दक्षिण गंगा गोदावरी का धार्मिक महत्व
बचपन में सुबह उठकर हम भूपाली गाते थे। उनमें से ये चार पंक्तियां अब भी स्मृतिपट पर अंकित हैं:
‘उठोनियां प्रातःकाळीं। वदनीं वदा चंद्रामौळी।
श्री बिंदुमाधवाजवळी। स्नान करा गंगेचें। स्नान करा गोदेचें।।’
कृष्णा वेण्ण्या तुंगभद्रा। सरयू कालिंदी नर्मदा।
भीमा भामा गोदा। करा स्नान गंगेचें।।
गंगा और गोदा एक ही हैं दोनों के माहात्म्य में जरा भी फर्क नहीं है। फर्क कोई हो भी तो इतना ही कि कालिकाल के पाप के कारण गंगा का माहात्म्य किसी समय कम हो सकता है, किन्तु गोदावरी का माहात्म्य कभी कम हो ही नहीं सकता। श्री रामचंद्र के अत्यंत सुख के दिन इस गोदावरी के तीर पर ही बीते थे, और जीवन का दारुण आघात भी उन्हें यहीं सहना पड़ा था। गोदावरी तो दक्षिणी की गंगा है।
कृष्णा और गोदावरी इन दो नदियों ने दो विक्रमशाली महाप्रजाओं का पोषण किया है। यदि हम कहें कि महाराष्ट्र का स्वराज्य और आंध्र का साम्राज्य इन्हीं दो नदियों का ऋणी है, तो इसमें जरा-सी भी अत्युक्ति नहीं होगी। साम्राज्य बने और टूटे, महाप्रजायें चढ़ीं और गिरी, किन्तु इस ऐतिहासिक भूमि में ये दो नदियां अखंड बहती ही जा रही है। ये नदियां भूतकाल के गौरवशाली इतिहास की जितनी साक्षी हैं उतनी ही भविष्य काल की महान आशाओं की प्रेरक भी हैं। इनमें भी गोदावरी का माहात्म्य कुछ अनोखा ही है। वह जितनी सलिल-समृद्ध है उतनी ही इतिहास-समृद्ध भी है। गोपाल-कृष्ण के जीवन में जिस तरह सर्वत्र विविधता ही विविधता भरी हुई है, एक सा उत्कर्ष ही उत्कर्ष दिखाई देता है, उसी तरह गोदावरी के अति दीर्घ प्रवाह के किनारे सृष्टि-सौंदर्य की विविधता और विपुलता भरी पड़ी हैं। ब्रह्मदेव की एक कल्पना में से जिस तरह सृष्टि का विस्तार होता है, वाल्मीकि की एक कारुण्यमयी वेदना में से जिस तरह रामायणी सृष्टि का विस्तार हुआ है, उसी तरह त्र्यंबक के पहाड़ के कगार से टपकती हुई गोदावरी में से ही आगे जाकर राजमहेंद्रा की विशाल वारिराशिका विस्तार हुआ है। सिंधु और ब्रह्मपुत्रा को जिस तरह हिमालय का आलिंगन करने की सूझी, नर्मदा और ताप्ती को जिस तरह विंध्य-सतपुड़ा को पिघलाने के सूझी, उसी तरह गोदावरी और कृष्णा को दक्षिण के उन्नत प्रदेश को तर करके उसे धनधान्य से समृद्ध करने की सूझी है। पक्षपात से सह्याद्रि पर्वत पश्चिम की ओर ढल पड़ा, यह मानो इन्हें पसन्द नहीं आया। ऐसा ही जान पड़ता है कि उसे पूर्व की ओर खींचने का अखंड प्रयत्न ये दोनों नदियां कर रही है। इन दोनों नदियों का उद्गम-स्थान पश्चिमी समुद्र से 50-75 मील से अधिक दूर नहीं हैं; फिर भी दोनों 800-900 मील की यात्रा करके अपना जलभार या कर-भार पूर्व-समुद्र को ही अर्पण करती हैं। और इस कर-भार का विस्तार कोई मामूली नहीं है। उसके अन्दर सारा महाराष्ट्र देश आ जाता है, हैदराबाद और मैसूर के राज्यों का अंतर्भाव होता है, और आंध्र देश तो सारा का सारा उसी में समा जाता है। मिश्र संस्कृति की माता नाइल नदी हमारी गोदावरी के सामने कोई चीज ही नहीं है।
