ददरिया शैली के गीत
पारंपरिक रूप में ददरिया खेतों में फसलों की निंदाई-कटाई करते, जंगल पहाड़ में श्रम में संलग्र लोगों द्वारा गाया जाता है। यह और बात है कि अब मंच पर ददरिया वाद्यों के संगत में गाया जाता है। लड़के-लड़कियों को नचाया जाता है। इसलिए शहरी परिवेश में जीने वाले लोक कला मर्मज्ञ ददरिया को लोक गीत न कहकर लोक नृत्य कहते हैं पर यह कला का विकास नहीं है। यह पारंपरिकता के साथ खिलवाड़ है। उसके मूल रूप को विकृत करने का प्रयास है। मेरी दृष्टि में ऐसा कोई भी प्रयास ना लोक कला के हित में हैं न लोक कलाकार के।
ददरिया का सामूहिक स्वर सुनकर जिसने उसका माधुर्य पान किया होगा, वही व्यक्त कर सकता है ददरिया के आनंद और अनुभूति को। इसे अकेले-दुकेले भी गाया जाता है, सवाल जवाब के रूप में। साथ देने वाला हो तो माधुर्य द्विगुणित हो जाता है-
बटकी मा बासी, अऊ चुटकी का नून।
मैं गावत हंव ददरिया, तैं कान देके सुन।
ददरिया मुक्तक श्रेणी का लोक काव्य है। यह दोहे की शैली में होता है। इस प्रभाव दोहे की ही तरह मर्मस्पर्शी होता है। ददरिया की श्रृंखला बड़ी लम्बी होती है। ये परस्पर भिन्न होते हैं। इनका परस्पर संबंध विच्छेदित रहता है। सतसई के दोहे के बारे में जिस प्रकार कहा जाता है-
सतसईया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर,
देखन में छोटे लगे, घाव करत गंभीर।
निष्ठुर निर्दयी और निर्माेही व्यक्ति को भी ददरिया मोम की तरह पिघला देता है। पत्थर में भी प्रसून खिला देता है लोक कंठ में गूंजने वाले ददरिया का माधुर्य मंदिर में गूंजती घंटियों की तरह मन को शांति देता है। काम करते-करते जब काया थकने लगती है, तब ददरिया की तान थकान मिटाती है या यूं भी कहा जाता सकता है कि ददरिया गाते-गाते काम करने से थकान आती ही नहीं बल्कि शरीर में ऊर्जा और मस्तिष्क में चेतना का संचार करता है। इसलिए कि यह लोक गीत का स्वभाव है और गीत मनुष्य का स्वभाव है। लोक जीवन में कोई भी कार्य गीत के बिना संपन्न नहीं होता। हल चलाने वाला हल चलाते-चलाते गीत गाता है। गाडीवान भी गीत गाता है। नाव चलाने वाला गीत गाता है। घर में चक्की चलाती, धान कूटती स्त्रियाँ गीत गाती हैं। लोक जीवन में लोक गीत का ही साम्राज्य है।
ददरिया में दोहे की तरह दो पक्तियाँ ही होती हैं। प्रथम पंक्ति में लोक जीवन के व्यवहृत वस्तुओं का उल्लेख है या कहें कि प्रकृति व परिवेश का समावेश और दूसरी पंक्ति में होता है अंतर मन की व्यथा-कथा, सुख-दुख, हास-परिहास और हर्ष-विषाद का प्रकटीकरण। कथ्य का भाव, क्रिया-प्रतिक्रिया, मनोदशा और पारस्परिक प्रभावों का चित्रण। 'तुकांतताÓÓ ददरिया की विशेषता है। स्वाभाविक रूप से दोनों पंक्तियों के तुक मिलते हैं। किसी-किसी ददरिया में दोनों पक्तियों में पारस्परिक प्रभाव तादात्मय स्थापित रहता है। यथा-
करिया रे हडिय़ा के, उज्जर हावय भात।
निकलत नई बने, अंजोरी हावय रात।।
ददरिया में विषयों की विविधता है पर मूलत: विषय श्रृंगार है। इसमें कृषि संस्कृति और आदिवासी संस्कृति पूर्णत: प्रतिबिम्बित होती है क्योंकि यही लोक जीवन का मूलाधार है। लोक व्यवहार के शब्द ददरिया के श्रृंगार हैं। फलस्वरूप ददरिया की पंक्तियों के भाव का हृदय में अमिट छाप पड़ता है-
