Balban Ki Lauh Aivam Rakt Ki Neeti बलबन की लौह एवं रक्त की नीति

बलबन की लौह एवं रक्त की नीति



Pradeep Chawla on 12-05-2019

दिल्ली की गद्दी पर के अपने पूर्वगामियों की तरह बलबन भी तुर्किस्तान की विख्यात इलबरी जाति का था। प्रारम्भिक युवा-काल में उसे मंगोल बन्दी बना कर बगदाद ले गये थे। वहाँ बसरा के ख्वाजा जमालुद्दीन नामक एक धर्मनिष्ठ एवं विद्वान् व्यक्ति ने उसे खरीद लिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था। सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने उसे खासदार (सुल्तान का व्यक्तिगत सेवक) नियुक्त किया परन्तु गुण एवं योग्यता के बल पर वह क्रमशः उच्चतर पदों एवं श्रेणियों को प्राप्त करता गया। बहराम के समय वह अमीर-ए-अखुर बना तथा मसूद शाह के समय अमीर-ए-हाजिब बन गया। अन्त में वह नसिरुद्दीन महमूद का प्रतिनिधि (नायबे-मामलिकत) बन गया तथा 1249 ई. में उसकी कन्या का विवाह सुल्तान से हो गया।



सिंहासन पर बैठने के बाद बलबन को विकट परिस्थिति का सामना करना पड़ा। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् तीस वर्षों के अन्दर राजकाज में उसके उत्तराधिकारियों की अयोग्यता के कारण गड़बड़ी आ गयी थी। दिल्ली सल्तनत का खजाना प्राय: खाली हो चुका था तथा इसकी प्रतिष्ठा नीचे गिर गयी थी। तुर्की सरदारों की महत्त्वाकांक्षा एवं उद्दंडता बढ़ गयी थी।



बलबन एक अनुभवी शासक था। वह उत्सुकता से उन दोषों को दूर करने में लग गया, जिनसे राज्य एक लम्बी अवधि से ग्रस्त था। उसने ठीक ही महसूस किया कि अपने शासन की स्थिरता के लिए एक मजबूत एवं कार्यक्षम सेना नितान्त आवश्यक है। अत: वह सेना को पुर्नसंगठित करने में लग गया। अश्वारोही एवं पदाति-नये तथा पुराने दोनों ही- अनुभवी एवं विश्वसनीय मलिकों के अधीन रख दिये गये। इसके बाद उसने दोआब एवं दिल्ली के पार्श्ववर्ती प्रदेशों को, जिन्हें पिछले तीस वर्षों के दुर्बल शासन-काल में मेवात (अलवर के आसपास का जिला) के राजपूत एवं अन्य तस्करों के दल लूटते रहे, पुनः व्यवस्थित करने की ओर ध्यान दिया। जीवन, सम्पत्ति एवं वाणिज्य आरक्षित हो। थे। सुल्तान ने दिल्ली के पार्श्ववर्ती जंगलों से मेवातियों को खदेड़ भगाया उनमें से बहुतों को तलवार के घाट उतार डाला। भविष्य में होने वाले उपद्रवों से सावधान रहने के लिए उसने गोपालगिर में एक दुर्ग बनवाया तथा दिल्ली शहर के निकट अफगान अधिकारियों के अधीन बहुत-सी चौकियाँ स्थापित कीं। अगले वर्ष (1267 ई. में) बलबन ने दोआब के लुटेरों को पराजित किया। वह स्वयं घोड़े पर कम्पिल, पटियाली तथा भोजपुर स्थित उनके दुर्गों तक गया। उन स्थानों पर उसने मजबूत किले बनवाये तथा जलाली के किले की मरम्मत भी करवायी। इस तरह व्यवस्था एवं सुरक्षा पुनः स्थापित की गयी। उसके साठ वर्षों के बाद बरनी ने लिखा कि- तबसे सड़के डाकुओं से मुक्त रहीं। उसी वर्ष उसने कटेहर (अब रुहेलखंड में) के विद्रोहियों को दंड दिया। कुछ दिन बाद उसने जूद के पहाड़ों की यात्रा की तथा वहाँ की पहाड़ी जातियों को दबाया।