त्र्यंबक के पास पहाड़ की एक बड़ी दीवार में से गोदा का उद्गम हुआ है। गिरनार की ऊंची दीवार पर से भी त्र्यंबक की इस दीवार का पूरा ख्याल नहीं आयेगा। त्र्यंबक गांव से जो चढ़ाई शुरू होती है वह गोदा मैया की मूर्ति के चरणों तक चलती ही रहती है। इससे भी ऊपर जाने के लिए बाई ओर पहाड़ में विकट सीढ़ियां बनायी गयी हैं। इस रास्ते मनुष्य ब्रह्मगिरि तक पहुंच सकता है। किन्तु वह दुनिया ही अलग है। गोदावरी के उद्गम-स्थान से जो दृश्य दीख पड़ता है वही हमारे वातावरण के लिए विशेष अनुकूल है। महाराष्ट्र के तपस्वियों और राजाओं ने समान भाव से इस स्थान पर अपनी भक्ति उंड़ेल दी है। कृष्णा के किनारे वाई सातारा और गोदा के किनारे नासिक पैठण महाराष्ट्र की सच्ची सांस्कृतिक राजधानियां हैं।
किन्तु गोदावरी का इतिहास तो सहन-वीर रामचंद्र और दुःख-मूर्ति सीतामाता-के वृत्तांत से ही शुरू होता है। राजपाट छोड़ते समय राम को दुःख नहीं हुआ; किन्तु गोदावरी के किनारे सीता और लक्ष्मण के साथ मनाये हुए आनंद का अंत होते ही राम का हृदय एकदम शतधा विदीर्ण हो गया। बाघ-भेड़ियों के अभाव में निर्भय बने हुए हिरण आर्य रामचंद्र की दुःखन्मत्त आंखे देखकर दूर भाग गेय होंगे। सीता की खोज में निकले देवर लक्ष्मण की दहाड़े सुनकर बड़े-बड़े हाथी भी भय-कंपित हो गये होंगे। और पशुपक्षियों के दुःखाश्रुओं से गोदावरी के विमल जल भी कषाय हो गये होंगे। हिमालय में जिस तरह पार्वती थी, उसी तरह जनस्थान में सीता समस्त विश्व की अधिष्ठात्री थी। उसके जाने पर जो काल्पांतिक दुःख हुआ वह यदि सार्वभौम हुआ हो, तो उसमें आश्चर्य ही क्या है?
राम-सीता का संयोग तो फिर हुआ। किन्तु उनका जनस्थान का वियोग तो हमेशा के लिए बना रहा। आज भी आप नासिक-पंचवटी में घूमकर देंखे, चाहे चौमासे में जाये या गर्मी में, आपको यही मालूम होगा मानो सारी पंचवटी जटायु की तरह उदास होकर ‘सीता,सीता’ पुकार रही है। महाराष्ट्र के साधु-संतों ने यदि अपनी मंगल-वाणी यहां फैलाई न होती, तो जनस्थान मानो भयानक उजाड़ प्रदेश हो गया होता। गरमी की धूप को टालने के लिए जिस तरह तृणसृष्टि चारों ओर फैल जाती है, उसी तरह जीवन की विषमता को भुला देने के लिए साधु-संत सर्वत्र विचरते हैं, यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है! जब-जब नासिक-त्र्यंबक की ओर जाना होता है, तब-तब बनवास के लिए इस स्थान को पसन्द करने वाले राम-लक्ष्मण की आंखों से सारा प्रदेश निहारने का मन होता है। किन्तु हर बार कंपित तृणों में से सीता माता की कातर तनु-यष्टि ही आंखों के सामने आती है।
