मौसम परिवर्तन क्या है
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एल नीनो
ऊष्ण कटिबंधीय प्रशांत में समुद्र तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में आये बदलाव को एल नीनो कहा जाता है जो पूरे विश्व के मौसम को अस्त-व्यस्त कर देता है। यह बार-बार घटित होने वाली मौसमी घटना है जो प्रमुख रूप से दक्षिण अमेरिका के प्रशान्त तट को प्रभावित करता है परंतु इस का समूचे विश्व के मौसम पर नाटकीय प्रभाव पड़ता है।
‘एल-नीन्यो’ के रूप में उच्चरित इस शब्द का स्पैनिश भाषा में अर्थ होता है ‘बालक’ एवं इसे ऐसा नाम पेरू के मछुआरों द्वारा बाल ईसा के नाम पर किया गया है क्योंकि ईसका प्रभाव सामान्यतः क्रिसमस के आस-पास अनुभव किया जाता है। इसमें प्रशांत महासागर का जल आवधिक रूप से गर्म होता है जिसका परिणाम मौसम की अत्यंतता के रूप में होता है। एल नीनो का सटीक कारण, तीव्रता एवं अवधि की सही-सही जानकारी नहीं है। गर्म एल नीनो की अवस्था सामान्यतः लगभग 8-10 महीनों तक बनी रहती है।
सामान्यतः, व्यापारिक हवाएं गर्म सतही जल को दक्षिण अमेरिकी तट से दूर ऑस्ट्रेलिया एवं फिलीपींस की ओर धकेलते हुए प्रशांत महासागर के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर बहती है। पेरू के तट के पास जल ठंडा होता है एवं पोषक-तत्वों से समृद्ध होता है जो कि प्राथमिक उत्पादकों, विविध समुद्री पारिस्थिक तंत्रों एवं प्रमुख मछलियों को जीवन प्रदान करता है। एल नीनो के दौरान, व्यापारिक पवनें मध्य एवं पश्चिमी प्रशांत महासागर में शांत होती है। इससे गर्म जल को सतह पर जमा होने में मदद मिलती है जिसके कारण ठंडे जल के जमाव के कारण पैदा हुए पोषक तत्वों को नीचे खिसकना पड़ता है और प्लवक जीवों एवं अन्य जलीय जीवों जैसे मछलियों का नाश होता है तथा अनेक समुद्री पक्षियों को भोजन की कमी होती है। इसे एल नीनो प्रभाव कहा जाता है जोकि विश्वव्यापी मौसम पद्धतियों के विनाशकारी व्यवधानों के लिए जिम्मेदार है।
अनेक विनाशों का कारण एल नीनो माना गया है, जैसे इंडोनेशिया में 1983 में पड़ा अकाल, सूखे के कारण ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग, कैलिफोर्निया में भारी बारिश एवं पेरू के तट पर एंकोवी मत्स्य क्षेत्र का विनाश। ऐसा माना जाता है कि 1982/83 के दौरान इसके कारण समूचे विश्व में 2000 व्यक्तियों की मौत हुई एवं 12 अरब डॉलर की हानि हुई।
1997/98 में इस का प्रभाव बहुत नुकसानदायी था। अमेरिका में बाढ़ से तबाही हुई, चीन में आंधी से नुकसान हुआ, ऑस्ट्रिया सूखे से झुलस गया एवं जंगली आग ने दक्षिण-पूर्व एशिया एवं ब्राजील के आंशिक भागों को जला डाला। इंडोनेशिया में पिछले 50 वर्षों में सबसे कठिन सूखे की स्थिति देखने में आई एवं मैक्सिको में 1881 के बाद पहली बार गौडालाजारा में बर्फबारी हुई। हिन्द महासागर में मॉनसूनी पवनों का चक्र इससे प्रभावित हुआ।
जब प्रशांत महासागर में दबाव की उपस्थिति अत्यधिक हो जाती है तब यह हिन्द महासागर में अफ्रीका से ऑस्ट्रेलिया की ओर कम होने लगता है। यह प्रथम घटना थी जिससे यह पता चला कि ऊष्णकटिबंधी प्रशांत क्षेत्र के अन्दर तथा इसके बाहर आये परिवर्त्तन एक पृथक घटना नहीं बल्कि एक बहुत बड़े प्रदोलन के भाग के रूप में घटित हुए हैं।
ला नीनो
यह घटना सामान्यतः एल नीनो के बाद होती है। ला नीनो को कभी-कभी एल वीयो, छोटी बच्ची, अल नीनो-विरोधी अथवा केवल ‘एक ठंडी घटना’ अथवा एक ‘ठंडा प्रसंग’ कहा जाता है। ला नीनो (ला नी न्या के रूप में उच्चरित) प्रशांत महासागर का ठंडा होना है।
