इस तरह से बस्तर क्षेत्र की नदियाँ भी छत्तीसगढ़ की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में अपना अमूल्य योगदान दे रही हैं। छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी का भी अपना एक अलग महत्वपूर्ण इतिहास है। छत्तीसगढ़ की यह एक ऐसी नदी है, जिसका जल कभी सूखता नहीं और इसे सदानीरा कहा जाता है। यह शिवनाथ नदी दक्षिणी छत्तीसगढ़ के पूरे जल का संग्रहण कर उत्तर को सौंप देती है। शिवनाथ नदी, महानदी की एक पूरक नदी है। शिवनाथ नदी का उद्गम न तो किसी पर्वत से हुआ है और किसी झील या बड़े सरोवर से ही हुआ है। इसका उद्गम स्थल तो बस खेत की एक साधारण सी मेड़ है। ज्ञात नहीं कि इस मेड़ में ऐसी कौन सी वरुणी शक्ति निहित हैं जो शिवनाथ नदी को सदनीरा बनाये रखती है। शिवनाथ नदी राजनाँदगाँव, दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर जिलों का सीमांकन करती है। शिवनाथ नदी का बहाव सीधा है और यह नदी टेढ़ी-मेढ़ी नहीं बल्कि सीधा मार्ग अपनाते हुए चलती है। शिवनाथ नदी में महानदी की तरह न तो सोना मिलता है और न अन्य खनिज पदार्थ ही उपलब्ध होते हैं। यदि शिवनाथ के पास कोई खजाना है, तो बस केवल रेत का ही है। रेत भी ऐसी कि यदि कोई मनुष्य इसमें खड़ा हो तो वह बस रेत में धँसता ही चला जाता है। इसकी जलधारा की गति तीव्र है और नदी के किनारे प्रायः टूटते और धँसकते रहते हैं। इसके तट पर न तो राजिम जैसा कोई तीर्थ बन पाया है और न श्रृंगी ऋषि के आश्रम जैसा कोई आश्रम बन पाया है। खारून अरपा, इन्द्रावती आदि नदियों को जो गौरव मिला, वैसा गौरव भी इसे नहीं मिला। पर हाँ, इस नदी के साथ एक ईमानदार और श्रमशील आदिवासी युवक की कथा अवश्य जुड़ी हुई है।
कहा जाता है कि एक सीधा और भोला आदिवासी युवक महादेव का परमभक्त था। उसकी शिव-भक्ति को देखकर गाँव के सियान (बुजुर्ग) उसे शिवनाथ कहने लगे। गाँव के इस युवक पर गाँव के एक किसान की दृष्टि पड़ी। किसान की पारू नाम की एक सुन्दर कन्या थी। किसान के मन में इच्छा हुई कि वह शिवनाथ को घर जंवाई बनाकर अपने घर रख ले। पर आदिवासी संस्कृति के रीति-रिवाज के अनुसार वर-पक्ष को कन्या पक्ष वालों को एक निश्चित धन-राशि, मुर्गा, वस्त्र, अनाज आदि वस्तुएँ देना आवश्यक होता है, किन्तु शिवनाथ अत्यधिक ग़रीब होने के कारण इन वस्तुओं को देने में असमर्थ था। ऐसी स्थिति में एक विकल्प था कि यदि युवक लमसेना बनकर किसान के घर रहकर उसकी सेवा करे और उसके कार्यों में हाथ बँटाये और वह अपनी ये सेवायें तीन साल तक निरन्तर देता रहे तो भावी ससुर के सन्तुष्ट एवं प्रसन्न होने पर कन्या का विवाह उसके साथ हो सकता है। अतः शिवनाथ, किसान को अपनी सेवाएँ देने लगा और एवज में उसे खाना-पीना, रहने के लिए स्थान और कुछ धनराशि मिलने लगी। शिवनाथ ने अपनी ईमानदारी एवं श्रमशीलता से किसान का हृदय जीत लिया। पारू भी शिवनाथ के भोजन आदि कि व्यवस्था अपनी पूर्ण निष्ठा के साथ किया करती थी और उसकी साधन-सुविधाओं को भी हर तरह से ध्यान रखा करती