French Kranti Ka Nara Kya Tha फ्रांसीसी क्रांति का नारा क्या था

फ्रांसीसी क्रांति का नारा क्या था



Pradeep Chawla on 12-05-2019

फ्रांसीसी क्रांति (फ्रेंच : Révolution française [ʁevɔlysjɔ̃ fʁɑ̃sɛːz] / रेवोलुस्योँ फ़्राँसेज़ 1789-1799) फ्रांस के इतिहास की राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल एवं आमूल परिवर्तन की अवधि थी जो १७८९ से १७९९ तक चली। बाद में, नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रांति को आगे बढ़ाया। क्रांति के फलस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया, एक गणतंत्र की स्थापना हुई, खूनी संघर्षों का दौर चला, और अन्ततः नेपोलियन की तानाशाही स्थापित हुई जिससे इस क्रांति के अनेकों मूल्यों का पश्चिमी यूरोप में तथा उसके बाहर प्रसार हुआ। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में निरपेक्ष राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एव्ं उदार प्रजातन्त्र बने।







आधुनिक युग में जिन महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया।







अनुक्रम







1 क्रांति के कारण



1.1 राजनीतिक परिस्थितियाँ



1.2 सामाजिक परिस्थितियाँ



1.3 आर्थिक परिस्थितियाँ



1.4 विचारकों/दार्शनिकों की भूमिका



1.4.1 मॉण्टेस्क्यू



1.4.2 वाल्टेयर



1.4.3 रूसो



1.4.4 अन्य दार्शनिक



1.5 तात्कालिक कारण



2 क्रांति के विभिन्न चरण



2.1 प्रथम चरण (1789-1792)



2.1.1 मानवाधिकारों की सीमाएं



2.1.2 चर्च पर नियंत्रण



2.1.3 संविधान निर्माण



2.2 द्वितीय चरण (1792-94)



2.2.1 नेशनल कन्वेंशन और आतंक का राज्य



2.3 तृतीय चरण (1794-99 ई)



2.4 चतुर्थ चरण (1799-1814 ई)



3 क्रांति का प्रभाव



4 फ्रांसीसी क्रांति की प्रकृति



4.1 क्रांति का मध्यवर्गीय स्वरूप



4.2 विश्वव्यापी स्वरूप



4.3 क्रांति सुनियोजित नहीं थी



4.4 सामाजिक क्रांति के रूप में



4.5 अधिनायकवादी स्वरूप



4.6 प्रगतिशील क्रांति के रूप में



5 फ्रांस में ही क्रांति क्यों?



6 इन्हें भी देखें



6.1 संबंधित पेज



6.2 फ्रांसीसी इतिहास में अन्य क्रांतियां या विद्रोह



7 सन्दर्भ



7.1 उद्धृत कार्य



8 ऐतिहासिक युग



9 बाहरी सम्बन्ध







क्रांति के कारण



राजनीतिक परिस्थितियाँ







फ्रांस में निरंकुश राजतंत्र था जो राजत्व के दैवी सिद्धान्त पर आधारित था। इसमें राजा को असीमित अधिकार प्राप्त थे और राजा स्वेच्छाचारी था। लुई 14वें के शासनकाल में (1643-1715) निरंकुशता अपनी पराकाष्ठा पर थी। उसने कहा- मैं ही राज्य हूँ। वह अपनी इच्छानुसार कानून बनाता था। उसने शक्ति का अत्यधिक केन्द्रीयकरण राजतंत्र के पक्ष में कर दिया। कूटनीति और सैन्य कौशल से फ्रांस का विस्तार किया। इस तरह उसने राजतंत्र को गंभीर पेशा बनाया।







लुई 14वें ने जिस शासन व्यवस्था का केन्द्रीकरण किया था उसने योग्य राजा का होना आवश्यक था किन्तु उसके उत्तराधिकारी लुई १५वां एवं लूई १६वाँ पूर्णतः अयोग्य थे। लुई 15वां (1715-1774) अत्यंत विलासी, अदूरदर्शी और निष्क्रिय शासक था। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लेकर देश की आर्थिक स्थिति को भारी क्षति पहुँचाई। इसके बावजूद भी वर्साय का महल विलासिता का केन्द्र बना रहा। उसने कहा कि मेरे बाद प्रलय होगी।







क्रांति की पूर्व संध्या पर लुई 16वें (1774 - 93) का शासक था। वह एक अकर्मण्य और अयोग्य शासक था। उसने भी स्वेच्छाचारित और निरंकुशता का प्रदर्शन किया। उसने कहा कि यह चीज इसलिए कानूनी है कि यह मैं चाहता हूं। अपने एक मंत्री के त्यागपत्र के समय उसने कहा कि-काश मैं भी त्यागपत्र दे पाता। उसकी पत्नी मेरी एन्टोनिएट का उस पर अत्यधिक प्रभाव था। वह फिजूलखर्ची करती थी। उसे आम आदमी की परेशानियों की कोई समझ नहीं थी। एक बार जब लोगों का जुलूस रोटी की मांग कर रहा था तो उसने सलाह दी कि यदि रोटी उपलब्ध नहीं है तो लोग केक क्यों नहीं खाते।







इस तरह देश की शासन पद्धति पूरी तरह नौकरशाही पर निर्भर थी। जो वंशानुगत थी। उनकी भर्ती तथा प्रशिक्षण के कोई नियम नहीं थे और इन नौकरशाहों पर भी नियंत्रण लगाने वाली संस्था मौजूद नहीं थी। इस तरह शासन प्रणाली पूरी तरह भ्रष्ट, निरंकुश, निष्क्रिय और शोषणकारी थी। व्यक्तिगत कानून और राजा की इच्छा का ही कानून लागू होता था। फलतः देश में एक समान कानून संहिता का अभाव तथा विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कानूनों का प्रचलन था। इस अव्यवस्थित और जटिल कानून के कारण जनता को अपने ही कानून का ज्ञान नहीं था। इस अव्यवस्थित निरंकुश तथा संवेदनशील शासन तंत्र का अस्तित्व जनता के लिए कष्टदायी बन गया। इन उत्पीड़क राजनीतिक परिस्थितियों ने क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। फ्रांस की अराजकपूर्ण स्थिति के बारें में यू कहा जा सकता है कि बुरी व्यवस्था का तो कोई प्रश्न नहीं, कोई व्यवस्था ही नहीं थी।



सामाजिक परिस्थितियाँ







क्रांति के कारणों को सामाजिक परिस्थितियों में भी देखा जा सकता है। फ्रांसीसी समाज विषम और विघटित था। वह समाज तीन वर्गों/ स्टेट्स में विभक्त था। प्रथम स्टेट्स में पादरी वर्ग, द्वितीय स्टेट्स में कुलीन वर्ग एवं तृतीय स्टेट्स में जनसाधारण शामिल था। पादरी एवं कुलीन वर्ग को व्यापक विशेषाधिकार प्राप्त था जबकि जनसाधारण अधिकार विहीन था।







(क) प्रथम स्टेट : पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था-उच्च एवं निम्न। उच्च पादी वर्ग के पास अपार धन था। वह “टाइथ” नामक कर वसूलता था। ये शानों शौकत एवं विलासीपूर्ण जीवन बिताते थे, धार्मिक कार्यों में इनकी रूचि कम थी। देश की जमीन का पांचवा भाग चर्च के पास ही था और ये पादरी वर्ग चर्च की अपार सम्पदा का प्रयोग करते थे। ये सभी प्रकार के करों से मुक्त थे इस तरह उनका जीवन भ्रष्ट, अनैतिक और विलासी था। इस कारण यह वर्ग जनता के बीच अलोकप्रिय हो गया था और जनता के असंतोष का कारण भी बन रहा था। दूसरा साधारण पादरी वर्ग था जो निम्न स्तर के थे। चर्च के सभी धार्मिक कार्यों को ये सम्पादित करते थे। वे ईमानदार थे और सादा जीवन व्यतीत करते थे। अतः उनके जीवन यापन का ढंग सामान्य जनता के समान था। अतः उच्च पादरियों से ये घृणा करते थे और जनसाधारण के प्रति सहानुभूति रखते थे। क्रांति के समय इन्होंने क्रांतिकारियों को अपना समर्थन दिया।



(ख) द्वितीय स्टेट : कुलीन वर्ग द्वितीय स्टेट में शामिल था और सेना, चर्च, न्यायालय आदि सभी महत्वपूर्ण विभागों में इनकी नियुक्ति की जाती थी। एतदां के रूप में उच्च प्रशासनिक पदों पर इनकी नियुक्ति होती थी और ये किसानों से विभिन्न प्रकार के कर वसूलते थे और शोषण करते थे। यद्यपि रिशलू और लुई 14वें के समय कुलीनों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया था किन्तु आगे लुई 15वें और 16वें के समय से उन्होंने अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। यह कुलीन वर्ग भी आर्थिक स्थिति के अनुरूप उच्च और निम्न वर्ग में विभाजित थे।



(ग) तृतीय स्टेट : तृतीय स्टेट के लोग जनसाधारण वर्ग से संबद्ध थे जिन्हें कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। इनमें मध्यम वर्ग किसान, मजदूर, शिल्पी, व्यापारी और बुद्धिजीवी लोग शामिल थे। इस वर्ग में भी भारी असमानता थी। इन सभी वर्गों की अपनी-अपनी समस्याएं थी।