आमा ला टोरे खाहूंच कहिके।
तैं दगा दिये मोला, आहूँच कहिके।।
प्रेम और अनुराग इसका मूल स्वर है। प्रेम तो जीवन का सार है, श्रृंगार है। प्रेम के बिना सारा संसार निस्सार है। युवा-हृदय में जब प्रेम की कोपलें फूटती हैं, तो वह किसी का प्रेम पाकर पल्लवित होता है। ददरिया प्रेमी हृदय की अभिव्यंजना है आकुल प्राण की पुकार, भोले भाले मन की काव्य सर्जना है। ददरिया के विषय में डॉ. पालेश्वर शर्मा कहते हैं-छत्तीसगढ़ी लोक गीत ददरिया यौवन और प्रणय का उच्छवास है। यौवन जीवन का वासंती ओज है, तो सौंदर्य उसका मधुर वैभव और प्रेम वह तो प्राणों का परिजात है, जिसके पराग से संसार सुवासित हो उठता है। प्रेम का पराग ददरिया की इन पंक्तियों में दृष्टव्य है-
एक पेड़ आमा, छत्तीस पेड़ जाम।
तोर सेती मयारू, मैं होगेंव बदनाम।।
आमा के पाना, डोलत नई हे।
का होगे मयारू, बोलत नई हे।।
ददरिया में प्रेम और अनुराग का ही वर्चस्व होता है। प्रेम गंगा जल की तरह पवित्र होता है। प्रेमी हृदय जिस छवि को अपनी आँखों में बैठा लेता है, वही उसका सर्वस्व होता है। उस प्रेम मूर्ति को वह अपनी कोमल भावनाएं पुष्प की तरह अर्पित करता है। मरने पर ही प्रीत छूटने की बात कहता है-
माटी के मटकी फोरे म फूट ही।
तोर मोर पिरित मरे में छुट ही।।
लोक मन का यह अनुराग, लोक मन की यह प्रेमाभिव्यक्ति और विश्वास धरती की तरह विस्तृत आकाश की तरह ऊंचा और सागर की तरह गहरा है। भला कोई प्रेम की ऊंचाई और गहराई को नाप सका है? प्रेमी हृदय की ललक और प्रिय की तलाश को कितनी सार्थक करती है, ददरिया की ये पंक्तियाँ-
बागे-बगीचा, दिखे ला हरियर।
झुलुप वाला नई दिखे, बदे हँव नरियर।।
लोक जीवन के क्रिया व्यवहार का यथार्थ भी प्रस्तुत करता है ददरिया। जब मुद्रा का प्रचलन नहीं था, तब लोक वस्तु-विनिमय द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे तथा परस्पर वस्तुओं को अदल-बदल कर अपनी रोजमर्रा की चीजों की पूर्ति करते हैं। छत्तीसगढ़ के लोक-जीवन में भी छुट-पुट प्रथा देखने में आता है। जैसे रऊताईन कोदो या धान के बदले मही देती है। गाँवों में लोग बबूल बीज के बदले नमक ले लेते हैं-
ले जा लान दे जँवारा,
कोदो के मिरचा ओ, ले जा लान दे हो।
धाने रे लुवे, गिरे ला कांसी।
भगवान के मंदिर म बाजथे बंसी।।
नवा रे मंदिर कलस नई हे।
दू दिन के अवईया, दरस नई हे।।
ददरिया के शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य, अर्थ गांभीर्य और इसके माधुर्य के कारण इसे गीतों की रानी कहा जाता है। यह सम्मान इसे इसकी सहजता, सरलता और सरसता के कारण भी मिला है। ददरिया वह गीत है जिसके रचनाकार का पता नहीं है। यह वाचिक परम्परा द्वारा एक कंठ से दूसरे कंठ तक पहुंचता है। कुछ छुटता है, कुछ जुड़ता है। इस छुटने और जुडऩे के बाद भी यह कभी निष्प्रभावी नहीं हुआ है। इसका तेज और लालित्य बढ़ता ही गया है। लोक गायक जो देखता है, उसे ही गीत के रूप में कर गढ़ कर गाता है और समूह कें कंठ में जो बस जाता है वही लोक गीत कहलाता है। ददरिया लोक को गाने वाला गीत है-
संझा के बेरा, तरोई फूले।
तोर झूल-झूल रंगना, तोहि ला खुले।।
बगरी कोदई, नदी मा धोई ले।
तोर आगे लेवईहा, गली मा रोई ले।।
तिली के तेल, रिकोयेंव बिल मा।
रोई-रोई समझायेंव नई धरे दिल मा।।
ददरिया