आदिकाल Ki Prishthbhumi आदिकाल की पृष्ठभूमि

आदिकाल की पृष्ठभूमि



GkExams on 22-12-2018


आदिकाल परिचय – इतिहास शब्द इति + ह + आस से निर्मित है , जिसका अर्थ है ऐसा हुआ था , या ऐसा हुआ होगा। इस प्रकार अतीत की घटनाओं के कालक्रम में संयोजित इतिवृत्त को इतिहास माना जाता है। हिंदी साहित्य का इतिहास अनेक दृष्टियों एवं सामग्री स्रोतों के आधार पर लिखा गया , किंतु इसके आरंभ का विवाद पूर्वत होता है।


हिंदी साहित्य के प्रारंभिक इतिहासकारों में ‘ जॉर्ज ग्रियर्सन ‘ ने इसका इतिहास सन 700 ईसवी से सन 1380 तक के कालखंड को ‘ चारण काल ‘ से अभिहित किया।



इतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का महत्व निर्विवाद है। निसंदेह आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘ हिंदी साहित्य का इतिहास ‘ अपनी सीमाओं में वैज्ञानिक एवं प्रमाणिक है , पर फिर भी कुछ चीजों का अभाव रह जाना स्वभाविक था। आदिकाल परिचय



आदिकाल साहित्य की आधार सामग्री


इतिहास लेखन की अनेकविध समस्याओं में से आधारभूत समस्या सामग्री की मानी जाती है। हिंदी साहित्य के 1000 वर्षों का इतिहास लिखने में सर्वाधिक कठिनाई का सामना इतिहासकारों को करना पड़ा , क्योंकि एक तो आधारभूत सामग्री बहुत कम उपलब्ध हो पाई थी। दूसरा प्राप्त सामग्री की प्रमाणिकता भी संदिग्ध रही।



आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते समय उपलब्ध सामग्री अपूर्ण और पर्याप्त तथा संदिग्ध थी , परंतु उसके पश्चात बहुत सी नई सामग्री भी प्रकाश में आई।


आज हिंदी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन के संबंध में ‘ डॉक्टर नगेंद्र ‘ की धारणा है कि हिंदी साहित्य के पुनर्लेखन की आवश्यकता है। हिंदी साहित्य के पुनर्लेखन की आवश्यकता दो बातों पर है –


1 साहित्य चेतना का विकास , नवीन शोध , परिणाम प्रत्येक युग में साहित्यिक चेतना में परिवर्तन एवं विकास होता रहा है।


2 प्रमुख कारण यह है कि पिछले दशकों में निरंतर अनुसंधान के फलस्वरुप प्रचुर नवीन सामग्री प्रकाश में आई।




डॉ रामकुमार वर्मा ने अपने ‘ इतिहास हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ‘ में समस्त सामग्री को दो भागों में विभाजित किया है।


1 अंतः साक्ष्य और 2 बाह्य साक्ष्य

  • अंतः साक्ष्य में उस सामग्री को संबोधित किया जिसमें या तो साहित्यिक रचयिताओं ने अपने संबंध में कुछ लिखा है या उनके समकालीन अथवा परवर्ती लेखकों ने उनका वर्णन किया है।
  • बाह्य साक्ष्य के अंतर्गत शिलालेखों , पट्टों , ऐतिहासिक ग्रंथों किदवंतियों की आदि के रूप में मिलने वाली सामग्री।



काल विभाजन


युग और युग प्रकृति के अनुरूप साहित्यधारा का विकास होता हुआ एक सुदीर्घ परंपरा के रूप में हमारे सामने आता है। अतः सर्वांग का एक बारगी अवलोकन ना तो संभव ही है और ना ही उचित।



सर्वप्रथम ‘ डॉक्टर जॉर्ज ग्रियर्सन ‘ ने ‘ द मॉडर्न वार्नाकुलेटर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान ‘ में ऐसा प्रयास किया , परंतु परवर्ती इतिहासकारों ने उनके इस प्रयास की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। तदुपरांत ‘ मिश्र बंधुओं ‘ ने ‘ मिश्रबंधु विनोद ‘ में हिंदी साहित्य की सुदीर्घ परंपरा को पहले पांच भागों में विभाजित किया। इनका विभाजन भी परवर्ती लेखकों को मान्य नहीं हुआ , क्योंकि वह अव्यवस्थित प्रमाणिक तथा आवश्यकता से अधिक लंबा समझा गया।


वास्तव में ‘ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘ द्वारा प्रतिपादित काल विभाजन ही ऐसा प्रथम कालविभाजन है जिसे त्रुटिपूर्ण मानते हुए आज तक मान्यता मिली हुई है। कभी – कभी कोई राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति इतनी बलवती होती है कि, समाज और साहित्य को एक साथ समान रूप से प्रभावित करती है जैसे –