किसानों की संख्या सर्वाधिक थी और इनकी दशा निम्न और सोचनीय थी। किसानों को राज्य, चर्च तथा अन्य जमीदारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे और सामंती अत्याचारी को सहना पड़ता था। एक दृष्टि से किसानों के असंतोष का मुख्य कारण सामंतों द्वारा दिए जा रहे कष्ट एवं असुविधाएं थी और राजतंत्र इस पर चुप्पी साधे हुए था। इस तरह किसान इतने दुःखी हो चुके थे कि वे स्वयं ही एक क्रांतिकारी तत्व के रूप में परिणत हो गए और उन्हें क्रांति करने के लिए मात्र एक संकेत की आवश्यकता थी।







मध्यम वर्ग (बुर्जुआ) में साहुकार व्यापारी, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, लेखक, कलाकार, कर्मचारी आदि सम्मिलित थे। उनकी आर्थिक दशा में अवश्य ठीक थी फिर भी वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के प्रति आक्रोशित थे। इस वर्ग को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं था और पादरी और कुलीन वर्ग का व्यवहार इनके प्रति अच्छा नहीं था। इस कारण मध्यवर्ग कुलीनों के सामाजिक श्रेष्ठता से घृणा रखते था और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन कर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के इच्छुक था। यही कारण था कि फ्रांस की क्रांति में उनका मुख्य योगदान रहा और उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। मध्यवर्ग के कुछ आर्थिक शिकायतें भी थी। पूर्व के वाणिज्य व्यापार के कारण इस वर्ग ने धनसंपत्ति अर्जित कर ली थी किन्तु अब सामंती वातावरण में उनके व्यापार पर कई तरह के प्रतिबंध लगे थे जगह-जगह चुंगी देनी पड़ती थी। वे अपने व्यापार व्यवसाय के लिए उन्मुक्त वातावरण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि फ्रांस की क्रांति फ्रांसीसी समाज के दो परस्पर विरोधी गुटों के संघर्ष का परिणाम थी। एक तरफ राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली और दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली वर्ग थे। देश की राजनीति और सरकार पर प्रभुत्व कायम करने के लिए इन दोनों वर्गों में संघर्ष अनिवार्य था। इस तरह 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, फ्रांसीसी समाज में असमानता के विरूद्ध संघर्ष थी।



आर्थिक परिस्थितियाँ







फ्रांस की आर्थिक अवस्था संकटग्रस्त थी। राज्य दिवालियापन के कगार पर पहुंच गया था। वस्तुतः फ्रांस के राजाओं की फिजूलखर्ची तथा लुई 14वें के लगातार युद्धों के कारण शाही कोष खाली हो गया था। उसकी मृत्यु के बाद लुई 15वें ने आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लिया जिससे राजकोष पर बोझ और बढ़ा और अंततः लुई 16वें ने अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध में भाग लेकर फ्रांस की आर्थिक दशा को और भी जर्जर बना दिया।







सम्राट, साम्राज्ञी और उनके परिवार पर राज्य की अत्यधिक राशि खर्च की जाती थी। वर्साय का राजमहल राजकोष के लूटपाट का साधन बना था। दूसरी तरफ कर प्रणाली असंतोषजनक थी। विशेषाधिकारों के कारण सम्पन्न वर्ग कर से मुक्त था तथा गरीब किसान जो आर्थिक दृष्टि से विपन्न था, एकमात्र करदाता था। इस तरह राजकोष की स्थिति अत्यंत सोचनीय हो गई थी। सरकार फ्रांस में आय के अनुसार व्यय करने के बजाय व्यय के अनुसार आय को निश्चित करती थी।







राज्य ऋण के बोझ तले दबता गया। मूल धन की तो बात ही क्या फ्रांस ब्याज चुकाने में असमर्थ था अर्थात् राज्य दिवालिएपन की स्थिति में पहुंच गया था।







देश की आर्थिक दुर्व्यवस्था को व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहन देकर सुधारा जा सकता था परन्तु सरकार की वाणिज्य नीति इतनी अनियंत्रित एवं दोषपूर्ण थी कि उससे राज्य में उत्पादन एवं व्यापार का विकास संभव नहीं था।







लुई 16वें ने तुर्गों, नेकर जैसे वित्त सलाहकारों के माध्यम से आर्थिक संकट को दूर कनने का प्रयास किया लेकिन ये सुधार प्रयास लागू नहीं हो सके क्योंकि विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग ने अपने ऊपर कर लगाने की बात स्वीकार नहीं की। अंततः विशेषाधिकार उन्मूलन के प्रस्तावों को पारित करने के लिए इस्टेट जनरल की बैठक बुलाने की मांग की गई और 1789 ई. में इस्टेट जनरल की बैठक के साथ ही क्रांति का आगमन हुआ, इसलिए तत्कालीन आर्थिक दुर्दशा को फ्रांस की क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है।



विचारकों/दार्शनिकों की भूमिका







फ्रांसीसी क्रांति में दार्शनिकों की भूमिका के संदर्भ में दो मत सामने आते हैं-एक, दार्शनिकों ने क्रांति की परिस्थितियों को जन्म देकर क्रांति को उत्पन्न किया और दूसरा क्रांति का स्रोत तो उस समय के राष्ट्रीय जीवन के दोषों में तथा सरकार की भूलों में था और दार्शनिकों ने क्रांति उत्पन्न नहीं की। किसी भी मत पर निर्णय देने के पूर्व उन दार्शनिकों के विचारों और क्रांति के साथ उनके संबंधों को समझना वांछनीय होगा। दार्शनिकों के विचारों की लोकप्रियता का निर्धारण तो उस समय उनके छपे लेखों के संस्करणों और प्रसार के आधार पर देखा जाना चाहिए।



मॉण्टेस्क्यू







मॉण्टेस्क्यू (1689-1755 ई.) ने अपनी पुस्तक द स्पिरिट ऑफ लॉज (The Spirit of Laws) में राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्तों का खण्डन किया और फ्रांसीसी राजनीतिक संस्थाओं की आलोचना ही नहीं कि वरन् विकल्प भी प्रस्तुत किया। उसने लिखा कि फ्रांसीसी सरकार निरकुंश सरकार है क्योंकि फ्रांस में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका संबंधी सभी शक्तियां एक ही व्यक्ति अर्थात् राजा के हाथों में केन्द्रित है इसलिए फ्रांस की जनता को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। इसी सदंर्भ में उसने “शक्ति के पृथक्करण” का सिद्धान्त दिया जिसके अनुसार शासन के तीन प्रमुख अंग-कार्यपालिका, न्यायपालिाक और व्यवस्थापिका को अलग-अलग हाथों में रखने की सलाह दी। उसने इंग्लैंड के सराकर को आदर्श बताया क्योंकि वहां संवैधानिक राजतंत्र था जिससे वहां नागरिकों को स्वतंत्रता थी। इस प्रकार मॉण्टेस्क्यू ने शक्ति के पृथक्करण के माध्यम से फ्रांस की निरंकुश राज व्यवस्था पर चोट की उसके ये विचार इतने लोकप्रिय हुए कि द स्पिरिट ऑफ लाज के तीन वर्षों में छह संस्करण प्रकाशित हुए। यहां ध्यान रखने की बात यह है कि मॉण्टेस्क्यू ने न तो क्रांति की बात की और न ही राजतंत्र को समाप्त करने की उसने तो सिर्प निरंकुश राजतंत्र के दोषों को उजागर किया और संवैधानिक राजतंत्र की बात की।



वाल्टेयर







वाल्टेयर ( 1694 - 1778 ई.) ने अपनी पुस्तकों के लेटर्स ऑन इंगलिश माध्यम से ब्रिटेन की उदार राजनीति, धर्म और विचार स्वतंत्रता का विषद् चित्रण किया तथा पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था से उसकी तुलना की और फ्रांस में व्याप्त बुराईयों एवं कमियों का उल्लेख किया। प्रतिबंधित होने से पूर्व ये पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई थी। “वाल्टेयर” ने चर्च के भ्रष्ट अचारण, असहिष्णुता, अन्याय, दमन और अत्याचार के विरोध में लिखा। चर्च की भ्रष्टता पर उंगली उठाते हुए उसने लिखा कि अब तो कोई ईसाई बचा नहीं क्योंकि एक ही ईसाई था और उसे सूली पर चढ़ा दिया गया। उसने लिखा कि कुख्यात एवं बदनाम चीज को कुचल दो। यह स्पष्ट रूप से फ्रांस के निरंकुश राजतंत्र एवं चर्च के अत्याचार पर प्रहार था। वाल्टेयर इंग्लैंड के संवैधानिक राजतंत्र के अनुरूप ही फ्रांस में भी वैसा ही शासन स्थापित करना चाहता था। उसने कहा कि मैं सौ चूहों के स्थान पर एक सिंह का शासन पसंद करता हूँ। वाल्टेयर ने क्रांति की बात नहीं की लेकिन विचार स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार की। उसने पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था की बुराईयों को उजागर किया। उसने लोगों के समक्ष तत्कालीन फ्रांसीसी समाज का आइना प्रस्तुत किया और यह बताया कि आइना में दाग कहा है।



