Bundeli Aur Bagheli Bhasha Me Antar बुंदेली और बघेली भाषा में अंतर

बुंदेली और बघेली भाषा में अंतर



GkExams on 01-09-2020

बघेली या बाघेली बोली, हिन्दी की एक बोली है जो बघेलखंड के क्षेत्र में बोली जाती है। बघेले राजपूतों के आधार पर तथा आसपास का क्षेत्र बघेलखंड कहलाता है और वहाँ की बोली को बघेलखंडी या बघेली कहलाती हैं। इसके अन्य नाम मन्नाडी, रिवाई, गंगाई, मंडल, केवोत, केवाती बोली, केवानी और नागपुरी हैं।

उद्भव

बघेली बोली का उद्भव अपभ्रंश अवधी के ही एक क्षेत्रीय रूप से हुआ है। यद्यपि जनमत इसे अलग बोली मानता है, किंतु वैज्ञानिक स्तर पर पर यह अवधी की ही उपबोली ज्ञात होती है और इसे दक्षिणी अवधी भी कह सकते हैं।




बुंदेलखंड के निवासियों द्वारा बोली जाने वाली बोली बुंदेली है। यह कहना बहुत कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सदियों से आज तक प्रयोग में हैं। केवल संस्कृत या हिंदी पढ़ने वालों को उनके अर्थ समझना कठिन हैं। ऐसे सैकड़ों शब्द जो बुंदेली के निजी है, उनके अर्थ केवल हिंदी जानने वाले नहीं बतला सकते किंतु बंगला या मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में बुंदेली में शासकीय पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा में मिलते है। कहा तो यह‍ भी जाता है कि औरंगजेब और शिवाजी भी क्षेत्र के हिंदू राजाओं से बुंदेली में ही पत्र व्यवहार करते थे। ठेठ बुंदेली का शब्दकोश भी हिंदी से अलग है और माना जाता है कि वह संस्कृत पर आधारित नहीं हैं। एक-एक क्षण के लिए अलग-अलग शब्द हैं। गीतो में प्रकृति के वर्णन के लिए, अकेली संध्या के लिए बुंदेली में इक्कीस शब्द हैं। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है। डॉ॰ वीरेंद्र वर्मा ने हिंदी भाषा का इतिहास नामक ग्रंथ में लिखा है कि बुंदेली बुंदेलखंड की उपभाषा है। शुद्ध रूप में यह झांसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, ओरछा, सागर, नरसिंहपुर, सिवनी तथा होशंगाबाद में बोली जाती है। इसके कई मिश्रित रूप दतिया, पन्ना, चरखारी, दमोह, बालाघाट तथा छिंदवाड़ा विदिशा के कुछ भागों में पाए जाते हैं।कुछ कुछ बांदा के हिस्से में भी बोली जाती है .




GkExams on 01-09-2020

बुन्देलखण्ड में लोक साहित्य की समृद्ध वाचिक परम्परा है। बुन्देली भाषा की रचनाओं का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। इस सहस्त्राब्दी के कालखण्ड में लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं का सृजन और विकास हुआ है। मूल रचनाकारों द्वारा रचा गया साहित्य अपनी प्रासंगिकता तथा लोकाभिरुचि के कारण लोककंठ में बसकर लोक की थाती बनता गया। काल के प्रवाह में लोक की सीमाओं और परिवर्तित परिस्थितियों के परिणामस्वरूप मूलरचना में परिवर्तन होते रहे। इसी लिए विभिन्न स्थानों पर एक की रचना के अनेक पाठान्तर मिलते हैं। लोक साहित्य की इस वैविध्यपूर्ण विरासत में लोकगीत, लोकगाथायें, लोककथायें एवं लोकसुभाषित (लोकोक्तियाँ अर्थात कहावतें, मुहावरे तथा बुझौअल अर्थात पहेलियाँ) सम्मिलित हैं।