सरदारों की शक्ति का अवरोध करने के लिए बलबन ने दोआब में भूमि प्राप्त करने के नियमों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। इल्तुतमिश के समय से ही 2000 शम्सी घुड़सवार सैनिक सेवा की शर्त पर इसका उपभोग कर रहे थे। बरनी बतलाता है कि अधिकतर मूल जागीरदार अब तक मर चुके थे अथवा शक्तिहीन हो चुके थे तथा उनके वंशजों ने उन जागीरों पर पैतृक सम्पत्ति के रूप में अधिकार कर अरीज के सरकारी कागजों पर भी अपना नाम अंकित करा लिया था, यद्यपि उनमें अधिकांश की प्रवृत्ति खेतों में काम करने की न थी। बलबन ने परिमित मात्रा में सुधार कर इस दोष को हटाने का प्रयत्न किया। उसने पुरानी जागीरों को पुन: अधिकृत कर लिया किन्तु जागीरदारों को उनकी उम्र के अनुसार जीवन-निर्वाह का भत्ता दे दिया। इससे जागीरदारों में असन्तोष फैल गया। उन्होंने अपनी इस दशा का वर्णन दिल्ली के कोतवाल वृद्ध फखुद्दीन से किया। कोतवाल ने सुल्तान को, एक भावुकतापूर्ण भाषण देकर, अपना पुराना आदेश रद्द करने एवं जागीरदारों को जागीरें लौटाने के लिए राजी कर लिया। इस प्रकार बुद्धिमत्ता पर भावनाओं की विजय हुई और एक पुरातन दोष ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया गया, जिससे राज्य के साधन नष्ट होते रहे।



इस प्रकार भीतर से अपने शासन को दृढ़ एवं स्थायी बनाने का प्रयत्न करते हुए बलबन मंगोलों के आक्रमणों से उत्तर-पश्चिम सीमा की रक्षा करने के विषय में भूला नहीं था। मंगोलों ने गजनी एवं ट्रांसऑक्सियाना में अपनी शक्ति स्थापित कर ली थी तथा खलीफा अल-मुतसिम की हत्या कर बगृदाद पर भी अधिकार कर लिया था। अब वे पंजाब एवं सिन्ध की ओर बढ़े। सन् 1271 ई. में सुल्तान लाहौर पहुँचा तथा उसने दुर्ग के पुनर्निर्माण की आज्ञा दी। इस दुर्ग को उसके पूर्वकालीन शासकों के समय में मंगोलों ने नष्ट कर दिया था। बहुत समय तक सुलतान के चचेरे भाई शेर खान सुन्फर, जो राज्य का एक योग्य सेवक था तथा जिसे भंटिडा, भटनेर, समाना एवं सुनाम की जागीरें मिली थीं, मंगोलों के आक्रमणों के रस्ते में एक बड़ी अड़चन थी। परन्तु उस पर संदेह करता था, क्योंकि वह चेहलगान (चालीस) का एक सदस्य था उसके सिंहासन पर बैठने के बाद से दिल्ली नहीं आया था। करीब इसी समय उसकी मृत्यु हो गयी। शेर खाँ ने अद्भुत योग्यता के साथ सीमा की रक्षा की थी तथा बहुत सी विद्रोही जातियों को वश में किया था। उसकी मृत्यु के बाद फिर मंगोल सीमान्त प्रदेशों को लूटने के लिए प्रोत्साहित हुए। उनकी लूटपाट को रोकने के लिए सुल्तान ने अपने ज्येष्ठ पुत्र शाहजादा मुहम्मद को (जो खाने-शहीद के नाम से विख्यात था) मुलतान का शासक नियुक्त किया। शाहजादा मुहम्मद संयत स्वभाव का साहसी, योग्य तथा साहित्य का उदार पोषक था। साथ-साथ सुल्तान ने अपने द्वितीय पुत्र बोगरा खाँ को, मंगोलों के सम्भावित आक्रमणों को रोकने के लिए अपनी सेना को प्रबल बनाने का आदेश देकर, समाना एवं सुनाम के प्रदेशों का अधिकारी बना दिया। सन् 1279 ई. के लगभग लुटेरों ने पुनः आक्रमण किया और सतलज भी पार कर गये। परन्तु मुलतान के शाहजादा मुहम्मद, समाना के बोगरा खाँ तथा दिल्ली के मलिक मुबारक बेक्तर्स की मिली-जुली सेना ने उन्हें पूर्णतया छिन्न-भिन्न कर दिया। इस तरह कुछ काल के लिए मंगोलों का भय टल गया। सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए उसने दीवान-ए-आरिज (सैन्य विभाग) की स्थापना की। आरिज-ए-मुमालिक के पद पर उसने इमादुलमुल्क को नियुक्त किया था।