रूसो







रूसो ने अपनी पुस्तक “एमिली”, “सोशल कॉन्ट्रैक्ट”, “रूसोनी” के माध्यम से मनुष्य की स्वतंत्रता की बात की। इसने कहा कि मनुष्य स्वतंत्रत पैदा होते हुए भी सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा हुआ। इन जंजीरों से मुक्ति पाने का एक ही तरीका है कि हम प्राकृतिक आदिम अवस्था की ओर लौटे। रूसों ने कहा कि सामूहिक इच्छा से बने राज्य का यह अनिवार्य तथा सार्वभौम कर्तव्य है कि वह सारे समाज को सर्वोपरि मानते हुए कार्य को संचालित करें। जिन लोगों को कार्यपालिका शक्ति सौपीं गई है वे जनता के स्वामी नहीं उसके कार्यकारी है, और उनका कर्तव्य जनता की आज्ञा का पालन करना है। इस तरह उसका दृढ़ विश्वास था कि सर्वोपरि सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए किसी किसी एक व्यक्ति या संस्था के हाथ में नहीं। सार्वभौम सत्ता जनता की इच्छा में निहित है जिसे “सामान्य इच्छा” (General Will) कहा गया। राज्य के कानून को इसी सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होनी चाहिए लेकिन कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया है, बल्कि यह शासक की इच्छा पर निर्भर रहने लगा है।







रूसों ने भी क्रांति की बात नहीं की लेकिन सभी व्यक्ति को स्वतंत्र एवं समान माना और फ्रांसीसी क्रांति के नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व उसी के विचारों से प्रभावित थे। नेपोलियन ने उसके महत्व को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि रूसों नहीं होता तो फ्रांस में क्रांति नहीं होती। रूसों की सोशल कॉन्ट्रैक्ट की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक वर्ष में उसके 13 संस्करण प्रकाशित हुए।



अन्य दार्शनिक







18वीं शताब्दी के श्रेष्ठ विचारकों की रचनाओं को संकलित कर आम जनता तक पहुंचाने का श्रेय फ्रांसीसी विद्वान दिदरो (1713-84) को दिया जाता है इसने एक ज्ञान कोष (इन्साइक्लोपीडिया) का प्रकाशन किया। इसमें शासन की बुराइयों, चर्च की भ्रष्टता तथा हर क्षेत्र में व्याप्त असमानता को उजागर किया गया। फ्रांस की सरकार ने दिदरों को अपना घोर शत्रु माना और उसकी पुस्तक पर अनेक प्रतिबंध लगाए।







विचारकों का एक वर्ग इस समय फ्रांस में व्याप्त आर्थिक अव्यवस्था और उसके विश्लेषण पर केन्द्रित था। इन अर्थशास्त्रियों को “फिज्योक्रात” के नाम से जाना जाता था। इसमें प्रमुख थे- तुर्गों, क्वेसने, मिराबों आदि। क्वेसने मुक्त व्यापार का समर्थक था। व्यापारिक उत्पादन एवं वितरण की पूर्ण स्वतंत्रता तथा चुंगी कर एवं अन्य करों का विरोधी था। उसका तर्क था कि केवल भूमि सारी संपत्ति का मूल स्रोत है। अतः कर केवल भूमि पर लगाना चाहिए व्यापारी एवं कारीगरों पर नहीं।



तात्कालिक कारण







लुई 16वें के काल तक आते-आते फ्रांस की वित्तीय व्यवस्था ऋणों में डुब चुकी थीं। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम ने फ्रांस के दिवालिएपन पर मुहर लगा दी। अतः आर्थिक दुरावस्था को दूर करने के क्रम में तुर्गों, नेकर, कोलोन जैसे अर्थशास्त्रियों की मदद ली। कोलोन ने विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन वर्ग पर कर लगाने का सुझाव दिया जिसे कुलीनों ने अस्वीकार कर दिया। अंततः स्टेस्ट्स जनरल की बैठक बुलाई गई। यह बैठक 1789 से 175 वर्ष बाद हो रही थी। स्टेट्स जनरल की बैठक का समाचार सुनकर सभी वर्ग उत्साहित थे। कुलीनाें उम्मीद थी कि इस बैठक में वे उन विशेषाधिकारों को प्राप्त कर सकेंगे जो लुई 14वां के समय उसने छिन लिए गए थे। मध्यवर्ग के लोगों का मानान था कि वे अपने पक्ष में प्रगतिशील नीतियों का निर्धारण करवा सकेंगे। किसानों को आशा थी कि वह सामंती विशेषधिकारों के विरूद्ध आवाज उठाकर अपने अधिकारों को सुरक्षित कर उनके शोषण चक्र से मुक्त हो सकेंगे। इस तरह फ्रांसीसी राजतंत्र का समर्थन करने के लिए फ्रांसीसी जनसंख्या का कोई महत्वपूर्ण भाग तैयार नहीं था।







एस्टेट्स जनरल के अधिवेशन में मताधिकार पद्धति के मुद्दे पर तृतीय स्टेट (III Estate) एवं अन्य स्टेट के बीच विवाद हो गया। मतदान के बारे में कहा गया कि प्रत्येक स्टेट का एक ही मत माना जाएगा। इस प्रकार विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का दो तथा जनसाधारण का एक ही मत होता है। (विशेषाधिकार वर्ग में प्रथम स्टेट और द्वितीय स्टेट के पादरी और कुलीन वर्ग आते हैं।) जनसाधारण के प्रतिनिधियों ने अर्थात् तृतीय स्टेट ने इस मतदान प्रणाली का विरोध किया क्योंकि इससे वे बहुत में होते हुए भी अल्पमत में आ जाते। तृतीय स्टेट यह चाहता था कि तीनों श्रेणियों के प्रतिनिधि एक साथ बैठकर बहुमत से निर्णय ले लेकिन पादरी एवं कुलीन वर्ग अलग-अलग बैठक चाहते थे। अतः तृतीय स्टेट ने स्टेट्स जनरल की बैठक का बहिष्कार कर अपने को समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधि मानते हुए राष्ट्रीय सभा के रूप में घोषित कर दिया और पास के टेनिस कोर्ट में अपनी सभा बुलाई।







20 जून 1789 को राष्ट्रीय सभा ने यह घोषणा की कि ““हम कभी अलग नहीं होंगे और जब तक संविधान नहीं बन जाता तब तक साथ में बने रहेंगे।”” यह एक क्रांतिकारी घटना थी। अंततः 27 जून को लुई 16वें ने तीनों वर्गों के प्रतिनिधियों की संयुक्त बैठक की अनुमति दे दी। यह जनसाधारण की विजय थी। यह राजा तथा विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की परजय का प्रथम दस्तावेज था। इस प्रकार स्टेट्स जनरल राष्ट्रीय सभा (National assembly) बन गई और उसे राजा की मान्यता मिल गई और वह वैधानिक हो गई। सभा ने 9 जुलाई 1789 को स्वयं को संविधान सभा (Constituent Assembly) घोषित करके देश के संविधान का निर्माण करना अपना सर्वप्रमुख लक्ष्य बनाया। 5 इसी समय लुई 16वें ने अर्थमंत्री नेकर को बर्खास्त कर दिया जिसे जनता अपना समर्थक मानती थी और इसे क्रांति को कुचलने का प्रयास समझा गया। उसी समय यह खबर फैल गई कि बास्तील के किले में राजा ने शस्त्रों का भंडार जमाकर रखा है। अतः 14 जुलाई 1789 को पेरिस की भीड़ ने बास्तील के किले में राजा ने शास्त्रों का भंडार जमाकर रखा है। अतः 14 जुलाई 1789 को पेरिस की भीड़ ने बास्तील के किले पर पर हमला कर दरवाजा तोड़ दिया और कैदियों को मुक्त कर दिया। बास्तील का पतन एक युगांतकारी घटना थी जो निरंकुशता का पतन एवं जनता की विजय का प्रतीक थी। वास्तव में यह क्रांति का उद्घोष था और इसीलिए फ्रांस में 14 जुलाई को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।







क्रांति के विभिन्न चरण







फ्रांसीसी क्रांति विभिन्न चरणों से होते हुए अपने मुकाम तक पहुंची। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से क्रांति को निम्नलिखित चार चरणों में बांटकर देखा जा सकता है।







प्रथम चरण - 1789-1792 ई. संवैधानिक राजतंत्र का चरण



द्वितीय चरण - 1792-1794 ई. उग्र गणतंत्रवाद का चरण



तृतीय चरण - 1794-1799 ई. उदार गणतंत्रवाद का चरण



चतुर्थ चरण - 1799-1814 ई. तानाशाही एवं साम्राज्यवादी चरण







प्रथम चरण (1789-1792)







इस चरण में पेरिस की भीड़ ने बास्तील के किले पर नियंत्रण स्थापित किया। इस तरह क्रांति की शुरूआत हुई। वस्तुतः बास्तील का किला निरंकुशता एवं अत्याचार का प्रतीक था और इसके पतन से पुरातन व्यवस्था का गहरी चुनौती मिली। इस घटना का प्रभाव फ्रांस के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पड़ा और ग्रामीणों ने सामंती करों के अभिलेखों को आग लगा दी। जनता की इन कार्यवाहियों का राष्ट्रीय सभा पर भी गहरा असर पड़ा। अतः 4 अगस्त 1789 जो रात भर का राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन चला जिसमें कानून निर्मित करके सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया। इस तर फ्रांस से सामंतवाद को समाप्त कर दिया गया। राष्ट्रीय सभा का महत्वपूर्ण कार्य था- एक संविधान का निर्माण करना। अतः राष्ट्रीय सभा ही संविधान सभा कहलायी और 26 अगस्त 1789 को संविधान सभा ने मानवाधिकारों की घोषणा की।