लोकगीत

जनमानस अपना उल्लास और कसक लोक गीतों कें माध्यम से व्यक्त करता है। सौन्दर्य, मधुरता, करुणा और वेदना से सराबोर ये गीत सैकड़ों वर्षों की परम्परा में जनमन में इतने बस गये हैं कि किसी को इन गीतों में ‘उत्स’ का पता नहीं होता है। यदि किसी गीत का रचनाकार ज्ञात होता है तो उसे लोकगीत की श्रेणी में परिगणित नहीं किया जाता है।

इन गीतों का लोकत्व यह है कि इनकी अपनी विशिष्टि धुनें यमुना से नर्मदा तक और चम्बल से टौंस तक सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में एक जैसी गायी जाती रही हैं, गायी जाती हैं, और गायी जाती रहेंगी। स्थान दूरी पर होने वाले भाषागत या उच्चारणगत परिवर्तनों के अलावा उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं होता है। स्वर, रागरागिनी वही रहती है, केन्द्रीय भाव वही हैं, एक दो पंक्तियों को छोड़कर गीत ज्यों के त्यों मिलते हैं।

यह गीत लिखित में कम, वाचिक परम्परा में अधिक हैं। इस क्षेत्र में सर्वेक्षण करते समय मुझे यह सुखद आश्चर्य हुआ कि यह गीत उन महिलाओं के कंठों में सबसे अधिक सुरक्षित हैं, जिन्होंने न तो पोथी पढ़कर अक्षर ज्ञान पाया और न जो कागज का एक अक्षर बाँच सकती हैं परन्तु उनमें स्मरण शक्ति गजब की है। उन्होंने परम्परा से इसे सुना, सुनकर यदि किया और वे अपनी पीढ़ियों को देने को तैयार हैं किन्तु आज के कथित शिक्षाधारी युवक/युवतियाँ इस सांस्कृतिक विरासत को ग्रहण करने से कतरा रहे हैं। इस विलुप्तोन्मुखी विरासत को जितने शीघ्र लिपिबद्ध, स्वरबद्ध तथा अन्य तरीकों से संरक्षित किया जा सके वह लोक संस्कृति के हित में है।

बुन्देलखण्ड में घर-घर होने वाले पारिवारिक समारोह तथा मांगलिक आयोजन इन्हीं गीतों और संगीत के साथ आयोजित होते हैं। हृदय की कोमल भावनायें इन गीतों में सहजता के साथ व्यक्त हुई हैं। इस क्षेत्र में प्राप्त लोकगीतों को निम्न कोटि में विभाजित किया जा सकता है -

1 देवी देवताओं के पूजा विषयक गीत

2. संस्कार गीत

3. बालक/बालिकाओं के क्रीड़ात्मक उपासना गीत

4. ऋतु विषयक गीत

5. शृंगार गीत

6. श्रमदान गीत

7. जातियों के गीत

8. शौर्य /प्रशस्ति गीत

9. स्फुटगीत

देवी-देवताओं के पूजा विषयक गीत

बुन्देलखण्ड आस्था और भक्ति का प्रदेश है। यहाँ आदर्शों के प्रति आस्था ने लाला हरदौल जैसे मनुष्य को देवत्य प्रदान किया है। विष पीकर भी भावज के चरित्र की निष्कलंकता उन्होंने प्रमाणित की, बहिन की याचना की रक्षा की और इसने उन्हें अमरत्व दिया। हरदौल यहाँ के लोकदेवता हैं। गीत हर विवाह का मांगलिक कार्य में गाये जाते हैं। हनुमान जी पवन के पुत्र हैं, आँधी-अंधड़ से विनाश को रोकने वाले हैं, उनकी निर्विध्नता के प्रति यह आस्था लोकगीतों में मुखरित हुई है। राम और कृष्ण तो यहाँ घर-घर बसे हैं। हर कार्य अवसर पर उनकी पूजा का विधान है, उनके जीवन का अनुरक्षण है। कार्तिक-स्नान पर्व में महिलायें उनके चरित्र विषयक गीत प्रभात बेला में झुण्डों में निकलकर गाती है।