रामभक्त श्रीसमर्थ रामदास जब यहां रहते थे तब उनके हृदय में कौन सी उर्मियां उठती होंगी! श्रीसमर्थ ने गोदावरी के तीर पर गोबर के हनुमान की स्थापना किस हेतु से की होगी? क्या यह बताने के लिए कि पंचवटी में यदि हनुमान होते तो वे सीता का हरण कभी न होने देते? सीता माता ने कठोर वचनों से लक्ष्मण पर प्रहार करके एक महासंकट मोल ले लिया। हनुमान को तो वे ऐसी कोई बात कह नहीं पाती! किन्तु जनस्थान और किष्किंधा के बीच बहुत बड़ा अंतर है, और गोदावरी कोई तुंगभद्रा नहीं है।
रामकथा का करुण रस द्वापर युग से आज तक बहता ही आया है। उसे कौन घटा सकता है? इसलिए हम अंत्यज जाति के माने गये पाड़े के मुंह से वेदों का पाठ करने वाले श्री ज्ञानेश्वर महाराज से मिलने पैठण चलें। गोदावरी जिस तरह दक्षिण की गंगा है, उसी तरह उसके किनारे पर बसी हुई प्रतिष्ठान नगरी दक्षिण की काशी मानी जाती थी। यहां के दशग्रंथी ब्राह्मण जो ‘व्यवस्था’ देते थे, उसे चारों वर्णों को मान्य करना पड़ता था। बड़े-बड़े सम्राटों के ताम्रपत्रों से भी यहां के ब्राह्मणों के व्यवस्था पत्र अधिक महत्त्व के माने जाते थे । ऐसे स्थान पर शास्त्र धर्म के सामने हृदय धर्म की विजय दिखाने का काम सिर्फ ज्ञानराज ही कर सकते थे। पैठण में ज्ञानेश्वर को यज्ञोपवीत का अधिकार नहीं मिला। संन्यासी शंकराचार्य के ऊपर किए गये अत्याचारों की स्मृति को कायम रखने के लिए जिस तरह वहां के राजा ने नांबुद्री ब्राह्मणों पर कई रिवाज लाद दिये थे, उसी तरह सन्यासीपुत्र ज्ञानेश्वर का यदि कोई शिष्य राजपाट का अधिकारी होता तो वह महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों को सजा देता और कहता कि ज्ञानेश्वर को यज्ञोपवीत का इनकार करने वाले तुम लोग आगे से यज्ञोपवीत पहन ही नहीं सकते।
हाथ की उंगलियों का जिस तरह पंखा बनता है, उसी तरह बड़ी-बड़ी नदियों में आकर मिलने वाली और आत्म-विलोपन का कठिन योग साधने वाली छोटी नदियों का भी पंखा बनता है। सह्याद्रि और अजिंठा के पहाड़ों से जो कोना बनता है उसमें जितना पानी गिरता है उस सबको खींच-खींच कर अपने साथ ले जाने का काम ये नदियां करती हैं। धारणा और कादवा, प्रवरा और मुला को यदि छोड़ दें तो भी मध्यभारत से दूर-दूर का पानी लानेवाली वर्धा और वैनगंगा को भला कैसे भूल सकते हैं? दो मिलकर एक बनी हुई नदी का जिसने प्राणहिता नाम रखा, उसके मन में कितनी कृतज्ञता, कितना काव्य, कितना आनंद भरा होगा! और ठेठ ईशान कोण से पूर्व-घाट का नीर ले आने वाली अष्टवका इंद्रावती और उसकी सखी श्रमणी तमस्विनी शबरी को प्रणाम किये बिना कैसे चल सकता है?