उसी वर्ष बलबन के समक्ष बंगाल के सम्पन्न प्रान्त से एक दूसरा भय उत्पन्न हो गया, जिसकी दूरी के कारण यहाँ के शासक प्राय: दिल्ली की सत्ता का, विशेषकर जब वह कमजोर हो जाती थी, अनादर करने की प्रलोभित हो जाते थे। यह था बंगाल में सुल्तान के प्रतिनिधि तुगरिल खाँ का विद्रोह। तुगरिल एक कार्यशील, साहसी एवं उदार तुर्क था तथा बंगाल में वह सफल शासक सिद्ध हुआ था। परन्तु महत्त्वाकांक्षा ने शीघ्र ही उसके मस्तिष्क पर अधिकार कर लिया। दिल्ली के सुल्तान की वृद्धावस्था, उत्तर-पश्चिम सीमा पर मंगोलों के पुनः आक्रमण एवं कुछ परामर्शदाताओं की मंत्रणा से उसे विद्रोह का झंडा खडा करने में प्रोत्साहन मिला।



तुगरिल खाँ के विद्रोह से बलबन बहुत व्यग्र हो गया। उसने तुरंत अल्प-तिगीन मुएदराज (लम्बे बालों वाला) के अधीन, जिसे अमीर खाँ की उपाधि मिली थी, एक बड़ी सेना भेजी। परन्तु विद्रोही शासक ने अमीर खाँ को हरा दिया तथा उसके बहुत-से सैनिकों को बहुमूल्य भेंट देकर अपनी ओर मिला लिया। सुल्तान अमीर खाँ की हार से इतना अधिक क्रुद्ध हुआ कि उसने दिल्ली के द्वार पर उसे फाँसी पर लटकाने की आज्ञा दे दी। अगले वर्ष (1280 ई. में) मलिक तर्गी के अधीन एक दूसरी सेना बंगाल भेजी गयी, परन्तु इस आक्रमण को भी तुगरिल ने निष्फल कर दिया। घटनाओं के इस क्रम से अत्याधिक कुद्ध हो बलबन ने अब अपना सारा ध्यान और शक्ति तुगरिल को परास्त करने में लगा दी। उसने स्वयं एक बलवती सेना तथा अपने पुत्र बोगरा खाँ को लेकर पश्चिमी बंगाल की राजधानी लखनौती की ओर बढ़ने का निर्णय किया। इसी बीच तुगरिल क्रुद्ध सुल्तान के आने का समाचार सुन लखनौती छोड़कर जाजनगर के जंगलों में जा छिपा। सुल्तान भागे हुए विद्रोही एवं उसके सहचरों की खोज में पूर्वी बंगाल की ओर बढ़ा। संयोगवश शेर अन्दाज नामक बलबन के एक अनुगामी ने उन्हें ढूंढ़ निकाला। मलिक मुकद्विर नामक उसका एक दूसरे अनुगामी ने तुरंत तुगरिल को एक तीर से घायल कर लाया। उसका सिर काटकर उसका शरीर नदी में फेंक दिया गया। उसके सम्बन्धी तथा उसके अधिकतर सिपाही पकड़ लिये गये। लखनौती लौट कर सुल्तान ने तुगरिल के सम्बन्धियों एवं अनुचरों को दृष्टान्त-योग्य सजाएँ दीं। बंगाल से प्रस्थान करने के पहले उसने अपने द्वितीय पुत्र बोगरा खाँ को उस प्रान्त का शासक नियुक्त किया तथा उसे यह शिक्षा दी कि वह विषय-सुख में लिप्त न रहकर शासन के कार्य में सावधानी बरते।



