Mausam Parivartan Ke Karan मौसम परिवर्तन के कारण

मौसम परिवर्तन के कारण



Pradeep Chawla on 12-05-2019

ऋतु

परिवर्तन क्या

है?















कल्पना

करें कि ग्रीष्मकालीन

अवकाश के दौरान

आप पिकनिक के

लिए जा रहे हैं।

आप यह सोच कर

ही पसीने-पसीने

हो जाते हैं।

और यह भी सोच

कर कि आपके माता-पिता

ने बचपन में

इससे बेहतर और

कुछ नहीं चाहा

होता। सच, पिछले

कुछ दशकों के

दौरान हुआ ऋतु

परिवर्तन वाकई

विस्मयकारी

है।









forest





पृथ्वी

के अस्तित्व

में आने के समय

से ही एक व्यवस्था

रही है। किसी

स्थान का ऋतु

औसत मौसम है

जो एक निश्चित

समय में उसको

प्रभावित करता

है। वर्षा, सूर्य

की किरणें, वायु,

आद्रता एवं तापमान

ऐसे कारक हैं

जो किसी स्थान

की ऋतु को प्रभावित

करते हैं।













मौसम

में परिवर्तन

अचानक हो सकता

है एवं इसका

अनुभव किया जा

सकता है, जबकि

ऋतु परिवर्तन

होने में लंबा

समय लगता है

इसलिए इसे अनुभव

करना अपेक्षाकृत

कठिन है।

पृथ्वी के पूरे

इतिहास के दौरान

ऋतु परिवर्तन

होता रहा है।

हमेशा ही स्पष्ट

रूप से परिभाषित

ग्रीष्म एवं

शीत ऋतु रही

है एवं इस परिवर्तन

के प्रति सभी

जीवन रूपों ने

अपने आप को ढाल

लिया है।













गत 150-200

वर्षों के दौरान

यह परिवर्तन

अधिक तेजी से

हो रहा है एवं

कुछ विशेष प्रजाति

के पौधों एवं

जंतु इसके अनुसार

स्वयं को नहीं

ढाल पाएं हैं।

मानवीय गतिविधियां

परिवर्तन की

इस गति के लिए

जिम्मेदार है

एवं वैज्ञानिकों

के लिए यह चिंता

का एक कारण है।













पृथ्वी

के चारों ओर

का वायुमंडल

मुख्यतः नाइट्रोजन

(78%), ऑक्सीजन (21%) तथा

शेष 1% में सूक्ष्ममात्रिक

गैसों (ऐसा इसलिए

कहा जाता है

क्योंकि ये बिल्कुल

अल्प मात्रा

में उपस्थित

होती हैं) से

मिलकर बना है,

जिनमें ग्रीन

हाउस गैसें कार्बन

डाईऑक्साइड,

मीथेन, ओजोन,

जलवाष्प, तथा

नाइट्रस ऑक्साइड

भी शामिल हैं।

ये ग्रीनहाउस

गैसें आवरण का

काम करती है

एवं इसे सूर्य

की पैराबैंगनी

किरणों से बचाती

हैं। पृथ्वी

की तापमान प्रणाली

के प्राकृतिक

नियंत्रक के

रूप में भी इन्हें

देखा जा सकता

है।



















sink



हम

परवाह क्यों

करें?



यदि विश्व

के सभी देश ग्रीन

हाउस गैसों का

उत्सर्जन कम

नहीं करते तो

21 वीं शताब्दी

के अंत तक निम्नलिखित

संभावित परिदृश्य

हो सकता है:-

















·





जनसंख्या और आर्थिक

वृद्धि के आधार

पर तापमान 1-3.50C

तक बढ़ जाएगा।







·





समुद्र तल 15-90 सें.

मी0 ऊँचा हो जाएगा

जिससे 9 करोड़

लोगों को बाढ़

का भय होगा।







·





वर्षा कम होगी

एवं खाद्य फसलों

में कमी होगी।













तो क्या यह सही

समय नहीं है

कि विश्व समुदाय

इस समस्या की

गंभीरता के प्रति

जागरूक हो?





वर्षों

से, मानवीय गतिविधियों

ने ग्रीन हाउस

गैसों के उत्सर्जन

में वृद्धि की

है, इतना कि प्रकृति

में अपने सामान्य

स्तर से वे कहीं

अधिक हैं। ग्रीनहाउस

गैसों के उत्पादन

में महत्वपूर्ण

कुछ मानवीय गतिविधियाँ

हैं:- औद्योगिक

क्रिया-कलाप,

ऊर्जा संयंत्रों

से उत्सर्जन

एवं परिवहन/वाहन।

ग्रीनहाउस गैसों

की मात्रा में

वृद्धि ने पृथ्वी

का तापमान बढ़ा

दिया है, एक ऐसी

प्रक्रिया जिसे

सामान्यतः भूमंडलीय

तापन (GLOBAL WARMING) कहा

जाता है। कार्बन

डाइआक्साइड

को ग्रहण कर

हमारी मदद करने

वाले पेड़ों

और वनों को काटने

से यह समस्या

और बदतर हो गई

है।













ऋतु

परिवर्तन के

कारण



पृथ्वी

का ऋतु चक्र

गतिशील है एवं

प्राकृतिक रूप

से उसमें एक

चक्र में सतत

परिवर्तन होता

रहता है। विश्व

इस बात से अधिक

चिंतित है कि

आज घटित हो रहे

परिवर्तनों

में मानवीय गतिविधियों

के कारण तेजी

आई है। इन परिवर्तनों

का पूरे विश्व

के वैज्ञानिकों

द्वारा अध्ययन

किया जा रहा

है, जो पेड़ के

चक्रों, पराग

नमूनों, बर्फ

के किनारों एवं

समुद्र की तलहटियों

से साक्ष्य प्राप्त

कर रहे हैं।

ऋतु परिवर्तन

के कारणों को

दो भागों में

बांटा जा सकता

है- एक जो प्राकृतिक

कारण हैं तथा

दूसरे जो मानवीय

कारण हैं।













प्राकृतिक

कारणः



ऋतु

परिवर्तन के

लिए अनेक प्राकृतिक

कारक उत्तरदायी

हैं। उनमें से

कुछ प्रमुख हैं

महाद्वीपीय

अपसरण, ज्वालामुखी,

समुद्री लहरें,

पृथ्वी का झुकाव

एवं धूमकेतु

तथा उल्कापिंड।

आइए इन्हें विस्तार

से जानें।

















§





महाद्वीपीय अपसरण



विश्व

के मानचित्र

पर दक्षिण अमेरिका

एवं अफ्रीका

के संबंध में

आपने कुछ असाधारण

पाया होगा- एक

चित्रखंड पहेली

की तरह क्या

वे एक-दूसरे

में समाहित होते

प्रतीत नहीं

होते?



बीस

करोड़ वर्ष पहले

वे एक-दूसरे

से जुड़े हुए

थे। वैज्ञानिक

मानते हैं कि

उस समय पृथ्वी

वैसी नहीं थी

जैसी कि आज हम

देखते हैं, परंतु

सभी महाद्वीप

एक बड़े भूभाग

के टुकड़े थे।

इस का प्रमाण

पौधों एवं जानवरों

के जीवाश्मों

तथा दक्षिण अमेरिका

की पूर्वी तटरेखा

तथा अफ्रीका

की पश्चिमी तटरेखा

जिन्हें अटलांटिक

महासागर अलग

करता है, से प्राप्त

विशाल शैल पट्टियों

से उपलब्ध होता

है। ऊष्णकटिबन्धीय

पौधों के जीवाश्मों

(कोयले के रूप

में) की खोज से

यह निष्कर्ष

निकलता है कि

भूतकाल में यह

भूमि निश्चित

रूप से भूमध्य

रेखा के निकट

रही होगी जहाँ

का मौसम ऊष्णकटिबन्धीय

था तथा यहाँ

दलदली व पर्याप्त

हरियाली थी।













आज जिन

महाद्वीपों

से हम परिचित

हैं वे करोड़ों

वर्ष पहले तब

बने जब भूभाग

शनैः-शनैः अलग

होने लगे। इस

विखंडन का प्रभाव

मौसम पर भी पड़ा

क्योंकि इसने

भू-भाग की भौतिक

विशेषताओं, उनकी

अवस्थिति एवं

जल निकायों का

स्थान परिवर्तित

कर दिया। भू-भाग

के इस विलगाव

ने समुद्री लहरों

की धार व हवा

में परिवर्तन

किया जिसने मौसम

को प्रभावित

किया। महाद्वीपों

का यह विखंडन

आज भी जारी है;

हिमालय श्रृंखला

1 मि0मी0 प्रत्येक

वर्ष उपर बढ़

रही है क्योंकि

भारतीय भू-भाग

धीरे-धीरे परंतु

लगातार एशियाई

भू-भाग की ओर

बढ़ रहा है।

















§





ज्वालामुखी



जब कोई

ज्वालामुखी

फटता है तो यह

वातावरण में

बहुत अधिक मात्रा

में सल्फर डाइऑक्साइड,

जल वाष्प, धूल

एवं राख फेंकता

है। यद्यपि ज्वालामुखी

की गतिविधि कुछ

दिनों तक ही

रहती है तथापि,

गैस एवं धूल

की वृहद् मात्रा

कई वर्षों तक

मौसम रचना को

प्रभावित कर

सकती है। किसी

प्रमुख विस्फोट

से सल्फर डाइऑक्साइड

गैस लाखों टन

में वायुमंडल

की ऊपरी परत

(समतापमंडल)

में पहुँच सकती

है। गैस एवं

धूल सूर्य से

आने वाली किरणों

को आंशिक रूप

से ढक लेते हैं

जिससे शीतलता

छा जाती है।

सल्फर डाइआक्साइड

जल के साथ मिल

कर सल्फ्यूरिक

एसिड यानी गंधक

के अम्ल के छोटे

कण बनाता है।

यह कण इतने छोटे

होते हैं कि

वर्षों तक ऊँचाई

पर रह सकते हैं।

सूर्य की किरणों

के ये सक्षम

प्रत्यावर्तक

हैं एवं भूमि

को उस ऊर्जा

से वंचित रखते

हैं जो सामान्यतः

सूर्य से प्राप्त

होती। वायुमंडल

की ऊपरी परत,

जिसे समताप मंडल

कहते हैं, की

हवा वायु-विलयों

(Aerosols) को तेजी से

पूर्व या पश्चिम

की दिशा में

ले जाती है।

वायु-विलयों

का उत्तर या

दक्षिण की दिशा

में जाना हमेशा

ही बहुत धीमा

होता है। इससे

आपको उन उपायों

का अंदाजा हो

जाना चाहिए जिसके

द्वारा किसी

प्रमुख ज्वालामुखी

विस्फोट के बाद

शीतलता लाई जा

सकती है।













फिलीपीन्स

द्वीप में स्थित

माउंट पिनाटोबा

में अप्रैल 1991

में विस्फोट

हुआ एवं इससे

वायुमंडल में

हजारों टन गैस

उत्सर्जित हुई।

ऐसे विशाल ज्वालामुखी

विस्फोट पृथ्वी

पर पहुँचने वाली

सौर विकिरणों

को रोक सकते

हैं, वायुमंडल

के निचले स्तर

(क्षोम मंडल)

में तापमान को

कम कर सकते हैं

एवं वायुमंडलीय

संचलन परिवर्तन

कर सकते हैं।

ऐसा किस सीमा

तक हो सकता है,

यह एक जारी रहने

वाला विषय है।













दूसरा

आश्चर्यजनक

घटना 1816 ई0 में हुई

जिसे अक्सर ‘‘ग्रीष्म

ऋतु विहीन’’ वर्ष

कहा जाता है।

न्यू इंग्लैन्ड

एवं पश्चिमी

यूरोप में महत्वपूर्ण

मौसम-संबंधी

विघटनाएं घटी

तथा संयुक्त

राज्य अमेरिका

एवं कनाडा में

जानलेवा शीतलहर

चली। इन अनोखी

घटनाओं का कारण

1815 में इंडोनेशिया

में टम्बोरा

ज्वालामुखी

में विस्फोट

को माना जाता

है।

















§





पृथ्वी का झुकाव



प्रत्येक

वर्ष पृथ्वी

सूर्य के चारों

एक पूरी परिक्रमा

करता है। यह

अपने परिक्रमा

मार्ग पर 23.50

के कोण पर लम्बवत

झुकी हुई है।

वर्ष के आधे

समय जब गर्मी

होती है उत्तरी

भाग सूर्य की

तरफ झुका होता

है। दूसरे आधे

समय जब ठंड होती

है, तो पृथ्वी

सूर्य से दूर

होती है। यदि

झुकाव नहीं होता

तो हमें मौसम

का अनुभव नहीं

होता। पृथ्वी

के झुकाव में

परिवर्तन मौसम

की तीव्रता को

प्रभावित कर

सकता है- अधिक

झुकाव का अर्थ

है अधिक गर्मी

और कम ठंड; कम

झुकाव का अर्थ

है कम गर्मी

और अधिक ठंड।













पृथ्वी

की धुरी कुछ-कुछ

अंडाकार है।

इसका अर्थ हुआ

कि एक वर्ष में

सूर्य और पृथ्वी

की दूरी बदलती

रहती है। हम

सामान्यतः सोचते

हैं कि पृथ्वी

की धुरी निर्धारित

है क्योंकि यह

हमेशा ही पोलैरिस

(जिसे ध्रुव

तारा या नॉर्थ

स्टार भी कहा

जाता है) की तरफ

इंगित करता प्रतीत

होता है। वास्तव

में यह एकदम

स्थिर नहीं हैं.