महिषमर्दिनी माँ दुर्गा तथा शारदा यहाँ की अधिष्ठात्री हैं। महिषासुर को लोकभाषा में मइखासुर या मइकासुर भी कहते हैं। उनका मर्दन करने वाली माँ यहाँ विपत्तियों से रक्षा के लिए विशेष पूज्य हैं। देवी के प्रति यह आस्था ‘अचरियों’ में व्यक्त होती हैं। अचरियाँ धुनों के आधार पर छह प्रकार की मिलती हैं। झूला की अचरी, शब्द बानी, (भजन) डंगइया, अमान, जिकड़ी तथा माँ वाली अचरी। शारदीय तथा बासंतिक दोनों नवरात्रियों में हर गाँव नगर अचरियों के इस मंगल गायन से भक्तिमय हो जाता है।

अचरियाँ केवल दुर्गा माँ की ही नहीं, सीता माँ, राधाजू, कालका माँ और उनके आगे चलने वाले भैरव बाबा की भी मिलतीं हैं। इसी क्रम में लांगुरिया गीत आते हैं।

शक्ति पूजा में ‘माई का मार्ग’ पूजने का विधान है। इस पूजा में शक्ति और गणेश के ‘मायले’ गाये जाते हैं। कारसदेव की गोटें भी पशुरक्षा की पूजा में कथा के रूप में गाई जाती हैं। इन गीतों पर पुरुषों तथा महिलाओं का समान अधिकार है। ‘कार्तिक गीत’ केवल महिलायें गाती हैं। गोटें केवल पुरुष गाते हैं।

संस्कार गीत

बुन्देलखण्ड का लोक जीवन सुसंस्कृत है। हिन्दू शास्त्रों में वर्णित सभी संस्कार यहाँ विधिविधानपूर्वक करके जातक (व्यक्ति) को संस्कारित किया जाता है। यह मांगलिक संस्कार संगीत की लय और ताल पर लोकगीतों के साथ होते हैं। संस्कार निम्नलिखित हैं-

1 गर्भाधान संस्कार

2 पुंसवन संस्कार

3 सीमन्तोन्नयन (सीमन्त संस्कार)

4 जातकर्म संस्कार

5 नामकरण संस्कार

6 निष्क्रमण संस्कार

7. अन्नप्राशन संस्कार

8. चूड़ाकर्म संस्कार

9. वेदारंभ संस्कार

10. उपनयन संस्कार

11. कर्णवेधन संस्कार

12. समावर्तन संस्कार

13. विवाह संस्कार

14. वानप्रस्थ संस्कार

15. संन्यास संस्कार

16. अन्त्येष्टि संस्कार

उक्त संस्कारों में प्रथम तीन जन्म-पूर्व के हैं। अतः इनके अन्तर्गत माता का संस्कार किया जाता है। शेष संस्कार जन्मोपरान्त जातक के किये जाते हैं। किसी माता की कितनी भी संतानें हों, उसका संस्कार प्रथम संतान होने के पूर्व होता है। परवर्ती संतानों के होने पर माता के यह संस्कार नहीं कराये जाते हैं। इन सभी संस्कारों के अवसर पर अनेक प्रकार के लोकगीत गाये जाते हैं। यह गीत प्रायः महिलायें गातीं हैं। अन्य लोकवाद्यों के साथ ढोलक का प्रयोग प्रचुरता के साथ होता है।

महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस क्षेत्र में राम और कृष्ण का प्रभाव इतना व्यापक है कि अधिकांश संस्कार राम-सीता और राधा-कृष्ण के जीवन प्रसंगों पर आधारित हैं। हर परिवार में जन्मा बालक ‘राम’ या ‘नंदलाल’ होता है और कौशल्या या जशोदा की कोख से जन्मता सा लगता है। उसके जन्म पर वही उल्लास और हर्ष पाया जाता है जो कभी अवध और ब्रज में छाया था। यह कहा जा सकता है कि इन संस्कारों में लोक-गायन के क्षणों में बुन्देली धरती पर ब्रज और अवध उतर आता है।

