1857 की क्रान्ति-1857 की क्रांति के राजनीतिक कारण

1857 Ki Kranti Ke RajNeetik Karan

1857 की क्रांति के राजनीतिक कारण

1. डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति : लार्ड डलहौजी (1848-56 ई.) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। डलहौज़ी ने पंजाब, पीगू एवं सिक्किम के प्रति युद्ध कि नीति अपना कर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, " जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी। " इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोन लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। नेलसन ने इस संबंध में लिखा है कि " अवध को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित करने तथा वहाँ पर नई शासन पद्धति के प्रारंभ किए जाने कसे मुसलमान, कुलीनतंत्र, सिपाही और किसान सब ब्रितानियों के विरूद्ध हो गए और अवध असंतोष का बड़ा केंद्र बन गया। "

ब्रितानियों की साम्राज्यवादी नीति सर चार्ल्स नेपियर के इस कथन से स्पष्ट होती है, " यदि मैं भारत का सम्राट् 12 वर्ष के लिए भी होता, तो एक भी भारतीय राजा नहीं बचता। निज़ाम का नाम भी कोई न सुन पाता, नेपाल हमारा देश होता। " डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रितानियों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। मि. लुडलो ने लिखा है, " निश्चय ही भारत में कोई ऐसी स्त्री या बच्चा नहीं था, जो कि हमारी इस विलीनीकरण के कारण हमारा शत्रु न हो। " इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था।

देशी रियासतों के अपहरण के भयंकर परिणामों का वर्णन करते हुए मद्रास कौंसिल के सदस्य जॉन स्लीवन ने लिखा है, " जब किसी देशी रियासत का अंत किया जाता है, तब वहाँ के नरेश को हटाकर एक ब्रितानी नियुक्त कर दिया जाता है। उस पुराने छोटे से दरबार का लोप हो जाता है, वहाँ का व्यापार शिथिल पड़ जाता है, राजधानी वीरान हो जाती है, लोग निर्धन हो जाते हैं, ब्रितानी फलते-फूलते हैं और स्पंज की तरह गंगा के किनारे से धन खींचकर टेम्स नदी के किनारे ले जाकर निचोड़ देते हैं। " वस्तुतः किसी भी देश की स्वाभिमानी जनता इस स्थिति को सहन नहीं कर सकती थी।

2. मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ दुर्व्यवहार : मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रितानियों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रितानियों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया। इतना ही नहीं, ब्रितानी तो मुग़ल सम्राट के पद को ही समाप्त करने पर तुले थे। अतः उन्होंने बहादुरशाह के ज्येष्ठ पुत्र जवांबख्त को युवराज स्वीकार नहीं किया। ब्रितानियों ने 1856 ई. में बहादुरशाह के सबसे अयोग्य पुत्र मिर्जा कोयास को युवराज घोषित किया एवं उनके साथ एक समझौता किया, जिसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि मिर्जा कोयास शासक बन के स्वयं को बादशाह के स्थान पर शहज़ादा कहेंगे, एक लाख रुपये के बजाय पन्द्रह हज़ार रुपये मासिक पेन्शन लेंगे एवं लाल क़िले के स्थान पर कुतुब में रहेंगे। अब डलहौजी ने बहादुरशाह को लाल क़िला ख़ाली कर कुतुब में जाकर रहने हेतु कहा। कोयास भी ब्रितानियों से मिल गया। सम्राट ने ऊपरी वैभव और ऐश्वर्य के अनेक भूषण उत्तर चुके थे। डलहौजी ने मैटकाफ को लिखा कि, बादशाह के अधिकार, जिन पर तैमूर के वंशजों को घमंड था, एक-दूसरे के बाद छिन चुके हैं, इसलिए बहादुरशाह के मरने बाद कलम के एक डोबे से बादशाह की उपाधि का अंत कर देना कुछ भी कठिन नहीं है। जनता मुग़ल सम्राट के प्रति इस दुर्व्यवहार को सहन नहीं कर सकती थी। अतः उसने मुग़ल सम्राट को अपना नेता बनाकर ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है, "उधर मुग़ल बादशाह व्यक्तिगत रूप से जितने भी असहाय रहे, रहे हो, परंतु उनका पद अब भी जनता के लिए श्रद्धा का विषय बना हुआ था। बादशाह के प्रति ब्रितानियों का व्यवहार जैसे-जैसे सम्मान रहित होता जा रहा था, वैसे-वैसे जनता के मन में ब्रितानियों के प्रति द्वेषभाव भी उग्र रूप धारण करता जा रहा था। बादशाह से उसका महल, क़िला और उनकी उपाधियाँ छीन लेने की एलेनबरो और डलहौजी की योजनाओं से ब्रितानियों के प्रति जनता का क्रोध और घृणा उग्र हो गए और बादशाह के प्रति उनके मन में श्रद्धा का भाव बढ़ने लगा। ब्रितानी तो अपनी स्थिति दृढ़ बना चुके थे, अतः उनकी धृष्टता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, जिससे उनके प्रति जनता की घृणा उग्रतर होती जा रही थी, परंतु ब्रितानियों के पास जनता की भावनाओं से परिचय पाने का साधन ही क्या था ? यह घृणा विप्लव के रूप में फूट पड़ी। "