मानवाधिकारों की सीमाएं







संविधान सभा ने अपने आदर्शों तथा उद्देश्यों के रूप में मानवाधिकारों की घोषणा की। इस घोषणा में समानता के सिद्धान्त पर बल दिया गया और कहा गया कि चूंकि सभी मनुष्य समान रूप से पैदा होते है अतः उन्हें समान अधिकार मिलने चाहिए। इन अधिकारों में स्वतंत्रता, संपत्ति सुरक्षा तथा अत्याचार के विरोध का अधिकार आदि शामिल थे। इस प्रकार संविधान सभा ने आधारभूत सिद्धान्तों, स्वतंत्रता, समानता व जनता के प्रभुत्व की घोषणा की। संपत्ति के अधिकार को घोषणा पत्र में बार-बार दुहराया गया। इस अधिकार से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता था।



चर्च पर नियंत्रण







राष्ट्रीय संविधान सभा ने चर्च की संपत्ति को जब्त कर लिया और जनता पर चर्च के नियंत्रण को कम करने का प्रयास किया। इस संदर्भ में चर्च को राज्य के अधीन ले आया गया और उसे रोम के पोप के प्रभाव से मुक्त कर राष्ट्रीय चर्च के रूप में तब्दील कर दिया गया।







राज्य के प्रति पादरियों की वफादारी सुरक्षित करने के लिए सिविल कांस्टीच्यूशन ऑफ क्लर्जी बनाया गया। जिसके अनुसार पादरियों को राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी और जनता के द्वारा उनका चुनाव होता था। पोप और कुछ पादरियों ने इस कदम का विरोध किया। जिन पादरियों ने राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ ग्रहण कि वे “ज्यूरर” कहलाए जबकि शपथ नहीं लेने वाले “नॉन ज्यूरर” कहलाए। इस कानून से क्रांति के विरूद्ध एक माहौल निर्मित होने लगा क्योंकि अभी तक छोटे पादरियों ने क्रांति का समर्थन किया था। अब वे इससे अलग हो गए और कुछ पादरी देश छोड़ विदेशों में चले गए और वहां यूरोप में क्रांति के विरूद्ध प्रचार करने लगे।



संविधान निर्माण







राष्ट्रीय संविधान सभा ने फ्रांस के लिए लिखित संवधिान तैयार किया और इस संविधान को 1791 में लुई सोलहवें ने अपनी स्वीकृति दे दी। संविधान में दो बातों पर बल दिया गया-एक, राज्य की सार्वभौम शक्ति जनता में निहित है और दूसरा, शक्ति का पृथक्करण राज्य एवं जनता के हित में है।







यद्यपि शासन प्रणाली राजतंत्रात्मक बनी रहीं परन्तु राजा के अधिकारों को सीमित किया गया। अब वह कानून निर्माता नहीं रहा। राजा को किसी देश से युद्ध या संधि करने का अधिकार नहीं था। कानून बनाने का अधिकार एक व्यवस्थापिका सभा को दिया गया और उसके सदस्यों की संख्या 745 थी।







व्यवस्थापिका के सदस्यों के निर्वाचन के लिए नागरिकों को सक्रिय और निष्क्रय दो भागों में विभक्त कर दिया गया और मताधिकार केवल सक्रिय नागरिकों को दिया गया। सक्रिय नागरिक 25 वर्ष से अधिक आयु के वे लोग थे जो राज्य को तीन दिन की आय के बराबर प्रत्यक्ष कर देते थे जबकि निष्क्रिय नागरिक वे थे जो गरीब थे।







राष्ट्रीय सभा ने फ्रांस की प्रशासनिक संरचना में परिवर्तन किया। प्राचीन प्रांतो को खत्म करके सम्पूर्ण देश को 83 डिपार्टमेन्टों (Departments) में विभक्ति किया गया। इन डिपार्टमेन्टों को Cantan और Comune में बांटा गया। प्रत्येक ईकाईयों का शासन चलाने के लिए निर्वाचन परिषद् होती थी जिसका चुनाव सक्रिय नागरिक करते थे। इस तरह स्थानीय स्तर से लेकर केन्द्रीय स्तर तक सारी राज्य व्यवस्था बर्जआ वर्ग के प्रभाव में आ गई।



द्वितीय चरण (1792-94)







राष्ट्रीय सभा के भंग होने के पश्चात् 1791 ई. में 745 सदस्यीय व्यवस्थापिका सभा (Legislative Assembly) अस्तित्व में आई थी। इस व्यवस्थापिका सभा में अध्यक्ष के दाहिने हाथ की ओर बैठने वाले दक्षिणपंथी कहलाए। ये लोग अनुदार एवं राजतंत्र के समर्थक थे जबकि बाईं ओर बैठने वाले वामपंथी कहलाए और यह समूह मूल परिवर्तनवादियों (Redicals) का था जो उग्र और क्रांतिकारी थे। रेडिकल्स भी दो वर्गों में बंटे थे- जिरोंदिस्त और दूसरा जैकोबियन।







इसी बीच फ्रांस की क्रांति का भय यूरोप के अन्य देशों के भी फैलने लगा। जो पादरी एवं कुलीन वर्ग फ्रांस से भाग यूरोप के अन्य क्षेत्रों के चले गए थे उन्होंने क्रांति के विरूद्ध भावना फैलाई। दूसरी तरफ फ्रांस के क्रांतिकारी अन्य देशों में भी क्रांतिकारी सिद्धान्तों को प्रचार चाह रहे थे। फलतः यूरोप के अन्य राजा शंकित हुए। परिणामस्वरूप क्रांतिकारी फ्रांस और यूरोप के अन्य देशों का आपसी संबंध बिगड़ा। आस्ट्रिया ने क्रांतिकारियों के मना करने पर भी फ्रांस के राजतंत्र के समर्थक शरणार्थियों को अपने यहां रहने दिया था। अतः व्यवस्थापिका सभा ने अपै्रल 1792 ई. में आस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, किन्तु फ्रांस की सेना बुरी तरह पराजित हुई। इस पराजय से फ्रांस की जनता को विश्वास हो गया कि राजा ने आस्ट्रिया को फ्रांस की सैन्य शक्ति और सुरक्षा के सारे भेद बता दिए हैं। अतः राजा के प्रति जनता का रवैया उग्र हो गया। इन स्थितियों में फ्रांसीसी राजतंत्र के समर्थन में प्रशा और आस्ट्रिया ने घोषणा की कि फ्रांस की जनता राजा की आज्ञा का पालन करे अन्यथा हम उनके विरूद्ध कार्यवाही करेंगे। इस तरह फ्रांस की क्रांति ने यूरोप में युद्ध की स्थिति उत्पन्न की।







इस घोषणा से फ्रांस की जनता और उग्र हो गई और उसने राजा को घेर लिया। राजा भागकर व्यवस्थापिका सभा की शरण में पहुंचा। अब यह विचार किया जाने लगा कि व्यवस्थापिका सभा भंग की जाए पुनः चुनाव हो, नयी व्यवस्थापिका सभा बने और वह राजतंत्र के भविष्य पर अपना निर्णय दे। इसी के साथ व्यवस्थापिका सभा को समाप्त कर दिया गया और वयस्क मताधिकार के आधार पर राष्ट्रीय कन्वेशन का गठन हुआ।



नेशनल कन्वेंशन और आतंक का राज्य







21 सिंतबर 1792 को नेशनल कन्वेशन का प्रथम अधिवेशन हुआ। इसमें जैकोबियन एवं जिरोदिस्त दल प्रमुख थे। जैकोबियन अनुशासित और संगठित थे। पेरिस की भीड़ पर इनका प्रभाव था। इसमें प्रमुख नेता थे- दांते, रॉबस्पियर, हीटर आदि। दूसरी तरफ जिरोंदिस्त थे- ये शिक्षित और सुसंस्कृत लोग थे। इन्हें किताबी ज्ञान अधिक था। फलतः ये व्यावहारिक राजनीतिज्ञ नहीं थे। प्रमुख नेता थे- इस्नार, मैडम रोलां, ब्रिसो आदि। यहां समझने की बात यह है कि दोनों ही गुट गणतंत्र के हिमायती थे, विदेशी शक्तियों के विरूद्ध युद्ध का समर्थन करते थे। अंतर केवल स्वरूप का था। वस्तुतः जिरोदिस्तो ने फ्रांस में उदारवादी स्थान ग्रहण कर लिया था। उनका मानना था की क्रांति बहुत आगे जा चुकी है और उसका अंत होना चाहिए। वे और अधिक सामाजिक समानता लाने के विरूद्ध थे। वे स्वतंत्रता पर अधिक जोर देते थे। उधर जैकोबियन लोग समानता पर अधिक जोर देते थे तथा निम्न वर्गों के प्रति सद्भावपूर्ण रवैया रखते थे।