धुरी भी प्रति

शताब्दी आधे

डिग्री से कुछ

अधिक की गति

से घूमती है

इसलिए पोलैरिस

हमेशा ही उत्तर

की तरफ इंगित

करता हुआ न तो

रहा है और न ही

रहेगा। जब 2500 ई0पू0

वर्ष पहले, पिरामिड

का निर्माण हुआ

था, तो थुबन तारा

(अल्फा ड्रैकोनिस)

के निकट ध्रुव

था। पृथ्वी की

धुरी की दिशा

में यह धीमा

परिवर्तन, जिसे

विषुवतीय अयन

भी कहा जाता

है, ऋतु परिवर्तन

के लिए उत्तरदायी

है।

















§





समुद्री लहरें



ऋतु

व्यवस्था का

एक प्रमुख घटक

समुद्री लहरें

हैं। पृथ्वी

के 71% भाग में ये

फैले हुए हैं

एवं वायुमंडल

या भूमि से दोगुना

सौर विकिरणों

को अवशोषित करते

हैं। समुद्री

लहरें ताप की

एक बड़ी मात्रा

को ग्रह के अन्य

भागों में फैलाते

हैं- यह मात्रा

वायुमंडल के

लगभग बराबर है।

लेकिन समुद्र

भू-भाग से घिरे

हुए हैं, अतः

जल द्वारा ताप

का संचरन मार्गों

से होता है।













वायु

समुद्र तल के

क्षैतिज स्तर

पर बहती है एवं

समुद्री लहरें

बनाती है। विश्व

के कुछ भाग अन्य

भागों की अपेक्षा

समुद्री लहरों

से अधिक प्रभावित

होते हैं। पेरू

का तट एवं अन्य

निकटवर्ती क्षेत्र

हम्बोल्ट लहरों

से प्रभावित

है जो पेरू के

तट के किनारे

बहती है। प्रशान्त

महासागर में

अब नीनो की घटना

दुनिया भर की

मौसमी परिस्थितियों

को प्रभावित

कर सकती है।













उत्तरी

अटलांटिक ऐसा

दूसरा क्षेत्र

है जो समुद्री

लहरों से बहुत

प्रभावित है।

यदि हम उसी अक्षांश

पर स्थित यूरोप

एवं उत्तरी अमेरिका

के स्थानों की

तुलना करें तो

प्रभाव तत्काल

स्पष्ट हो जाएगा।

इस उदाहरण पर

गौर करें- तटीय

नॉर्वे के कुछ

भागों का जनवरी

में औसत तापमान-

20C व जुलाई में

400C है; जबकि

इसी अक्षांश

पर अलास्का के

प्रशांत तट का

स्थान अत्यंत

ठंडा है- 150C जनवरी

में एवं केवल

100C जुलाई में।

नॉर्वे के तटों

पर बहने वाली

गर्म लहरें ठंड

में भी ग्रीनलैंड

नॉर्वे के समुद्र

में बर्फ जमने

नहीं देती। आर्कटिक

महासागर का शेष

भाग दक्षिण से

सुदूर होते हुए

भी जमा रहता

है।













समुद्री

लहरें या तो

अपना मार्ग बदल

लेती हैं या

धीमी पड़ जाती

हैं। समुद्र

से निकलने वाली

उष्मा का एक

बड़ा भाग जल

वाष्प के रूप

में होता है

जो कि पृथ्वी

पर प्रचुरता

में पाया जाने

वाला ग्रीनहाउस

गैस है। तथापि

जल वाष्प बादल

बनाने में भी

मदद करते हैं

जो स्थल को ढक

कर शीतल प्रभाव

देते हैं।













इनमें

सभी या किसी

एक घटना का प्रभाव

ऋतु पर पड़ सकता

है जैसा कि 14,000

वर्ष पहले प्रथम

हिम युग की समाप्ति

पर हुआ माना

जाता है।













मानवीय

कारण



19वीं

शताब्दी में

औद्योगिक क्रांति

के दौरान औद्योगिक

क्रिया-कलापों

के लिए बड़े

पैमाने पर जीवाश्म

ईंधन का प्रयोग

देखने में आया।

इन उद्योगों

से रोजगार सृजन

हुआ एवं लोगों

ने ग्रामीण क्षेत्रों

से शहरों की

ओर प्रस्थान

किया। यह परम्परा

आज भी चल रही

है। पेड़-पौधों

से भरी अधिक-से-अधिक

भूमि को भवन

निर्माण के लिए

साफ किया गया।

प्राकृतिक संसाधनों

का विस्तीर्ण

उपयोग निर्माण,

उद्योगों, परिवहन

एवं उपभोग के

लिए किया जा

रहा है। उपभोक्तावाद

(भौतिक वस्तुओं

की हमारी तृष्णा)

में तीव्रतर

वृद्धि हुई है

जिससे कूड़ा-करकट

का अंबार लग

गया है। साथ

ही हमारी जनसंख्या

अविश्वसनीय

सीमा तक बढ़

गई है।













इन सब

से वायुमंडल

में ग्रीनहाउस

गैसों की वृद्धि

हुई है। वाहनों

को चलाने, उद्योगों

के लिए विद्युत

उत्पन्न करने

के लिए, घर इत्यादि

के लिए जीवाश्म

ईंधन जैसे तेल,

कोयला एवं प्राकृतिक

गैसों से अधिकांश

ऊर्जा की पूर्ति

होती है। ऊर्जा

क्षेत्र ¾ भाग

कार्बन डाइआक्साइड,

1/5 भाग मिथेन एवं

नाइट्रस आक्साइड

की बड़ी मात्रा

में उत्सर्जन

के लिए उत्तरदायी

है। यह नाइट्रोजन

आक्साइड (NOx) एवं

कार्बन मोनोक्साइड

(CO) भी उत्पन्न

करता है जो यद्यपि

ग्रीनहाउस गैसें

नहीं है परंतु

इनका वायुमंडल

के रसायन चक्र

पर असर पड़ता

है जो ग्रीनहाउस

गैसें नष्ट करती

हैं।













ग्रीनहाउस

गैसें एवं उनका

स्रोत



कार्बन

डाइआक्साइड

निश्चित तौर

पर वायुमंडल

में सबसे महत्वपूर्ण

ग्रीनहाउस गैस

है। भू-उपयोग

पद्धति, वनों

का नाश, भूमि

साफ करने, कृषि

इत्याति जैसी

गतिविधियों

ने कार्बन डाइआक्साइड

के उत्सर्जन

की वृद्धि में

योगदान किया

है।













वायुमंडल

में दूसरी महत्वपूर्ण

गैस मीथेन है।

माना जाता है

कि मीथेन उत्सर्जन

का एक-चौथाई

भाग पालतू पशुओं

जैसे डेरी गाय,

बकरियों, सुअरों,

भैसों, ऊँटों,

घोड़ों एवं भेड़ों

से होता है।

ये पशु चारे

की जुगाली करने

के दौरान मीथेन

उत्पन्न करते

हैं। मीथेन का

उत्पादन चावल

और धान के खेतों

से भी होता है

जब वे बोने और

पकने के दौरान

बाढ़ में डूबे

होते हैं। जमीन

जब पानी में

डूबी होती है

तो ऑक्सीजन-रहित

हो जाती है।

ऐसी परिस्थितियों

में मीथेन उत्पन्न

करने वाले बैक्टीरिया

एवं अन्य जंतु

जैव सामग्री

को नष्ट कर मीथेन

उत्पन्न करते

हैं। संसार में

धान उत्पन्न

करने वाले क्षेत्र

का 90% भाग एशिया

में पाया जाता

है, चूंकि चावल

यहाँ मुख्य फसल

है। संसार में

धान उत्पन्न

करने वाले क्षेत्र

का 80-90% भाग चीन

एवं भारत में

है।













भूमि

को भरने तथा

कूड़े-करकट के

ढ़ेर से भी मीथेन

उत्सर्जित होता

है। यदि कूड़े

को भट्टी में

रखा जाता है

अथवा खुले में

जलाया जाता है

तो कार्बन डाइआक्साइड

उत्सर्जित होती

है। तेल शोधन,

कोयला खदान एवं

गैस पाइपलाइन

से रिसाव (दुर्घटना

एवं घटिया रख-रखाव)

से भी मीथेन

उत्सर्जित होती

है।













उर्वरकों

के उपयोग को

नाइट्रस आक्साइड

के विशाल मात्रा

में उत्सर्जन

का कारण माना

गया है। यह इस

बात पर भी निर्भर

करता है कि किस

प्रकार के उर्वरक

का उपयोग किया

किया है, कब और

किस प्रकार उपयोग

किया गया है

तथा उस के बाद

खेती की कौन

सी पद्धति अपनाई

गई है। लेग्युमिनस

पौधों जैसे बीन्स

एवं दलहन, जो

मिट्टी में नाइट्रोजन

की मात्रा को

बढ़ाते हैं,

भी इसके लिये

जिम्मेवार हैं।













हम सब

प्रति दिन कैसे

योगदान करते

हैं



दैनिक

जीवन में हम

में से प्रत्येक

का हाथ ऋतु के

इस परिवर्तन

में है। इन बिन्दुओं

पर गंभीरतापूर्वक

विचार करें:













- शहरी

क्षेत्रों में

ऊर्जा का प्रमुख

स्रोत विद्युत

है। हमारी सभी

घरेलू मशीनें

विद्युत से चलती

हैं जो ताप विद्युत

संयंत्रों से

उत्पन्न होती

है। ये ताप विद्युत

संयंत्र जीवाश्म

ईंधन (मुख्यतः

कोयला) से चलते

हैं एवं बड़ी

मात्रा में ग्रीन

हाउस गैसें एवं

अन्य प्रदूषकों

के उत्सर्जन

के लिए जिम्मेदार

है।



- कार,

बसें एवं ट्रक

वे प्रमुख साधन

हैं जिनके द्वारा

अधिकांश शहरों

में लोग यातायात

करते हैं। ये

मुख्यतः पेट्रोल

अथवा डीजल, जो

जीवाश्म ईंधन

हैं, पर कार्य

करते हैं।



- हम

प्लास्टिक के

रूप में बहुत

बड़ी मात्रा

में कूड़ा उत्पन्न

करते हैं जो

वर्षों तक वातावरण

में विद्यमान

रहता है एवं

नुकसान पहुँचाता

है।



- हम

विद्यालय एवं

कार्यालय में

कार्य के दौरान

बहुत बड़ी मात्रा

में कागज का

उपयोग करते हैं।

क्या कभी हमने

यह सोचा है कि

एक दिन में हम

कितने पेड़ों

का उपयोग करते

हैं?