अनेक संस्कार कर्मकाण्डी पण्डितों के बजाय कोकिलकण्ठी महिलाओं के पावन स्वरों से अभिसिंचित होते हैं। आश्चर्य यह है कि इन गीतों के गायन में रुचि रखने वाली महिलायें और पुरुष निरक्षर या अल्पशिक्षित हैं किन्तु यह लोकगीत उनकी स्मृतियों में इस तरह बस गये हैं कि पढ़े लिखे व्यक्तियों की स्मरण शक्ति पराजित हो जाती है। आप सिर्फ उनके तार छेड़ दीजिए फिर उनके बोल अपने आप फूट पड़ेंगे। स्मृतियों की यह अविचल और लोक व्याप्त परम्परा ही लोक संस्कृति को जीवित रखे हैं। इन संस्कारों गीतों में आधार-विधान भी व्यक्त होता चलता है।

बालक-बालिकाओं के क्रीड़ात्मक-उपासना गीत

बालक-बालिकाओं में प्रारम्भिक अवस्था में ही जीवन-यात्रा की दीर्घकालिक तैयारी, कला और संगीत के प्रति अभिरुचि सौन्दर्य बोध का विकास, संघर्ष के साथ भी मृदुल समरसता एवं समृद्धि का समन्वय तथा जीवन के अनेक भावी कार्यों के क्रीड़ात्मक ढंग से प्रशिक्षण की भावना से कुछ खेल बुन्देली लोक जीवन का महत्वपूर्ण अंग बन गये हैं। इनमें अकती तथा सुआटा विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

अकती, अक्षय तृतीया के रूप में पूरे देश में पूजित है किन्तु उस दिन बुन्देली बालक-बालिकाओं द्वारा कलात्मक ढंग से बनाई गई पुतरा पुतरियाँ सौन्दर्य बोध, सृजन-क्षमता, कलाप्रियता का अद्भुत उदाहरण है। आजकल ‘डॉल मेकिंग आर्ट’ का फैशन आ रहा है किन्तु बुन्देलखण्ड में यह कला युगों-युगों से विकसित हो चुकी है। इस अवसर पर अक्ती के गीत गाये जाते हैं-वे विवाहोन्मुख कुमारियों की सलज्जता, शालीनता तथा प्रिय के प्रति सर्वाधिक अनुराग का प्रतिबिम्बन करते हैं।

सुआटा एक दीर्घकालिक क्रीड़ात्मक उपासना विधान है। यह भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन पूर्णिमा तक चलता है। मामुलिया, नौरता सुआटा, टेसू तथा झिंझिया के पाँच अंगों से समन्वित यह खेल बालकों में उनकी कल्पनाशीलता विकसित करने, प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न करने, सौन्दर्य बोध तथा कला प्रेम बढ़ाने का उपक्रम है। बेर की कँटीली टहनी को भी नारी के रूप में सजाने का प्रयास-जापान के इकेबाना की शैली का है। इसमें काँटे, फल और फूल संघर्ष, सृजनात्मक उपलब्धि तथा अनुरागात्मक माध्यम का प्रतीक है। एक ओर यह खेल प्राचीन कथा पर आधारित है, जिसका पुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है, दूसरी ओर यह अंधविश्वासों में जकड़ी मान्यताओं की ओर संकेत करता है। यह बुन्देलखण्ड का विशिष्ट लोकोत्सव है। इसमें लोकगाथात्मक तथा सामान्य, दोनों प्रकार के गीत मिलते हैं।

ऋतु विषयक गीत

लोक जीवन में हर मौसम का अपना आनन्द है...बरसात, जाड़ा, फगुनाई भरा बसंत या ग्रीष्म; हर माह के अपने त्यौहार हैं, अपने सुख-दुख हैं। सावन तो बहिनों का माह है, बहिनों के लिए भाई की प्रतीक्षा का माह। बहिन की हर टकटकी भाई के आने की बाट जोहती है। घर के बाहर या बाग बगीचों में झूलों पर पैंगें मारती बहिनों को भी अपना परदेश में रहना अखरता है। वे भाई के आगमन की प्रतीक्षा करती हैं।