नेशनल कन्वेंशन के समक्ष कठिनाइयां







नेशनल कन्वेंशन के सामने तीन प्रमुख समस्याएं थी- विदेशी आक्रमण, राजा की मौजूदगी और गृहयुद्ध। सितंबर 1792 में फ्रांसीसी सेना ने बेल्जियम पर अधिकार कर लिया और दक्षिण में नीस और सेवॉय भी उसके अधिकार में आ गए। इन विजयों से हॉलैंड, आस्ट्रिया, प्रशा और इंग्लैंड घबरा गए। क्रांतिकारियों ने 1792 में घोषणा भी कर दी कि फ्रांस का गणतंत्र स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावनाओं पर आधारित है और इन भावनाओं का प्रसार करना वह अपना कर्तव्य समझता है। फ्रांस जिन जगहों पर आधिपतय कायम करेगा वहां क्रांतिकारी सिद्धान्तों को लागू करेगा और पादरियों और कुलीनों की संपत्ति छीन लेगा और जो भी देश इसका विरोध करेगा उसे क्रांति का शुत्र समझ जाएगा। इस घोषणा से यूरोप के निरंकुश राजतंत्री देश भयभीत हो गए और अब फ्रांस की क्रांति फ्रांस की न होकर पूरे यूरोप की हो गई। अतः यूरोपीय देश क्रांति के प्रसार को रोकने के लिए एकजूट हो गए और इंग्लैंड, हॉलैंड, आस्ट्रिया, प्रशा के एक गुट का फ्रांस के विरूद्ध निर्माण हुआ। इस गुट ने कई जगहों पर फ्रांस को पराजित किया। फलतः विदेशी युद्ध में फ्रांस की पराजय नेशनल कन्वेशन के समक्ष एक मुख्य समस्या बन गई।







नेशनल कन्वेंशन ने एक प्रस्ताव पारित कर राजतंत्र को समाप्त किया और गणतंत्र की स्थापना की। राजा पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और मृत्युदण्ड की सजा दी गई। राजा के वध के प्रश्न पर जिरोंदिस्तों की नीति स्पष्ट नहीं थी। वे राजतंत्र के विरोधी तो थे लेकिन वध के प्रश्न पर जनमत संग्रह की बात कर रहे थे। इसके विपरीत जैकोबियन्स का मत था कि राजा का देशद्रोह सिद्ध हो चुका है। अतः उसे मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए। अतंतः 21 जनवरी 1793 को लुई 16वां फांसी पर चढ़ा दिया गया।







नेशनल कन्वेंशन को जैकोबियन और जिरोदिस्तों के बीच संघर्ष की समस्या का भी सामना करना पड़ा। वस्तुतः युद्ध के कारण फ्रांस आर्थिक संकट से घिर गया था, कीमतें बढ़ गई थी जिससे कन्वेशन ने राहत देने के लिए विधान बनाया, अमीरों से कर्ज वसूलने का नियम बनाया। इन कदमों का जिरोंदिस्तों ने विरोध किया। जब जैकोबियो ने पेरिस की भीड़ और कम्यून की सहायता से कन्वेंशन पर आक्रमण कर सत्ता पर अधिकार किया और जिरोंदिस्तो को गिरफ्तार कर आतंक के राज्य (Age of terror) की स्थापना की।







आतंक के राज्य की स्थापना के साथ ही फ्रांस एक बार पुनः अव्यवस्था का शिकार हुआ। रॉबस्पियर के नेतृत्व में इसकी स्थापना की गई थी। इसमें क्रांतिकारी, जनसुरक्षा की स्थापना की गई थी और जो कोई जैकाबिन्स के विरूद्ध काम करता उसे मृत्युदण्ड की सजा दी जाती। रॉबस्पियर रूसों की विचारधारा से प्रभावित था। जिसके अनुसार “सामान्य इच्छा” (जनरल विल) ही सार्वभौमिक इच्छा है। रॉबस्पियर ने सत्ता पर नियंत्रण रखने के लिए विरोधियों को “गिलोटिन” (फांसी) पर चढ़ा दिया। अतः सभी व्यक्ति अपने जीवन को लेकर सशंकित हो उठे। अंततः जुलाई 1794, में रॉबस्पियर कैद कर लिया गया और फांसी दे दी गई इसी के साथ आंतक के राज्य की समाप्ति हुई।







आंतक के राज्य के बाद थर्मिदोरियन की प्रतिक्रिया (Thermidorian reaction) हुई। उदारवादी थर्मिदोरियन नेताओं ने देश की सत्ता संभाली और आंतक राज्य की व्यवस्थाओं को भंग किया, जैकोबियन्स को अवैध घोषित किया। आंतक के शासन के दौरान लगाए गए मूल्य तथा पारिश्रमिक पर से नियंत्रण उठा लिया गया। जिससे कीमतें पुनः बढ़ गई, सट्टेबाजों का प्रभाव बढ़ गया और प्रतिक्रिया स्वरूप विद्रोह हुए लेकिन इन विद्रोंहो को दबा दिया गया।







नेशनल कन्वेंशन के कार्य







1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनाई गई ओर फे्रंच राष्ट्रभाषा घोषित की गई।



2. गुलामी प्रथा समाप्त कर दी गई तथा ऋण न चुकाने पर जेल भेजने संबंधी कानून समाप्त किए गए।



3. सबसे बड़े पुत्र को ही उत्तराधिकार देने का कानून समाप्त कर पारिवारिक जीवन में समानता को स्थापित किया गया।



4. राजतंत्र को समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना दिवस से एक नया पंचाग (22 सितंबर 1792) लागू किया गया।



5. माप तौल की नयी पद्धति, ग्राम, लीटर, मीटर शुरू की गई।



6. कालाबाजारी रोकने के लिए राशनिंग व्यवस्था लागू की गयी।



7. मुआवजा देने की नीति समाप्त कर दी गई। धनवानों पर आयकर तथा युद्ध कर लगाया गया।



8. धर्म के मामले में राज्य ने अपने को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया और पादरियों को कोई मान्यता नहीं दी गई।







तृतीय चरण (1794-99 ई)







तृतीय चरण-1794-99 (उदार गणतंत्र)-“डायरेक्टरी” का शासन वस्तुतः नेशनल कन्वेंशन ने एक संविधान का निर्माण कर कार्यपालिका का उत्तरदायित्व 5 सदस्यीय “निदेशक मंडल” को सौंपा। मंडल के सभी सदस्यों के अधिकार बराबर थे। प्रत्येक सदस्य बारी-बारी से तीन महीने के लिए अध्यक्ष हुआ करते थे। प्रत्येक वर्ष एक सदस्य कार्यकाल समाप्त होना था और उसके बदले दूसरे सदस्य की नियुक्ति की जानी थी। इस तरह नेशनल कन्वेंशन के बाद फ्रांस में डायरेक्टरी का शासन शुरू हुआ जो 1795 से 1799 तक चला। अतं में नेपोलियन ने डायरेक्टरी के शासन का अंत कर दिया। डायरेक्टरी का यह शासन अव्यवस्थित, दुःखमय रहा। संचालक मंडल को सशस्त्र सेनाओं के नियंत्रण एवं सेनाध्यक्षों की नियुक्ति, फ्रांस की ओर से संधि करने या युद्ध करने के अधिकार प्राप्त थे। संचालक मंडल के सामने सबसे प्रमुख समस्या थी युद्ध की समस्या, दूसरी तरफ डायरेक्टरी के सदस्य अनुभवहीन, अयोग्य तथा भ्रष्ट थे। अतः डायरेक्टरी के शासन काल में तरह-तरह की गड़बड़ी फैली, बेकारी बढ़ी, व्यापार ठप्प पड़ गया और उसकी विदेश नीति भी कमजोर रही। ऐसी स्थिति में फ्रांस की जनता एक ऐसे शासक (नेतृत्व) की आवश्यकता महसूस कर रही थी जो देश के अंदर और बाहर शांति स्थापित कर सके तथा विदेशी शक्तियों को परास्त कर सके।







इस काल में नेपोलियन ने सैन्य विजयों द्वारा फ्रांस के सम्मान को स्थापित किया और अंततः डायरेक्टरी के शासन का अंत कर सत्ता पर नियंत्रण स्थापित किया।



चतुर्थ चरण (1799-1814 ई)







1799 में नेपोलियन ने डायरेक्टरी के शासन का अंत किया और फ्रांस का प्रथम काउन्सल बना और 1804 ई. में उसने अपने को सम्राट घोषित कर दिया और इस तरह नेपोलियन के तानाशाही साम्राज्यवादी शासन की शुरूआत हुई।



क्रांति का प्रभाव







यूरोप में फ्रांस ही वह देश है जिसने क्रांति के माध्यम से पुरातन व्यवस्था के पतन को सुनिश्चित किया। इस क्रांति का प्रभाव यूरोप तक ही सीमित न रहा। इसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। क्रांति के नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का प्रसार पूरे यूरोप में हुआ। एक तरफ इसने जहां राष्ट्रवाद, जनतंत्रवाद जैसी नई शक्तियों को पनपने का मौका दिया तो दूसरी तरफ आधुनिक तानाशाही और सैनिकवाद की नींव भी डाली।