- भवनों

के निर्माण में

बड़ी मात्रा

में लकड़ी का

उपयोग किया जाता

है। इसका मतलब

है कि वन के विशाल

भू-भाग की कटाई।



- बढ़ती

जनसंख्या का

मतलब है अधिक-से-अधिक

लोगों के लिए

भोजन की व्यवस्था।

चूंकि कृषि के

लिए बहुत सीमित

भू-भाग है (वास्तव

में, पारिस्थिकी

विनाश के कारण

यह संकुचित होती

जा रही है) अतः

किसी एक भू-भाग

से अपेक्षाकृत

अधिक उपजाऊं

फसलों किस्में

उगाई जा रही

हैं। तथापि,

फसलों की ऐसी

उच्च उपज वाली

नस्लों के लिए

विशाल मात्रा

में उर्वरक की

आवश्यकता होती

है, अधिक उर्वरक

उपयोग का अर्थ

है नाइट्रस आक्साइड

का अधिक उत्सर्जन

जो खेत, जहाँ

इसे डाला जाता

है, व उत्पादन

स्थल, दोनों

ही स्थानों से

होता है। उर्वरकों

के जल निकायों

में मिश्रण से

भी प्रदूषण होता

है।













ऋतु परिवर्तन

के प्रभाव









 मौसम परिवर्तन के कारण



ऋतु परिवर्तन

मानव के लिए

खतरा है। 19वीं

शताब्दी के अंत

के बाद से पृथ्वी

का औसत 0.3-0.60C तक

बढ़ गया है।

पिछले 40 वर्षों

के दौरान, यह

वृद्धि 0.2-0.30C रही

है।



1860 के बाद

से, जब से नियमित

सहायक अभिलेख

उपलब्ध है, हाल

के कुछ वर्ष

बहुत गर्म रहे

हैं। 1995 में, 2000 अग्रणी

वैज्ञानिकों

का एक समूह IPCC (ऋतु

परिवर्तन पर

अंतःशासकीय

पैनल) एकत्र

हुए और वे इस

निष्कर्ष पर

पहुँचे कि भूमंडलीय

तापन वास्तविक

है, गंभीर है

एवं यह तेजी

से बढ़ रहा है।

उन्होंने यह

अनुमान लगाया

कि अगले 100 वर्षों

के दौरान पृथ्वी

का औसत तापमान

1.4-5.80C तक और बढ़

सकता है। घोषित

चेतावनी का महत्व

नगण्य प्रतीत

हो सकता है लेकिन

पिछले 10,000 साल के

दौरान देखी गई

किसी भी अन्य

से इसकी दर कहीं

अधिक है। मौसम

प्रणाली में

परिवर्तनों

से हमारे जीवन

के कुछ महत्वपूर्ण

पहलू भी प्रभावित

हो सकते हैं

एवं उनमें से

कुछ पर यहाँ

चर्चा की गई

है।













कृषि



धीरे-धीरे

बढ़ रही जनसंख्या

ने खाद्यान्न

की अधिक माँग

को जन्म दिया

है। भूमि को



कृषि-योग्य

बनाने के साथ

ही प्राकृतिक

पारिस्थितिक

तंत्र पर दवाब

बढ़ेगा। प्रत्यक्षतः



तापमान

एवं वर्षा में

परिवर्तन तथा

अप्रत्यक्षतः

मिट्टी की गुणवत्ता,

कीटों एवं बीमारियों



के कारण कृषि

की उपज प्रभावित

होगी। विशेष

रूप से, भारत,

अफ्रीका एवं

मध्य-पूर्व में



अनाज के उत्पादन

में कमी संभावित

है। तापमान बढ़ने

के साथ परिस्थितियां

कीटों



विशेष रूप

से टिड्डों के

लिए सहज हो जाएंगी

और वे कई प्रजनन

चक्र पूरा कर

अपनी



जनसंख्या

बढ़ा सकेंगे।

ऊँचे अक्षांशों

में (उत्तरी

देशों में) तापमान

के बढ़ने से

कृषि को



लाभ होगा क्योंकि

शीत ऋतु छोटी

होगी एवं शरद

ऋतु लंबी होगी।

इसका यह भी



मतलब है कि

तापमान में वृद्धि

के साथ कीट उच्चतर

अक्षांशों की

तरफ बढ़ेंगे।













चरम मौसम परिस्थितियां

जैसे उच्च तापमान,

भारी वर्षा,

बाढ़ सूखा इत्यादि

भी फसल



उत्पादन को

प्रभावित करेंगे।













मौसम



गर्म मौसम

से वर्षा एवं

हिमपात में परिवर्तन,

सूखा एवं बाढ़

में वृद्धि,

हिमानी एवं ध्रुवीय



हिम

पट्टियों का

पिघलना एवं समुद्र-तल

के उठने में

तेजी से वृद्धि

आयेगी। गर्मी

में वृद्धि से

स्थलीय जल के

वाष्पीकरण स्तर

में बढ़ोतरी

होगी, वायु में

विस्तार के कारण

नमी धारण करने

की इसकी क्षमता

में वृद्धि होगी।

बदले में इससे

जल संसाधन, वन

एवं अन्य पारिस्थितिक

तंत्र, कृषि,

उर्जा उत्पादन,

आधारभूत संरचना,

पर्यटन, एवं

मानव स्वास्थ्य

प्रभावित होगा।

पिछले कुछ वर्षों

के दौरान अंधड़

एवं चक्रवात

की संख्या में

वृद्धि का कारण

तापमान में परिवर्तन

माना जा रहा

है।













समुद्र स्तर

में वृद्धि



तटीय क्षेत्र

एवं छोट द्वीप

दुनिया के सबसे

घनी आबादी वाले

क्षेत्रों में

से है। भूमंडलीय



तापन के कारण

समुद्र स्तर

में वृद्धि से

सबसे अधिक खतरा

भी उन्हें ही

है। समुद्रों

के



गर्म होने

तथा ध्रुवीय

हिम पट्टियों

के पिघलने के

कारण अगली शताब्दी

तक समुद्र का



औसत स्तर आधा

मीटर तक बढ़ने

का अनुमान है।

समुद्र स्तर

में वृद्धि का

तटीय क्षेत्रों



पर अनेक प्रभाव

पड़ सकते है

जिसमें आप्लावन

एवं अपरदन, बाढ़

में वृद्धि एवं



खारे पानी

के प्रवेश के

कारण भूमि का

नाश शामिल है।

यह सब तटीय खेती,

पर्यटन,



अलवणीय जल

संसाधन, मत्स्यपालन,

मानव स्थापना

एवं स्वास्थ्य

को विपरीततः



प्रभावित

कर सकता है।

समुद्रों के

बढ़ते स्तर से

नीचे स्थित अनेक

द्वीप राष्ट्रों

जैसे



मालदीव एवं

मार्शल द्वीप

के अस्तित्व

को खतरा है।













वर्षा एवं

हिमपात के कारण

बहुत सी नदियों

में जल की उपलब्धता

की बहुत कमी

हो



सकती है। कुछ

में हिमानियों

के पिघलने के

कारण मात्रा

बढ़ सकती है

जैसे, हिमालय



से निकलने

वाली नदियां।

जल उपलब्धता

में परिवर्तन

जल-विद्युत उत्पादन

एवं कागज,



औषधि एवं रसायन

उत्पादन जैसे

उद्योग को प्रभावित

कर सकता है जिनमें

अधिक मात्रा



में जल का उपयोग

होता है। भवन

एवं अन्य आधारभूत

संरचना आंधी

एवं अन्य तीव्र



घटनाओं

के कारण असुरक्षित

हो जायेगें जिसके

कारण परिवहन

मार्ग भी अस्त-व्यस्त

हो सकते है।













स्वास्थ्य



भूमंडलीय

तापन मानव स्वास्थ्य

को भी प्रत्यक्ष

रूप से प्रभावित

करेगा, जैसे-

ताप-जनित तनाव

की घटनाओं को

बढ़ाकर।













वन एवं वन्य

जीवन



पारिस्थितिक

तंत्र पृथ्वी

पर जीवों एवं

जैविक विविधता

के समग्र भंडारघर

का पोषण



करता है। प्राकृतिक

माहौल में पौधे

एवं पशु मौसम

में परिवर्तन

बहुत संवेदनशील

होते हैं।



इस परिवर्तन

से सबसे अधिक

प्रभावित उच्च

अक्षांश पर स्थित

टुंड्रा वन का



पारिस्थितिक

तंत्र है। महाद्वीपों

का आंतरिक भाग

तटीय क्षेत्रों

से अधिक गर्मी

का अनुभव



करेगा।













नेशनल

पार्क का उद्देश्य

वन्य जीवों को

मानव जाति द्वारा

प्रकृति के विनाशकारी

कार्य से सुरक्षा

प्रदान करना

है। लेकिन कोई

भी पार्क या

संरक्षण नियम

पारिस्थिक तंत्र

को ऋतु परिवर्तन

से बचा नहीं

सकता है। डब्ल्यू0डब्यलू0एफ0

द्वारा हाल में

प्रकाशित रिपोर्ट

में यह उल्लेख

किया गया है

कि इस अदृश्य

हत्यारे ने सबसे

अधिक हरियाली

वाले प्राकृतिक

क्षेत्रों को

भी अपने प्रकोप

में ले लिया

है। वोलोंग,

चीन के विशाल

पांडा, अमेरिका

के यलोस्टोन

नेशनल पार्क

के भालू एवं

भारत के कान्हा

नेशनल पार्क

के बाघ ऐसे कुछ

जीव हैं जिन्हें

भूमंडलीय तापन

से खतरा है।

पर्वत की चोटियों

को ऋतु परिवर्तन

के कारण वातावरण

में विनाश के

कारण विशेष रूप

से खतरा है।

उंचे स्थानों

पर रहने वाली

प्रजातियों

को अपने निवास

स्थान की तलाश

में और अधिक

उंचे स्थान की

ओर प्रवजन करना

पड़ा है जिससे

उनके लिए स्थान

में कमी आई है।

यदि ऋतु परिवर्तन

की गति तेज रही

तो कुछ पर्वतीय

पौधों एवं पशुओं

का विलोप होना

तय है।













प्रव्रजनकारी

पक्षी विश्व

के ठंडे उत्तरी

भाग से गर्म

दक्षिणी भाग

की ओर जाते हैं।

मार्ग में मौसम

एवं भोजन ऐसे

कुछ कारक है

जो उनकी यात्रा

के सफल समापन

के लिए अत्यंत

महत्वपूर्ण

है। ऋतु परिवर्तन

उनके भोजन स्थानों

एवं उनकी उड़ान

पद्धतियों में

परिवर्तन ला

सकता है।













समुद्रीय

जीवन



प्रवाल

को समुद्र का

ऊष्णकटिबंधीय

वन कहा जाता

है एवं यह विविध

जीवन रूपों को

पोषण प्रदान

करते हैं। आयन

सीमा में जल

के गर्म होने

के साथ प्रवाल

पट्टियों को

नुकसान में वृद्धि

होती जा रही

है। जल के तापमान

में परिवर्तन,

जिससे विरंजन

होता है, के प्रति

ये प्रवाल बहुत

संवेदी होते

हैं। विरंजन

के कारण ही ऑस्ट्रेलिया

के ग्रेट बैरियर

रीफ की विशाल

पट्टियों को

नुकसान पहुंचा

है।













समुद्र

के सतह पर तैरने

वाले प्राणीमंडप्लावक

(ज़ोप्लैंकटन्स)