भक्ति , पुनर्जागरण , सुधार आंदोलन ऐसी स्थिति में नामकरण का आधार सांस्कृतिक प्रवृत्ति ही होगी क्योंकि वही साहित्य चेतना की प्रेरक रही है।



आचार्य शुक्ल के पश्चात ‘आचार्य द्विवेदी ‘ का नाम इस क्षेत्र में उल्लेखनीय है। आचार्य द्विवेदी ने प्राचीन परंपराओं के सत्य की खोज की ओर इस आधार पर शुक्ल जी की मान्यताओं में संशोधन किया। उनका ग्रंथ ‘ हिंदी साहित्य की भूमिका ‘ इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की ऐतिहासिक दृष्टि के स्थान पर परंपरा का महत्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खंडित किया जो योग्य प्रभाव के एकागी दृष्टिकोण पर आधारित थी। आचार्य द्विवेदी ने भक्ति काल के स्रोतों की खोज में दक्षिण भारत के सातवीं – आठवीं शताब्दी से चल रहे वैष्णो भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि की सविस्तार चर्चा की है। इसलिए वह मानते हैं कि –

” मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिंध में , और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था पर वह हुई दक्षिण भारत में। ”



द्विवेदी ” मैं इस्लाम को भूला नहीं हूं लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि अगर इस्लाम ना आया होता तो भी इस साहित्य का बाहर आना वैसा ही होता।”



आचार्य द्विवेदी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आचार्य शुक्ल की मान्यताओं को चुनौती देते हुए सबल प्रमाणों के आधार पर खंडित किया। आचार्य शुक्ल ने जहां युग स्थिति पर बल दिया वहीं आचार्य द्विवेदी ने परंपरा पर , अतः दोनों के मत एक दूसरे के पूरक ही सिद्ध हुए।

आचार्य द्विवेदी ने शुक्ल द्वारा प्रतिपादित तीन काल खंडों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।



डॉक्टर श्यामसुंदर दास ने अपने ग्रंथ ‘ हिंदी भाषा और साहित्य ‘ मे शुक्ल जी के काल विभाजन को ही मौलिकता के साथ स्वीकार किया। आचार्य महाप्रसाद द्विवेदी के काल विभाजन में जो मौलिकता है उपलब्ध है वह इस प्रकार है –

  • वीरगाथा काल का नाम आदिकाल स्वीकार करना।
  • आदिकाल की सीमा 1000 से 1400 ईसवी तक स्वीकार करना।
  • भक्ति काल को ईशा की 16वीं शताब्दी के मध्य तक स्वीकार करना।
  • रीतिकालीन साहित्य को रीतिबद्ध , रीतिमुक्त , रीतिसिद्ध नामों से तीन भागों में विभाजित करना।


आचार्य द्विवेदी की अधिकांश स्थापनाएं विद्वानों को माननीय भी हुई केवल भक्तिकाल को सन 1600 तक सीमित करना मान्य नहीं हुआ , क्योंकि ऐसा करने से सूर , तुलसी , मीरा आदि भक्तिकालीन कवियों की इस में चर्चा विवादास्पद हो जाएगी।



मिश्र बंधुओं द्वारा रचा गया ग्रंथ ‘ मिश्रबंधु विनोद ‘ की विशेषता यह रही कि इसमें कवियों के विवरणों के साथ-साथ साहित्य के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्व को स्पष्ट किया गया है।



आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यह स्वीकार किया है कि – ” मैंने कवियों की परिचयात्मक विवरण मिश्रबंधु विनोद से लिए हैं ” काल विभाजन के अंतर्गत हिंदी साहित्य के 800 वर्षों के इतिहास को चार काल खंडों में विभाजित करके प्रत्येक का प्रवृत्तिगत नामकरण करते हुए प्रस्तुत किया।


आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काल विभाजन तथा नामकरण को सभी इतिहासकारों ने सबसे पहले प्रस्तुत कर अपना पक्ष देना चाहा।

  • आदिकाल वीरगाथाकाल 1050 – 1375
  • पूर्व मध्यकाल भक्ति काल 1375 – 1700
  • उत्तर मध्यकाल रीतिकाल 1700 – 1900
  • आधुनिक काल गद्य काल 1900 से अब तक।


=> ध्यान रखने योग्य बातें


संवत ( हिन्दू कैलेंडर ) सन से 57 साल आगे होता है। संवत का यदि सन 1050 चल रहा होगा तो , सन 57 साल पीछे होगा यानी कि 993 होगा।


युगाब्द यह कैलेंडर महाराजा युधिष्ठिर के राज्याभिषेक से शुरू हुआ ऐसा माना जाता है।




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