मौर्य जाति अन्य पिछड़ा वर्ग
वर्ण-र्आधारित सामाजिक विभेद का प्रारंभ ऋग्वैदिक काल से ही देखा जा सकता है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में चार वर्णों -शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं ब्राह्मण का उल्लेख है। समय के प्रवाह के साथ, वर्ण जातियों में बँट गए और जातियाँ उपजातियों में। हमें हमारी जाति जन्म से मिलती है और हम अपनी इच्छा से हम इसे छोड़ नहीं सकते। धर्म बदला जा सकता है लेकिन जाति नहीं। यही कारण है कि जातिप्रथा के मुखर विरोध के बावजूद, सबके अंतरूकरण में यह अस्मिता की मूलभूत इकाई के रूप में मौजूद है।
वर्चस्व का खेल और इतिहास लेखन
मनुष्य के विकास के लिए सबसे जरुरी है आत्मविश्वास। मनोबल से असंभव कार्य भी सिद्ध किए जा सकते हैं। यही कारण है कि लम्बी अवधि तक शासन करते रहने के लिएए शासक वर्ग सर्वप्रथम, शासितों के आत्मविश्वास को कमजोर करता है। इसके लिए वह ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक तर्क प्रस्तुत करता है, फिर चाहे वे कपोल कल्पित ही क्यों न हों। आधुनिक काल में यही प्रयास अंग्रेजों ने किया तथा प्राचीन काल में ब्राह्मणों ने। अंग्रेजों से मुकाबले के लिए लोगों में आत्मगौरव और राष्ट्रगौरव का भाव भरने के लिए जब जयशंकर प्रसाद चन्द्रगुप्त मौर्य की शरण में जाते हैं तो वे मुक्तिगामी एवं युगपुरुष कहलाते हैं। परन्तु ब्राह्मणों एवं उनसे व्युत्पन्न जातियों से मुकाबले के लिए ऐसा ही प्रयास कोई अन्य करता है तो वह हास्य एवं आश्चर्य का विषय बन जाता है।
दरअसल, सारा खेल वर्चस्व का है। दूसरों को नीच और नालायक साबित कर कैसे अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी जाए, यही इतिहास लेखन की मूल चेतना रही है। जिस प्रकार अंग्रेजों का ऐसा व्यवहार आश्चर्य का विषय नहीं है, उसी प्रकार भारतीय इतिहासकारों का यहे प्रयास भी आश्चर्य का विषय नहीं है। भारत में इतिहास के शोध और लेखन में रत इतिहासकारों में से अधिकतर तथाकथित उच्च जातियों से संबंधित हैं। वे सिर्फ ऐसे विषयों पर शोध करते हैं, जो उनके अनुकूल हों और तथ्यों को अपने पक्ष में तोड़मरोड़ भी लेते हैं। तमाम बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय बताये जाने के बाद भी ब्राह्मण ग्रंथों के आधार पर उन्हें शूद्र क्यों मान लिया जाता है। बिना किसी तार्किक-वैज्ञानिक आधार के हर इतिहास की पुस्तक में यह क्यों लिखा रहता है कि ‘ऐसा माना गया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा पैर से शूद्र की उत्पति हुई है’। दरअसल, प्राचीनकाल से आज तक, जब भी ब्राह्मणों द्वारा इतिहास लिखा गया, हर उस जाति को पतित घोषित करने का प्रयास किया गया, जो ब्राह्मणों के विरोध में थी या उनके विरोधियों का समर्थन करती थी। यही कारण है की जब मौर्य वंश के शासक,ब्राह्मणों के विरोधी सम्प्रदायों-जैन, बौद्ध, आजीवक आदि का समर्थन करने लगे तो उन्हें अधम और नीच साबित करने के लिए शूद्र कहा जाने लगा। चन्द्रगुप्त मौर्य के मुकाबले चाणक्य के व्यक्तित्व को इतना बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया मानो मौर्य वंश की स्थापना का सारा श्रेय चाणक्य (जो ब्राह्मण थे) को ही हो। आज जब हम इतिहास लेखन की बारीकियों को समझने लगे हैं तो ऐसी स्थापनाओं पर हमें हँसी भी आती है और रोष भी।
ज़मीनी हकीकत