एल नीनो की तुलना में, जोकि विषुवतीय प्रशांत में गर्म समुद्री तापमान से युक्त होता है, यह विषुवतीय प्रशांत में ठंडे समुद्री तापमान की विशेषता से युक्त होता है। सामान्यतः ला नीनो एल नीनो की तुलना में आधा होता है।
विश्व के मौसम एवं समुद्री तापमान पर ला नीनो का प्रभाव अल नीनो का विपरीत होता है। ला नीनो वर्ष के दौरान यू0एस0 में दक्षिण-पूर्व में शीतकालीन तापमान सामान्य से कम होता है एवं उत्तर-पश्चिम में सामान्य से ठंडा होता है। दक्षिण-पूर्व में तापमान सामान्य से ज्यादा गर्म एवं उत्तर-पश्चिम में सामान्य से अधिक ठंडा होता है।
पश्चिमी तट पर हिमपात एवं वर्षा तथा अलास्का में असामान्य रूप से ठंडे मौसम का अनुभव किया जाता है। इस अवधि के दौरान यहां पर, अटलांटिक में सामान्य से अधिक संख्या में तूफान आते हैं।
एल नीनो एवं ला नीनो पृथ्वी की सर्वाधिक शक्तिशाली घटनाएं हैं जो पूरे ग्रह के आधे से अधिक भाग के मौसम को परिवर्तित करती है।
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वर्ष 2000 के दौरान विश्व मौसम में वही प्रक्रिया रही जो वर्ष 1990 में थीः कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी अथवा अत्यधिक ठंड, अत्यधिक वर्षा अथवा गंभीर सूखे का अनुभव किया गया। अन्य जगहों पर सामान्य-जैसी स्थिति का अनुभव किया गया, परंतु औसतन विश्व मौसम का सामान्य से अधिक गर्म रहना जारी है।
वर्ष 2000 में विश्व तापमान 1999 के समान ही था जो कि डब्ल्यू0एम0ओ0 (विश्व मौसम संगठन) के सदस्यों द्वारा रखे गए अभिलेखों के अनुसार पिछले 140 वर्ष में पांचवा सबसे गर्म वर्ष था। वर्ष 1998 के बाद 1997, 1995 एवं 1990 सबसे गर्म वर्ष था। विषुवत प्रशांत सभी जगहों पर ‘नीसा’ को नीका कर दें। के सतत शीतलन प्रभाव के बावजूद वर्ष 2000 में गर्म वर्षों का क्रम जारी है। 21वीं सदी के आरंभ में विश्व का औसत तापमान 0.60C था जोकि 20वीं सदी के आरंभ में से अधिक था।
अधिकांश गैर-विषुवतीय उत्तरी गोलार्ध में प्रत्येक मौसम में औसत से अधिक तापमान का अनुभव किया गया। तथापि, पूर्वी विषुवत प्रशांत सामान्य से अधिक ठंडा था क्योंकि ला नीनो वर्ष के आरंभ में तीव्र था, जुलाई तथा अगस्त में कमजोर था तथा वर्ष के अंत में इसकी वापसी के लक्षण दिखाई दिए। शेष विषुवत एवं गैर विषुवत दक्षिणी गोलार्ध में अनेक विषमताएं थीं एवं इसमें गर्मी की बहुलता थी।
वर्ष के पहले आधे भाग तथा वर्ष के अंत में पूरे विषुवत में बरसात की अभिरचना यानि वर्षा पर ला नीनो जैसी स्थितियों की प्रमुखता थी। इंडोनेशिया, विषुवतीय हिन्द महासागर एवं पश्चिम विषुवत प्रशांत- इन सभी में दोनों अवधियों के दौरान भारी वर्षा होती थी जबकि मध्य विषुवत प्रशांत में वस्तुतः कोई वर्षा नहीं होती थी। ला नीनो से प्रभावित अन्य क्षेत्रों में ऑस्ट्रेलिया, उत्तर-पूर्व दक्षिण अमेरिका एवं दक्षिण अफ्रीका था जिनमें इन अवधियों के दौरान भारी बारिश होती थी। दक्षिण एशिया में मॉनसून बारिश भी बहुत था। दूसरी तरफ, ला नीनो के कारण भूमध्यरेखीय पूर्वी अफ्रीका एवं संयुक्त राज्य अमरिका के तटों के किनारे सामान्य से कम वर्षा हुई।
तूफान, अंधड़ एवं बाढ़