3. नाना साहब के साथ अन्याय : लार्ड डलहौज़ी ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8लाख रुपये की पेन्शन बंद कर दी गई। फलत: नाना साहब ब्रितानियों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 ई. के विप्लव का नेतृत्व किया।

4. समकालीन परिस्थितियाँ : भारतीय लोग पहले ब्रितानी सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रितानियों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रितानियों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रितानियों को भारत से खदेड़ सकते हैं।

इसी समय एक ज्योतिष ने यह भविष्यवाणी की कि भारत में ब्रितानियों का शासन स्थापना के सौ वर्षों के पश्चात समाप्त हो जाएगा। चूंकि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य 1757 ई. में प्लासी के युद्ध द्वारा स्थापित हुआ था एवं 1857 ई. में इसके 100 वर्ष पूरे हो चुके थे। अतः इससे भी भारतीयों को प्रेरणा मिली। विचारशील विद्वानों का कहना है कि सन् 1857 के विप्लव की नींव वास्तव में सन् 1757 में प्लासी की युद्ध-भूमि पर रखी गई थी। सन् 57 के विप्लव में भाग लेने वाले असंख्य भारतीय सिपाहियों के मुख से जो ओजस्वी वाक्य निकला करते थे उनमें एक वाक्य यह भी था, " आज हम प्लासी के युद्ध का बदला चुकाने वाले है। "

प्रो. इन्द्र विद्यावाचस्पति ने लिखा है, " आप प्लासी के युद्ध से लेकर सन् 1856 तक के 100 वर्षों की राजनीतिक प्रगति पर विचार कीजिए। पुराने राजवंशों को रौंदती, पहाड़ों और नदियों की सीमाओं को लांघती हुई, ब्रितानी राज्य की गाड़ी आगे बढ़ती ही गई। भारत में शासन करने वाले छोटे-बड़े शासकों और सामंतों की संख्या उस समय शायद सहस्त्रों तक पहुँचती थी। ब्रिटिश राज्य की गाड़ी के पहिये इन सब की छाती पर बेरहमी से गुज़रे। यदि ब्रितानी राज्य इतनी तीव्र गति से न फैलता और ब्रितानी शासन जो घाव लगाते थे, उस पर साथ ही साथ मरहम लगाते जाते, तो शायद बेचैनी इतनी न बढ़ती, परंतु सरल सफलता ने उन्हें इतना गर्वित और असावधान बना दिया कि उन्हें आहत स्थान (चोट लगे स्थान) पर मरहम लगाने की तो क्या, सहलाने तक की फ़ुर्सत न मिली। "


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