की संख्या में

कमी हो रही है

जिससे इन जंतुओं

पर भोजन के लिए

निर्भर रहने

वाले मछलियों

और पक्षिओं की

संख्या में कमी

हो रही है।













अपने

वातावरण तथा

हमारे कार्य

किस प्रकार इसे

परिवर्तित करेंगे

के बारे में

अभी भी बहुत

कुछ ऐसा है जो

हम नहीं जानते

हैं। लेकिन एक

तथ्य तो स्पष्ट

रूप से कहा जा

सकता हैः- यदि

हम इन प्रश्नों

का उत्तर ढूंढ़ने

में समय नष्ट

करेंगे तो शायद

बहुत देर हो

चुकी होगी।













समाधान



ऋतु

परिवर्तन से

गंभीर समस्याएं

उत्पन्न होंगी

जिनका समाधान

सभी देशों को

मिल कर करना

होगा। वर्षों

से, पर्यावरण

समस्याओं पर

चर्चाओं के लिए

अनेक सम्मेलन

आयोजित किए गए

हैं एवं अनेक

समझौतों पर हस्ताक्षर

किए गए हैं।

इस प्रक्रिया

की शुरूआत 1972 में

स्टाकहोम सम्मेलन

से हुई लेकिन

ऋतु परिवर्तन

पर वार्तालाप

का आरंभ 1990 में

हुआ। इन वार्तालापों

का परिणाम 1972 में

ऋतु परिवर्तन

पर संयुक्त राष्ट्र

प्राधार प्रतिज्ञा

(United Nations Framework Convention on Climate Change) को

अंगीकार करने

के रूप में हुआ।













चूँकि

मानवीय क्रिया-कलापों

का जलवायु पर

काफी गहरा प्रभाव

पड़ता है, अतः

काफी समाधान

हमारे अपने हाथों

में है। हम जीवाश्म

इंधन के उपयोग

में कटौती कर

सकते हैं, उपभोक्तावाद

को कम कर सकते

हैं, वन-विनाश

को रोक सकते

हैं एवं पर्यावरणभिमुख

कृषि उपायों

के उपयोग को

बढ़ा सकते हैं।













ऊर्जा

क्षेत्र में,

उत्सर्जन कम

किया जा सकता

है, यदि ऊर्जा

की मांग कम की

जाए और यदि हम

उर्जा के ऐसे

परिष्कृत स्रोत

अपनाएं जिनसे

कार्बन डाइआक्साइड

का उत्सर्जन

नहीं होता। इनमें

सौर, वायु, भूताप

एवं अणु उर्जा

शामिल है।













अनेक

देशों ने कोयले

का उपयोग बंद

कर दिया है एवं

उर्जा के परिष्कृत

रूप को अपनाया

है। ऊर्जा दक्षता

एवं वैकल्पिक

ऊर्जा स्रोतों

के विकास में

जापान विश्व

में अग्रणी है।













उच्च

तकनीकों एवं

ईंधन पर चलने

वाले वाहनों

का परीक्षण किया

जा रहा है एवं

परिवहन क्षेत्र

में कड़े उत्सर्जन

नियम अपनाए जा

रहे हैं। कुछ

देशों ने उद्योगों

पर जुर्माना

लगाना आरंभ कर

दिया है यानि

प्रदूषणकारी

उद्योगों को

वहां की जनता

को जुर्माना

देना पड़ता है।













विश्व

भर में सरकारों

को यह सुनिश्चित

करना चाहिए कि

वन क्षेत्र बरकरार

रहे क्योंकि

पौधे अपने विकास

के लिए कार्बन

डाइआक्साइड

का उपयोग करते

हैं एवं इस प्रकार

इसे वातावरण

से हटाने में

मदद करते हैं।

इसीलिए वनों

को कार्बन डाइआक्साइड

की ‘नली’ कहा जाता

है। यदि वनों

की कटाई की जाती

है तो अविलंब

पौधे लगाए जाने

चाहिए। बरसाती

जमीन एक अन्य

पारिस्थिक तंत्र

है जो पारिस्थतिक

संतुलन बनाए

रखने में अपनी

महत्वपूर्ण

भूमिका द्वारा

पर्यावरण को

स्थिर बनाए रखती

है। इन क्षेत्रों

के संरक्षण को

सर्वोच्च प्राथमिकता

दी जानी चाहिए।













जैव-तकनीकी

का उपयोग फसलों

की जलीय आवश्यकता

को कम करने, फसल

उत्पादन बढ़ाने

एवं उर्वरकों

एवं कीटनाशकों

का प्रयोग कम

करने के लिए

किया जा सकता

है। प्रयोगशालाओं

में धान की ऐसी

विशेष किस्मों

का विकास किया

जा रहा है जो

कम जल में भी

विकास कर सकती

है एवं जिसके

कारण मिथेन का

कम उत्सर्जन

होता है।



















 मौसम परिवर्तन के कारण



ग्रीनहाउस

प्रभाव



पृथ्वी

सूर्य से ऊर्जा

प्राप्त करती

है जो पृथ्वी

के धरातल को

गर्म करता है।

चूंकि यह ऊर्जा

वायुमंडल से

होकर गुजरती

है, इसका एक निश्चित

प्रतिशत (लगभग

30) तितर-बितर हो

जाता है। इस

ऊर्जा का कुछ

भाग पृथ्वी एवं

सूर्य की सतह

से वापस वायुमंडल

में परावर्तित

हो जाता है।

पृथ्वी को ऊष्मा

प्रदान करने

के लिए शेष (70%) ही

बचता है। संतुलन

बनाए रखने के

लिए यह आवश्यक

है कि पृथ्वी

ग्रहण किये गये

ऊर्जा की कुछ

मात्रा को वापस

वायुमंडल में

लौटा दे। चूँकि

पृथ्वी सूर्य

की अपेक्षा काफी

शीतल है, यह दृष्टव्य

प्रकाश के रूप

में ऊर्जा उत्सर्जित

नहीं करती है।

यह अवरक्त किरणों

अथवा ताप विकिरणों

के माध्यम से

उत्सर्जित करती

है। तथापि, वायुमंडल

में विद्यमान

कुछ गैसें पृथ्वी

के चारों ओर

एक आवरण-जैसा

बना लेती हैं

एवं वायुमंडल

में वापस परावर्तित

कुछ गैसों को

अवशोषित कर लेते

हैं। इस आवरण

से रहित होने

पर पृथ्वी सामान्य

से 300C और अधिक

ठंडी होती। जल

वाष्प सहित कार्बन

डाइआक्साइड,

मिथेन एवं नाइट्रस

ऑक्साइड जैसी

इन गैसों का

वातावरण में

कुल भाग एक प्रतिशत

है। इन्हें ‘ग्रीनहाउस

गैस’ कहा जाता

है क्योंकि इनका

कार्य सिद्धांत

ग्रीनहाउस जैसा

ही है। जैसे

ग्रीनहाउस का

शीशा प्राचुर्य

उर्जा के विकिरण

को रोकता है,

ठीक उसी प्रकार

यह ‘गैस आवरण’

उत्सर्जित कुछ

उर्जा को अवशोषित

कर लेता है एवं

तापमान स्तर

को अक्षुण्ण

बनाए रखता है।

एक फ्रेंच वैज्ञानिक

जॉन-बाप्टस्ट

फोरियर द्वारा

इस प्रभाव का

सबसे पहले पता

लगाया गया था

जिसने वातावरण

एवं ग्रीनहाउस

की प्रक्रियाओं

में समानता को

साबित किया और

इसलिए इसका नाम

‘ग्रीनहाउस प्रभाव’

पड़ा।













पृथ्वी

की उत्पति के

समय से ही यह

गैस आवरण अपने

स्थान पर स्थित

है। औद्योगिक

क्रांति के उपरांत

मनुष्य अपने

क्रिया-कलापों

से वातावरण में

अधिक-से-अधिक

ग्रीनहाउस गैसों

का उत्सर्जन

कर रहा है। इससे

आवरण मोटा हो

जाता है एवं

‘प्राकृतिक ग्रीनहाउस

प्रभाव’ को प्रभावित

करता है। ग्रीनहाउस

गैसें बनाने

वाले क्रिया-कलापों

को ‘स्रोत’ कहा

जाता है एवं

जो इन्हें हटाते

हैं उन्हें ‘नाली’

कहा जाता है।

‘स्रोत’ एवं ‘नाली’

के मध्य संतुलन

इन ग्रीनहाउस

गैसों के स्तर

को बनाए रखता

है।













मानवजाति

इस संतुलन को

बिगाड़ती है,

जब प्राकृतिक

नालियों से हस्तक्षेप

करने वाले उपाय

अपनाए जाते हैं।

कोयला, तेल एवं

प्राकृतिक गैस

जैसे इंधनों

को जब हम जलाते

हैं तो कार्बन

वातावरण में

चला जाता है।

बढ़ती हुई कृषि

गतिविधियां,

भूमि-उपयोग में

परिवर्तन एवं

अन्य स्रोतों

से मिथेन एवं

नाइट्रस आक्साइड

का स्तर बढ़ता

है। औद्योगिक

प्रक्रियाएं

भी कृत्रिम एवं

नई ग्रीनहाउस

गैसें जैसे सी0एफ0सी0

(क्लोरोफ्लोरोकार्बन)

उत्सर्जित करती

है जबकि यातायात

वाहनों से निकलने

वाले धुंए से

ओजोन का निर्माण

होता है। इसके

परिणामस्वरूप

ग्रीनहाउस प्रभाव

को साधारणतः

भूमंडलीय तापन

अथवा ऋतु परिवर्तन

कहा जाता है।









 मौसम परिवर्तन के कारण











 मौसम परिवर्तन के कारण



ग्रीनहाउस

प्रभाव पर अधिक

जानकारी के लिए

लिंकः







·





www.science.gmu.edu/~zli/ghe.html







·





www.fe.doe.gov/issues/climatechange/globalclimate_whatis.html













एल नीनो



ऊष्ण

कटिबंधीय प्रशांत

में समुद्र तापमान

और वायुमंडलीय

परिस्थितियों

में आये बदलाव

को एल नीनो कहा

जाता है जो पूरे

विश्व के मौसम

को अस्त-व्यस्त

कर देता है।

यह बार-बार घटित

होने वाली मौसमी

घटना है जो प्रमुख

रूप से दक्षिण

अमेरिका के प्रशान्त

तट को प्रभावित

करता है परंतु

इस का समूचे

विश्व के मौसम

पर नाटकीय प्रभाव

पड़ता है।













‘एल-नीन्यो’

के रूप में उच्चरित

इस शब्द का स्पैनिश

भाषा में अर्थ

होता है ‘बालक’

एवं इसे ऐसा

नाम पेरू के

मछुआरों द्वारा

बाल ईसा के नाम

पर किया गया

है क्योंकि ईसका

प्रभाव सामान्यतः

क्रिसमस के आस-पास

अनुभव किया जाता

है। इसमें प्रशांत

महासागर का जल

आवधिक रूप से

गर्म होता है

जिसका परिणाम

मौसम की अत्यंतता

के रूप में होता

है। एल नीनो

का सटीक कारण,

तीव्रता एवं

अवधि की सही-सही

जानकारी नहीं

है। गर्म एल

नीनो की अवस्था

सामान्यतः लगभग

8-10 महीनों तक बनी

रहती है।













सामान्यतः,

व्यापारिक हवाएं

गर्म सतही जल

को दक्षिण अमेरिकी

तट से दूर ऑस्ट्रेलिया

एवं फिलीपींस

की ओर धकेलते

हुए प्रशांत

महासागर के किनारे-किनारे

पश्चिम की ओर

बहती है। पेरू

के तट के पास

जल ठंडा होता

है एवं पोषक-तत्वों

से समृद्ध होता

है जो कि प्राथमिक

उत्पादकों, विविध

समुद्री पारिस्थिक

तंत्रों एवं

प्रमुख मछलियों

को जीवन प्रदान

करता है। एल

नीनो के दौरान,

व्यापारिक पवनें

मध्य एवं पश्चिमी

प्रशांत महासागर

में शांत होती

है। इससे गर्म

जल को सतह पर

जमा होने में

मदद मिलती है

जिसके कारण ठंडे

जल के जमाव के

कारण पैदा हुए

पोषक तत्वों

को नीचे खिसकना

पड़ता है और

प्लवक जीवों

एवं अन्य जलीय

जीवों जैसे मछलियों

का नाश होता

है तथा अनेक

समुद्री पक्षियों

को भोजन की कमी

होती है। इसे

एल नीनो प्रभाव

कहा जाता है

जोकि विश्वव्यापी

मौसम पद्धतियों

के विनाशकारी

व्यवधानों के

लिए जिम्मेदार

है।













अनेक

विनाशों का कारण

एल नीनो माना

गया है, जैसे

इंडोनेशिया

में 1983 में पड़ा

अकाल, सूखे के

कारण ऑस्ट्रेलिया

के जंगलों में

लगी आग, कैलिफोर्निया

में भारी बारिश

एवं पेरू के

तट पर एंकोवी

मत्स्य क्षेत्र

का विनाश। ऐसा

माना जाता है

कि 1982/83 के दौरान

इसके कारण समूचे

विश्व में 2000 व्यक्तियों

की मौत हुई एवं

12 अरब डॉलर की

हानि हुई।













1997/98 में

इस का प्रभाव

बहुत नुकसानदायी

था। अमेरिका

में बाढ़ से

तबाही हुई, चीन

में आंधी से

नुकसान हुआ,

ऑस्ट्रिया सूखे

से झुलस गया

एवं जंगली आग

ने दक्षिण-पूर्व

एशिया एवं ब्राजील

के आंशिक भागों

को जला डाला।

इंडोनेशिया

में पिछले 50 वर्षों

में सबसे कठिन

सूखे की स्थिति

देखने में आई

एवं मैक्सिको

में 1881 के बाद पहली

बार गौडालाजारा

में बर्फबारी

हुई। हिन्द महासागर

में मॉनसूनी

पवनों का चक्र

इससे प्रभावित

हुआ।













जब प्रशांत

महासागर में

दबाव की उपस्थिति

अत्यधिक हो जाती

है तब यह हिन्द

महासागर में

अफ्रीका से ऑस्ट्रेलिया

की ओर कम होने

लगता है। यह

प्रथम घटना थी

जिससे यह पता

चला कि ऊष्णकटिबंधी

प्रशांत क्षेत्र

के अन्दर तथा

इसके बाहर आये

परिवर्त्तन

एक पृथक घटना

नहीं बल्कि एक

बहुत बड़े प्रदोलन

के भाग के रूप

में घटित हुए

हैं।













ला नीनो



यह घटना

सामान्यतः एल

नीनो के बाद

होती है। ला

नीनो को कभी-कभी

एल वीयो, छोटी

बच्ची, अल नीनो-विरोधी

अथवा केवल ‘एक

ठंडी घटना’ अथवा

एक ‘ठंडा प्रसंग’

कहा जाता है।

ला नीनो (ला नी

न्या के रूप

में उच्चरित)