वर्ष 2000 के दौरान अटलांटिक में 15 तूफान एवं आंधी आई (औसत 10 है), जबकि प्रशांत महासागर में केवल 22 आंधी आई जो कि 28 के औसत से कम है। इनमें सबसे उल्लेखनीय तूफान कीथ और गॉर्डन था जिसने मध्य अमेरिका में भारी नुकसान पहुंचाया। प्रशांत महासागर में साओ माइ अंधड़ के कारण जापान के कुछ हिस्सों में रिकार्ड-तोड़ वर्षा हुई तथा दो प्रमुख तूफानों के कारण दक्षिण-पूर्व एशिया में अत्यधिक वर्षा हुई। बंगाल की खाड़ी के उपर एक प्रमुख चक्रवात का निर्माण हुआ जिसने दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप को नवम्बर के अंत में प्रभावित किया। इनके कारण वर्षा एवं पवन से संपत्ति की घोर हानि हुई। वर्ष का सबसे विनाशकारी चक्रवात इलीन, ग्लोरिया एवं हुडा था जिसने मैडागास्कर, मोजाम्बिक एवं दक्षिण अफ्रीका के कुछ भाग को प्रभावित किया तथा इससे भारी बाढ़ एवं जीवन की हानि हुई। फरवरी के अंत में, स्टीव नामक चक्रवात से ऑस्ट्रेलिया में गंभीर नुकसान हुआ एवं रिकार्ड बाढ़ आई।
संसार के अन्य हिस्सों में भी भारी बारिश हुई और इससे बाढ़ आई। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य है कि अक्टूबर में दक्षिणी स्विट्जरलैंड एवं उत्तर-पूर्वी इटली में भारी बाढ़ आई, कोलंबिया में जून से अगस्त तथा भारत, बांग्लादेश, कंबोडिया, थाइलैंड लाओस एवं वियतनाम में मॉनसूनी वर्षा के कारण बाढ़ आई जिससे जान और संपत्ति की भारी हानि हुई। केवल भारत में ही एक करोड़ लोग प्रभावित हुए जिसमें 650 मौतें हुई। मई और जून में बाढ़ और भूस्खलन के कारण मध्य और दक्षिणी अमेरिका में नुकसान और जीवन की क्षति हुई। ग्वाटेमाला में बाढ़ के कारण भूस्खलन से, 13 लोगों की मौत हुई. पश्चिमी क्वींसलैंड के कुछ हिस्सों में, जिसका वार्षिक औसत वर्षा 200-300 मि0मी0 है, फरवरी में 400 मि0मी0 वर्षा हुई। नवम्बर में भारी बारिश के कारण मध्य एवं उत्तर-पश्चिमी क्वींसलैंड में बाढ़ आई जिससे न्यू साउथ वेल्स का एक-तिहाई हिस्सा प्रभावित हुआ।
लू, सूखा एवं आग
प्रमुख सूखों ने उत्तरी चीन के रास्ते दक्षिण-पूर्वी यूरोप, मध्य-पूर्व एवं मध्य एशिया को प्रभावित किया। बुल्गारिया, ईरान, ईराक, अफगानिस्तान एवं चीन के कुछ हिस्से विशेष रूप से प्रभावित थे। तीस सालों में ईरान का यह सबसे बदतर सूखा था जिसमें फसल व पशुधन की हानि हुई।
जून एवं जुलाई के दौरान शताब्दी पुराने रिकॉर्ड को तोड़ने वाली चिलचिलाती लू ने दक्षिणी यूरोप को प्रभावित किया। इस लू ने क्षेत्र में अनेक जाने ली क्योंकि तुर्की, ग्रीस, रोमानिया एवं इटली में तापमान 430C से भी अधिक हो गया था। बुल्गारिया में 05 जुलाई को 75% केन्द्रों पर दैनिक अधिकतम तापमान का 100 वर्षों का रिकॉर्ड टूट गया।
हार्न ऑफ अफ्रीका में लगातार तीसरे वर्ष औसत से कम वर्षा ने क्षेत्र के काफी बड़े हिस्से में विद्यमान सूखे की स्थिति को और बदतर किया जिससे भोजन की भारी कमी हो गई। इस सूखे से लाखों-करोड़ो लोग प्रभावित हुए। इथियोपिया तथा कीनिया, सोमालिया, इरीट्रीया एवं जिबूति विशेष रुप से प्रभावित थे।
शीत लहर, राष्ट्रीय तापमान एवं वर्षा विषमता
चीन एवं मंगोलिया के बड़े हिस्से को जनवरी व फरवरी के दौरान घोर ठंड ने प्रभावित किया। जनवरी व फरवरी में जाड़े की स्थिति ने भारत के कुछ हिस्सों को प्रभावित किया एवं इससे 300 मौतें हुई।
1866 में मापन के आरंभ के बाद से नॉर्वे में तीसरा सबसे गर्म वर्ष रिकार्ड किया गया है। पिछले 140 वर्षों के दौरान न्यूजूलैंड में कम ठंडी शीत ऋतु के विपरीत कम गर्मी वाली ग्रीष्म ऋतु का अनुभव किया गया।
इंग्लैंड एवं वेल्स 235-वर्ष की मासिक बारिश श्रृंखला में अप्रैल 2000 सबसे वर्षा वाला माह था. 235-वर्ष के रिकॉर्ड में यह सबसे ज्यादा वर्षा वाला शरदकालीन समय था एवं सबसे ज्यादा बारिश वाला 3 माह का रिकॉर्ड भी।