गोदावरी की संपूर्ण कला तो भद्रा चलम् से ही देखी जा सकती है। जिसका पट एक से दो मील तक चौड़ा है ऐसी गोदावरी जब ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच में से होकर अपना रास्ता बनाती हुई सिर्फ दो सौ गज की खाई में से निकलती है तब वह क्या सोचती होगी? अपनी सारी शक्ति और युक्ति काम में ले कर नाजुक समय में अपनी महाप्रजा को आगे ले चलने वाले किसी राष्ट्रपुरुष की तरह और संसार को विस्मय में डालने वाली गर्जना के साथ यह यहां से निकलती है। नदी में आनेवाले घोड़ा-पूर और हाथी-पूर जैसे भारी पूरों की बातें हम सुनते हैं; किन्तु एकदम पचास फुट जितना ऊंचा पूर क्या कभी कल्पना में भी आ सकता है? पर जो कल्पना में संभव नहीं है, वह गोदावरी के प्रवाह में संभव है। संकरी खाई में से निकलते हुए पानी के लिए अपना पृष्ठभाग भी सपाट बनाये रखना असंभव-सा हो जाता है। अर्घ्य देते समय जिस प्रकार अंजलि की छोटी नाली-सी बन जाती है, उसी प्रकार खाई में से निकलने वाले पानी के पृष्ठ भाग की भी एक भयानक नाली बनती है। किन्तु अद्भुत रस तो इससे भी आगे अधिक है। इस नाली में से अपनी नाव को ले जाने वाले साहसी नाविक भी वहां मौजूद हैं! नाव के दोनों ओर पानी की ऊंची-ऊंची दीवारों को नाव के ही वेग से दौड़ते हुए देखकर मनुष्य के दिल में क्या-क्या विचार उठते होंगे?
भद्राचलम् से राजमहेद्री या धवलेश्वर तक अखंड गोदावरी बहती है। उसके बाद ‘त्यागाय’ संभृतार्थानाम’ का सनातन सिद्धांत उसे याद आया होगा। यहां से गोदावरी ने जीवन-वितरण करना शुरु कर दिया है। एक ओर गौतमी गोदावरी, दूसरी ओर वसिष्ठ गोदावरी; बीच में कई द्वीप और अंतर्वेदी जैसे प्रदेश हैं; और इन प्रदेशों में गोदा के सरस जल से काली चिकनी मिट्टी से पैदा होने वाले सोने के जैसे शालिधान्य पर परिपुष्ट होकर वेदघोष करनेवाले ब्राह्मण रहते आये हैं। ऐसे समृद्ध देश को स्वतंत्र रखने की शक्ति जब हमारे लोग खो बैठे, तब डच, अंग्रेज और फ्रेंच लोग भी गोदावरी के किनारे पड़ाव डालने को इकट्ठे हुए। आज भी यानान में फ्रांस का तिरंगा झंडा फहरा रहा है।
मद्रास से राजमहेंद्री जाते समय बेजवाडें में सूर्योदय हुआ। वर्षा ऋतु के दिन थे। फिर पूछना ही क्या था? सर्वत्र विविध छटाओंवाला हरा रंग फैला हुआ था। और हरे रंग का इस तरह जमीन पर पड़ा रहना मानो असह्य लगने से उसके बड़े-बड़े गुच्छ हाथ में लेकर ऊपर उछालने वाले ताड़ के पेड़ जहां-तहां दीख पड़ते थे। पूर्व की ओर एक नहर रेल की सड़क के किनारे-किनारे बह रही थी। पर किनारा ऊंचा होने के कारण उसका पानी कभी-कभी ही दीख पड़ता था। सिर्फ तितलियों की तरह अपने पाल फैलाकर कतार में खड़ी हुई नौकाओं पर से ही उस नहर का अस्तित्व ध्यान में आता था। बीच-बीच में पानी के छोटे-बड़े तालाब मिलते थे। इन तालाबों में विविधरंगी बादलों वाला अनंत आकाश नहाने के लिए उतरा था, इसलिए पानी की गहराई अनंत गुना गहरी मालूम होती थी। कहीं-कहीं चंचल कमलों के बीच निस्तब्ध बगुलों को देखकर प्रभात की वायु का अभिनंदन करने का दिल हो जाता था। ऐसे काव्य प्रवाह में से होकर हम कोव्वूर स्टेशन तक आ पहुंचे । अब गोदावरी मैया के दर्शन होंगे ऐसी उत्सुकता यहीं से पैदा हुई। पुल पर से गुजरते समय दायीं ओर देखें या बायीं और, इसी उधेड़बुन में हम पड़े थे। इतने में पुल आ ही गया और भगवती गोदावरी का सुविशाल विस्तार दिखाई पड़ा।
गंगा, सिंधु, शोणभद्र, ऐरावती जैसे विशाल वारि-प्रवाह मैंने जी भरकर देखे हैं। बेजवाड़े (वर्तमान विजयवाड़ा) में किए हुए कृष्णामाता के दर्शन के लिए मैंने हमेशा गर्व अनुभव किया है। किन्तु राजमहेंद्री के पास की गोदावरी की शोभा कुछ अनोखी ही थी। इस स्थान पर मैंने जितना भव्य काव्य का अनुभव किया है, उतना शायद ही और कहीं बहता देखा होगा। पश्चिम की ओर नजर डाली तो दूर-दूर तक पहाड़ियों का एक सुन्दर झुंड बैठा हुआ नजर आया। आकाश में बादल घिरे होने से कहीं भी धूप न थी। सांवले बादलों के कारण गोदावरी के धूलि-धूसर जल की कालिमा और भी बढ़ गई थी। फिर भवभूति का स्मरण भला क्यों न हो? ऊपर की और नीचे की इस कालिमा के कारण सारे दृश्य पर वैदिक प्रभात की सौम्य सुन्दरता छाई हुई थी। और पहाड़ियों पर उतरे हुए कई सफेद बादल तो बिलकुल ऋषियों के जैसे ही मालूम होते थे। इस सारे दृश्य का वर्णन शब्दों में कैसे किया जा सकता है?