फ्रांसीसी क्रांति के प्रभावों को निम्न बिन्दुओं के तहत् समझा जा सकता हैः







स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारे का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति के प्रेरक शब्द थे-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इन तीन शब्दों ने विश्व की राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। जिस प्रकार धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में सत्यम् शिवम् और सुन्दरम का महत्व है उसी प्रकार राजव्यवस्था में स्वतंत्रता एवं बंधुत्व का भारत सहित अनेक देशों के संविधानों में भावना को देखा जा सकता है।



लोकतांत्रिक सिद्धान्त का विकास : फ्रांसीसी क्रांति का महत्व इस बात में है कि इसमें लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। क्रांति ने शासन के दैवी सिद्धान्त का अंत कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त को मान्यता दी। मानवधिकारों की घोषणा ने व्यक्ति की महत्ता को प्रतिपादित किया और यह सिद्ध किया कि सार्वभौम सत्ता जनता में निहित है और शासन का अधिकार जनता से आता है।



सामंतवाद की समाप्ति : फ्रांसीसी क्रांति ने सामंती व्यवस्था पर चोट कर सामंती विशेषाधिकारों का अंत किया और क्रांति की ये उपलब्धि यूरोप के अन्य देशों को भी प्रभावित करती रही।



राष्ट्रवाद का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति ने जन-जन में राष्ट्रवाद की भावना को पैदा किया। वस्तुतः अभी तक आम जनता की भक्ति राजा के प्रति थी। फ्रांसीसी क्रांति ने राजभक्ति को देशभक्ति में परिवर्तित कर दिया। इतना ही नहीं, फ्रांस के बाहर भी फ्रांसीसी क्रांति ने राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया और नेपोलियन के साम्राज्यवादी विस्तार को रोका।



धर्मनिरपेक्षता की भावना का प्रसार : फ्रांसीसी क्रांति ने धर्म को राज्य से अलग कर धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान किया। अब धर्म व्यक्तिगत विश्वास की वस्तु बन गई। जिसनें राज्य को किसी तरह हस्तक्षेप नहीं करना था।



सैन्यवाद का विकास : फ्रांसीसी क्रांति ने सैन्यवाद को प्रेरित किया। वस्तुतः नागरिकों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी गई। युद्ध के लिए जनता की संपूर्ण लामबंदी के लिए ये पहली अपील थी। कहा गया अब से जब तक गणतंत्र के प्रदेश से शत्रुओं को निकाल बाहर नहीं कर दिया जाता तब तक फ्रांसीसी जनता स्थायी रूप से सैनिक सेवा के लिए उपलब्ध रहेगी। अभी तक युद्ध राजा के पेशेवर सैनिकों द्वारा लड़ा जाता था। इसी सैन्यवाद ने आगे चलकर अनेक राष्ट्रों को प्रभावित किया और प्रथम विश्वयुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बना।



अधिनायकवाद की शुरूआत : फ्रांसीसी क्रांति को अधिनायकवाद का उद्गम स्रोत माना जाता है। रॉबस्पिर के आतंक का शासन उसका पहला जीता जागता सबूत था। क्रांति के दौरान अनेक नीतियों और सिद्धान्तों को बदलना पड़ा और वे असफल हुए। फलस्वरूप एक व्यक्ति की योग्यता पर बल दिया जाने लगा। इसी से नेपोलियन जैसे तानाशाह का उद्भव संभव हुआ। आगे चलकर इटली, जर्मनी सहित कई देशों में अधिनायकवाद पनपा।



समाजवाद का मार्ग प्रशस्त : फ्रांसीसी क्रांति ने समाजवादी आंदोलन को दिशा दी। एक प्रगतिवादी संस्था “एनरेजेज” के लोगों ने जनता की ओर से बोलने का दावा करते हुए मांग की कि कीमतों पर सरकारी नियंत्रण हो, गरीबों की सहायता की जाएं और युद्ध खर्च को पूरा करने के लिए धनवानों पर भारी कर लगाए जाए। अधिकतम नियम (Law of maximum) के तहत वस्तुओं का अधिकतम मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित कर दिया गया। 1795 ई. में पैन्थियन सोसायटी का गठन हुआ। इसका उद्देश्य मजदूर वर्ग के आंदोलन को सशक्त करना था। इससे संबंधित एक “ट्रिब्यून” नामक पत्र निकलता था जिसका संपादक- नोएल बवूफ था। वह फ्रांस में ऐसी राजव्यवस्था स्थापित करना चाहता था जो पूंजीवादी प्रभाव से मुक्त हो और आर्थिक समानता से परिपूर्ण हो। उसने सर्वहारा वर्ग के माध्यम से क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाए। यद्यपि पैन्थियन विद्रोह का दमन कर दिया गया किन्तु आधुनिक समाजवादी आंदोलन “बवूफवाद” से काफी प्रभावित रहा।







फ्रांसीसी क्रांति की प्रकृति







फ्रांसीसी क्रांति की प्रकृति को क्रांति के आदर्शों, क्रांति के नेतृत्व, क्रांति की प्रगति, क्रांति के दौरान लाए गए परिवर्तनों और विश्व पर पड़े प्रभावों के प्रकाश में समझे जाने की जरूरत है। इस दृष्टि से क्रांति एक ऐसी क्रांति थी जिसका प्रारंभ तो कुलीन वर्ग ने किया, फिर आगे चलकर इसका नेतृत्व मध्यवर्ग के हाथों में आया। कुछ समय के लिए यह क्रांतिकारी तत्वों के प्रभाव में रही और अंत एक सैनिक तानाशाह के साथ हुआ। इस तरह फ्रांसीसी क्रांति उस विशाल नदी की तरह जो उच्च पर्वत शिखर से प्रारंभ होकर मार्ग में अनेक छोटे-मोटे पर्वतों को लांघती हुई कभी तीव्र गति से, तो मंद गति से प्रवाहमान रही।



क्रांति का मध्यवर्गीय स्वरूप







1789 में हुई फ्रांसीसी क्रांति को एक बुर्जुआ क्रांति के रूप में देखा जा सकाता है। क्रांति के प्रथम चरण में नेतृत्व तृतीय स्टेट के बुर्जुआई तत्वों के हाथों में था। मध्यवर्गीय नेतृत्व ने निजी संपत्ति को ध्यान में रखते हुए कुछ सिद्धान्त भी बनाएं। वस्तुतः सामंतवाद के अंत की घोषणा तो कर दी गई किन्तु सामंती अधिकारों को यूं ही नहीं छोड़ दिया गया, बल्कि भूमिपतियों की क्षतिपूर्ति करने के बाद ही किसान किसी उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकते थे।







मानवाधिकारों की घोषणा में मध्यवर्गीय प्रभाव देखा जा सकता है। संपत्ति के अधिकार को मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया जो बुर्जुआ हितों के संरक्षण से संबंधित है। इसी प्रकार वयस्क मताधिकार की बात तो की गई किन्तु संविधान में “नागरिक” शब्द का अत्यंत संकुचित अर्थों में प्रयोग किया गया। नागरिक को सक्रिय व निष्क्रिय नागरिकों में विभाजित किया गया। सक्रिय नागरिक वे थे जो अपनी कम से कम तीन दिन के आय की रकम प्रत्यक्ष कर के रूप में अदा करते थे और सिर्प इन्हें ही मत देने का अधिकार था। प्रतिनिधि होने के लिए भी संपत्ति की योग्यता को आधार बनाया गया और यह धनी लोग ही राजनीतिक क्रियाकलापों में भाग ले सकते थे और इसका मतलब था कि धनी लोग मध्यवर्ग से जुड़े थे। इस तरह फ्रांसीसी क्रांति ने जन्म पर आधारित भेदभाव को नष्ट किया परन्तु उसके जगह प्राचीन सामंतवाद के बदले धन पर आधारित नए सामंतवाद का प्रभुत्व हुआ।







क्रांति के दौरान क्रांतिकारियों ने निरंकुश सरकार द्वारा लिए गए ऋणों की बात तो की किन्तु उन ऋणों को माफ करने की बात किसी ने नहीं की। इसका कारण था यह ऋण सरकार को बुर्जुआ वर्ग ने दिया था। इसी प्रकार सरकार ने चर्च की संपत्ति को तो जब्त किया परन्तु उसे भूमिहीनों को नहीं बांटा गया। जमीनों को सर्वाधिक ऊंची कीमतों पर बेचा गया और इस जमीन को खरीदने की क्षमता मध्यवर्ग के पास थी।







फ्रांसीसी क्रांति ने मजदूरों के हितों को नजरंदाज किया और श्रमिक आंदोलन को हतोत्साहित किया। क्रांति के दौरान श्रमिक वर्ग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी किन्तु बुर्जुआ नेतृत्व को उसकी बढ़ती स्थिति मंजूर नहीं थी। अतः नेशनल असेम्बली ने निरंकुश राजतंत्र युग में निर्मित कानूनों को पुनः लागू कर दिया। जिसके तहत् सभी श्रमिक संघ संबंधी कार्यों पर प्रतिबंध लगा दिया गए और गिल्डों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया।







नेशनल एसेम्बली में बुर्जुआओं की प्रधानता थी और उसमें जिरोंदिस्त और जैकोबियन भी बुर्जुआ वर्ग से संबंधित थे। यद्यपि जैकोबियन सर्वहारा वर्ग के हित की बात करते थे परन्तु आतंक के राज्य की स्थापना में बुर्जुआ हितों को ही ऊपर रखा गया और श्रमिकों प्रतिक्रियाओं को दबाने हेतु सेना की सहायता ली गई।