*वर्ष 2000 के नवम्बर अंत तक के लिए यह आरंभिक सूचना जहाजों, प्लावों एवं जमीन पर स्थित मौसम स्टेशनों के प्रेक्षणों पर आधारित है। डब्ल्यू0एम0ओ0 सदस्य देशों की नेशनल मेटरोलॉजिकल एंड हाइड्रोलॉजिकल सर्विसेज द्वारा इन आंकड़ों का सतत संकलन एवं वितरण किया जाता है।
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ओज़ोन परत
ओज़ोन परत समतापमंडल के तापमान को संतुलित बनाए हुए है तथा सूर्य से निकलने वाली हानिकारण पराबैंगनी किरणें को अवशोषित कर ग्रह पर जीवन की रक्षा करता है। ओज़ोन कण अथवा ओज़ोन परत समताप मंडल में 15-35 किमी की ऊँजाई पर स्थित है। यह माना जाता है कि लाखों वर्षों से वायुमंडलीय संरचना में अधिक बदलाव नहीं आया है। लेकिन पिछले पचास वर्षों में मनुष्य ने प्रकृति के उत्कृष्ट संतुलन को वायुमंडल में हानिकारक रसायनिक पदार्थों को छोड़कर अस्त-व्यस्त कर दिया है जो धीरे-धीरे इस जीवरक्षक परत को नष्ट कर रहा है।
ओज़ोन की उपस्थिति की खोज पहली बार 1839 ई0 में सी एफ स्कोनबिअन के द्वारा की गई जब वह वैद्युत स्फुलिंग का निरीक्षण कर रहे थे। लेकिन 1850 ई0 के बाद ही इसे एक प्राकृतिक वायुमंडलीय संरचना माना गया। ओज़ोन का यह नाम ग्रीक (यूनानी) शब्द ओज़ेन (ozein) के आधार पर पड़ा जिसका अर्थ होता है "गंध" इसके सांन्द्रित (गाढ़ा) रूप में एक तीक्ष्ण तीखी/कड़वी) गंध होती है। 1913 ई0 में, विभिन्न अध्ययनों के बाद, एक निर्णायक सबूत मिला कि यह परत मुख्यतः समतापमंडल में स्थित है तथा यह सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है। 1920 के दशक में, एक ऑक्सफोर्ड वैज्ञानिक, जी एम बी डॉब्सन, ने सम्पूर्ण ओज़ोन की निगरानी (मानीटर करने) के लिए यंत्र बनाया।
समताप मंडल में ओज़ोन की उपस्थिति विषुवत-रेखा के निकट अधिक सघन और सान्द्र है तथा ज्यों-ज्यों हम ध्रुवों की ओर बढ़ते हैं, धीरे-धीरे इसकी सान्द्रता कम होती जाती है। यह वहाँ उपस्थित हवाओं की गति, पृथ्वी की आकृति और इसके घूर्णन पर निर्भर करता है। ध्रुवों पर मौसम के अनुसार यह बदलता रहता है। ओज़ोन परत की क्षीणता दक्षिणी ध्रुव जो अंटार्कटिका पर है, पर स्पष्ट दिखाई देती है, जहाँ एक विशाल ओज़ोन छिद्र है। उत्तरी ध्रुव में ओज़ोन परत बहुत अधिक नष्ट नहीं हुई है। विश्व मौसम-विज्ञान संस्था (WMO) ने ओज़ोन क्षीणता की समस्या को पहचानने और संचार में अहम भूमिका निभायी है। चूँकि वायुमंडल की कोई अंतर्राष्ट्रीय सीमा नहीं है, यह महसूस किया गया कि इसके उपाय के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर विचार होना चाहिए।
(UNEP) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण योजना ने विएना संधि की शुरूआत की जिसमें 30 से अधिक राष्ट्र शामिल हुए। यह पदार्थों पर एक ऐतिहासिक विज्ञप्ति थी, जो ओज़ोन परत को नष्ट करते हैं तथा इसे 1987 ई0 में मॉन्ट्रियल में स्वीकार कर लिया गया। इसमें उन पदार्थों की सूची बनाई गई जिनके कारण ओज़ोन परत नष्ट हो रही है तथा वर्ष 2000 तक क्लोरोफ्लोरो कार्बन के उपयोग में 50% तक की कमी का आह्वान किया गया। क्लोरोफ्लोरो कार्बन अथवा सी एफ सी को हरितगृह प्रभाव के लिए ज़िम्मेदार गैस माना जाता है। यह मुख्यतः वातानुकूलन मशीन, रेफ्रिजरेटर से उत्सर्जित होती है तथा एरोसोल अथवा स्प्रे इसके प्रणोदक (बढ़ाने वाला) हैं। एक अन्य बहुत ज्यादा उपयोग किया जाने वाला रसायन मिथाइल ब्रोमाइड है जो ओज़ोन परत के लिए एक चेतावनी है। यह ब्रोमाइड उत्सर्जित करता है जो