इतना सारा पानी कहां से आता होगा? विपत्तियों में से विजय के साथ पार हुआ देश जैसे वैभव की नयी-नयी छटायें दिखाता जाता है और चारों और समृद्धि फैलाता जाता है, वैसे ही गोदावरी का प्रवाह पहाड़ों से निकलकर अपने गौरव के साथ आता हुआ दिखाई देता था छोटे-बड़े जहाज नदी के बच्चों जैसे थे। माता के स्वभाव से परिचित होने के कारण उसकी गोद में चाहे जैसे नाचें तो उन्हें कौन रोकने वाला था? किन्तु बच्चों की उपमा तो इन नावों की अपेक्षा प्रवाह में जहां-तहां पैदा होने वाले भंवरों को देनी चाहिये। वे कुछ देर दिखाई देते, बड़े तूफान का स्वांग रचते, और एकाध क्षण में हंस देते। और टूट पड़ते। चाहे जहां से आते और चाहे जहां चले जाते या लुप्त हो जाते।
इतने बड़े विशाल पट में यदि द्वीप न हों तो उतनी कमी ही मानी जायेगी। गोदावरी के द्वीप मशहूर हैं। कुछ तो पुराने धर्म की तरह स्थिर रूप लेकर बैठे हैं। किन्तु कई-एक तो कवि की प्रतिभा के समान हर समय नया-नया स्थान लेते हैं और नया-नया रूप धारण करते हैं। इन पर अनासक्त बगुलों के सिवा और कौन खड़ा रहने जाय? और जब बगुले चलने लगते हैं तब वे अपने पैरों के गहरे निशान छोड़े बगैर थोड़े ही रहते हैं। अपने धवल चरित्र का अनुसरण करने वालों को दिशा-सूचन न करा दें तो वे बगुले ही कैसे!