प्रशांत महासागर

का ठंडा होना

है।













एल नीनो

की तुलना में,

जोकि विषुवतीय

प्रशांत में

गर्म समुद्री

तापमान से युक्त

होता है, यह विषुवतीय

प्रशांत में

ठंडे समुद्री

तापमान की विशेषता

से युक्त होता

है। सामान्यतः

ला नीनो एल नीनो

की तुलना में

आधा होता है।













विश्व

के मौसम एवं

समुद्री तापमान

पर ला नीनो का

प्रभाव अल नीनो

का विपरीत होता

है। ला नीनो

वर्ष के दौरान

यू0एस0 में दक्षिण-पूर्व

में शीतकालीन

तापमान सामान्य

से कम होता है

एवं उत्तर-पश्चिम

में सामान्य

से ठंडा होता

है। दक्षिण-पूर्व

में तापमान सामान्य

से ज्यादा गर्म

एवं उत्तर-पश्चिम

में सामान्य

से अधिक ठंडा

होता है।













पश्चिमी

तट पर हिमपात

एवं वर्षा तथा

अलास्का में

असामान्य रूप

से ठंडे मौसम

का अनुभव किया

जाता है। इस

अवधि के दौरान

यहां पर, अटलांटिक

में सामान्य

से अधिक संख्या

में तूफान आते

हैं।













एल नीनो

एवं ला नीनो

पृथ्वी की सर्वाधिक

शक्तिशाली घटनाएं

हैं जो पूरे

ग्रह के आधे

से अधिक भाग

के मौसम को परिवर्तित

करती है।



















 मौसम परिवर्तन के कारण


















































 मौसम परिवर्तन के कारण



वर्ष 2000* में

विश्व मौसम की

स्थिति पर डब्यल्यू0एम0ओ0

का कथन













वर्ष

2000 के दौरान विश्व

मौसम में वही

प्रक्रिया रही

जो वर्ष 1990 में

थीः कुछ क्षेत्रों

में अत्यधिक

गर्मी अथवा अत्यधिक

ठंड, अत्यधिक

वर्षा अथवा गंभीर

सूखे का अनुभव

किया गया। अन्य

जगहों पर सामान्य-जैसी

स्थिति का अनुभव

किया गया, परंतु

औसतन विश्व मौसम

का सामान्य से

अधिक गर्म रहना

जारी है।













वर्ष

2000 में विश्व तापमान
1999 के समान

ही था जो कि डब्ल्यू0एम0ओ0

(विश्व मौसम

संगठन) के सदस्यों

द्वारा रखे गए

अभिलेखों के

अनुसार पिछले

140 वर्ष में पांचवा

सबसे गर्म वर्ष

था। वर्ष 1998 के

बाद 1997, 1995 एवं 1990 सबसे

गर्म वर्ष था।

विषुवत प्रशांत

सभी जगहों पर

‘नीसा’ को नीका

कर दें। के सतत

शीतलन प्रभाव

के बावजूद वर्ष

2000 में गर्म वर्षों

का क्रम जारी

है। 21वीं सदी

के आरंभ में

विश्व का औसत

तापमान 0.60C था

जोकि 20वीं सदी

के आरंभ में

से अधिक था।













अधिकांश

गैर-विषुवतीय

उत्तरी गोलार्ध

में प्रत्येक

मौसम में औसत

से अधिक तापमान

का अनुभव किया

गया। तथापि,

पूर्वी विषुवत

प्रशांत सामान्य

से अधिक ठंडा

था क्योंकि ला

नीनो वर्ष के

आरंभ में तीव्र

था, जुलाई तथा

अगस्त में कमजोर

था तथा वर्ष

के अंत में इसकी

वापसी के लक्षण

दिखाई दिए। शेष

विषुवत एवं गैर

विषुवत दक्षिणी

गोलार्ध में

अनेक विषमताएं

थीं एवं इसमें

गर्मी की बहुलता

थी।













वर्ष

के पहले आधे

भाग तथा वर्ष

के अंत में पूरे

विषुवत में बरसात

की अभिरचना यानि

वर्षा पर ला

नीनो जैसी स्थितियों

की प्रमुखता

थी। इंडोनेशिया,

विषुवतीय हिन्द

महासागर एवं

पश्चिम विषुवत

प्रशांत- इन

सभी में दोनों

अवधियों के दौरान

भारी वर्षा होती

थी जबकि मध्य

विषुवत प्रशांत

में वस्तुतः

कोई वर्षा नहीं

होती थी। ला

नीनो से प्रभावित

अन्य क्षेत्रों

में ऑस्ट्रेलिया,

उत्तर-पूर्व

दक्षिण अमेरिका

एवं दक्षिण अफ्रीका

था जिनमें इन

अवधियों के दौरान

भारी बारिश होती

थी। दक्षिण एशिया

में मॉनसून बारिश

भी बहुत था।

दूसरी तरफ, ला

नीनो के कारण

भूमध्यरेखीय

पूर्वी अफ्रीका

एवं संयुक्त

राज्य अमरिका

के तटों के किनारे

सामान्य से कम

वर्षा हुई।













तूफान,

अंधड़ एवं बाढ़



वर्ष

2000 के दौरान अटलांटिक

में 15 तूफान एवं

आंधी आई (औसत

10 है), जबकि प्रशांत

महासागर में

केवल 22 आंधी आई

जो कि 28 के औसत

से कम है। इनमें

सबसे उल्लेखनीय

तूफान कीथ और

गॉर्डन था जिसने

मध्य अमेरिका

में भारी नुकसान

पहुंचाया। प्रशांत

महासागर में

साओ माइ अंधड़

के कारण जापान

के कुछ हिस्सों

में रिकार्ड-तोड़

वर्षा हुई तथा

दो प्रमुख तूफानों

के कारण दक्षिण-पूर्व

एशिया में अत्यधिक

वर्षा हुई। बंगाल

की खाड़ी के

उपर एक प्रमुख

चक्रवात का निर्माण

हुआ जिसने दक्षिण

भारतीय प्रायद्वीप

को नवम्बर के

अंत में प्रभावित

किया। इनके कारण

वर्षा एवं पवन

से संपत्ति की

घोर हानि हुई।

वर्ष का सबसे

विनाशकारी चक्रवात

इलीन, ग्लोरिया

एवं हुडा था

जिसने मैडागास्कर,

मोजाम्बिक एवं

दक्षिण अफ्रीका

के कुछ भाग को

प्रभावित किया

तथा इससे भारी

बाढ़ एवं जीवन

की हानि हुई।

फरवरी के अंत

में, स्टीव नामक

चक्रवात से ऑस्ट्रेलिया

में गंभीर नुकसान

हुआ एवं रिकार्ड

बाढ़ आई।













संसार

के अन्य हिस्सों

में भी भारी

बारिश हुई और

इससे बाढ़ आई।

सर्वाधिक उल्लेखनीय

तथ्य है कि अक्टूबर

में दक्षिणी

स्विट्जरलैंड

एवं उत्तर-पूर्वी

इटली में भारी

बाढ़ आई, कोलंबिया

में जून से अगस्त

तथा भारत, बांग्लादेश,

कंबोडिया, थाइलैंड

लाओस एवं वियतनाम

में मॉनसूनी

वर्षा के कारण

बाढ़ आई जिससे

जान और संपत्ति

की भारी हानि

हुई। केवल भारत

में ही एक करोड़

लोग प्रभावित

हुए जिसमें 650

मौतें हुई। मई

और जून में बाढ़

और भूस्खलन के

कारण मध्य और

दक्षिणी अमेरिका

में नुकसान और

जीवन की क्षति

हुई। ग्वाटेमाला

में बाढ़ के

कारण भूस्खलन

से, 13 लोगों की

मौत हुई. पश्चिमी

क्वींसलैंड

के कुछ हिस्सों

में, जिसका वार्षिक

औसत वर्षा 200-300

मि0मी0 है, फरवरी

में 400 मि0मी0 वर्षा

हुई। नवम्बर

में भारी बारिश

के कारण मध्य

एवं उत्तर-पश्चिमी

क्वींसलैंड

में बाढ़ आई

जिससे न्यू साउथ

वेल्स का एक-तिहाई

हिस्सा प्रभावित

हुआ।













लू, सूखा

एवं आग



प्रमुख

सूखों ने उत्तरी

चीन के रास्ते

दक्षिण-पूर्वी

यूरोप, मध्य-पूर्व

एवं मध्य एशिया

को प्रभावित

किया। बुल्गारिया,

ईरान, ईराक, अफगानिस्तान

एवं चीन के कुछ

हिस्से विशेष

रूप से प्रभावित

थे। तीस सालों

में ईरान का

यह सबसे बदतर

सूखा था जिसमें

फसल व पशुधन

की हानि हुई।













जून

एवं जुलाई के

दौरान शताब्दी

पुराने रिकॉर्ड

को तोड़ने वाली

चिलचिलाती लू

ने दक्षिणी यूरोप

को प्रभावित

किया। इस लू

ने क्षेत्र में

अनेक जाने ली

क्योंकि तुर्की,

ग्रीस, रोमानिया

एवं इटली में

तापमान 430C से

भी अधिक हो गया

था। बुल्गारिया

में 05 जुलाई को

75% केन्द्रों

पर दैनिक अधिकतम

तापमान का 100 वर्षों

का रिकॉर्ड टूट

गया।













हार्न

ऑफ अफ्रीका में

लगातार तीसरे

वर्ष औसत से

कम वर्षा ने

क्षेत्र के काफी

बड़े हिस्से

में विद्यमान

सूखे की स्थिति

को और बदतर किया

जिससे भोजन की

भारी कमी हो

गई। इस सूखे

से लाखों-करोड़ो

लोग प्रभावित

हुए। इथियोपिया

तथा कीनिया,

सोमालिया, इरीट्रीया

एवं जिबूति विशेष

रुप से प्रभावित

थे।













शीत

लहर, राष्ट्रीय

तापमान एवं वर्षा

विषमता



चीन

एवं मंगोलिया

के बड़े हिस्से

को जनवरी व फरवरी

के दौरान घोर

ठंड ने प्रभावित

किया। जनवरी

व फरवरी में

जाड़े की स्थिति

ने भारत के कुछ

हिस्सों को प्रभावित

किया एवं इससे

300 मौतें हुई।





1866 में

मापन के आरंभ

के बाद से नॉर्वे

में तीसरा सबसे

गर्म वर्ष रिकार्ड

किया गया है।

पिछले 140 वर्षों

के दौरान न्यूजूलैंड

में कम ठंडी

शीत ऋतु के विपरीत

कम गर्मी वाली

ग्रीष्म ऋतु

का अनुभव किया

गया।



इंग्लैंड

एवं वेल्स 235-वर्ष

की मासिक बारिश

श्रृंखला में

अप्रैल 2000 सबसे

वर्षा वाला माह

था. 235-वर्ष के रिकॉर्ड

में यह सबसे

ज्यादा वर्षा

वाला शरदकालीन

समय था एवं सबसे

ज्यादा बारिश

वाला 3 माह का

रिकॉर्ड भी।













*वर्ष

2000 के नवम्बर अंत

तक के लिए यह

आरंभिक सूचना

जहाजों, प्लावों

एवं जमीन पर

स्थित मौसम स्टेशनों

के प्रेक्षणों

पर आधारित है।

डब्ल्यू0एम0ओ0

सदस्य देशों

की नेशनल मेटरोलॉजिकल

एंड हाइड्रोलॉजिकल

सर्विसेज द्वारा

इन आंकड़ों का

सतत संकलन एवं

वितरण किया जाता

है।













नक्शा

भी देखें:









 मौसम परिवर्तन के कारण





ओज़ोन

परत



ओज़ोन

परत समतापमंडल

के तापमान को

संतुलित बनाए

हुए है तथा सूर्य

से निकलने वाली

हानिकारण पराबैंगनी

किरणें को अवशोषित

कर ग्रह पर जीवन

की रक्षा करता

है। ओज़ोन कण

अथवा ओज़ोन परत

समताप मंडल में

15-35 किमी की ऊँजाई

पर स्थित है।

यह माना जाता

है कि लाखों

वर्षों से वायुमंडलीय

संरचना में अधिक

बदलाव नहीं आया

है। लेकिन पिछले

पचास वर्षों

में मनुष्य ने

प्रकृति के उत्कृष्ट

संतुलन को वायुमंडल

में हानिकारक

रसायनिक पदार्थों

को छोड़कर अस्त-व्यस्त

कर दिया है जो

धीरे-धीरे इस

जीवरक्षक परत

को नष्ट कर रहा

है।













ओज़ोन

की उपस्थिति

की खोज पहली

बार 1839 ई0 में सी

एफ स्कोनबिअन

के द्वारा की

गई जब वह वैद्युत

स्फुलिंग का

निरीक्षण कर

रहे थे। लेकिन

1850 ई0 के बाद ही

इसे एक प्राकृतिक

वायुमंडलीय

संरचना माना

गया। ओज़ोन का

यह नाम ग्रीक

(यूनानी) शब्द

ओज़ेन (ozein) के आधार

पर पड़ा जिसका

अर्थ होता है

"गंध" इसके सांन्द्रित

(गाढ़ा) रूप में

एक तीक्ष्ण तीखी/कड़वी)

गंध होती है।

1913 ई0 में, विभिन्न

अध्ययनों के

बाद, एक निर्णायक

सबूत मिला कि

यह परत मुख्यतः

समतापमंडल में

स्थित है तथा

यह सूर्य की

हानिकारक पराबैंगनी

किरणों को अवशोषित

कर लेती है।

1920 के दशक में, एक

ऑक्सफोर्ड वैज्ञानिक,

जी एम बी डॉब्सन,

ने सम्पूर्ण

ओज़ोन की निगरानी

(मानीटर करने)

