एक सर्वधर्म सत्संग सभा में ये दोहा अचानक मेरे मन में उतपन्न हुआ और मेरे मुख से निकल गया-
धर्म एक परमात्मा, बहु भांति के पंथ।
बोध करावें सद्गुरु, सार रूप सब ग्रन्थ॥

उस समय कम का उम्र होने के कारण किसी ने भी मेरे सन्देश को गंभीरता से नहीं लिया। किन्तु आज यही दोहा मेरे आश्रम के अनुयायियों के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य कर रहा है। अंत में समान नागरिक संहिता की चर्चा करते हुए इस सच्चाई पर प्रकाश डालना चाहूंगा कि भारत में निजी कानूनों का भरपूर दुरूपयोग हो रहा है और इसके कारण महिलाओं का बहुत ज्यादा शोषण हो रहा है। समान नागरिक संहिता एक सेक्युलर (पंथनिरपेक्ष) कानून होता है जो सभी धर्मों के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। ऐसे कानून विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में लागू हैं। 12 धर्म, 122 भाषाएं और 1600 से ज्यादा बोलियों वाले देश भारत में भी इसे लागू करने की मांग बिलकुल उचित है। यह वर्तमान समय की जरुरत है। अभी भले राजनीतिक दल इसे अमल में लाने पर हीलाहवाली करें, किन्तु भविष्य में एक दिन भारत को इसे लागू करना ही पडेगा।




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