डायरेक्टरी के शासन में भी मध्यवर्गीय हितों को प्रमुखता दी गई। संचालक मंडल ने जिस द्विसदनी विधायिका का निर्माण किया उसके सभी सदस्य मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी थे।







नेपोलियन के सुधारों पर भी बुर्जुआई प्रभाव देखा जा सकता है। उसने बुर्जुआ हितों को संरक्षित रखते हुए अपनी विधि संहिता में संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित रखा, कुलीनों को अपेक्षाकृत व्यापक अधिकार दिए तथा उसके व्यापारिक और वाणिज्यिक सुधारों का फायदा मध्यवर्ग को ही मिला। इस तरह क्रांति के स्वरूप में मध्यवर्गीय तत्व दिखाई देते हैं। किन्तु पूरे क्रांति और उसके प्रभाव के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि क्रांति में मध्यवर्गीय तत्वों के साथ कृषक, मजदूर, महिलाओं की सहमागिता थी। इस तरीके से यह मात्र मध्यवर्गीय क्रांति नहीं थी अपितु एक लोकप्रिय क्रांति के रूप में इसे देखा जा सकता है।



विश्वव्यापी स्वरूप







फ्रांसीसी क्रांति एक विश्वव्यापी चरित्र को लिए हुए थी। क्रांतिकारियों ने 1789 में मनुष्य तथा नागरिक अधिकारों की घोषणा की, जिसके तहत् कहा गया कि जन्म से समान पैदा होने के कारण सभी मनुष्यों को समान अधिकार मिलना चाहिए और यह सभी देशों के लिए सभी मनुष्यों के लिए, सभी समय के लिए और उदाहरण स्वरूप सारी दुनिया के लिए हैं। यह घोषणा सिर्प फ्रांस के लिए नहीं वरन् हर जगह के उन सभी लोगों की भलाई के लिए हैं जो स्वतंत्र होना चाहते थे तथा निरंकुश राजतंत्र एवं सामंती विशेषधिकारों के बोझ से मुक्ति पाना चाहते थे, बनाया गया था। नेशनल एसेम्बली द्वारा 1792 ई. में कॉमपेने नामक अंगे्रज नायक को फ्रांसीसी नागरिक की उपाधि दी गई और उसे नेशनल कन्वेंशन का प्रतिनिध भी चुना गया। इसी प्रकार क्रांति के दौरान यह विचार आया कि क्रांति को स्थायी और सुदृढ़ रखने के लिए इसे यूरोप के अन्य देशों में भी विस्तारित किया जाएं। इसमें एक ऐसे युद्ध की कल्पना की गई जिसमें फ्रांसीसी सेनाएं पड़ोसी देशों में प्रवेश कर वहां के स्थानीय क्रांतिकारियों से मिलकर राजतंत्र को अपदस्थ कर गणतंत्रों की स्थापना करती है।







फ्रांस की क्रांति मात्र एक राष्ट्रीय घटना नहीं थी अपितु सिद्धान्तों- स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारों से संपूर्ण यूरोप गूंज उठा। क्रांति के प्रभाव इतने दूरगामी रहे कि समस्त यूरोप इससे आच्छादित हुआ। इसी संदर्भ में कहा गया “यदि फ्रांस को जुकाम होता है तो समस्त यूरोप छींकता है।”



क्रांति सुनियोजित नहीं थी







फ्रांस की क्रांति रूसी क्रांति के समान सुनियोजित नहीं थी। वस्तुतः रूसी क्रांति बोल्शेविकों द्वारा सुनियोजित थी और उसका उद्देश्य सत्ता हासिल कर सर्वहारा का शासन स्थापित करना था लेकिन फ्रांसीसी क्रांति शुरू से अंत तक घटनाओं और परिस्थितियों का शिकार रहीं और घटनाएं इस तरह से नहीं घटी जिस तरह से क्रांतिकारियों ने चाहा बल्कि घटनाओं ने क्रांतिकारियों को अपना रास्ता बदलने के लिए मजबूर किया। स्टेट्स जनरल की बैठक में यदि तृतीय स्टेट की बात अन्य स्टेट्स ने मान ली होती तो क्रांति का रूख दूसरा होता। इसी प्रकार आतंक का राज्य और डायरेक्टरी के शासन भी सुनियोजित ढंग से नहीं चले। इस दृष्टि से यह क्रांति अव्यवस्थित थी।



सामाजिक क्रांति के रूप में







फ्रांसीसी क्रांति के मूल में तत्कालीन फ्रांसीसी समाज की दुरावस्था भी एक महत्वपूर्ण कारक थी। पूरा समाज विशेषाधिकार प्राप्त और अधिकार विहीन वर्गों में विभक्त था। कृषकों की स्थिति करों के बोझ से खराब थी तो दूसरी तरफ उन्हें सामंतों के अत्याचार तथा चर्च के हस्तक्षेप से भी शोषण का शिकार होना पड़ता था। इन स्थितियों ने क्रांति को राह दिखाई और क्रांतिकारियों ने इसी असमानता के विरूद्ध आवाज बुलंद की और स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व का नारा दिया। क्रांति के दौरान ही सामंतवाद के अंत की घोषणा हुई, विशेषाधिकारों को खत्म किया गया।



अधिनायकवादी स्वरूप







फ्रांसीसी क्रांति में सर्वसाधारण की भागेदारी रहीं थी किन्तु उनके हितों को नजरंदाज करके क्रांति ने अधिनायकवाद का रूप धारण कर लिया जिसमें किसी एक व्यक्ति के सिद्धान्तों और इच्छाओं की प्रधानता थी। वस्तुतः क्रांति के दौरान रॉबस्पियर के नेतृत्व में एक तानाशाही सरकार या अधिनायकतंत्र की स्थापना हुई थी और आगे चलकर नेपालियन ने भी अधिनायकतंत्र की स्थापना की।



प्रगतिशील क्रांति के रूप में







फ्रांस की क्रांति वहां की पुरातन व्यवस्था में व्याप्त तमाम विकृतियों, विसंगतियों एवं बुनियादी दोषों के विरूद्ध एक सशक्त प्रतिक्रिया थी। क्रांति ने निरंकुश राजतंत्र असमानता पर आधारित फ्रांसीसी समाज, विलासितापूर्ण पादरी वर्ग तथा आर्थिक दिवालियेपन के संकट से जूझ रहे कुशासन का अंत कर फ्रांस में प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली का मार्ग प्रशस्त किया। इस दृष्टि से इसे दृष्टि से इसे प्रगतिशील क्रांति के रूप में देखा जा सकता है







इतना ही नहीं मानवधिकारों की घोषणा स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के नारे तथा राष्ट्रीयता की विचारधारा से समस्त विश्व के नारे तथा राष्ट्रीयता की विचारधारा से समस्त विश्व को अवगत कराया परिणामस्वरूप विश्व के कई देशों में राजनीतिक अधिकारों की मांग को लेकर जनांदोलन होने लगे। इटली एवं जर्मनी के एकीकरण की भावना को प्रोत्साहन मिला। धर्म और राजनीति के पृथक्करण का मुद्दा पहली बार इस क्रांति के दौरान उठा। राज्य और राजनीति धर्म से अलग किए गए।



फ्रांस में ही क्रांति क्यों?







विश्व इतिहास में फ्रांस की राज्य क्रांति को विशिष्ट महत्व प्राप्त है यह मानव इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसमें न केवल फ्रांस बल्कि युरोप के जन जीवन में अमुल्य परिवर्तन ला दिया इसमें शदियों से चली आ रही सामंती व्यवस्था को नष्ट कर आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था का मार्ग प्रास्त किय। राजतंत्र की निरंकुशता समाप्त हुई और लोकतांत्रिक वातावर्ण में लोगों ने चैन की साँस ली। इस समय हमारे सामने यह प्रशन उठता है कि 1789 ई. में क्रांति का सुत्रपात अन्य युरोप देशों में न होकर पहले फ्रांस में ही क्यों हुई। 18 वीं शताब्दी के युरोप राष्ट्रों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय फ्रांस की जो स्थिति थी उससे भी बदतर अन्य यूरोप राष्ट्रों की थी। निरंकुश राजतंत्र सुविधा युक्त वर्ग और करों के असाहनीय भार से दबा हुआ था। साधारण वर्ग प्राय: सभी युरोप देशों में मौजुद थे। कुछ राज्यों की स्थिति तो फ्रांस से भी अधिक विकृत थी प्रशा, आस्ट्रिया और रुस आदि फ्रांस से भी अधिक विकृत थे। फ्रांसीसी कृषक अन्य यूरोप राष्ट्रों की अपेक्षा खुसहाल थे। साधारण वर्ग की स्थिति अन्य युरोप राज्यों में और भी खराब थी। फिर भी क्रांति इन देशों में न होकर पहले फ्रांस में ही हुई। इसका प्रमुख कारण यह था की फ्रांस लोग अपनी स्थिति के प्रति जागरुक थे। क्रांति के लिए यह कोई आवश्यक शर्त नहीं कि इसका विस्फोट उसी देशों में हो जहाँ के लोग अत्याचार, अनाचार और शोषण के शिकार हो। समृद्ध और उन्नत देश में भी क्रांति हो सकती है। बशर्ते उसके निवासी यह महसुस करे कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। फ्रांस की जनता इस अन्याय को महसुस कर रही थी। और से दूर करना चाहती थी। वहाँ ऐसे अनेक दार्शनिक और लेखक पैदा हुए जिन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा इन कष्टों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्टि कराया अन्य युरोपीय देशों की बदतर स्थिति के बावजुद फ्रांस में सर्वप्रथम लुई सोलवाँ के खिलाफ क्रांति हुई। इस क्रांति के अनेक कारण थे जो इस प्रकार है।