के लिए यंत्र

बनाया।













समताप

मंडल में ओज़ोन

की उपस्थिति

विषुवत-रेखा

के निकट अधिक

सघन और सान्द्र

है तथा ज्यों-ज्यों

हम ध्रुवों की

ओर बढ़ते हैं,

धीरे-धीरे इसकी

सान्द्रता कम

होती जाती है।

यह वहाँ उपस्थित

हवाओं की गति,

पृथ्वी की आकृति

और इसके घूर्णन

पर निर्भर करता

है। ध्रुवों

पर मौसम के अनुसार

यह बदलता रहता

है। ओज़ोन परत

की क्षीणता दक्षिणी

ध्रुव जो अंटार्कटिका

पर है, पर स्पष्ट

दिखाई देती है,

जहाँ एक विशाल

ओज़ोन छिद्र

है। उत्तरी ध्रुव

में ओज़ोन परत

बहुत अधिक नष्ट

नहीं हुई है।

विश्व मौसम-विज्ञान

संस्था (WMO) ने ओज़ोन

क्षीणता की समस्या

को पहचानने और

संचार में अहम

भूमिका निभायी

है। चूँकि वायुमंडल

की कोई अंतर्राष्ट्रीय

सीमा नहीं है,

यह महसूस किया

गया कि इसके

उपाय के लिए

अंतराष्ट्रीय

स्तर पर विचार

होना चाहिए।





(UNEP) संयुक्त

राष्ट्र पर्यावरण

योजना ने विएना

संधि की शुरूआत

की जिसमें 30 से

अधिक राष्ट्र

शामिल हुए। यह

पदार्थों पर

एक ऐतिहासिक

विज्ञप्ति थी,

जो ओज़ोन परत

को नष्ट करते

हैं तथा इसे

1987 ई0 में मॉन्ट्रियल

में स्वीकार

कर लिया गया।

इसमें उन पदार्थों

की सूची बनाई

गई जिनके कारण

ओज़ोन परत नष्ट

हो रही है तथा

वर्ष 2000 तक क्लोरोफ्लोरो

कार्बन के उपयोग

में 50% तक की कमी

का आह्वान किया

गया। क्लोरोफ्लोरो

कार्बन अथवा

सी एफ सी को हरितगृह

प्रभाव के लिए

ज़िम्मेदार

गैस माना जाता

है। यह मुख्यतः

वातानुकूलन

मशीन, रेफ्रिजरेटर

से उत्सर्जित

होती है तथा

एरोसोल अथवा

स्प्रे इसके

प्रणोदक (बढ़ाने

वाला) हैं। एक

अन्य बहुत ज्यादा

उपयोग किया जाने

वाला रसायन मिथाइल

ब्रोमाइड है

जो ओज़ोन परत

के लिए एक चेतावनी

है। यह ब्रोमाइड

उत्सर्जित करता

है जो क्लोरीन

की तरह 30-50 गुणा

ज्यादा विनाशकारी

है। इसका उपयोग

मिट्टी, उपयोगी

वस्तुओं और वाहन

ईंधन संयोजी

के लिए धूमक

के रूप में होता

है (रोगाणुनाशी

के रूप में प्रयोग

किया जाने वाला

धुआँ)। वर्तमान

समय में कोई

ऐसा रसायन मौजूद

नहीं है जो पूरी

तरह से मिथाइल

ब्रोमाइड के

उपयोग को हटा

दें। यह स्पष्ट

रूप से कहना

चाहिए कि ओज़ोन

परत की आशा के

अनुरूप प्राप्ति

पदार्थों के

मॉन्ट्रयल प्रोटोकॉल

के बिना असंभव

है जो ओज़ोन

परत को नष्ट

करता है (1987) जिसने

ओज़ोन परत को

नुकसान पहुँचाने

वाले सभी पदार्थों

के उपयोग में

कमी के लिए आवाज

उठाया। विकासशील

राष्ट्रों के

लिए इसकी अंतिम

तिथि 1996 थी, जबकि

भारत को 2010 ई0 तक

इस बड़े विनाशकारी

रसायन को पूर्णतः

समाप्त कर देना

है।












प्राकृतिक

कुण्ड (हौज़)









 मौसम परिवर्तन के कारण



वैज्ञानिकों

ने पृथ्वी पर

ऐसी जगहों का

पता लगा लिया

है जिनमें हरितगृह

की गैसों को

अंदर रखने की

क्षमता है तथा

जो हमारे चारों

तरफ की हवा को

शुद्ध करती है।

ऐसी जगहों को

"प्राकृतिक

कुण्ड" कहते

हैं। इनमें से

कुछ प्राकृतिक

कुण्ड तो जंगल

(वृक्ष, पेड़-पौधे),

सागर तथा कुछ

हद तक मिट्टी

हैं, तथा सभी

में कार्बनडाईऑक्साड

लेने की क्षमता

है। वस्तुतः,

मिट्टी की क्रियाविधि

से मीथेन गैस

को हटाया जा

सकता है। वृक्ष

और अन्य पेड़-पौधे

कार्बन डाई-ऑक्साइड

अवशोषित करते

हैं तथा एक "गोदाम"

(Store house) अथवा "कार्बन

का कुण्ड" की

तरह काम करते

हैं। ये जंगल

दशकों और शताब्दियों

से जंगल में

कार्बन संग्रहण

क्षमता स्थापित

करने के लिए

कार्बन जमा कर

रहे हैं। बहुत

ही कम समय में

जंगल कार्बन

की अतिरिक्त

मात्रा को ग्रहण

करने की संभावना

व्यक्त करता

है।



























 मौसम परिवर्तन के कारण





जंगल

में संभवतः जैविक

आग से कार्बन

मुक्त होता है

या वृक्ष अपघटन

से अथवा आग की

स्थिति में कार्बन

वायुमंडल में

मुक्त हो जाता

है। किसी जंगल

में प्राकृतिक

कारणों से और

लोगों की लापरवाही

से अथवा उस क्षेत्र

में जहाँ लोग

पेड़ों को काटते

और जलाते हैं,

आग लग जाती है।

हालाँकि, जंगल

दोबारा कार्बन

कुण्ड बन सकता

है क्योंकि यह

जंगल के फैलाव

के साथ-साथ एकत्रित

होता है।













किसी

जंगल के पारिस्थितिकी-तंत्र

में

कार्बन के चार

तत्व होते हैं:-

वृक्ष, जंगल

की सतह पर बढ़ने

वाले पौधे, गिरे

हुए पत्ते तथा

जंगल की सतह

और मिट्टी में

अपघटित होने

वाले अन्य पदार्थ।

पौधे की वृद्धि

की प्रक्रिया

के दौरान कार्बन

अवशोषित हो जाता

है तथा कार्बन

वनस्पति कोशिका

निर्माण में

ग्रहण कर लिया

जाता है तथा

ऑक्सीजन को मुक्त

कर दिया जाता

है। जंगल की

सतह पर उगने

वाले पौधे इस

कार्बन के भण्डार

में वृद्धि करते

हैं। समय बीतने

के बाद, टहनियाँ,

पत्ते तथा अन्य

चीजें जंगल की

सतह पर गिरती

हैं तथा अपने

अपघटित होने

तक कार्बन को

जमा कर रखती

हैं। साथ ही,

जंगल की मिट्टी,

जड़/मिट्टी के

माध्यम से कुछ

अपघटित पौधों

को ग्रहण करती

है।













जंगलों

को लगाए जाने

को सम्पूर्ण

विश्व में सरकारों

द्वारा प्राथमिकता

दी जानी चाहिए।

उन्हें यह निश्चित

कर लेना चाहिए

कि जंगलों की

कटाई बंद हो

गई है। इसमें

सफलता प्राप्त

करने के लिए

उन्हें उन-लोगों

को ऊर्जा के

वैकल्पिक स्रोत

उपलब्ध कराने

चाहिए जो खाना

बनाने और ऊष्मा

के लिए लकड़ी

के ईंधन पर निर्भर

हैं।













वृक्षों

की तरह, सागर

भी कार्बन को

ग्रहण करने में

प्राकृतिक कुण्ड

की तरह काम करता

है। ये सागर

(समुद्री) जलवायु

को कार्बन डाईऑक्साइड

के अवशोषण और

भण्डारण से प्रभावित

करते हैं। जलवायु-परिवर्त्तन

का कारण मनुष्य

द्वारा निर्मित

कार्बन डाईऑक्साइड

तथा अन्य हरितगृह

गैसों का वायुमंडल

में बढ़ जाना

है। वैज्ञानिकों

का मानना है

कि सागर वर्त्तमान

समय में जीवाश्म-ईंधन

के जलने से उत्पन्न

कार्बन डाईऑक्साइड

का लगभग आधा

भाग अवशोषित

कर लेता है।













प्रवाल-भित्ति

(मूँगा-चट्टान)