फागुन प्रेम का उत्कर्ष काल है। बसंत की बहार, फगुनाई का मौसम एक विशेष भावोद्रेक करता है। बुन्देलखण्ड में हर स्थान पर फागें और रसिया गाने का रिवाज है। यह फागें शृंगार और आध्यात्मिकता का अद्भुत काव्य हैं। फागें छन्दयाऊ, खड़ी तथा चौकड़ी तीन कोटियों में विभक्त होती हैं। इन संवेदनाओं से जुड़े गीत मनोरम होते हैं।

शृंगार गीत

बुन्देलखण्ड के लोक साहित्य में शृंगार की समृद्ध परम्परा है। मनोभावों की सरस अभिव्यक्ति इन गीतों में हुई है। ये गीत तन्मयता का अद्भुत उदाहरण हैं। बुन्देली बालायें अपने प्रिय के साथ इतनी तन्मय हैं कि उन्हें ‘भुनसारे चिरैयों’ का बोलना प्रेम में व्यवधान लगता है।

नारी नहीं चाहती है कि उसका प्रिय किसी और को चाहे। कुँए पर, बाग में, चौपर में वह हर स्थान पर प्रिय के साथ रहना चाहती है। वह तो ढिंमरिया और मलिनियाँ तक बनने को तैयार है। पारस्परिक समर्पण का कैसा भावपूर्ण संयोग है-‘नजरिया मोई सों लगइयों।’

प्रेम आर्थिक सीमायें नहीं देखता। वह गरीब है तो क्या हुआ? वह अपने पति को संदेश भेजना चाहती है। कागज, स्याही और कलम नहीं तो छिंगुरिया को कलम बनाकर संदेश भेजने को व्याकुल रहती है। उसकी इच्छा है कि वह भी ‘लिखदऊं दो दस बोल’। प्रेयसी कितनी आशावान और मानिनी है उसे प्रिय के आगमन से खेतों में दूबा हरी होती दिखती है, रीते कुँआ भरते नजर आते हैं। यह प्रतीक विलक्षण है। वह मोतियों का चौक पूरकर और स्वर्ण कलश की मांगलिकता के साथ प्रिय का स्वागत करने को उत्सुक है।

यहाँ की नारी अपने पति को परेशान नहीं देखना चाहती है। चाहे वह अपनी लाखों की इज्जत गिरवी रख दे किन्तु सीधेपन के कारण कोई उसके पति को परेशान न करे। यह बुंदेली बाला का आदर्श ‘जो ररिया हमसे कर लेऔ’ गीत में व्यक्त हुआ। नायिका प्रिय के लिए जो खेत में कृषि कार्य कर रहा है, कलेवा लेकर जाती है किन्तु उसकी तन्मयता इतनी है कि उसे कलेवा देखने की फुरसत नहीं। यहाँ नायिका की अधीरता दृष्टव्य होती है।

बुन्देलखण्ड में महिलायें बाँहों में ‘गोदना’ गुदवाकर तथा हाथों में मेंहदी रचाकर सौन्दर्य वृद्धि करती हैं। गोदना गुदवाने में बड़ी पीड़ा होती है किन्तु सुन्दर बनने की ललक उन्हें यह करने को भी मानसिक रूप से तैयार करती है। इस पीड़ा को कम करने में गुदना गीत सहायक होते हैं।

श्रम के गीत

व्यक्ति चाहे हल चलायें, बुआई करें, फसल काटें, कोल्हू में तेल पेरंे या चक्की पीसें, इन क्षणों में उसकी तन्मयता के लिए गीत सहायक होते हैं। स्वरलहरी में तन्मय होकर वह अपनी थकान भूल जाता है। इन्हीं व्यस्त क्षणों में, खेती में, कटाई या अन्य कृषि कार्य करते समय, बिलवारी तथा दिनरी और महिलाओं द्वारा चक्की पीसते समय ‘जंतसार’ के गीत लोकजीवन में रच-बस गये हैं। इनकी अपनी धुनें हैं और अपनी संगीतात्मकता।

