समुद्रगुप्त के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए
. प्रस्तावना:
”भारत का नेपोलियन” कहा जाने वाला समुद्रगुप्त असाधारण योद्धा, समर विजेता एवं अजातशत्रु था । वह युद्धक्षेत्र में स्वयं वीरता और साहस के साथ अपने शत्रुओं से मुकाबला करता था । उसने भारत को एकता के सूत्र में बांधने का महान् कार्य किया था । छोटे राज्यों के पारस्परिक वैमनस्य को रोकते हुए एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना उसने की थी ।
उसका शासनकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, सामरिक दृष्टि से अत्यन्त सुदृढ़ था । उसका अद्वितीय व्यक्तित्व उदारता, प्रतिभा तथा असाधारण गुणों का पर्याय था । वह एक विद्वान्, कवि, संगीतज्ञ, कला-प्रेमी, साहित्यकार, सेनानायक, सफल संगठनकर्ता, पराक्रमी, प्रजापालक, दान-परायण, महान् दिग्विजयी शासक था ।
2. जीवन वृत्त एवं उपलब्धियां:
समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी था । उसकी माता लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी थी । वह अपने माता-पिता का इकलौता पुत्र न था । उसके अन्य भाई-बहिन भी थे । वह बाल्यकाल से ही बड़ा ही विलक्षण, प्रतिभाशाली था, जिसके कारण अपने सभी भाइयों में वह योग्य, वीर एवं साहसी था । इसके कारण उसके पिता ने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया ।
समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार 325-380 ई० में किया । प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का अपार विस्तार किया । वह क्रान्ति और विजय में आनन्द पाता था । इलाहाबाद के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अपनी दिग्विजय यात्रा का प्रारम्भ उत्तर भारत के राजाओं पर विजय प्राप्त करके किया ।
उसने नेपाल, आसाम, बंगाल के सीमावर्ती प्रदेश, पंजाब को अपने आधिपत्य में ले लिया था । आटविक, अर्थात् जंगली राज्यों में उसने उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर और विध्यांचल क्षेत्र को अपने वश में किया । दक्षिण भारत के 12 शासकों को हराकर छोड़ दिया । हरिषेन ने अपनी प्रयाग प्रशस्ति में पल्लवों पर भी उसके विजय अभियान का उल्लेख किया है ।
विदेशी राज्यों में अफगानिस्तान पर राज्य करने वाले, शकों, कुषाणों को भी अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार करवायी । चीन स्त्रोत के अनुसार-उसने लंका के राजा मेधवर्मन के द्वारा भेजे गये दूत से प्राप्त सन्देश पर गया में विशाल बौद्ध मन्दिर और विहार बनाया ।
इलाहाबाद प्रशस्ति लेख में उसे अजातशत्रु कहा गया है । अपनी बहादुरी और युद्ध-कौशल के कारण वह भारत का नेपोलियन कहा जाता है । उसका साम्राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र, दक्षिण में नर्मदा तथा उत्तर में कश्मीर तक फैला हुआ था । उसका शासन 328 से 375 तक का माना जाता है ।
अपने विशाल साम्राज्य का वह स्वयं स्वामी था । साम्राज्य को अनेक प्रान्तों, जनपदों और जिलों में विभाजित किया था । अभिलेखों के अनुसार-जो सरकारी पदाधिकारी होते थे, उसमें खाद्य-पाकिक, कुमारामात्य, महादण्डनायक, सन्धिविग्रहिक तथा सम्राट का प्रधान परामर्शदाता होता था । साम्राज्य के दूरस्थ भागों का शासन सामंत, राजा के प्रतिनिधि के रूप में किया करते थे ।
ADVERTISEMENTS:
समुद्रगुप्त ने मुद्रा सम्बन्धी अनेक सुधार कार्य किये । उसने शुद्ध स्वर्ण की मुद्राओं तथा उच्चकोटि की ताम्र मुद्राओं का प्रचलन करवाया । समुद्रगुप्त ने चांदी की मुद्राओं का प्रचलन नहीं करवाया था । दान में भी वह शुद्ध सोने की मुद्रा प्रदान करता था । यह उसके शासन के वैभव का प्रतीक है ।
मुद्राओं द्वारा उसके जीवन चरित्र, व्यक्तित्व, अभिरुचि, संगीत और कला-प्रेम, प्रशासनिक व राजनैतिक उपलब्दियों का पता चलता है । उसने गरूड़, धनुर्धर, परशु, अश्वमेध, व्याघ्रहंता और वीणा प्रकार की मुद्रा प्रचलित करवायी थी । इन मुद्राओं में समुद्रगुप्त को भी उल्लेखित प्रतीकों के साथ दिखाया था ।
समुद्रगुप्त ने छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक गणतान्त्रिक विशाल साम्राज्य का रूप प्रदान किया था, जिससे भारत की राजनीतिक एकता सुदृढ़ हुई । अश्वमेध यज्ञ के द्वारा उसने भूमि-बन्धन कराकर अपने दिग्विजयी होने तथा चक्रवर्ती सम्राट होने का प्रमाण प्रस्तुत किया था । वह वीणा का श्रेष्ठ वादक था । उसने स्वयं कुछ काव्य-ग्रन्थों की रचना भी की थी, जो दुर्भाग्यवश लुप्त हो गयी ।
वह उच्चकोटि के विद्वानों का प्रशंसक व संरक्षक था । समुद्रगुप्त ललितकला में भी रुचि रखता था । अनेक स्वर्ण मुद्राओं पर वीणा वादन करती हुई ऊंचे मंच पर बैठी हुई समुद्रगुप्त की राजमूर्ति अंकित है । वह उदार, धार्मिक दृष्टिकोण से सम्पन्न शासक था । उसने ब्राहाण एवं शूद्र,वैष्णव एवं शैव आदि में किसी के साथ भेदभाव नहीं किया।
3. उपसंहार:
अपने 45 वर्षों के उत्कृष्ट शासनकाल के पश्चात् समुद्रगुप्त की मृत्यु 380 में हुई थी । उसके सम्पूर्ण चरित्र एवं शासनकाल का विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि वह महान् विजेता, दिग्विजयी, नीति-निपुण शासक, राजनीतिज्ञ, साहित्य व कला प्रेमी, उदार व सहिष्णु दृष्टिकोण रखने वाला शासक था ।
उसके सम्बन्ध अपने देश से ही नहीं, अपितु विदेशी शासकों के साथ मैत्रीपूर्ण एवं मधुर थे । सम्पूर्ण भारत को तत्कालीन समय में राजनीतिक एकता, सांस्कृतिक एकता में बांधने वाला वह महान् चक्रवर्ती सम्राट था ।
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