1857 की क्रान्ति-1857 की क्रांति के धार्मिक कारण

1857 Ki Kranti Ke Dharmik Karan

1857 की क्रांति के धार्मिक कारण

भारत में सर्वप्रथम ईसाई धर्म का प्रचार पुर्तगालियों ने किया था, किन्तु ब्रितानियों ने इसे बहुत फैलाया। 1831 ई. में चार्टर एक्ट पारित किया गया, जिसके द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतन्त्रतापूर्वक अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता दे दी गई। कम्पनी के निदेशक मण्डल के प्रधान श्री मेगल्स ने ब्रिटिश संसद में घोषणा की, च् परमात्मा ने भारत का विस्तृत साम्राज्य ब्रिटेन को प्रदान किया है, ताकि ईसाई धर्म की पताका भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक फहरा सकें। प्रत्येक व्यक्ति को अविलम्ब ही देश में समस्त भारतीयों को ईसाई धर्म में परिणीत करने के महान् कार्य को सभी प्रकार से सम्पन्न करने में अपनी शक्ति लगा देनी चाहिए, ताकि सारे भारत को ईसाई बना लेने के महान् कार्य में देश भर में कहीं पर किसी कारण जरा भी ढील न आने पाये। छ ब्रितानियों ने इस नीति को अपनाते हुए भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की।

ईसाई धर्म के प्रचारकों ने खुलकर हिंदू धर्म एवं इस्लाम धर्म की निंदा की। वे हिंदुओं तथा मुसलमानों के अवतारों, पैगम्बरों एवं महापुरुषों की खुलकर निंदा करते थे तथा उन्हें कुकर्मी कहते थे। वे इन धर्मों की बुराइयों को बढ़-चढ़ाकर बताते थे तथा अपने धर्म को इन धर्मों से श्रेष्ठ बताते थे। सेना में भी ईसाई धर्म का प्रचार किया गया। पादरी लेफ्टिनेंट तथा मिशनरी कर्नल भारतीयों में ईसाई धर्म का प्रचार करते थे। ईसाई बन जाने पर भारतीय सैनिकों को पदोन्नति मिलती थी। सरकारी विद्यालयों में बाइबिल का अनिवार्य रूप से अध्ययन करवाया जाता था। हिंदू धर्म के विद्यालयों में हिंदू धर्म शिक्षा पर रोक लगा दी गई क्योंकि ब्रितानियों ने राज्य को ऊपर से धर्म निरपेक्षता का लबादा ओढ़ा दिया था। मिशनरी स्कूल में पड़े भारतीय विद्यार्थियों का अपने धर्म से विश्वास उठ गया तथा खुलकर उसकी आलोचना करने लगे। अतः भारतीय ब्रितानियों की भारत में ईसाई धर्म के प्रचार की चाल को समझ गए तथा उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने विद्रोह का रूप ले लिया। स्मिथ का कहना है कि-हिंदू शिक्षा को व्यर्थ बताया गया और मिशनरी लोगों को गैर सरकारी तौर पर प्रोत्साहन दिया गया जैसे कि मैकाले कि शिक्षा रिपोर्ट से स्पष्ट है। विधवाओं को शादी का जायज़ अधिकार दिया गया और धर्म-परिवर्तित को संपत्ति का। क्या यह ऐसी इच्छाओं का सबूत नहीं था कि प्राचीन धर्म को परिवर्तन कर जीवन के महत्व को बदल दिया जाए ?

इतिहासकार नॉलन ने लिखा है: "ब्रितानी सरकार सिपाहियों के धार्मिक भावों की अवहेलना करने लगी और बात-बात में उनके धार्मिक नियमों का उल्लंघन किया जाने लगा। यहाँ तक कि कंपनी की सेना में अनेक ब्रितानी अफ़सर खुले तौर पर अपने सिपाहियों का धर्म परिवर्तन करने के कार्य में लग गए। कॉलेज ऑफ दी इंडियन रिवोल्ट नामक पत्रिका का भारतीय रचयिता लिखते है, सन् 1857 के शुरू में हिंदुस्तानी सेना के बहुत से कर्नल सेना को ईसाई बनाने के अत्यंत पैशाचिक और दुष्कर काम में लगे हुए पाए गए। उसके बाद यह पता चला कि इन जोशीले अफ़सरों में अनेक न रोज़ी के खाल से फ़ौज में भर्ती हुए थे, न इसलिए भर्ती हुए थे कि फ़ौज का काम उनकी प्रकृति के सबसे अधिक अनुकूल था, बल्कि उनका एकमात्र उद्देश्य यही था कि इस ज़रिये से लोगों को ईसाई बनाया जा बंगाल की पैदल सेना के एक ब्रितानी कमांडर ने अपनी सरकारी रिपोर्ट में लिखा है, मैं लगातार 28 साल से भारतीय सिपाहियों को ईसाई बनाने की नीति पर अमल करता रहा हूँ। सेना में धर्म-प्रचार का वर्णन करते हुए एडवर्ड स्टैनफोर्ड ने अपने प्रकाशन दी कॉजेज ऑफ दी इंडियन रिवोल्ट बाइ ए हिंदू ऑफ बंगाल में लिखा है कि हिंदू और मुसलमान धर्मों पर कटाक्ष करने में इनकी आवाज़ और ऊँची होने लगी।... (ये कहने लगे कि) मुहम्मद और राम, जिनको तुम आज तक सच्चा प्रभु मानते रहे हो, वास्तव में उच्च कोटि के छद्म वेशधारी अनैतिक कुकर्मी हैं।... परिणाम हुआ। महान असन्तोष।