शीघ्र ही फिर सुल्तान पर एक महान् संकट आ पड़ा। मंगोलों ने 1285 ई. में अपने नेता तमर के अधीन पंजाब पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान का ज्येष्ठ पुत्र शाहजादा मुहम्मद, जो मुलतान का अधिकारी था, लाहौर एवं दीपालपुर की ओर बढ़ा। एक आकस्मिक हमले में मंगोलों से लड़ता हुआ वह मार्च, 1285 ई. को वीरगति को प्राप्त हुआ। जीवन के इस बलिदान के कारण उसे मृत्यु के बाद शहीद (शहीद-ए-आजम) की उपाधि मिली। इस योग्य शाहजादे की मृत्यु से वृद्ध सुल्तान को, जो उस समय अस्सी वर्षों का हो चुका था, कठोर आघात पहुँचा। इस घटना ने उसे घोर विषाद में मग्न कर दिया तथा उसकी मृत्यु को अधिक निकट ला दिया। सुल्तान पहले बोगरा खाँ को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करना चाहता था, किन्तु बोगरा खाँ ने राजत्व के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने में अनिच्छा प्रकट की। अत: सुल्तान ने अपने पौत्र कैखुसरू को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया। लगभग 22 वर्षों तक शासन करने के उपरान्त सन् 1287 ई. के अन्त में बलबन ने अंतिम साँस ली।



बलबन के गद्दी पर बैठने के समय दिल्ली सल्तनत खतरे एवं कठिनाइयों से ग्रस्त थी। अत: सुल्तान ने राज्य के शत्रु समझने वालों के साथ कठोरता एवं सख्ती की नीति अपनायी। उसके पक्ष में यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि उसने महत्वाकांक्षी सरदारों, विद्रोही प्रजा एवं बलवाई जातियों के प्रति अपनी दृढ़ता और मंगोलों के विरुद्ध अपनी सर्वाधिक सतर्कता से सल्तनत को उपस्थित विघटन से बचाया तथा इसे पर्याप्त बल एवं कार्यक्षमता प्रदान की। परन्तु दो बातों में अर्थात् शेर खाँ एवं अमीर खाँ का नाश करने में चतुराई तथा दूरदर्शिता पर सन्देह एवं क्रोध की विजय हुई। अमीर खाँ की मृत्यु की चर्चा करते हुए बरनी कहता है कि उसके उचित दंड से तत्कालीन बुद्धिमान लोगों में विरोध की एक दृढ़ भावना फैल गयी और वे इस बात का संकेत समझने लगे कि बलबन के शासन का अवसान निकट है।