क्लोरीन की तरह 30-50 गुणा ज्यादा विनाशकारी है। इसका उपयोग मिट्टी, उपयोगी वस्तुओं और वाहन ईंधन संयोजी के लिए धूमक के रूप में होता है (रोगाणुनाशी के रूप में प्रयोग किया जाने वाला धुआँ)। वर्तमान समय में कोई ऐसा रसायन मौजूद नहीं है जो पूरी तरह से मिथाइल ब्रोमाइड के उपयोग को हटा दें। यह स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि ओज़ोन परत की आशा के अनुरूप प्राप्ति पदार्थों के मॉन्ट्रयल प्रोटोकॉल के बिना असंभव है जो ओज़ोन परत को नष्ट करता है (1987) जिसने ओज़ोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले सभी पदार्थों के उपयोग में कमी के लिए आवाज उठाया। विकासशील राष्ट्रों के लिए इसकी अंतिम तिथि 1996 थी, जबकि भारत को 2010 ई0 तक इस बड़े विनाशकारी रसायन को पूर्णतः समाप्त कर देना है।
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प्राकृतिक कुण्ड (हौज़)
जंगल में संभवतः जैविक आग से कार्बन मुक्त होता है या वृक्ष अपघटन से अथवा आग की स्थिति में कार्बन वायुमंडल में मुक्त हो जाता है। किसी जंगल में प्राकृतिक कारणों से और लोगों की लापरवाही से अथवा उस क्षेत्र में जहाँ लोग पेड़ों को काटते और जलाते हैं, आग लग जाती है। हालाँकि, जंगल दोबारा कार्बन कुण्ड बन सकता है क्योंकि यह जंगल के फैलाव के साथ-साथ एकत्रित होता है।
किसी जंगल के पारिस्थितिकी-तंत्र में कार्बन के चार तत्व होते हैं:- वृक्ष, जंगल की सतह पर बढ़ने वाले पौधे, गिरे हुए पत्ते तथा जंगल की सतह और मिट्टी में अपघटित होने वाले अन्य पदार्थ। पौधे की वृद्धि की प्रक्रिया के दौरान कार्बन अवशोषित हो जाता है तथा कार्बन वनस्पति कोशिका निर्माण में ग्रहण कर लिया जाता है तथा ऑक्सीजन को मुक्त कर दिया जाता है। जंगल की सतह पर उगने वाले पौधे इस कार्बन के भण्डार में वृद्धि करते हैं। समय बीतने के बाद, टहनियाँ, पत्ते तथा अन्य चीजें जंगल की सतह पर गिरती हैं तथा अपने अपघटित होने तक कार्बन को जमा कर रखती हैं। साथ ही, जंगल की मिट्टी, जड़/मिट्टी के माध्यम से कुछ अपघटित पौधों को ग्रहण करती है।
जंगलों को लगाए जाने को सम्पूर्ण विश्व में सरकारों द्वारा प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उन्हें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि जंगलों की कटाई बंद हो गई है। इसमें सफलता प्राप्त करने के लिए उन्हें उन-लोगों को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराने चाहिए जो खाना बनाने और ऊष्मा के लिए लकड़ी के ईंधन पर निर्भर हैं।
वृक्षों की तरह, सागर भी कार्बन को ग्रहण करने में प्राकृतिक कुण्ड की तरह काम करता है। ये सागर (समुद्री) जलवायु को कार्बन डाईऑक्साइड के अवशोषण और भण्डारण से प्रभावित करते हैं। जलवायु-परिवर्त्तन का कारण मनुष्य द्वारा निर्मित कार्बन डाईऑक्साइड तथा अन्य हरितगृह गैसों का वायुमंडल में बढ़ जाना है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सागर वर्त्तमान समय में जीवाश्म-ईंधन के जलने से उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग आधा भाग अवशोषित कर लेता है।
