Ghadi Ke Prakar
ये घड़ियाँ सामान्य यांत्रिक घड़ियों से केवल इस बात से भिन्न हैं कि इनकी कमानियों (या भारों) को पुन: लपेटने के लिये विद्युद्विधि का प्रयोग किया जाता है। विद्युत् द्वारा लपेटने की यह क्रिया या तो लोलक के प्रत्येक दोलन पर, या निश्चित अवधियों के अंतर पर, होती रहती है। छोटी घड़ियाँ विद्युत् बैटरियों की सहायता से चलाई जा सकती है और बड़ी धड़ियाँ विद्युत् मुख्यतार (mains) से जोड़ दी जाती हैं। सरल धारा में ता यह कार्य कठिन नहीं होता, किंतु प्रत्यावर्ती धारा (A. C.) जहाँ होती है वहां विभवपरिवर्तक, या ट्रांसफार्मर, या टेलिक्रॉन (Telchron) का प्रयोग करना पड़ता है। इनके द्वारा प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धारा में परिवर्तित कर दिया जाता है।
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विद्युत् घड़ियों के परिष्कृत एवं उत्कृष्ट रूप दाब-विद्युत्-मणिभों (piezzo-electric crystals) के कंपन द्वारा चलनेवाली घड़ियाँ हैं। इनमें स्फटिक के मणिभ को प्रत्यावर्ती धारा (A. C.) द्वारा दोलित कराया जाता है और इन्ही दोलनों के द्वारा घड़ी चलती है।
सन् 1948 में संयुक्त राज्य, अमरीका, के ब्यूरो ऑव स्टैंडर्ड्स की ओर से परमाण्वीय घड़ियों का प्रारूप निर्धारित करने की घोषण हुई। ये घड़ियाँ भी दाब-विद्युत्-मणिभयुक्त सामान्य विद्युत् घड़ियों की भाँति होती हैं। अंतर केवल इतना होता है कि इनकी नियंत्रक आवृत्ति (regulating frequency) प्रत्यावर्ती विद्युतद्धारा के बदले उत्तेजित अणुओं या परमाणुओं के स्वाभाविक-अनुस्पंदन-आवृत्ति (natural resonance frequency) द्वारा प्रदान की जाती है। ये आवृत्तियाँ प्राय: 1010 चक्र (cycles) प्रति सेकंड की कोटि की होती हैं। ऐसी परमाण्वीय घड़ियाँ अत्यंत सुग्राही एवं यथार्थ होती हैं और वर्ष में 0.01 सेकंड तक की भी त्रुटि इनमें नहीं आने पाती।
परमाण्वीय घड़ियों में वांछित अनुस्पंदन आवृत्ति प्राप्त करने के लिये अभी तक तीन उपायों पर विचार किया गया है:
(1) परमाणु सीजियम की मूल (अर्थात् निम्नतम ऊर्जा की) अवस्था की अति सूक्ष्म संरचना द्वारा। यह संरचना नाभिक के चुंबकीय घूर्ण के कारण वर्णक्रम रेखाओं के खंडन से प्राप्त होती है। इसकी आवृत्ति लगभग 9,192 मेगासाइकिल प्रति सेकंड (Mc/s) होती है।
(2) रुबीडियम धातु की मूल अवस्था की अति सूक्ष्म संरचना द्वारा, जिसकी आवृत्ति 6,835 मे.सा./से. होती है; और
(3) एमोनिया-परमाणु की उत्क्रमण आवृत्ति (inversion frequency) के द्वारा, जिसकी आवृत्ति 23,870 मे.सा./से. होती है।
उपर्युक्त आवृत्तियों द्वारा स्फटिक मणिभ की आवृत्ति का नियंत्रण किया जाता है। स्फटिक मणिभ का दोलन कुछ किलो-साइकिल (प्राय: लगभग 100 किलो-साइकिल) मात्र होता है। उसे किसी आवृत्तिवर्धक शृंखला द्वारा बढ़ाकर अत्यंत उच्च आवृत्तिवाले संकेतों में परिवर्तित कर लिया जाता है। यह आवृत्ति प्राय: उसी कोटि की होती है जिस कोटि की नियंत्रक आवृत्ति होती है। यदि स्फटिक मणिभ की दोलन आवृत्ति नियंत्रक आवृत्ति की तुलना में काफी कम होती है, तो उसे नियंत्रक आवृत्ति की कोटि तक पहुँचने के लिये ऐसी घडि़यों में एक स्वयंचालित व्यवस्था होती है, जिसे त्रुटिसंकेतक (error signal) कहते हैं। यह व्यवस्था त्रुटिपरिमार्जक का भी कार्य करती है। भिन्न भिन्न होता है।
अभी तक परमाण्वीय घड़ियों का स्थूल रूप समाने नहीं आ सका है, किंतु इसमें संदेह नहीं कि साकार होने पर यह कालमापन का सर्वोत्कृष्ट उपकरण होगा।
सबसे कम समय को मापने के लिए किस घड़ी का प्रयोग होगा?
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