धर्म सुधार आन्दोलन के कारण
र्मसुधार का यह नवीन स्वरूप समझने के लिए यूरोप की तत्कालीन परिस्थिति पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है।
ईसा द्वारा प्रवर्तित काथलिक चर्च के प्रति ईसाइयों में जो श्रद्धा का भाव शताब्दियों से चला आ रहा था वह कई कारणों से कम हो गया था। 14वीं शताब्दी में एक फ्रांसीसी पोप का चुनाव हुआ था, जो जीवन भर फ्रांस में ही रहे। इसके फलस्वरूप बाद में 40 वर्ष तक दो पोप विद्यमान थे, एक फ्रांस में और एक रोम में, जिससे समस्त काथलिक संसार दो भागों में विभक्त रहा। आठवीं शताब्दी में फ्रैंक जाति के काथलिक राजा ने इटली पर आक्रमण करने वाली लोंवार्ड सेना को हराकर इटली का मध्य भाग पोप के अधिकार में दे दिया और इस प्रकार रोमन काथलिक चर्च के परमाधिकारी धर्मगुरु के अतिरिक्त एक साधारण शासक भी बन गए। इस कारण जर्मनी और फ्रांस के राजा सहज ही चर्च के मामलों में और विशेषकर पोप के चुनाव में हस्तक्षेप करने का प्रयास करते रहे। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह चुनाव इटली के अभिजात वर्ग की प्रतियोगिता का मैदान बन गया था जिससे व्यक्ति की योग्यता पर कम, उसके वंश पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि उस समय नितांत अयोग्य पोपों का चुनाव हुआ और रोम के दरबार में नैतिकता तथा धर्म की उपेक्षा होने लगी। अत: रोम के चर्च के प्रति श्रद्धा का घट जाना नितांत स्वाभाविक था। असंतोष का एक और कारण यह था कि समस्त चर्च की संस्थाओं पर उनकी संपत्ति के अनुसार कर लगाया जाता था और रोम के प्रतिनिधि सर्वदा घूमकर यह रुपया वसूल करते थे।
चर्च के केंद्रीय संगठन की इस दुर्दशा के अतिरिक्त विभिन्न धर्मप्रांतों की परिस्थिति भी संतोषजनक नहीं थी। इस समय समस्त पश्चिमी यूरोप लगभग सात सौ धर्मप्रांतों में विभक्त था। उनके शासक बिशप कहलाते थे। ये बिशप सामंत थे जो राजा द्वारा प्राय: अभिजात वर्ग में से चुने जाते थे, दरबार के सदस्य थे और जर्मनी में बहुधा अपने क्षेत्र के राजनीतिक शासक भी थे। अत: बहुत से बिशप राजनीति में अधिक, धर्म में कम रुचि लेते थे और अपने धर्मप्रदेश का धार्मिक प्रशासन विश्वविद्यालय के उच्च अधिकार प्राप्त पुरोहितों के हाथ में छोड़ देते थे। गाँवों में बसनेवाले अधिकांश साधारण पुरोहित अर्धशिक्षित थे। प्रवचन देने में असमर्थ थे और प्राय: गरीब भी थे। साधारण पुरोहितों की यह दयनीय दशा 16वीं शताब्दी के यूरोपीय काथलिक चर्च की सब से बड़ी कमजोरी थी। भ्रमण करनेवाले फ्रांसिस्को आदि धर्मसंधियों के अतिरिक्त जनसाधारण को (जो दो तिहाई निरक्षर था) धार्मिक शिक्षा देनेवाला कोई नहीं था। इससे सर्वत्र अंधविश्वास फैल गया और कर्मकांड को अनावश्यक एवं असंतुलित महत्व दिय जाने लगा।
13वीं शताब्दी में काथलिक धर्मविज्ञान (थिओलोजी) ने अरस्तू की ईसाई व्याख्या तथा स्कोलैस्टिक फिलोसोफी के सहारे धर्मसिद्धंातों का युक्तियुक्त प्रतिपादन किया था किंतु 15वीं शताब्दी में धर्म की मूलभूत समस्याओं पर से ध्यान और चिंतन हट गया था। विश्वविद्यालयों में धर्मपंडित गौण प्रश्नों के विषय में अपने मतभेदों को अधिक महत्व देने लगे थे जिससे काथलिक धर्मविज्ञान इतन निष्प्राण हो गया था कि कुछ साधकों की यह धारणा दृढ़ हो गई थी कि धर्मविज्ञान साधना में बाधक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चर्च के सभी क्षेत्रों में सुधार की अपेक्षा थी और धर्मसुधार का आंदोलन अनिवार्य हो गया था। 14वीं शताब्दी में अँग़रेज विक्लिफ (ज़्न्र्ड़थ्त्ढढड्ढ) और बाद में बोहीमिया के न हुस जॉ (क्तद्वद्म) सिखलाने लगे थे कि चर्च का संगठन, उसके संस्कार आदि यह सब मनुष्यों का आविष्कार है; ईसाइयों के लिए बाइबिल ही पर्याप्त है। उस समय भी उन विचारों को अधिक सफलता नहीं मिली किंतु उनका लूथर पर प्रभाव स्पष्ट ही है। स्पेन में टोलीडो के आर्बबिशप सिमेनेस (1495-1517 ई.) ने चर्च के अनुशासन के अंदर धर्मसुधार आंदोलन प्रवर्तित किया जिससे वहाँ का वातावरण पूर्ण रूप में बदल गया किंतु पश्चिमी यूरोप में चर्च की परिस्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो पाया था।
जब लूथर ने रोम के विरुद्ध आवाज उठाई उनको एक और कारण से अपूर्व सफलता मिली। यूरोप में उस समय सर्वत्र प्राचीन यूनानी तथ लैटिन साहित्य की लोकप्रियता के साथ साथ एक नवीन सांस्कृतिक आंदोलन प्रारंभ हुआ जिसे रिनेसाँ अथवा नवजागरण कहा गया है। इसके फलस्वरूप लोगों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भाव उत्पन्न हुआ। मुद्रण के आविष्कार के कारण इसी समय से बाइबिल की मुद्रित प्रतियाँ अधिक सरलतापूर्वक सुलभ होने लगी थीं, जिससे लोगों को अपनी ओर से धर्म के विषय में सोचने और बाइबिल को अपनी निजी व्याख्या करने की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन मिलने लगा था।
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