प्रवाल-भित्ति (मूँगा-चट्टान) को प्रायः सागर का जंगल कहा जाता है, यह एक मुख्य कुण्ड है जिसमें कार्बन डाई-ऑक्साइड की बड़ी मात्रा जमा होती है। प्लावक सागर में उपस्थित रहते हैं, यह मुख्यतः उस क्षेत्र में पाये जाते हैं जहाँ गर्म तरंगे, ठंढ़ी तरंगों से मिलती हैं। यह एक जलीय पौधा है, स्थलीय पौधों की तरह यह प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में कार्बन-डाईऑक्साइड ग्रहण करता है। पानी में घुली गैस की मात्रा पर पादपप्लावक का उल्टा असर पड़ता है (सूक्ष्मदर्शीय पौधा, खासकर शैवाल), जो प्रकाश संश्लेषण के दौरान कार्बन-डाई-ऑक्साइड अवशोषित करता है। पादपप्लावक की क्रिया मुख्यतः पहले 50 मीटर की सतह पर होती है तथा मौसम और क्षेत्र के अनुसार बदलती रहती है। सागर के कुछ भाग पर संभवतः पर्याप्त प्रकाश नहीं पहुँच पाता जिससे वे बहुत ठंडे हैं; अन्य क्षेत्रों में पादपप्लावक की वृद्धि के लिए पोषकतत्वों की कमी होती है। एक पंप की तरह प्लावक सागर की सतह से गैस और पोषक तत्व इसकी गहराई तक पहुँचाते हैं। कार्बन-चक्र में इसकी भूमिका अन्य वृक्षों से अलग है। सागरीय जीव प्रकाश-संश्लेषण के दौरान कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं तथा कुछ गैस भीतर लगभग वर्ष भर मुक्त होते रहते हैं, इनमें से कुछ मृत पौधों, शारीरिक भाग, मल तथा अन्य डूबती वस्तुओं द्वारा सागर की गहराई में भेजी जाती हैं। तत्पश्चात् अपघटित पदार्थों के रूप में कार्बन डाई ऑक्साइड जल में मुक्त होती है तथा इनमें से अधिकांश समुद्री जल में जल कण के साथ़ रासायनिक रूप से जुड़कर अवशोषित हो जाती है। सागर में गर्म जल कार्बन डाईऑक्साइड से सामान्यतः संतृप्त रहता है जबकि ठंढ़ा जल असंतृप्त रहता है और इसमें कार्बन डाईऑक्साइड को पकड़ कर रखने की बहुत क्षमता होती है। यह गैस ठंढ़े संतृप्त जल में घुलनशील है। ध्रुव की ओर, अक्षांश पर जहाँ सागर ठंडे हैं, जल के नजदीक की हवा में मौजूद कार्बनडाईऑक्साइड जल में घुल जाती हैं। कार्बन जो सागर के माध्यम से दो प्रक्रियाओं द्वारा अवशोषित किया जाता है, उसे लगभग 1000 वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
अब उन साधनों की खोज की जा रही है जिनसे सागरों का उपयोग कार्बन डाईऑक्साइड के एक भण्डार के रूप में होः पहला कार्बनडाईआक्साइड को केन्द्रीय बिंदुओं से नल-तंत्र द्वारा ग्रहण करना अथवा एक बड़े पात्र में जमा कर उसे सागर के भीतर डालना। दूसरा, सागर में अधिक पोषक तत्व डालकर उसे उर्वर बनाना ताकि पादपप्लावक की पर्याप्त पैदावार हो जो हवा से कार्बन डाईआक्साइड ग्रहण करेगा। इसे कार्यात्मक रूप देने से पहले इन क्रियाओं के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में अध्ययन करना अभी भी बाकी है।
वर्ष 1999 में भारत की जलवायु
बर्फीली हवाओं ने भारत के उत्तरी भाग को जनवरी में सामान्य से 50 नीचे जाकर अपनी चपेट में ले लिया। जनवरी और फरवरी माह में बारिश होना सामान्य बात थी। फरवरी महीने में बंगाल की खाड़ी के ऊपर एक चक्रवाती तूफान बना जो बहुत ही अस्वभाविक था। जैसा कि ज्ञात है कि इस क्षेत्र में वर्ष के इस समय चक्रवात नहीं बनते हैं।
वर्ष 1999 के मार्च और अप्रैल माह न केवल उस वर्ष के बल्कि पिछले दस सालों के सबसे गर्म महीने थे जिसमें गर्म हवाओं ने उत्तरी और मध्य भारत को अप्रैल महीने में अपनी चपेट में ले लिया। वस्तुतः इन गर्म हवाओं की स्थित को मार्च महीने में ही देश में अनुभव कर लिया गया था। 27 अप्रैल को तितलागढ़ में 47.60C महत्तम तापमान रिकार्ड किया गया।