थी। पारू का आकर्षण शिवनाथ के प्रति दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था और शिवनाथ के हृदय में पारू के लिए भी उदात्त प्रेम का स्थान बन गया था। तीसरे वर्ष की बात है कि ज़मीदार के बेटे की दृष्टि पारू पर पड़ी और वह उसके रूप सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया और पारू के भाईयों के सामने उससे विवाह करने की अपनी इच्छा व्यक्त की, किन्तु शिवनाथ के होते हुए ऐसा नहीं सो सकता था। अतः जमींदार के पुत्र ने पारू के भाईयों को अनेक सब्ज-बाग दिखाये और तरह-तरह की सुख-सुविधायें व मान-सम्मान देने की भी बात कही। अतः पारू के तीनों भाई लालच में आकर शिवनाथ के विरुद्ध षड़यंत्र रचने की बात सोचने लगे। एक दिन की बात है कि पूरे गाँव में सूचना फैल गई कि मेड़ के फूट जाने से सारा पानी खेतों में भरकर फसल को नुकसान पहुँचा रहा है और मेड़ को जल्दी से जल्दी ठीक करना आवश्यक है। शिवनाथ जैसे ही घर काम से लौटा तो उसे मेड़ फूटने की घटना का पता चला और वह तुरन्त मेड़ बाँधने के लिए उल्टे पैरों चल पड़ा। पारू ने बहुत आग्रह किया कि वह भोजन करने के बाद मेंड़ बाँधने जाये, किन्तु शिवनाथ तो अपने काम की धुन का पक्का था और उसने पारू से कहा कि पहले वह मेड़ बाँध कर आ जाये, फिर भोजन बाद में कर लेगा, इस तरह से शिवनाथ मेड़ बनाने के लिए चल पड़ा। कुछ देर बाद पारू के तीनों भाऊ भी लाठियां लेकर वहां पहुंच गये। उसने सोचा कि शायद ये लोग भी मेड़ बनाने में सहायता के लिए पहुँचे हैं, किन्तु हुआ यह कि उसके ऊपर लाठी पर लाठी बरसने लगी और शिवनाथ ने वहीं अपना दम तोड़ दिया। रात व्यतीत हो गई, किन्तु शिवनाथ घर नही लौटा। पारू ने उसकी प्रतीक्षा करते हुए कोरी आँखों सारी रात निकाली, पर शिवनाथ तो अब इस दुनिया में ही नदी था तो फिर वह लौटता भी कैसे? पारू उसे खोजते हुए मेड़ के पास पहुँची और ‘शिवनाथ-शिवनाथ’ उसे पुकारने लगी, किन्तु उसकी पुकार शून्य में गुँज कर रह जाती। पारू उसे इधर-उधर खोजने लगी। सहसा उसकी दृष्टि शिवनाथ की एक अँगुली पर पड़ी। शिवनाथ का शव एक गड्ढे में गड़ा हुआ था और बाहर केवल वह अँगुली ही निकली हुई थी। पारू ने गड्ढे सारी मिट्टी हटा डाली। उसने गड्ढे मे शिवनाथ की लाश को पड़े हुए पाया। पारू भी पछाड़ खाकर गड्ढे में गिर गई। वह शिवनाथ के बिना नहीं जी सकती थी। अतः दुख में उसके प्राण-पखेरू भी उड़ गये और वह शिवनाथ की लाश के ऊपर जा पड़ी। अब इस दुनिया में न तो शिवनाथ था और न पारू ही थी। यदि जीवित थी तो बस उनके उदार और वासनारहित प्रेम की कहानी ही जीवित थी। कहते हैं तभी से यह प्रेम धारा निरंतर जलधारा के रूप में सदानीरा बनकर प्रवाहित हो रही है और आदिवासी संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष को उद्घाटित करती है। महानदी, शिवनाथ से जल ग्रहण कर उड़ीसा के उस बाँध तक पहुँचा देती है, जिस बाँध का लाभ छत्तीसगढ़ को तो नहीं, बल्कि उड़ीसा प्रान्त को मिलता है
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