बलबन ने दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा एवं गौरव बढ़ाने का भरसक प्रयत्न किया। सिंहासन पर बैठने के पश्चात् उसने रहन-सहन का शानदार तरीका अपनाया। उसने प्राचीन पारसी राजाओं के ढंग पर अपने दरबार को ढाला तथा पारसी शिष्टाचार एवं संस्कार को प्रचलित किया। उसने अपने को अफरासियाब का वंशज घोषित किया तथा ईरानी दरबार की परंपरा सिजदा एवं पायवोस (कदम-चुम्बन) की पद्धति लागू की। ईरानी पद्धति पर नौरोज का त्यौहार शुरू किया। उसके अधीन दिल्ली दरबार ने अपनी महान् महिमा के लिए ख्याति प्राप्त की तथा उसने (दिल्ली दरबार ने) मध्य एशिया के बहुत-से (पन्द्रह से कम नहीं) निर्वासित युवराजों को शरण दी। विख्यात कवि अमीर खुसरू, जिसका उपनाम था तूतिए-हिन्द (भारत का तोता) बलबन का समकालीन था। सुल्तान को राजकीय प्रतिष्ठा का ख्याल रहता था। अपने आत्मीय दासों के समक्ष भी वह सदा पूर्ण परिधान में उपस्थित होता था। निम्न जाति मूठ के लोगों को वह महत्त्वपूर्ण पद नहीं देता था। बरनी ने उससे कहलवाया है कि अगर तुच्छ कुल से उत्पन्न व्यक्ति को देखता हूँ तो मेरी आँखे जलने लगती है और हाथ तलवार के मूठ पर चला जाता है। माना जाता है कि उसने कमाल अमाया नामक व्यक्ति को पद पर इसलिए नियुक्त नहीं किया क्योंकि वह नीच कुल का था।



बलबन ने राजत्व का नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया। वह प्रथम सुल्तान था जिसने राजत्व की सुस्पष्ट व्याख्या की। उसने राजत्व को निभायते-ए-खुदाई (ईश्वर द्वारा प्रदत) कहा। उसने जिल्ले-ए-इलाही इल्लाह (ईश्वर का प्रतिनिधि) की उपाधि धारण की। बलबन के विचार में राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, किन्तु उसका विश्वास था कि अपने पद का गौरव बनाये रखने के लिए उसे कुछ कर्त्तव्यों का सच्चाई से निर्वाह करना चाहिए। उसके अनुसार ये कर्त्तव्य थे- धर्म की रक्षा करना, शरीअत के नियमों का पालन करना, दुराचार एवं पापकर्मों को रोकना, धर्मनिष्ठ मनुष्यों को पदों पर नियुक्त करना तथा समान भाव से न्याय करना। एक बार उसने कहा था कि- जो कुछ मैं कर सकता हूँ वह है, क्रूर मनुष्यों की क्रूरता नष्ट करना तथा यह देखना कि कानून के समक्ष सब व्यक्ति बराबर हैं। राज्य का गौरव उस नियम पर आधारित है, जिससे इसकी प्रजा प्रसन्न एवं उन्नतिशील बन सके। बलबन को न्याय का बहुत ख्याल था। इसका प्रबन्ध वह बिना किसी पक्षपात के किया करता था। राज्य के कार्यों की पूर्ण सूचना रखने के लिए उसने सल्तनत की जागीरों में गुप्तचर नियुक्त कर रखे थे।



सुल्तान के रूप में बलबन का जीवन आन्तरिक आपत्तियों एवं बाहरी संकट के विरुद्ध संघर्ष से पूर्ण था। अत: उसे अपने राज्य की सीमा के विस्तार के निमित्त अग्रसर होकर विजय प्राप्त करने का सिलसिला चलाने का मौका न मिला। यद्यपि उसके दरबारी इनके लिए उसे प्रेरित किया करते थे, किन्तु वह शान्ति, दृढ़ीकरण एवं रक्षा के कार्यों से ही सन्तुष्ट रहा। उसने शासन-सम्बन्धी कोई ऐसा पुर्नसंगठन शुरू नहीं किया, जिसका सम्बन्ध जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से हो। वास्तव में उसने एक ऐसी तानाशाही स्थापित की, जिसकी स्थिरता शासक के वैयक्तिक बल पर निर्भर थी। इस प्रकार बलबन, रक्त और लौह नीति (ब्लड और आइरन पालिसी) का अनुगामी था।