वर्ष 1999 के मई महीने में मानसून आने के पूर्व ही छीटें पड़ने लगे थे, वास्तव में वर्ष 1990 से लेकर यह दूसरे सबसे अधिक गीला महीना था। इसी महीने में अरब सागर के ऊपर एक प्रचण्ड चक्रवाती तूफान उत्पन्न हुआ लेकिन मार्ग से ही वापस मुड़ गया, कमज़ोर हो गया और 22 मई को भारत में पश्चिमी राजस्थान में प्रवेश कर गया, यह एक गहरे विक्षोभ में बदल गया। दक्षिण-पश्चिम मानसून केरल और तमिलनाडु में 25 मई को आया, यह सामान्य से लगभग एक सप्ताह पहले था। यद्यपि देश के लगभग सभी भागों में बारिश सामान्य थी, सितम्बर माह में अन्य महीनों की तुलना में सर्वाधिक बारिश हुई। गुजरात, हरियाणा, दिल्ली, तमिलनाडु, केरल, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा पांडिचेरी में कम वर्षा हुई। वर्ष 1990 से लेकर अक्टूबर दूसरा सबसे अधिक बारिश वाला महीना रिकार्ड किया गया।
अक्टूबर 1999 एक ऐसे महीने के रूप में याद किया जाएगा जब बड़ा चक्रवाती तूफान, जिसे शताब्दी का सबसे खराब तूफान माना जाता है, उड़ीसा के तट पर आया। इस बड़े चक्रवात के पूर्व अन्य प्रबल चक्रवात पूर्वी तटों, गोला पुर के निकट बंगाल और उड़ीसा के तट पर 17 अक्टूबर को आ चुका था।
दूसरा प्रचण्ड चक्रवात अडमान सागर में 25 तारीख को एक दुःख/प्रकोप के रूप में उत्पन्न हुआ तथा यह उत्तर-पश्चमी दिशा में घूम गया और अधिक तेज़ हो गया। 28 तारीख की रात तक एक प्रचण्ड चक्रवात में बदल गया तथा 29 तारीख की दोपहर तक पारादीप के निकट उड़ीसा तट को पार कर गया। हवा की अनुमानित चाल 250 किमी/घंटा थी तथा ज्वारीय-तरंगे 30 फीट (9.14मी0) तक पहँच गईं और पृथ्वी पर भयानक तबाही हुई। हजारों लोगों की जान गईं तथा करोड़ों रूपये की सम्पत्ति नष्ट हो गई।
नवम्बर-दिसम्बर में पूरे देश में सामान्य से कम वर्षा हुई। वास्तव में वर्ष 1990 से लेकर नवम्बर में बारिश न्यूनतम रिकार्ड की गई। बंगाल की खाड़ी अथवा अरब सागर में कोई चक्रवाती तूफान नहीं बना जो, बात बहुत ही असामान्य थी। दिसम्बर में कश्मीर के कुछ भागों, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र में मामूली ठंडी हवाएँ चलीं।
नक्शा भी देखें:
जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए आप क्या कर सकते हैं
यद्यपि समस्याएँ बहुत हैं, हम सभी व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से सहयोग कर सकते हैं, जो हरितगृह गैस के उत्सर्जन को कम करेगा और इसप्रकार जलवायु के हानिकारक प्रभाव में बदलाव आएगा।
जितना कम हो सके कूड़ा/रद्दी बनाएँ, क्योंकि कूड़े से अधिक मात्रा में मिथेन गैस निकलती है और जब इसे जलाया जाता है, तब कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस मुक्त होती है।
जलवायु-परिवर्तन से स्वास्थ्य पर प्रभाव
जलवायु-परिवर्तन एक बड़ी समस्या है जो मानव की बढ़ती क्रियाओं से उत्पन्न होती है
तथा तथा इससे स्वास्थ्य पर कई प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव पड़ते हैं। जीवाश्म ईंधन का
जलना, उद्योग-धंधों की संख्या में वृद्धि तथा व्यापक पैमाने पर पेड़ों की कटाई हरितगृह
गैसों (जमजड़) के वायुमंडल में जमा होने के कुछ कारण हैं। IPCC(जलवायु-परिवर्तन के अन्तर-सरकारी पैनल) के अनुसार कार्बन डाई-आक्साइड और अन्य हरितगृह गैसों
(जमजड़) जैसे मिथेन, ओज़ोन, नाइट्रस ऑक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन की वायुमंडल
में वृद्धि से यह अनुमान लगाया जाता है कि विश्व का औसत तापमान 1.50 सेल्सियस से
4.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इसके विपरित इससे वर्षा और बर्फ गिरने में
बदलाव, अधिक प्रचण्ड अथवा निरन्तर अकाल, बाढ़, तूफान तथा समुद्री सतह का ऊपर