को प्रायः सागर

का जंगल कहा

जाता है, यह एक

मुख्य कुण्ड

है जिसमें कार्बन

डाई-ऑक्साइड

की बड़ी मात्रा

जमा होती है।

प्लावक सागर

में उपस्थित

रहते हैं, यह

मुख्यतः उस क्षेत्र

में पाये जाते

हैं जहाँ गर्म

तरंगे, ठंढ़ी

तरंगों से मिलती

हैं। यह एक जलीय

पौधा है, स्थलीय

पौधों की तरह

यह प्रकाश-संश्लेषण

की क्रिया में

कार्बन-डाईऑक्साइड

ग्रहण करता है।

पानी में घुली

गैस की मात्रा

पर पादपप्लावक

का उल्टा असर

पड़ता है (सूक्ष्मदर्शीय

पौधा, खासकर

शैवाल), जो प्रकाश

संश्लेषण के

दौरान कार्बन-डाई-ऑक्साइड

अवशोषित करता

है। पादपप्लावक

की क्रिया मुख्यतः

पहले 50 मीटर की

सतह पर होती

है तथा मौसम

और क्षेत्र के

अनुसार बदलती

रहती है। सागर

के कुछ भाग पर

संभवतः पर्याप्त

प्रकाश नहीं

पहुँच पाता जिससे

वे बहुत ठंडे

हैं; अन्य क्षेत्रों

में पादपप्लावक

की वृद्धि के

लिए पोषकतत्वों

की कमी होती

है। एक पंप की

तरह प्लावक सागर

की सतह से गैस

और पोषक तत्व

इसकी गहराई तक

पहुँचाते हैं।

कार्बन-चक्र

में इसकी भूमिका

अन्य वृक्षों

से अलग है। सागरीय

जीव प्रकाश-संश्लेषण

के दौरान कार्बन

डाईऑक्साइड

अवशोषित करते

हैं तथा कुछ

गैस भीतर लगभग

वर्ष भर मुक्त

होते रहते हैं,

इनमें से कुछ

मृत पौधों, शारीरिक

भाग, मल तथा अन्य

डूबती वस्तुओं

द्वारा सागर

की गहराई में

भेजी जाती हैं।

तत्पश्चात्

अपघटित पदार्थों

के रूप में कार्बन

डाई ऑक्साइड

जल में मुक्त

होती है तथा

इनमें से अधिकांश

समुद्री जल में

जल कण के साथ़

रासायनिक रूप

से जुड़कर अवशोषित

हो जाती है।

सागर में गर्म

जल कार्बन डाईऑक्साइड

से सामान्यतः

संतृप्त रहता

है जबकि ठंढ़ा

जल असंतृप्त

रहता है और इसमें

कार्बन डाईऑक्साइड

को पकड़ कर रखने

की बहुत क्षमता

होती है। यह

गैस ठंढ़े संतृप्त

जल में घुलनशील

है। ध्रुव की

ओर, अक्षांश

पर जहाँ सागर

ठंडे हैं, जल

के नजदीक की

हवा में मौजूद

कार्बनडाईऑक्साइड

जल में घुल जाती

हैं। कार्बन

जो सागर के माध्यम

से दो प्रक्रियाओं

द्वारा अवशोषित

किया जाता है,

उसे लगभग 1000 वर्षों

तक सुरक्षित

रखा जा सकता

है।













अब उन

साधनों की खोज

की जा रही है

जिनसे सागरों

का उपयोग कार्बन

डाईऑक्साइड

के एक भण्डार

के रूप में होः

पहला कार्बनडाईआक्साइड

को केन्द्रीय

बिंदुओं से नल-तंत्र

द्वारा ग्रहण

करना अथवा एक

बड़े पात्र में

जमा कर उसे सागर

के भीतर डालना।

दूसरा, सागर

में अधिक पोषक

तत्व डालकर उसे

उर्वर बनाना

ताकि पादपप्लावक

की पर्याप्त

पैदावार हो जो

हवा से कार्बन

डाईआक्साइड

ग्रहण करेगा।

इसे कार्यात्मक

रूप देने से

पहले इन क्रियाओं

के पर्यावरण

पर पड़ने वाले

प्रभाव के बारे

में अध्ययन करना

अभी भी बाकी

है।













वर्ष

1999 में भारत की

जलवायु









 मौसम परिवर्तन के कारण



भारतीय मौसम-विज्ञान

विभाग ने एक

रिपोर्ट में

भारत में वर्ष

1999 के दौरान मौसम

के बारे में

निम्नलिखित

तथ्यों को प्रस्तुत

कियाः-













बर्फीली

हवाओं ने भारत

के उत्तरी भाग

को जनवरी में

सामान्य से 50

नीचे जाकर अपनी

चपेट में ले

लिया। जनवरी

और फरवरी माह

में बारिश होना

सामान्य बात

थी। फरवरी महीने

में बंगाल की

खाड़ी के ऊपर

एक चक्रवाती

तूफान बना जो

बहुत ही अस्वभाविक

था। जैसा कि

ज्ञात है कि

इस क्षेत्र में

वर्ष के इस समय

चक्रवात नहीं

बनते हैं।













वर्ष

1999 के मार्च और

अप्रैल माह न

केवल उस वर्ष

के बल्कि पिछले

दस सालों के

सबसे गर्म महीने

थे जिसमें गर्म

हवाओं ने उत्तरी

और मध्य भारत

को अप्रैल महीने

में अपनी चपेट

में ले लिया।

वस्तुतः इन गर्म

हवाओं की स्थित

को मार्च महीने

में ही देश में

अनुभव कर लिया

गया था। 27 अप्रैल

को तितलागढ़

में 47.60C महत्तम

तापमान रिकार्ड

किया गया।













वर्ष

1999 के मई महीने

में मानसून आने

के पूर्व ही

छीटें पड़ने

लगे थे, वास्तव

में वर्ष 1990 से

लेकर यह दूसरे

सबसे अधिक गीला

महीना था। इसी

महीने में अरब

सागर के ऊपर

एक प्रचण्ड चक्रवाती

तूफान उत्पन्न

हुआ लेकिन मार्ग

से ही वापस मुड़

गया, कमज़ोर

हो गया और 22 मई

को भारत में

पश्चिमी राजस्थान

में प्रवेश कर

गया, यह एक गहरे

विक्षोभ में

बदल गया। दक्षिण-पश्चिम

मानसून केरल

और तमिलनाडु

में 25 मई को आया,

यह सामान्य से

लगभग एक सप्ताह

पहले था। यद्यपि

देश के लगभग

सभी भागों में

बारिश सामान्य

थी, सितम्बर

माह में अन्य

महीनों की तुलना

में सर्वाधिक

बारिश हुई। गुजरात,

हरियाणा, दिल्ली,

तमिलनाडु, केरल,

अंडमान और निकोबार

द्वीप समूह तथा

पांडिचेरी में

कम वर्षा हुई।

वर्ष 1990 से लेकर

अक्टूबर दूसरा

सबसे अधिक बारिश

वाला महीना रिकार्ड

किया गया।













अक्टूबर

1999 एक ऐसे महीने

के रूप में याद

किया जाएगा जब

बड़ा चक्रवाती

तूफान, जिसे

शताब्दी का सबसे

खराब तूफान माना

जाता है, उड़ीसा

के तट पर आया।

इस बड़े चक्रवात

के पूर्व अन्य

प्रबल चक्रवात

पूर्वी तटों,

गोला पुर के

निकट बंगाल और

उड़ीसा के तट

पर 17 अक्टूबर

को आ चुका था।













दूसरा

प्रचण्ड चक्रवात

अडमान सागर में

25 तारीख को एक

दुःख/प्रकोप

के रूप में उत्पन्न

हुआ तथा यह उत्तर-पश्चमी

दिशा में घूम

गया और अधिक

तेज़ हो गया।

28 तारीख की रात

तक एक प्रचण्ड

चक्रवात में

बदल गया तथा 29 तारीख की

दोपहर तक पारादीप

के निकट उड़ीसा

तट को पार कर

गया। हवा की

अनुमानित चाल

250 किमी/घंटा थी

तथा ज्वारीय-तरंगे

30 फीट (9.14मी0) तक पहँच

गईं और पृथ्वी

पर भयानक तबाही

हुई। हजारों

लोगों की जान

गईं तथा करोड़ों

रूपये की सम्पत्ति

नष्ट हो गई।













नवम्बर-दिसम्बर

में पूरे देश

में सामान्य

से कम वर्षा

हुई। वास्तव

में वर्ष 1990 से

लेकर नवम्बर

में बारिश न्यूनतम

रिकार्ड की गई।

बंगाल की खाड़ी

अथवा अरब सागर

में कोई चक्रवाती

तूफान नहीं बना

जो, बात बहुत

ही असामान्य

थी। दिसम्बर

में कश्मीर के

कुछ भागों, हरियाणा,

पंजाब, गुजरात

और महाराष्ट्र

में मामूली ठंडी

हवाएँ चलीं।













नक्शा

भी देखें:













जलवायु

परिवर्तन को

कम करने के लिए

आप क्या कर सकते

हैं



यद्यपि

समस्याएँ बहुत

हैं, हम सभी व्यक्तिगत

और सामाजिक रूप

से सहयोग कर

सकते हैं, जो

हरितगृह गैस

के उत्सर्जन

को कम करेगा

और इसप्रकार

जलवायु के हानिकारक

प्रभाव में बदलाव

आएगा।























हमोलोगों

ने जलवायु परिवर्तन

के बारे में

जो कुछ सीखा

उसे आपस में

बाँटें तथा उसके

बारे में लोगों

को बताएँ।























वैसे घरेलू

यंत्र खरीदें

जो अधिक फलदायक

हों।























सभी तापदीप्त

बल्ब के स्थान

पर ठोस प्रतिदीप्त

बल्ब लगाएँ जो

इससे चार गुणा

ज्यादा चलता

है तथा विद्युत

का केवल एक-चौथाई

भाग प्रयोग करता

है।























घर ऐसा बनाएँ

जिसमें दिन में

सूर्य की रोशनी

आ सके तथा कृत्रिम

प्रकाश की जरूरत

कम हो। गलियों

में रोशनी के

लिए सोडियम वेपर

लाइट्स (Sodium Vapour Lights)

का उपयोग करें,

यह अधिक फलदायक

है।























कार के इंजन

को दुरूस्त रखें

तथा वैसे वाहनों

का प्रयोग करें

जिनमें कम ईंधन

की ज़रूरत हो।























बहुत

लंबे समय तक

इंजन को खाली

चलाने से बहुत

अधिक मात्रा

में ईंधन बर्बाद

होता है। इससे

आराम से बचा

जा सकता है, खासकर

किसी चौराहे

पर और यातायात

अवरोध (जाम) में

इंजन को बंद

करें।























कार समूह

बनाएँ तथा अपने

माता-पिता और

दोस्तों को ऐसा

करने के लिए

प्रोत्साहित

करें।























पड़ोस/नज़दीकी

बाज़ार साइकिल

से या पैदल जाएं।























ईंधन

और प्रदूषण को

कम करने के लिए

वाहन यातायात

को सुव्यवस्थित

करें। फ्रांस

तथा इटली में

दिन कारें नहीं

चलतीं (No Car Days) तथा

शहरों में बारी-बारी

से विषम और सम

लाइसेंस संख्या

वाली कारों के

लिए सीमित पार्किंग

है।























सभी लाइट्स,

टेलीविजन, पंखे,

वातानुकूलन

मशीनों, कम्प्यूटर

तथा विद्युत

यंत्रों को बंद

कर दें, जब उनका

उपयोग न किया

जा रहा हो।























अपने पड़ोस

में पौधे लगाएँ

तथा उनका ख्याल

रखें।























सभी डिब्बों,

बोतलों और प्लास्टिक

की थैलियों को

बदलें तथा जहाँ

तक हो सके ऐसी

चीजें खरीदें

जिसका पुर्नआवर्त्तन

होता हो।













जितना

कम हो सके कूड़ा/रद्दी

बनाएँ, क्योंकि

कूड़े से अधिक

मात्रा में मिथेन

गैस निकलती है

और जब इसे जलाया

जाता है, तब कार्बन

डाई-ऑक्साइड

गैस मुक्त होती

है।













जलवायु-परिवर्तन

से स्वास्थ्य

पर प्रभाव



जलवायु-परिवर्तन

एक बड़ी समस्या

है जो मानव की

बढ़ती क्रियाओं

से उत्पन्न होती

है



तथा तथा इससे

स्वास्थ्य पर

कई प्रत्यक्ष

और परोक्ष

प्रभाव पड़ते

हैं। जीवाश्म

ईंधन का



जलना, उद्योग-धंधों

की संख्या में

वृद्धि तथा व्यापक

पैमाने पर पेड़ों

की कटाई हरितगृह



गैसों (जमजड़)

के वायुमंडल

में जमा होने

के कुछ कारण

हैं। IPCC(जलवायु-परिवर्तन

के अन्तर-सरकारी

पैनल) के अनुसार

कार्बन डाई-आक्साइड

और अन्य हरितगृह

गैसों



(जमजड़) जैसे

मिथेन, ओज़ोन,

नाइट्रस ऑक्साइड

तथा क्लोरोफ्लोरो

कार्बन की वायुमंडल



में वृद्धि

से यह अनुमान

लगाया जाता है

कि विश्व का

औसत तापमान 1.50

सेल्सियस से



4.5 डिग्री सेल्सियस

तक बढ़ सकता

है। इसके विपरित

इससे वर्षा और

बर्फ गिरने में



बदलाव, अधिक

प्रचण्ड अथवा

निरन्तर अकाल,

बाढ़, तूफान

तथा समुद्री

सतह का ऊपर



उठना

आदि स्थितियाँ

उत्पन्न हो सकती हैं।

जलवायु- परिवर्तन

के हानिकारक

प्रभाव क्षेत्र

बहुत व्यापक

है जैसे हृदय-संबंधी

बीमारियाँ मृत्यु-दर,

निर्जलन (dehydration), संक्रामक

बीमारियों

का फैलना, कुपोषण,

तथा स्वास्थ्य

क्षीण करना।

इसीलिए, हमें

इस जलवायु-परिवर्त्तन

को रोकने के

लिए उपयुक्त

कदम उठाने चाहिए।













प्रत्यक्ष

प्रभाव



मौसम

का हमारी सेहत

पर प्रत्यक्ष

प्रभाव पड़ता

है। यदि पूरा

जलवायु गर्म

हो जाए तब स्वास्थ्य

की समस्याएँ

बढ़ेंगी। यह

महसूस किया जा

रहा है कि गर्म

हवाओं के तेज़

होने और उनकी

प्रचण्डता से

तथा दूसरी मौसमी

घटनाओं से मृत्युदर

में वृद्धि होगी

वृद्ध, बच्चे

और वे लोग जो

श्वसन और हृदय-संबंधी

रोग से पीड़ित

हैं, उन पर संभवतः

ऐसे मौसम का

ज्यादा असर होगा

क्योंकि उनमें

सहने की क्षमता

कम है। तापमान

में वृद्धि का

असर नगर में

रहने वाले लोगों

पर गाँव में

रहने वालों की

अपेक्षा ज्यादा

पड़ेगा। यह "ऊष्माद्वीप"

के कारण होता

है क्योंकि यहाँ कंकड़ और

तारकोल से बनी

सड़कें हैं।

नगरों में अधिक

तापमान के कारण

ओजोन के धरातलीय

स्तर में वृद्धि

होगी जिससे वायुप्रदूषण

जैसी समस्याएँ

बढ़ेंगी।













अप्रत्यक्ष

प्रभाव



अप्रत्यक्ष

रूप से, मौसम

के रूप में परिवर्तन

पारिस्थितकी

गड़बड़ी पैदा

कर सकता है, भोज्य

पदार्थों के

(खाद्यान्न)

उत्पादन स्तर

में बदलाव, मलेरिया

तथा अन्य संक्रामक

बीमारियाँ बीमारियां

जलवायु में परिवर्त्तन,

खास कर तापमान,

वष्टिपात तथा

आर्द्रता में

उतार-चढ़ाव जैविक

अवयवों तथा उन

प्रक्रियाओं

को प्रभावित

करते हैं जो

संक्रामक बीमारियों

के फैलने से

जुड़ी हैं।













उच्च

तापमान के कारण

समुद्री-स्तर

ऊपर उठेगा जिससे

भूक्षरण (अपरदन)

होगा तथा महत्वपूर्ण

पारिस्थितिकी

तंत्र जैसे बरसाती

भूमि (wetlands) और प्रवाल-भित्ति

को क्षति पहुँचाएगा।

इसका प्रत्यक्ष

प्रभाव, प्रचण्ड

बाढ़ के कारण

मृत्यु और चोट

के रूप में आ

सकता है। तापमान

बढ़ाने का अप्रत्यक्ष

नतीजा भूमिगत

जलतंत्र में

परिवर्तन के

रूप में होगा,

साथ ही तटीय

रेखा, जैसे खारे

जल का, भूमिगत

जल तथा बरसाती

भूमि में जाने

से प्रवाल-भित्ति

में क्षय तथा

निचले प्रदेशों

में अपवहन-तंत्र

को नुकसान होगा।

जलवायु परिवर्तन

के कारण वायु

प्रदूषण का स्तर

बढ़ेगा जिससे

वायुमंडलीय

रासायनिक प्रतिक्रिया

तेज़ हो जाएगी

तथा तापमान बढ़ाने

के कारण प्रकाश

रासायनिक उपचायक

(oxidants) उत्पन्न

होंगे।













बीमारियाँ



हरितगृह

गैस प्रभाव के

कारण ही समतापमंडलीय

ओज़ोन परत का

क्षय हो रहा

है जो सूर्य

की हानिकारक

किरणों से पृथ्वी

की रक्षा करती

है। समतापमंडलीय

ओज़ोन के क्षय

से सूर्य की

हानिकारक पराबैंगनी

किरणें बड़ी

मात्रा में पृथ्वी

पर पहुँचती हैं,

जिससे श्वेत

वर्ण के लोगों

में त्वचा कैंसर

जैसी बीमारियाँ

होती हैं। इसकी

वजह से बहुत-सारे

लोग मोतियाबिंद

जैसी आँख की

बीमारियों से

पीड़ित होंगे।

ऐसा अनुमान है

कि यह प्रतिरक्षक-तंत्र

(बीमारियों से

रक्षा करने वाले

तंत्र) को भी

भी समाप्त कर

सकता है।













विश्व

में गर्मी बढ़ने

के कारण उन क्षेत्रों

में वृद्धि होगा

जहाँ बीमारी

फैलाने वाले

कीड़े जैसे मच्छर

आदि उत्पन्न

होंगे जिससे

संक्रमण तेज़ी

से फैलेगा।













समुद्री-स्तर

बढ़ने के कारण

स्वास्थ्य पर

पड़ने वाले कुछ

संभावित प्रभाव

हैं:-



  • बाढ़ की

    वज़ह से मृत्यु

    तथा क्षति;
  • खारे पानी

    के प्रवेश के

    कारण शुद्ध

    जल की उपलब्धता

    में कमी।
  • प्रदूषण

    फैलाने वाले

    कूड़े कचड़े

    जो पानी में

    डूबे रहते हैं,

    इनके माध्यम

    से जल आपूर्ति

    का संदूषण
  • बीमारी फैलाने

    वाले कीड़ों

    में बदलाव
  • कृषिभूमि

    के क्षय के कारण

    पोषक-तत्व प्रभावित

    होंगे तथा मछली-पकड़ने

    में अंतर आएगा

    तथा
  • जनसंख्या

    विस्थापन से

    जुड़ी स्वास्थ्य

    समस्याएँ












रोकथाम के

उपाय



  • ऊर्जा के

    वैसे साधन जिनको

    दोबारा निर्मित

    नहीं किया जा

    सकता है, के उपयोग

    में कमी कर तथा

    निर्मित साधनों

    का उपयोग बेशक

    हरितगृह गैसों

    (जमजड़) के उत्सर्जन

    को पर्याप्त

    मात्रा में

    कम करेगा। हरित-गृह

    गैसों (जमजड़)

    की इस कमी का

    लोगों के स्वास्थ्य

    पर सकारात्मक

    प्रभाव पड़ेगा।

  • इसके अतिरिक्त,

    साफ ईंधन तथा

    ऊर्जावान तकनीक

    को अपनाने से

    अस्थायी प्रदूषकों

    को कम किया जा

    सकता है। इस

    प्रकार, स्वास्थ्य

    पर इसका अच्छा

    प्रभाव पड़ेगा।


Pradeep Chawla on 12-05-2019

ऋतु

परिवर्तन क्या

है?