डॉ. आर. सी. मजूमदार लिखते हैं, सिपाहियों को यह आम आशंका तथा सन्देह था कि सरकार का इरादा जानबूझकर सारे भारत वर्ष को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना था, चाहे इस हेतु साधन अच्छे हों अथवा बुरे। जब सैनिक छावनियों में यह प्रचार होने लगा, तो उनको पूरी तरह यह विश्वास हो गया। कर्नल ह्वीलर, जो कि बैरकपुर (बंगाल) में सिपाहियों की एक रेजीमेण्ट के आदेश अधिकारी थे, सिपाहियों में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए साहित्य बांटा करते थे और उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करने का उपदेश देते थे।...इस सिलसिले में एक सैनिक ईसाई प्रचारक, मेजर मैकेन्जी का नाम भी लिया जाता है। सर सैयद अहमद खाँ ने लिखा है, सभी व्यक्ति, चाहे बुद्धिमान थे अथवा निरक्षर, सम्माननीय व्यक्ति थे अथवा नहीं, यह विश्वास करते थे कि सरकार वास्तव में सच्चे रूप में लोगों के रीति-रिवाज तथा धर्म में हस्तक्षेप करने की इच्छुक थी। चाहे वे हिन्दू हों अथवा मुस्लिम, सरकार सबको ईसाई बनाना चाहती थी और उनकी यूरोपीय आदतों तथा रहन-सहन के तरीकों को अपनाने के लिए विवश कर रही थी।

एक भारतीय विद्वान ने 1857 ई. की महान् क्रान्ति की पृष्ठभूमि नामक लेख में बताया है कि ब्रितानी राजनीतिज्ञ यह भली प्रकार जान गए हैं कि किसी भी जाति या राष्ट्र को सदियों तक पराधीन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी जनता के हृदय से राष्ट्रीय स्वाभिमान, उसकी श्रेष्ठता, प्राचीनता के गौरव की प्रवृति तथा अनुभूति सर्वथा नष्ट कर देनी चाहिए। अन्य जिन देशों में वे गए उन्हें जंगली, असभ्य एवं अशिक्षित बताकर उनका अपमान किया और उनकी खिल्ली उड़ाई गई। परन्तु भारत की स्थिति उनसे सर्वथा भिन्न थी। यहाँ की संस्कृति, साहित्य, इतिहास तथा धार्मिक श्रेष्ठता इतनी प्राचीन और महान थी कि उसे सहसा दबा देना सम्भव नहीं था। सच तो यह है कि इन सबके प्रति सर्वसाधारण की जो अनुभूति थी और ब्रितानियों ने उन्हें मिटाने का जो प्रयत्न किया था वह 1857 ई. की क्रान्ति का एक प्रधान कारण था।

ब्रितानी भारतीयों की दृढ़ता से शायद परिचित नहीं थे। उनकी यह भूल थी कि वे अपनी शक्ति के समक्ष भारतीय संस्कृति और धर्म को रौंद देंगे। विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक भारत का स्वतंत्रता संग्राम में लिखा है कि हमारे इस महान् वैभवशाली देश को काले रंगो में चित्रित करने का प्रयास चाहे जितना भी किया जाए, जब तक चित्तौड़ का नाम हमारे इतिहास के पन्नो से मिटा नहीं दिया जाता, जब तक उन पन्नो में प्रतिपादित तथा गुरु गोविंद सिंह के नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है, तब तक भारतवर्ष के सपूतों के रोम-रोम से स्वधर्म तथा स्वराज्य का अमर संगीत मुखरित होता रहेगा।

बेरोज़गारों, विधवाओं अनाथों आदि को बलपूर्वक ईसाई बनाया गया। भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों का सहारा लिया गया। ईसाई धर्म स्वीकार करने पर अपराधियों को अपराध मुक्त कर दिया जाता था। विलियम बैंंटिंक ने नियम बनाया कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले व्यक्ति का पैतृक संपत्ति में हिस्सा बना रहेगा। कप्तान टी. मैकन ने संसद की विशेष समिति के सामने बयान देते हुए एक पादरी के प्रचार-शब्द दोहराये, जो भारतीय जनता का व्याख्यान देते हुए कह रहा था कि तुम लोग मुहम्मद के ज़रिये अपने पापों की माफ़ी की आशा करते हो, किंतु मुहम्मद इस समय दोजख में है और यदि तुम लोग मुहम्मद के उसूलों पर विश्वास करते रहोगे तो तुम सब भी दोजख में जाओगे। इन सब बातों से जहाँ तक ओर ईसाई धर्म का प्रचार हुआ, वहीं भारतीयों का असंतोष भी बढ़ने लगा।

इस समय भारतीयों की मान्यता थी कि मुसलमानों एवं ईसाइयों के हाथ के छुए पात्र से पानी पीने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है, अतः हिंदू लोग जेल जाते समय अपने साथ जल पात्र ले जाते थे, किंतु सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे हिंदुओं ने यह समझा कि ब्रितानी उनका धर्म भ्रष्ट करना चाहते हैं, अतः उनमें ब्रितानियों के प्रति असंतोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ।


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