इस आलेख में कुशवाहा जाति के मौर्यवंशीय संबंधों की पड़ताल के बहाने जातिगत अस्मिता के प्रश्न को उठाने का प्रयास किया जा रहा है। यह विषय इसलिए प्रासंगिक बन गया है क्योंकि कुशवाहा जाति के इस दावे, कि चन्द्रगुप्त मौर्य उनके पूर्वज थे, के विरोध में बिना कोई शोध किए एक व्यंग्यात्मक लेख ‘द टेलीग्राफ’ के 9 दिसम्बर 2014 के ई.पेपर (www.telegraphindia.com|1141210|) में प्रकाशित हुआ है। लेख में कहा गया है कि जब प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर को बताया गया कि कुशवाहा जाति खुद को चन्द्रगुप्त मौर्य का वंशज मानती है, तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा कि चन्द्रगुप्त मौर्य के बचपन और पूवर्जों के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी हमें उपलब्ध है। चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि को लेकर भी विवाद है। इसी लेख में पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस.एस.सिंह को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य किस जाति के थे, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। केवल यह जानकारी मिली है कि वे निम्न जाति में जन्मे थे।
Chandragupt_maurya_Birla_mandir_6_dec_2009_31_cropped copyउपर्युक्त दोनों इतिहासकारों के विचारों को पढऩे से प्रतीत होता है कि उन्हें जानकारियों की कमी है। इस दिशा में पर्याप्त शोध नहीं हुए हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के पूर्वज कौन थे तथा उनके बाद की पीढिय़ाँ कौन थीं, यह शोध का विषय है। यदि शोध के द्वारा किसी ने यह प्रमाणित किया है कि कुशवाहा जाति के पूर्वज मौर्य वंश के शासक थे तो उसे प्रकाशित किया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त शोध नहीं हुआ है, तो इस जाति के इतिहासकारों का कर्तव्य है कि इस विषय में शोध करें तथा प्रमाण के साथ तथ्य प्रस्तुत करें। इतिहास का विद्यार्थी न होने के बावजूद, सतही तौर पर मुझे जो दिखाई देता है उससे यही प्रतीत होता है कि कुशवाहा जाति के इस दावे को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। क्षेत्र-अध्ययन किसी भी परिकल्पना को सिद्ध करने की सटीक एवं वैज्ञानिक पद्धति है। यदि हम मौर्य साम्राज्य से जुड़े या बुद्धकाल के प्रमुख स्थलों का अवलोकन करें तो पायेगें कि इन क्षेत्रों में कुशवाहा जाति की खासी आबादी है। 1908 में किये गए एक सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आई थी कि कुम्हरार (पाटलिपुत्र), जहाँ मौर्य साम्राज्य के राजप्रासाद थे, उससे सटे क्षेत्र में कुशवाहों के अनेक गाँव ,यथा कुम्हरार खास, संदलपुर, तुलसीमंडीए रानीपुर आदि हैं, तथा तब इन गाँवों में 70 से 80 प्रतिशत जनसँख्या कुशवाहा जाति की थी। प्राचीन साम्राज्यों की राजधानियों के आसपास इस जाति का जनसंख्या घनत्व अधिक रहा है। उदन्तपुरी (वर्तमान बिहारशरीफ शहर एवं उससे सटे विभिन्न गाँव) में सर्वाधिक जनसंख्या इसी जाति की है। राजगीर के आसपास कई गाँव (यथा राजगीर खास, पिलकी महदेवा, सकरी, बरनौसा, लोदीपुर आदि) भी इस जाति से संबंधित हैं। प्राचीन वैशाली गणराज्य की परिसीमा में भी इस जाति की जनसंख्या अधिक है। बुद्ध से जुड़े स्थलों पर इस जाति का आधिक्य है यथा कुशीनगर, बोधगया, सारनाथ आदि। नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के आसपास भी इस जाति के अनेक गाँव हैं