नदी का किनारा यानी मानवी कृतज्ञता का अखंड उत्सव। सफेद-सफेद प्रासाद और ऊंचे-ऊंचे शिखर तो एक अखंड उपासना हैं ही। किन्तु इतने से ही काव्य संपूर्ण नहीं होता। अतः भक्त लोग हर रोज नदी की लहरों पर से मंदिर के घंटनाद की लहरों को इस पार से उस पार तक भेजते रहते हैं।
संस्कृति के उपासक भारतवासी इसी स्थान पर गंगाजल के कलश आधे गोदा में उंड़ेलते हैं और फिर गोदा के पानी से उन्हें भरकर ले जाते हैं। कितनी भव्य विधि है। कितना पवित्र भावप्रधान काव्य है! यह भक्तिरव प्रत्येक हृदय में भरा हुआ है। वह घंटनाद और वह भक्तिरव पूर्वस्मृति ने ही सुनाया। दरअसल तो केवल एंजिन की आवाज ही सुनाई देती थी। आधुनिक संस्कृति के इस प्रतिनिधि के प्रति अपनी घृणा को यदि हम छोड़ दें तो रेल के पहियों का ताल कुछ कम आकर्षक नहीं मालूम होता और पुल पर तो उसका विजयनाद संकामक ही सिद्ध होता है।
पुल पर गाड़ी के काफी देर चलने के बाद मुझे ख्याल आया कि पूर्व दिशा की ओर तो देखना रह ही गया। हम उस ओर मुड़े। वहां बिलकुल नयी ही शोभा नजर आयी। पश्चिम की ओर गोदावरी जितनी चौड़ी थी, उससे भी विशेष चौड़ी पूर्व की ओर थी। उसे अनेक मार्गों द्वारा सागर से मिलना था। सरित्पति से जब सरिता मिलने जाती है तब उसे संभ्रम तो होता ही है। किन्तु गोदावरी तो धीरोदात्त माता है। उसका संभ्रम भी उदात्त रूप में ही व्यक्त हो सकता है। इस ओर के द्वीप अलग ही किस्म के थे। उन में वनश्री की शोभा पूरी-पूरी खिली हुई थी। ब्राह्मणों के या किसानों के झोपड़े इस ओर से दिखाई नहीं पड़ते थे। बहते पानी के हमले के सामने टक्कर लेने वाले इन द्वीपों में किसी ने ऊंचे प्रासाद बनाये होते तो शायद वे दूर से ही दीख पड़ते। प्रकृति ने तो केवल ऊंचे-ऊचे पेड़ों की विजय-पताकायें खड़ी कर रखी थी। और बायीं ओर राजमहेंद्री और धवलेश्वर की सुखी बस्ती आनंद मना रही थी। ऐसे विरल दृश्य से तृप्त होने के पहले ही नदी के दायें किनारे पर उन्मुक्तता के साथ बहता हुआ कांस की सफेद कलगियों का स्थावर प्रवाह दूर-दूर तक चलता हुआ नजर आया। नदी के पानी में उन्माद था, किन्तु उसकी लहरें नहीं बनी थी। कलगियों के इस प्रवाह ने पवन के साथ षड्यंत्र रचा था, इसलिए वह मनमानी लहरें उछाल सकता था। जहां तक नजर जा सकती थी वहां तक देखा। और नजर की पहुंच यहां कम क्यों हो? किन्तु कलगियों का प्रवाह तो बहता ही जा रहा था। गोदावरी के विशाल प्रवाह के साथ भी होड़ करते उसे संकोच नहीं होता था। और वह संकोच क्यों करता? माता गोदावरी के विशाल पुलिन पर उसने माता का स्तन्यपान क्या कम किया था?
माता गोदावरी! राम-लक्ष्मण सीता से लेकर वृद्ध जटायु तक सबको तूने स्तन्यपान कराया है। तेरे किनारे शूरवीर भी पैदा हुए हैं, और तत्वचिंतक भी पैदा हुए हैं। संत भी पैदा हुए हैं और राजनीतिज्ञ भी। देशभक्त भी पैदा हुए हैं और ईश-भक्त भी। चारों वर्णों की तू माता है। मेरे पूर्वजों की तू अधिष्ठात्री देवता है। नयी-नयी आशायें लेकर मैं तेरे दर्शन के लिए आया हूं। दर्शन से तो कृतार्थ हो गया हूं। किन्तु मेरी आशाएं तृप्त नहीं हुई हैं। जिस प्रकार तेरे किनारे रामचंद्र ने दुष्ट रावण के नाश का संकल्प किया था, वैसा ही संकल्प मैं कब से अपने मन में लिए हुए हूं। तेरी कृपा होगी तो हृदय में से तथा देश में से रावण का राज्य मिट जायेगा, रामराज्य की स्थापना होते मैं देखूंगा और फिर तेरे दर्शन के लिए आऊंगा। और कुछ नहीं तो कांस की कलगी के स्थावर प्रवाह की तरह मुझे उन्मत बना दे, जिससे बिना संकोच के एक-ध्यान होकर मैं माता की सेवा में रत रह सकूं और बाकी सब कुछ भूल जाऊं। तेरे नीर में अमोघ शक्ति है। तेरे नीर के एक बिंदु का सेवन भी व्यर्थ नहीं जायेगा।
गोदावरी नदी का इतिहास
godavri history in hindi
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।