जातियों के गीत

विभिन्न जातियों, विशेषकर अति पिछड़ी जातियों में विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले अपने लोकगीत तथा उनकी लोकधुनें हैं। उन्हें उनके जातिगत गीत या गारी के नाम से जानते हैं। यथा-ढिमरियाऊ गारी, कछियाऊ गारी, धुवियाऊ गारी, गड़रियाऊ गारी, कहरवा (कहार गीत) आदि। इन जातियों के लोग प्रायः अपने पारम्परिक लोकगीतों, गोटें आदि को न तो लिपिबद्ध करने देते हैं और न उन्हें रिकॉर्ड करने देते हैं। सर्वेक्षकों द्वारा आग्रह करने के बावजूद उसे लिपिबद्ध कराने को तैयार नहीं होते हैं। उनकी मान्यता है कि ऐसा करने से कारसदेव नाराज हो जायेंगे किन्तु उन्हीं जातियों के शिक्षित या शोधोन्मुख युवक-युवतियों के माध्यम से वे गीत प्रकाश में आ रहे हैं।

शौर्य/प्रशस्तिगीत

समकालीन महापुरुषों ऐतिहासिक पात्रों, आंचलिक ख्याति के व्यक्तियों की प्रशंसा में अथवा उनके शौर्य को बखानते हुए अनेक गीत मिलते हैं। यह गीत शौर्यपरक होने पर रासो परम्परा में गिने जाते हैं। राछरे तथा पंवारे बुन्देलखण्ड में गाये जाने वाले ऐसे ही लोकगीत हैं। इनमें कथात्मक गीतों को तकनीकी दृष्टि से लोकगाथा की श्रेणी में गिना जाता है।

स्फुट गीत

इसके अतिरिक्त विविध विषयों पर जो गीत मिलते हैं उन्हें इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

लोकगाथायें

लोक जीवन में लोकगाथायें बड़े प्रेम और तन्मयता से गाईं तथा सुनीं जाती हैं। ये कथापरक गीत होते हैं। इनमें कहानी गीत के माध्यम से आगे बढ़ती है। इस प्रकार लोकगाथाओं को इतिवृत्तात्मक लोक काव्य कहा जा सकता है। इनका आकार सामान्य लोकगीतों से अधिक बड़ा होता है। अनेक लोकगाथायें तो महाकाव्य की भाँति 600-700 पृष्ठों में मिलती हैं। आल्हा बुन्देलखण्ड में गायी जाने वाली सर्वप्रिय लोकगाथा है। जगनिक ने जब आल्हखण्ड लिखा होगा तब वह सीमित पृष्ठों का रहा होगा किन्तु समय की गति के साथ गायकों ने उसमें क्षेपक जोड़कर उसे इतना विस्तृत कर दिया कि खेमराज श्रीकृष्ण दास द्वारा प्रकाशित आल्हखण्ड 940 पृष्ठों में छपा है किन्तु बुन्देलखण्ड क्षेत्र में गाया जाने वाला आल्हा उससे भी बृहत् है। इसमें आल्हा ऊदल द्वारा लड़ी गई 52 लड़ाइयों की विस्तृत कहानी है। बरसात के दिनों में कृषि कार्य से निश्चिन्त होकर ग्रामवासी हर गाँव में आल्हा गाते सुनते मिल जायेंगे। कई लोकगाथायें छोटे आकार में भी मिलती हैं।

बुन्देलखण्ड की प्रमुख लोकगाथाओं में, अमान सिंह की राछरा, प्रान सिंह का राछरा, जागी का राछरा, भरथरी, सरवन गाथा, सीताबनवास, सुरहिन गाथा, हरिश्चन्द्र गाथा, सन्तवसन्त की गाथा, रमैनी आदि चालीस से अधिक लोकगाथायें प्राप्त होती हैं।