उठना आदि स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। जलवायु- परिवर्तन के हानिकारक प्रभाव क्षेत्र बहुत व्यापक है जैसे हृदय-संबंधी बीमारियाँ मृत्यु-दर, निर्जलन (dehydration), संक्रामक बीमारियों का फैलना, कुपोषण, तथा स्वास्थ्य क्षीण करना। इसीलिए, हमें इस जलवायु-परिवर्त्तन को रोकने के लिए उपयुक्त कदम उठाने चाहिए।
प्रत्यक्ष प्रभाव
मौसम का हमारी सेहत पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि पूरा जलवायु गर्म हो जाए तब स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ेंगी। यह महसूस किया जा रहा है कि गर्म हवाओं के तेज़ होने और उनकी प्रचण्डता से तथा दूसरी मौसमी घटनाओं से मृत्युदर में वृद्धि होगी वृद्ध, बच्चे और वे लोग जो श्वसन और हृदय-संबंधी रोग से पीड़ित हैं, उन पर संभवतः ऐसे मौसम का ज्यादा असर होगा क्योंकि उनमें सहने की क्षमता कम है। तापमान में वृद्धि का असर नगर में रहने वाले लोगों पर गाँव में रहने वालों की अपेक्षा ज्यादा पड़ेगा। यह "ऊष्माद्वीप" के कारण होता है क्योंकि यहाँ कंकड़ और तारकोल से बनी सड़कें हैं। नगरों में अधिक तापमान के कारण ओजोन के धरातलीय स्तर में वृद्धि होगी जिससे वायुप्रदूषण जैसी समस्याएँ बढ़ेंगी।
अप्रत्यक्ष प्रभाव
अप्रत्यक्ष रूप से, मौसम के रूप में परिवर्तन पारिस्थितकी गड़बड़ी पैदा कर सकता है, भोज्य पदार्थों के (खाद्यान्न) उत्पादन स्तर में बदलाव, मलेरिया तथा अन्य संक्रामक बीमारियाँ बीमारियां जलवायु में परिवर्त्तन, खास कर तापमान, वष्टिपात तथा आर्द्रता में उतार-चढ़ाव जैविक अवयवों तथा उन प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं जो संक्रामक बीमारियों के फैलने से जुड़ी हैं।
उच्च तापमान के कारण समुद्री-स्तर ऊपर उठेगा जिससे भूक्षरण (अपरदन) होगा तथा महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र जैसे बरसाती भूमि (wetlands) और प्रवाल-भित्ति को क्षति पहुँचाएगा। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव, प्रचण्ड बाढ़ के कारण मृत्यु और चोट के रूप में आ सकता है। तापमान बढ़ाने का अप्रत्यक्ष नतीजा भूमिगत जलतंत्र में परिवर्तन के रूप में होगा, साथ ही तटीय रेखा, जैसे खारे जल का, भूमिगत जल तथा बरसाती भूमि में जाने से प्रवाल-भित्ति में क्षय तथा निचले प्रदेशों में अपवहन-तंत्र को नुकसान होगा। जलवायु परिवर्तन के कारण वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा जिससे वायुमंडलीय रासायनिक प्रतिक्रिया तेज़ हो जाएगी तथा तापमान बढ़ाने के कारण प्रकाश रासायनिक उपचायक (oxidants) उत्पन्न होंगे।
बीमारियाँ
हरितगृह गैस प्रभाव के कारण ही समतापमंडलीय ओज़ोन परत का क्षय हो रहा है जो सूर्य की हानिकारक किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है। समतापमंडलीय ओज़ोन के क्षय से सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणें बड़ी मात्रा में पृथ्वी पर पहुँचती हैं, जिससे श्वेत वर्ण के लोगों में त्वचा कैंसर जैसी बीमारियाँ होती हैं। इसकी वजह से बहुत-सारे लोग मोतियाबिंद जैसी आँख की बीमारियों से पीड़ित होंगे। ऐसा अनुमान है कि यह प्रतिरक्षक-तंत्र (बीमारियों से रक्षा करने वाले तंत्र) को भी भी समाप्त कर सकता है।
विश्व में गर्मी बढ़ने के कारण उन क्षेत्रों में वृद्धि होगा जहाँ बीमारी फैलाने वाले कीड़े जैसे मच्छर आदि उत्पन्न होंगे जिससे संक्रमण तेज़ी से फैलेगा।
समुद्री-स्तर बढ़ने के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले कुछ संभावित प्रभाव हैं:-
रोकथाम के उपाय
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