कर्मारातीन् जयतीति जिन: इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह जिन है।
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा और में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और
में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ,
तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण
किया गया है।
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और
जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। तस्य भाव:
तत्त्वम् अर्थात् वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या
शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों
में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके
माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है । जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का
निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म,
अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं।
अनेकान्त जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि
वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का
व्यवहार चल नहीं सकता।
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार
ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह
जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह
स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान
का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है-
उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार
वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही
महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन
व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक
ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है,
क्योंकि सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति इस नियम के अनुसार एक बार
बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है।
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- मेरु आदिक है शब्दों को सुनने के बाद आदि का बोध होता है।
शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण
है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में
धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में
अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और
आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं
है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने
न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि प्रमाण-नयात्मको न्याय:- प्रमाण और
नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता
है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के
तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे महाशास्त्र कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत
किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय
बताया गया है और वह है- प्रमाणनयैरधिगम: । वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है।
नय-भेद
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं -
नैगम नय
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह
नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें सुख धर्म की
प्रधानता और जीव धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें
जीव धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और सुख धर्म गौण है,
क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो
भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।
संग्रह नय
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ सन्मात्र को ग्रहण करता है वह संग्रह नय
है। जैसे सत् कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है,
किन्तु सर्वथा सत् कहने पर चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह
संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है।
व्यवहार नय
संग्रहनय से ग्रहण किये सत् में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है
वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत सत् द्रव्य हे या पर्याप्त है
या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।
ऋजुसूत्र नय
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण
करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है।
वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने
वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप
हो जाता है।
शब्द नय
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को
बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे नक्तं निशा दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु
दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। नक्तं शब्द नंपुसक लिंग
है और निशा शब्द स्त्रीलिंग है। शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद: यह नय कहता
है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद
करना शब्दनयाभास हैं
समभिरूढ़ नय
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़
नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ
में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन
करना समभिरूढ नयाभास है।
एवंभूत नय
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं
जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह
नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न
कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है।
उद्भव
विकास
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने
कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन
स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये
थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे
पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:-
अध्यात्म शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि
आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका
व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के
समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-
बीसवीं शती के जैन तार्किक
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो
उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के
ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी
में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत
प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय
के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन
किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर
न्यायचार्य पं. गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं. माणिकचन्द्र कौन्देय,
पं. सुखलाल संघवी, डा. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं. कैलाश चन्द्र
शास्त्री, पं. दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा. पं. दरबारी लाला
कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में
पढ़ें:-
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ भाषा में है। इस पर तीन हैं।
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं
हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं-
आगे विस्तार में पढ़ें:-
Udamabar fal kon kon se h
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