लोककथायें

लोक कथायें लोक जीवन का अभिन्न अंग है। घर के भीतर बूढ़ी महिलायें या मातायें परिवार के बच्चों को रात में कहानियाँ सुनाती हैं। घर के बाहर चौपालों मंे अग्नि जलाकर अलाव के सामने कहानियाँ सुनाने की परम्परा है। प्रत्येक व्रत, त्योहार या पूजन के समय पंडित जी या परिवार की वरिष्ठ महिलाओं द्वारा कहानियाँ कही जातीं हैं। यह सभी कहानियाँ लोक कथा के रूप में जानी जाती हैं। इनमें पौराणिक प्रसंगों से लेकर उपदेशपरक तथा मनोरंजक कथानक होता है। कई कथायें तिलस्म या रोमांच से भरपूर होती है। अनेक में लड़ाइयों का विवरण होता है। अधिकांश में समाज कल्याण का जीवंत चित्र बड़ी स्वाभाविकता के साथ बखाना जाता है।

इस क्षेत्र की लोक कथाओं के संकलन तथा अध्ययन से इस क्षेत्र के सामाजिक परिवेश का पूरा चित्र समझा जा सकता है। व्रतकथाओं का विषय प्रायः यह होता है कि अमुक ने यह व्रत किया तो उसे क्या लाभ हुआ? अमुक ने नहीं किया तो उसे क्या कष्ट सहना पड़ा? इस प्रकार वे कथा सुनने वालों को व्रत तथा धार्मिक आचरणों के प्रति आकृष्ट करने वाले होते हैं। घर के भीतर बच्चों को सुनाई जाने वाली या अलाव पर कही जाने वाली लोक कथाओं की विशेषता यह है कि उनमें मर्यादित शब्दावली में ज्ञानवर्द्धक सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है। कहानियों के अंत में लोकमंगल की भावना इन शब्दों में व्यक्त होती है -

‘जैसी भगवान ने इनकी सुनी, तैसी सबकी सुनै’, ‘सबकौ भलौ करै’, ‘सुख में रख्खै’ और ‘दूधन भरौ, पूतन फरौ’ आदि। इन लोककथाओं को कहने के पूर्व उनकी भूमिका भी बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत की जाती है।

लोकसुभाषित

लोकोक्तियाँ

बुन्देलखण्ड निवासियों का वाग्चातुर्य यहाँ प्रचलित लोकोक्तियों, मुहावरों तथा बुझौअलों (पहेलियों) में झलकता है। किसी भी सुन्दर कथन के लिए सूक्ति या सुभाषित शब्द का प्रयोग मिलता है। जब यह सूक्ति या सुभाषित लोकव्याप्त होकर जन-जन में प्रचलित हो तो उसे ‘लोकोक्ति’ कहते हैं। इन लोकोक्तियाँ की सबसे बड़ी विशेषता संक्षिप्तता होती है, जिसमें बड़ी से बड़ी बात को कम शब्दों में कहने का सामर्थ्य है। इनमें गागर में सागर भरा है।

यह कहावतें ग्राम्य-कथन या ग्राम्य-साहित्य नहीं हैं। यह लोकजीवन का नीतिशास्त्र हैं। यह संसार के नीतिसाहित्य का विशिष्ट अध्याय हैं। विश्व-वाड़गमय में जिन सूत्रों को प्रेरक, अनुकरणीय तथा उद्धरणीय माना गया है, उनका सार प्रकारान्तर से इनमें मिल जायेगा। समान अनुभव से प्रसूत इन कहावतों से अधिकांश सूत्र सार्वभौमिक सत्य होते हैं। कुछ सूत्र स्थानीय या आंचलिक वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हैं।