यथा कपटिया, जुआफर, कपटसरी, बडगाँव, मोहनबिगहा आदि। उपर्युक्त उदाहरणों से यह प्रतीत होता है कि यह जाति प्राचीनकाल में शासक वर्ग से संबंधित थी तथा नगरों में रहती थी। इनके खेत प्राय: नगरों के नज़दीक थे अत: नगरीय आवश्यकता की पूर्ति हेतु ये कालांतर में साग-सब्जी एवं फलों की खेती करने लग। आज भी इस जाति का मुख्य पेशा साग-सब्जी एवं फलोत्पादन माना जाता है। इस जाति की आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति में कब और कैसे गिरावट आई, यह भी शोध का विषय है। राजपूत और कायस्थ जातियों का उदय 1000 ई. के आसपास माना जाता है। राजपूत, मध्यकाल में शासक वर्ग के रूप में स्थापित हुए तथा क्षत्रिय कहलाए। प्रश्न उठता है राजपूतों के उदय से पूर्व और विशेषकर ईसा पूर्व काल में क्षत्रिय कौन थे? स्पष्ट है वर्तमान दलित या पिछड़ी जातियाँ ही तब क्षत्रिय रहीं होंगी। इतिहास बताता है कि जिस शासक वर्ग ने ब्राह्मणों को सम्मान दिया तथा उन्हें आर्थिक लाभ पहुँचाया, वे क्षत्रिय कहलाए तथा जिसने उनकी अवहेलना की या विरोध किया, शूद्र कहलाये। यदि आज इन जातियों द्वारा अपनी क्षत्रिय विरासत पर दावा किया जा रहा है तो तथाकथित उच्च जातियों के लोगों को आश्चर्य क्यों होना चाहिए?
जातिगत पहचान और आत्मगौरव
इस लेख में पिछड़ी या दलित जातियों को क्षत्रिय साबित करने का यह अर्थ नहीं है कि मैं हिन्दू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास रखता हूँ तथा किसी जाति को क्षत्रिय साबित कर उसे ‘ऊंचा दर्जा’ देना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि कोई भी जाति या वर्ण जन्म से आज तक शूद्र के रूप में मौजूद नहीं है। आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति में बदलाव के साथ उसकी सामाजिक हैसियत में भी बदलाव हुए हैं। ऐसी स्थिति में आज हम जिस भी जाति या वर्ण में पैदा हुए हैं, उसके लिए हममें हीनताबोध क्यों पैदा किया जाता है? जाति को आधार बनाकर हमारे आत्मगौरव एवं आत्मसम्मान को कुचलने की कोशिश क्यों की जाती है? यदि ऐसा किया जाता है तो हम दो तरीकों से उसका जबाव दे सकते हैं। एक तो ‘संस्कृतिकरण’ के जरिए अर्थात खुद को अपनी प्राचीन संस्कृति के उज्ज्वलतम अंश से जोड़कर। दूसरा,अपनी वर्तमान पहचान पर गर्व करके। दूसरे तरीके का बड़ा अच्छा उदाहरण चमार जाति के द्वारा न सिर्फ आधुनिक काल में वरन् मध्यकाल में भी पेश किया गया है। पंजाब में अनेक युवक, जो इस जाति से सम्बद्ध हैं, आज गर्वपूर्वक अपने मोटरबाइक पर अपनी जाति का इजहार करते हुए लिख रहे हैं ‘हैण्डसम चमार’ या ‘चमरा दा पुत्तर’। मध्यकाल में रैदास अपनी जातिगत पहचान के प्रति न सिर्फ मुखर रहे (कह रैदास खलास चमारा) वरन् उसे आत्मगौरव का विषय भी बनाया।
यह आलेखए कुशवाहा जाति के मौर्यवंशीय दावे पर जो प्रश्न खड़े किये गए हैं, उन पर विचार करते हुए मूलत: यह स्पष्ट करने का प्रयास है कि हम चाहे जिस भी जाति में जन्म लें, आत्मगौरव का भाव बनायें रखें, उसके लिए अपने भीतर या बाहर चाहे जैसे भी तर्क गढऩे पड़ें। जाति भले न बदली जा सके, विश्वास बदला जा सकता है। विश्वास चाहे स्वयं का हो या समाज का
Chandragupt Maurya kaun the
Chandragupt Maurya kaun the KUSHWAH
Maurya jati kis warg ME ati Hai ?
Maurya jati general aati hai ki nhi
Saini kaisi jati hai
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