इस कथन की सत्यता का प्रमाण उसके कमजोर उत्तराधिकारी बोगरा खाँ के पुत्र मुइजुद्दीन कैकुबाद के शासन-काल में मिला। 17 या 18 वर्षों के इस युवक को राज्य के प्रमुख अधिकारियों ने स्वर्गीय सुल्तान के मनोनयन की उपेक्षा कर सिंहासन पर बैठाया। बचपन में कैकुबाद का पालन पोषण अपने दादा के कठोर अनुशासन में हुआ था। उसके अध्यापक इतनी सावधानी से उसकी देखभाल किया करते थे कि उसने कभी किसी रूपवती युवती पर दृष्टि नहीं डाली और न कभी मदिरा का एक प्याला ही चखा। लेकिन सिंहासन पर अचानक बैठने के बाद उसका विवेक एवं संयम लुप्त हो गये। उसने शीघ्र अपने को विषय-सुख के भंवर में डुबो दिया तथा अपने पद के कर्त्तव्यों का कोई विचार नहीं किया। दिल्ली के वृद्ध कोतवाल फखरूद्दीन के दामाद महत्त्वाकांक्षी निज़ामुद्दीन ने सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली। उसके प्रभाव में आकर राज्य के पुराने अधिकारियों का अपमान किया गया। सारे राज्य में अव्यवस्था एवं गड़बड़ी फैल गयी तथा राज्य में प्रभुता स्थापित करने के लिए तुर्की दल एवं खलजी दल के सरदारो की प्रतियोगिताओं से गड़बड़ी और भी बढ़ गयी। मलिक जलालुद्दीन फिरोज के नेतृत्व में खलजी विजयी हुए। उन्होंने तुर्की दल के नेता एतमार कंचन एवं एतमार सुर्खा को मार डाला। कैकुबाद अब असहाय था तथा उसका शरीर नष्ट हो चुका था। किलोखरी के उसके शीश-महल में एक खल्ज सरदार ने, जिसका पिता उसकी आज्ञा से फाँसी पर चढ़ाया गया था, उसकी हत्या कर दी। कैकुबाद का शरीर यमुना में फेंक दिया गया। फ़िरोज ने मार डाले गये सुल्तान के एक नन्हें बेटे कयोमर्स का काम तमाम कर दिया तथा वह जलालुद्दीन फिरोज शाह की उपाधि धारण कर 13 जून, 1290 ई. को किलोखरी के महल में सिंहासन पर बैठा। इस तरह बलबन द्वारा किये गये कार्य नष्ट हुए तथा उसका वंश अकीर्तिकर तरीके से समाप्त हो गया। इसके साथ ही दास राजवंश का भी अन्त हो गया।




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Comments Que ans on 03-04-2024

Balban di lahu aur lohe di niti panjabi me question answer

Rahul Rawat on 27-12-2022

बलवन की खून और लोहे की नीति क्या थी ?

Yes on 10-02-2022

Yes


Nandini prajapati on 23-12-2021

Balban ka AVN rakt niti ko samjhaie

Muskan Muskan Muskan on 22-11-2021

बलबन की लोह एवं रक्त नीति

इतिहास on 15-02-2021

बलबन की लोह एव रक्त नीति को समझाइए

Shubham on 21-04-2020

Damodar Ghati Pariyojna ke bare mein varnan kijiye


Yogesh on 05-01-2020

Galvan Kiska gulam that



Hirendra on 19-09-2018

Defination of balbans louh rakt rule

Prince_xD on 04-01-2019

Laoh aur rakt nitee

आशा on 14-09-2019

कौन सा शासक अपनी रक्त एवं लोहे की नीति के लिए जाना जाता है

Balban on 16-09-2019

balban


Balban ki looh or rakt niti on 13-10-2019

Balbn ki rakt or looh niti

Parsingh Bhuriya on 01-11-2019

Balban ki rakt av looha niti ka varnan kijiye

Jaat on 14-11-2019

Sir aap k original papa kon h

Himanshu on 17-11-2019

Ap ye bataiye ki rakt aur looh ki neeti kya tha



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