यह कहावतें जनमानस के लिए आलोक स्तम्भ हैं। इनके प्रकाश में हम जीवन के कठिन क्षणों में लोकानुभव से मार्गदर्शन प्राप्त कर सफलता का मार्ग ढूढते हैं। यह वह चिनगारी है जिनमें अनन्त ऊष्मा है जो जनमानस को मति, गति और शक्ति प्रदान करती है। हम किसी भी प्रसंग की चर्चा छेड़ दें, उससे जुड़ी कहावतें लोगों की जुबान पर आ जाती हैं। यही इनकी लोकव्याप्ति का प्रमाण है। इन्हें पढ़कर इनके गढ़ने वालों की सूझबूझ, सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता तथा वाक्विदग्धता पर आश्चर्य होता है। वे सचमुच जीवनदृष्टा थे।

यह कहावतें नदी के उन अनगढ़ शिलाखण्डों की तरह हैं जो युग युगान्तर काल के प्रवाह में थपेड़े खा-खाकर शालिग्राम बन शिवत्व को प्राप्त करते हैं। इनमें लोक का बेडौलपन है, छन्दों की शास्त्रीयता नहीं है तथापि इनमें काव्य का सा सहज प्रवाह है, वे सहज स्मरणीय हैं।

बुझौअल

सांकेतिक ढंग से रहस्यात्मक बात कहना तथा दूसरे से पूछना और सही अर्थ जानना, यह बुन्देली में बुझौअल कहलाता है। बुझौअल बूझने (पूछना) से बना है। यह संस्कृति के प्रहेलिया शब्द का पर्यायवाची है। हिन्दी या अन्य लोकभाषाओं में इसे पहेली भी कहते हैं।

मुहावरे

वाक्य को आकर्षक एवं चुस्त बनाने के लिए विलक्षण अर्थपरक वाक्यांश प्रयोग करते हैं, यह मुहावरे कहलाते हैं। मुहावरेदार भाषा का प्रयोग व्यक्ति की विद्वता तथा वाग्चातुर्य का प्रतीक है। यह वाक्य का अंश होता है, अतः इसका स्वतंत्र प्रयोग नहीं किया जा सकता है किन्तु किसी वाक्य में यथोचित स्थान पर रख देने से उसका अर्थ महत्व बढ़ जाता है। बुन्देली लोकजीवन में मुहावरों का प्रयोग बहुतायत में होता है।

इस प्रकार बुन्देलखण्ड का लोक साहित्य बहुआयामी है तथा हमें इसमें बुन्देलखण्ड की संस्कृति के विविध पक्षों की झलक देखने को मिलती है। सांस्कृतिक अनुशीलन हेतु यह महत्वपूर्ण आधारभूत सामग्री है।


Pradeep Chawla on 20-10-2018

बघेली लोक साहित्य



सम्बन्धित प्रश्न



Comments Ruhi on 15-04-2022

Ywww

Chiki on 23-03-2022

बघेली और बुंदेली लोक साहित्य में अंतर को बिंदु सहित समझाए

Seema Kumre on 27-09-2020

विभिन्न प्रकार के कार्बनिक यौगिको की त्रिविम रसायन को समझाइए और उनके तिरेलता और प्रतिबिंब गुण धर्मो को समझाइए


Chanchaldwivedi on 18-09-2020

Bageli ke bare me

Rohit on 11-09-2020

बघेली लोक साहित्य में

अमन on 06-09-2020

संक्षिप्त की परिभाषा देते हुए उदाहरण लिखिए

आरती चौबे on 01-09-2020

संक्षिप्त की परिभाषा लिखते हुए उदाहरण लिखिए


Dinesh on 01-09-2020

बघेली और बुन्देली लोक साहित्य में अंतर



Vipendra yadav on 28-08-2020

Bagheli aur Bundeli lok sahitya lok sahitya

Deepali on 29-08-2020

Bajheli or bundeli me antar btao

Shriram Patel on 30-08-2020

बुंदेली और बघेली लोक साहित्य में अंतर

Rahul Mishra on 30-08-2020

बघेली और बुंदेली लोक साहित्य में अंतर बताइए


आरती चौबे on 01-09-2020

संक्षिप्त की परिभाषा लिखते हुए उदाहरण लिखिए

Dinesh on 01-09-2020

बघेली और बुन्देली लोक साहित्य में अंतर



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