Jain Darshan Ke Shaikshik Yogdan जैन दर्शन के शैक्षिक योगदान

जैन दर्शन के शैक्षिक योगदान



Pradeep Chawla on 12-05-2019

कर्मारातीन् जयतीति जिन: इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह जिन है।



  • अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं।
  • आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।
  • जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये।

    धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक

    उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो आत्मोदय के

    साथ सर्वोदय- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।

    उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण

    नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के

    जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।






जैन दर्शन के प्रमुख अंग









द्रव्य-मीमांसा



मुख्य लेख :


वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा और में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और

में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ,

तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण

किया गया है।



  • जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन

    नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और

    पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।
  • तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय

    है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से

    जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।
  • भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने

    का एक अभिप्राय यह भी है कि अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:

    मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ

    कहा गया है।
  • अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो अस्ति और काय दोनों है।

    अस्ति का अर्थ है है और काय का अर्थ बहुप्रदेशी है अर्थात् जो

    द्रव्य है होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे अस्तिकाय हैं। ऐसे पाँच द्रव्य हैं-


  1. पुद्गल
  2. धर्म
  3. अधर्म
  4. आकाश
  5. जीव
  6. कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।


तत्त्व मीमांसा



मुख्य लेख :


तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और

जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। तस्य भाव:

तत्त्वम् अर्थात् वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या

शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों

में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके

माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है । जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।



  1. बहिरात्मा,
  2. अन्तरात्मा और
  3. परमात्मा।


  • मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों

    से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की

    विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक,

    पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही

    एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर

    अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर

    अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर)

    हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव

    अपूर्व है।






पदार्थ मीमांसा



मुख्य लेख :


उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।



पंचास्तिकाय मीमांसा



मुख्य लेख :


जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का

निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म,

अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।



अनेकान्त विमर्श



मुख्य लेख :


अनेकान्त जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि

वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का

व्यवहार चल नहीं सकता।



स्याद्वाद विमर्श



मुख्य लेख :


स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार

ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह

जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह

स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान

का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है-

उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार

वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही

महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन

व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक

ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है,

क्योंकि सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति इस नियम के अनुसार एक बार

बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।



  • समन्तभद्र की आप्त-मीमांसा, जिसे स्याद्वाद-मीमांसा कहा जा

    सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी

    तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर अष्टशती

    (आप्त मीमांसा- विवृति) और

    ने उसी पर अष्टसहस्त्री (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ

    आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया

    है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।






आगम (श्रुत)



शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- मेरु आदिक है शब्दों को सुनने के बाद आदि का बोध होता है।

शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण

है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में

धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में

अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और

आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं

है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।



नय-विमर्श



नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने

न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि प्रमाण-नयात्मको न्याय:- प्रमाण और

नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता

है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के

तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे महाशास्त्र कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत

किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय

बताया गया है और वह है- प्रमाणनयैरधिगम: । वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है।


नय-भेद


उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं -



  1. द्रव्यार्थिक और
  2. पर्यायार्थिक।


  • इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं -


  1. नैगम,
  2. संग्रह,
  3. व्यवहार। तथा


  • पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं -


  1. ऋजुसूत्र,
  2. शब्द,
  3. समभिरूढ़ और
  4. एवम्भूत।


नैगम नय

जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह

नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें सुख धर्म की

प्रधानता और जीव धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें

जीव धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और सुख धर्म गौण है,

क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो

भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।


संग्रह नय

जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ सन्मात्र को ग्रहण करता है वह संग्रह नय

है। जैसे सत् कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है,

किन्तु सर्वथा सत् कहने पर चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह

संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है।

व्यवहार नय

संग्रहनय से ग्रहण किये सत् में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है

वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत सत् द्रव्य हे या पर्याप्त है

या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।


ऋजुसूत्र नय

भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण

करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है।

वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने

वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप

हो जाता है।


शब्द नय


जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को

बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे नक्तं निशा दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु

दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। नक्तं शब्द नंपुसक लिंग

है और निशा शब्द स्त्रीलिंग है। शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद: यह नय कहता

है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद

करना शब्दनयाभास हैं


समभिरूढ़ नय


जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़

नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ

में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन

करना समभिरूढ नयाभास है।


एवंभूत नय


जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं

जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह

नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न

कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।







जैन दर्शन का उद्भव और विकास



उद्भव



  • आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध षट्खंडागम में, जो

    दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जता, मणुस

    अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, अखंखेज्जा* जैसे सिया (स्यात्) शब्द और

    प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।
  • षट्खंडागम के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय,

    प्रवचनसार आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते

    हैं। सिय अत्थिणत्थि उहयं, जम्हा जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द

    प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है।


विकास


काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-



  • आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।
  • मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।
  • उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:-


जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ



आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय



  • ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे

    चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु

    वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य

    ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो

    मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र

    नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें

    नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम

    दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और

    भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से

    प्रसिद्ध हुआ है।


जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने

कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन

स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये

थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे

पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:-







जैन दर्शन में अध्यात्म



अध्यात्म शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि

आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका

व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के

समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-



  • जीव,
  • पुद्गल,
  • धर्म,
  • अधर्म,
  • आकाश और
  • काल। आगे विस्तार में पढ़ें:-


जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ



बीसवीं शती के जैन तार्किक


बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो

उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के

ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी

में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत

प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय

के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन

किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर

न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय,

पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र

शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला

कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में

पढ़ें:-







त्रिभंगी टीका



  1. आस्रवत्रिभंगी,
  2. बंधत्रिभंगी,
  3. उदयत्रिभंगी और
  4. सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर में टीका की है।


  • आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है।
  • इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं।
  • बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:-


पंचसंग्रह टीका



मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ भाषा में है। इस पर तीन हैं।



  1. श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका,
  2. आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह,
  3. सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह।


  • पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में

    परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी

    पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक

    प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं-


  1. जीवसमास,
  2. प्रकृतिसमुत्कीर्तन,
  3. कर्मस्तव,
  4. शतक और
  5. सप्ततिका।


  • इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है।
  • विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500

    श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है।
  • इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं।
  • कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:-






मन्द्रप्रबोधिनी



  • शौरसेनी में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की

    में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र

    सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को

    समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस

    टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है।

    इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ

    लिया है।
  • गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म

    और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग

    हैं-


  1. एक जीवकाण्ड और
  2. दूसरा कर्मकाण्ड।


जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं

हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं-



  1. ,
  2. मन्दप्रबोधिनी,
  3. कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका,
  4. संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं

    में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और

    सरलता इनमें देखी जा सकती है।


आगे विस्तार में पढ़ें:-






सम्बन्धित प्रश्न



Comments Ritesh kumar on 19-01-2024

Accoding to jain religion last aim of education

Anisha on 18-11-2020

Udamabar fal kon kon se h





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