फ्रासीसी सामंतों का बदला हुआ स्वरुप और किसानो की उन्नत अवस्था-







फ्रांसीसी किसानों की उन्नत अवस्था और सामंतवाद का बदला हुआ स्वरुप ऐसा कारण था। जिसके चलते फ्रांस में सर्व प्रथम राज्यक्रांति हुई। यूरोपीय देश के किसान अभी उदासी की स्थिति में थे। परन्तु फ्रांस के किसान स्वतंत्र हो चुके थे। उनके पास अपनी जमीन अपना मकान इतनी सुविधा के बावजुद सामंत कर एवं सामंत सेवाओं का अंत नहीं हुआ था उन्हें अपनी आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा सामंत कर के रूप में चुकाना पड़ता था। और फिर भी उसकी स्थिति अच्छी धी। वे पैसे बचाकर कुछ न- कुछ जमीन खरीद लिया करते थे जमीन खरीदने की भूख निरंतर बढ़ती जा रही थी इसमें सामंत कर व बेरोजगारी बाधक थे अत: वे सामंत पेशों को हटाने की बात सोच रहे थे अत: माध्यम वर्ग के नेतृत्व में उन्हे बल मिला और 1789 ई. में उन्होंने विद्रोह कर दिया।







फ्रांस में उदार निरंकुशता की परंपरा का आभाव-







अन्य यूरोपीय देशों में भी निरंकुश राजतंत्र था। परन्तु वहाँ के सम्राटों ने समयनुसार अपनी निरंकुशता में कमी कर दी थी। प्रशा का राजा फ्रेडिरक अपने समय का महान प्रबुद्ध प्रशासक था। जिसका अनुसरण यूरोप के अन्य देश रुस जर्मनी, इटली, स्पेन आदि ने किया। उन्होने समयनुसार जाता की आर्थिक भौतिक तथा अन्य क्षेत्रों में उन्नत करने का यथा संभव प्रयास किया। परन्तु फ्रांस में इस तरह कि उदार निरंकुशता का आभाव था। वहाँ के राजा जनता की भलाई के लिए कुछ नहीं कर रहे थे। बल्कि अधिक टैक्स वसुलना और जनता का शोषण करना उनकी नीति बन गई थी। इसलिए फ्रांस की जनता इससे उब गई थी इसलिए फ्रांस की जनता निरंकुश राजतंत्र को समाप्त करना चाहती थी।







माद्यम वर्ग की जागरुकता-







फ्रांस में ही सर्वप्रथम क्रांति होने का कारण वहाँ का मध्यमवर्ग था। अन्य देशों में भी मध्यम वर्ग थी परन्तु वे फ्रांस की तरह सांस्कृति, धनी एवं शिक्षित नहीं थे। उनमें शक्ति का आभाव था। वे राजा के खिलाफ बगावत करने की सोच नहीं सकते थे। फ्रांस में मध्यम वर्ग के लोग अनेक कारण से अपने सम्राटों से असंतुष्ट थे। और अपनी रक्षा के लिए राज सत्ता पर अंकुश लगाने के लिए उतावला हो रहे थे। अन्य यूरोपीय राज्यों में इस तरह की स्थिति का अभाव था। अन्य देशों में नेतृत्व करने वाला कोई नहीं था फ्रांस में जागरुक मध्यमवर्ग तैयार था। अत: सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्रांति हुई।







कुलीनवर्ग की अनुपयोगिता-







कुलीन वह्ग को पहसे विशेषधिकार इस लिए दिया गया था कि वे शासन चलाने में राजा की मदद करे। और वे जनाता की रक्षा भी करते थे। परन्तु धीरे – 2 यह कार्य राजा के कर्मचारी करने लगा। फलत: कुलीनों की उपयोगिता समाप्त हो गई। फिर भी इसके विशेषधिकार में किसी प्रकार की कटौती नहीं की गई। इसलिए किसान और मध्यम वर्ग के लोग कुलिनवर्ग से घृणा करने लगे। अन्य देशों में ऐसी बात नहीं थी। वहाँ अभी भी कुलीनों कि पयोगिता बनी हुई थी।







दार्शनिकों का प्रभाव-







18 वीं शताब्दी में सम्पूर्ण यूरोप में बौदिक हलचल मची हुई थी। दार्शनिक, विचारक, वाज्ञानिक सभी देशों में विद्धमान थे। परन्तु उनमें मुख्य फ्रांस के विचारक थे। जिन्होंने क्रांति का मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया। उन्होंने समाज में वयप्त बुराईयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया और मुक जनता को वाणी दी। इस तरह का प्रयास अन्य देशों में नहीं किया जा रहा था। मान्टेग्यु, वाल्टेयर रुसो आदि विचारकों का कार्य क्षेत्र फ्रांस ही था। आस्ट्रिया, प्रशा और रुस में इस तरह के विचारक नहीं थे। यूरोप के अन्य देशों में लोगों का उनकी वास्तविक स्थिति बताने वाला और उनमें संतोष पैदा करने वाला दार्शनिकों का कोई वर्ग नहीं था। फ्रांस में ही क्रांति होने का यह एक प्रमुख कारण था।







राजनीतिक सहभागिता का आभाव-







इंगलैण्ड में जब मध्यम वर्ग ने जागरुकता आई तो उसे देश की राजनीति में भाग लेने का अवसर दिया गया। परन्तु फ्रांस के साथ ऐसी बात नहीं थी। फ्रांस का मध्यम वर्ग अपने सम्राटों से काफी असंतुष्ट था। उनकी अपेक्षा की जाती थी। शिक्षित होने के बावजूद उन्हें कुलीनों की तरह प्रतिष्ठा उपलब्ध नहीं थी। उन्हें फ्रांस की राजनीति में भाग लेने का अवसर नहीं दिया जाता था। इसलिए उन्होने असंतुष्ट होकर क्रांति का नारा बुलंद किया।







अयोग्य राजा तथा प्रशासन में भ्रष्टाचार-







फ्रांस की राजनितिक व्यवस्था केन्द्रीकृत थी लेकिन राजा अयोग्य थे। प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला था। यूरोप के अन्य देशों में निरंकुश शासन तोथा परन्तु राजा योग्य थे और शासन पर उनका पुर्ण नियंत्रण था। फ्रांस का माध्यम वर्ग इस प्रशासनिक भ्रष्टाटार को महसूस कर रहा था। तथा इसलिए वह विद्रोह करने के लिए तैयार था।







राष्ट्रीय भावना का उदय-







इस समय यूरोप में तेजी से राष्ट्रीय भावना का उदय होने लगा। सम्पूर्ण यूरोप में फ्रांस ही एक ऐसा देश था जहाँ एक राष्ट्र भावना का पूर्णत: अभाव था। इसके चलते भी सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्रांति हुई।







अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव-







1766 ई. में अमेरिकन स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ। जिमें अमेरिका के लोगों ने इंगलैण्ड के खिलाफ विद्रोह कर कर दिया। फ्रांस के सैनिकों को भी इस स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का अवसर मिला अत: उन्होने यह महसुस किया कि युद्ध के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति की जा सकती है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि स्वतंत्रता सो ही सुख की प्राप्ति संभव है। फ्रांस लौटने पर उन्होने देखा की जिस स्वतंत्रता को लिए उन्होनें अमेरिका में युद्ध किया उसी स्वतंत्रता का फ्रांस में पूर्णत: आभाव है। अत: वे यहाँ की क्रांति के लिए बेचैन हो उठे और युद्ध के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे। यूरोप के अन्य देशों में ऐसी बात नहीं थी।







फ्रांसीसी सभ्यता की श्रेष्ठता-







फ्रांस में ही क्रांति होने का एक विशिष्ट कारण यह था कि यहाँ की सभ्यता और सांस्कृति अन्य यूरोप की सभ्यता और सांस्कृति अन्य यूरोप राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक समृद्ध और वैभव पूर्ण थी। शासन व्यवस्था की दृष्टि से भी फ्रांस का शासन अत्यधिक सुवयवस्थित था। फ्रांस सम्पूर्ण यूरोप सभ्यता और सांस्कृति का प्रतिक माना जाता है। सम्पूर्ण यूरोप में पेरिस साहित्य और चिंतन का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता है। फ्रांस जनमत अन्य यूरोप राज्यों की अपेक्षा अधिक जागृत और आलोचनात्मक था। इन सभी कारणों के फलस्वरुप 1789 ई. में अन्य यूरोप राज्यों में क्रांति न होकर सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्राति हुई। 1




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Comments Muskan on 12-05-2019

What was the slogan of French revolution in the late 18 century





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