कल्पना

करें कि ग्रीष्मकालीन

अवकाश के दौरान

आप पिकनिक के

लिए जा रहे हैं।

आप यह सोच कर

ही पसीने-पसीने

हो जाते हैं।

और यह भी सोच

कर कि आपके माता-पिता

ने बचपन में

इससे बेहतर और

कुछ नहीं चाहा

होता। सच, पिछले

कुछ दशकों के

दौरान हुआ ऋतु

परिवर्तन वाकई

विस्मयकारी

है।









forest





पृथ्वी

के अस्तित्व

में आने के समय

से ही एक व्यवस्था

रही है। किसी

स्थान का ऋतु

औसत मौसम है

जो एक निश्चित

समय में उसको

प्रभावित करता

है। वर्षा, सूर्य

की किरणें, वायु,

आद्रता एवं तापमान

ऐसे कारक हैं

जो किसी स्थान

की ऋतु को प्रभावित

करते हैं।













मौसम

में परिवर्तन

अचानक हो सकता

है एवं इसका

अनुभव किया जा

सकता है, जबकि

ऋतु परिवर्तन

होने में लंबा

समय लगता है

इसलिए इसे अनुभव

करना अपेक्षाकृत

कठिन है।

पृथ्वी के पूरे

इतिहास के दौरान

ऋतु परिवर्तन

होता रहा है।

हमेशा ही स्पष्ट

रूप से परिभाषित

ग्रीष्म एवं

शीत ऋतु रही

है एवं इस परिवर्तन

के प्रति सभी

जीवन रूपों ने

अपने आप को ढाल

लिया है।













गत 150-200

वर्षों के दौरान

यह परिवर्तन

अधिक तेजी से

हो रहा है एवं

कुछ विशेष प्रजाति

के पौधों एवं

जंतु इसके अनुसार

स्वयं को नहीं

ढाल पाएं हैं।

मानवीय गतिविधियां

परिवर्तन की

इस गति के लिए

जिम्मेदार है

एवं वैज्ञानिकों

के लिए यह चिंता

का एक कारण है।













पृथ्वी

के चारों ओर

का वायुमंडल

मुख्यतः नाइट्रोजन

(78%), ऑक्सीजन (21%) तथा

शेष 1% में सूक्ष्ममात्रिक

गैसों (ऐसा इसलिए

कहा जाता है

क्योंकि ये बिल्कुल

अल्प मात्रा

में उपस्थित

होती हैं) से

मिलकर बना है,

जिनमें ग्रीन

हाउस गैसें कार्बन

डाईऑक्साइड,

मीथेन, ओजोन,

जलवाष्प, तथा

नाइट्रस ऑक्साइड

भी शामिल हैं।

ये ग्रीनहाउस

गैसें आवरण का

काम करती है

एवं इसे सूर्य

की पैराबैंगनी

किरणों से बचाती

हैं। पृथ्वी

की तापमान प्रणाली

के प्राकृतिक

नियंत्रक के

रूप में भी इन्हें

देखा जा सकता

है।



















sink



हम

परवाह क्यों

करें?



यदि विश्व

के सभी देश ग्रीन

हाउस गैसों का

उत्सर्जन कम

नहीं करते तो

21 वीं शताब्दी

के अंत तक निम्नलिखित

संभावित परिदृश्य

हो सकता है:-

















·





जनसंख्या और आर्थिक

वृद्धि के आधार

पर तापमान 1-3.50C

तक बढ़ जाएगा।







·





समुद्र तल 15-90 सें.

मी0 ऊँचा हो जाएगा

जिससे 9 करोड़

लोगों को बाढ़

का भय होगा।







·





वर्षा कम होगी

एवं खाद्य फसलों

में कमी होगी।













तो क्या यह सही

समय नहीं है

कि विश्व समुदाय

इस समस्या की

गंभीरता के प्रति

जागरूक हो?





वर्षों

से, मानवीय गतिविधियों

ने ग्रीन हाउस

गैसों के उत्सर्जन

में वृद्धि की

है, इतना कि प्रकृति

में अपने सामान्य

स्तर से वे कहीं

अधिक हैं। ग्रीनहाउस

गैसों के उत्पादन

में महत्वपूर्ण

कुछ मानवीय गतिविधियाँ

हैं:- औद्योगिक

क्रिया-कलाप,

ऊर्जा संयंत्रों

से उत्सर्जन

एवं परिवहन/वाहन।

ग्रीनहाउस गैसों

की मात्रा में

वृद्धि ने पृथ्वी

का तापमान बढ़ा

दिया है, एक ऐसी

प्रक्रिया जिसे

सामान्यतः भूमंडलीय

तापन (GLOBAL WARMING) कहा

जाता है। कार्बन

डाइआक्साइड

को ग्रहण कर

हमारी मदद करने

वाले पेड़ों

और वनों को काटने

से यह समस्या

और बदतर हो गई

है।













ऋतु

परिवर्तन के

कारण



पृथ्वी

का ऋतु चक्र

गतिशील है एवं

प्राकृतिक रूप

से उसमें एक

चक्र में सतत

परिवर्तन होता

रहता है। विश्व

इस बात से अधिक

चिंतित है कि

आज घटित हो रहे

परिवर्तनों

में मानवीय गतिविधियों

के कारण तेजी

आई है। इन परिवर्तनों

का पूरे विश्व

के वैज्ञानिकों

द्वारा अध्ययन

किया जा रहा

है, जो पेड़ के

चक्रों, पराग

नमूनों, बर्फ

के किनारों एवं

समुद्र की तलहटियों

से साक्ष्य प्राप्त

कर रहे हैं।

ऋतु परिवर्तन

के कारणों को

दो भागों में

बांटा जा सकता

है- एक जो प्राकृतिक

कारण हैं तथा

दूसरे जो मानवीय

कारण हैं।













प्राकृतिक

कारणः



ऋतु

परिवर्तन के

लिए अनेक प्राकृतिक

कारक उत्तरदायी

हैं। उनमें से

कुछ प्रमुख हैं

महाद्वीपीय

अपसरण, ज्वालामुखी,

समुद्री लहरें,

पृथ्वी का झुकाव

एवं धूमकेतु

तथा उल्कापिंड।

आइए इन्हें विस्तार

से जानें।

















§





महाद्वीपीय अपसरण



विश्व

के मानचित्र

पर दक्षिण अमेरिका

एवं अफ्रीका

के संबंध में

आपने कुछ असाधारण

पाया होगा- एक

चित्रखंड पहेली

की तरह क्या

वे एक-दूसरे

में समाहित होते

प्रतीत नहीं

होते?



बीस

करोड़ वर्ष पहले

वे एक-दूसरे

से जुड़े हुए

थे। वैज्ञानिक

मानते हैं कि

उस समय पृथ्वी

वैसी नहीं थी

जैसी कि आज हम

देखते हैं, परंतु

सभी महाद्वीप

एक बड़े भूभाग

के टुकड़े थे।

इस का प्रमाण

पौधों एवं जानवरों

के जीवाश्मों

तथा दक्षिण अमेरिका

की पूर्वी तटरेखा

तथा अफ्रीका

की पश्चिमी तटरेखा

जिन्हें अटलांटिक

महासागर अलग

करता है, से प्राप्त

विशाल शैल पट्टियों

से उपलब्ध होता

है। ऊष्णकटिबन्धीय

पौधों के जीवाश्मों

(कोयले के रूप

में) की खोज से

यह निष्कर्ष

निकलता है कि

भूतकाल में यह

भूमि निश्चित

रूप से भूमध्य

रेखा के निकट

रही होगी जहाँ

का मौसम ऊष्णकटिबन्धीय

था तथा यहाँ

दलदली व पर्याप्त

हरियाली थी।













आज जिन

महाद्वीपों

से हम परिचित

हैं वे करोड़ों

वर्ष पहले तब

बने जब भूभाग

शनैः-शनैः अलग

होने लगे। इस

विखंडन का प्रभाव

मौसम पर भी पड़ा

क्योंकि इसने

भू-भाग की भौतिक

विशेषताओं, उनकी

अवस्थिति एवं

जल निकायों का

स्थान परिवर्तित

कर दिया। भू-भाग

के इस विलगाव

ने समुद्री लहरों

की धार व हवा

में परिवर्तन

किया जिसने मौसम

को प्रभावित

किया। महाद्वीपों

का यह विखंडन

आज भी जारी है;

हिमालय श्रृंखला

1 मि0मी0 प्रत्येक

वर्ष उपर बढ़

रही है क्योंकि

भारतीय भू-भाग

धीरे-धीरे परंतु

लगातार एशियाई

भू-भाग की ओर

बढ़ रहा है।

















§





ज्वालामुखी



जब कोई

ज्वालामुखी

फटता है तो यह

वातावरण में

बहुत अधिक मात्रा

में सल्फर डाइऑक्साइड,

जल वाष्प, धूल

एवं राख फेंकता

है। यद्यपि ज्वालामुखी

की गतिविधि कुछ

दिनों तक ही

रहती है तथापि,

गैस एवं धूल

की वृहद् मात्रा

कई वर्षों तक

मौसम रचना को

प्रभावित कर

सकती है। किसी

प्रमुख विस्फोट

से सल्फर डाइऑक्साइड

गैस लाखों टन

में वायुमंडल

की ऊपरी परत

(समतापमंडल)

में पहुँच सकती

है। गैस एवं

धूल सूर्य से

आने वाली किरणों

को आंशिक रूप

से ढक लेते हैं

जिससे शीतलता

छा जाती है।

सल्फर डाइआक्साइड

जल के साथ मिल

कर सल्फ्यूरिक

एसिड यानी गंधक

के अम्ल के छोटे

कण बनाता है।

यह कण इतने छोटे

होते हैं कि

वर्षों तक ऊँचाई

पर रह सकते हैं।

सूर्य की किरणों

के ये सक्षम

प्रत्यावर्तक

हैं एवं भूमि

को उस ऊर्जा

से वंचित रखते

हैं जो सामान्यतः

सूर्य से प्राप्त

होती। वायुमंडल

की ऊपरी परत,

जिसे समताप मंडल

कहते हैं, की

हवा वायु-विलयों

(Aerosols) को तेजी से

पूर्व या पश्चिम

की दिशा में

ले जाती है।

वायु-विलयों

का उत्तर या

दक्षिण की दिशा

में जाना हमेशा

ही बहुत धीमा

होता है। इससे

आपको उन उपायों

का अंदाजा हो

जाना चाहिए जिसके

द्वारा किसी

प्रमुख ज्वालामुखी

विस्फोट के बाद

शीतलता लाई जा

सकती है।













फिलीपीन्स

द्वीप में स्थित

माउंट पिनाटोबा

में अप्रैल 1991

में विस्फोट

हुआ एवं इससे

वायुमंडल में

हजारों टन गैस

उत्सर्जित हुई।

ऐसे विशाल ज्वालामुखी

विस्फोट पृथ्वी

पर पहुँचने वाली

सौर विकिरणों

को रोक सकते

हैं, वायुमंडल

के निचले स्तर

(क्षोम मंडल)

में तापमान को

कम कर सकते हैं

एवं वायुमंडलीय

संचलन परिवर्तन

कर सकते हैं।

ऐसा किस सीमा

तक हो सकता है,

यह एक जारी रहने

वाला विषय है।













दूसरा

आश्चर्यजनक

घटना 1816 ई0 में हुई

जिसे अक्सर ‘‘ग्रीष्म

ऋतु विहीन’’ वर्ष

कहा जाता है।

न्यू इंग्लैन्ड

एवं पश्चिमी

यूरोप में महत्वपूर्ण

मौसम-संबंधी

विघटनाएं घटी

तथा संयुक्त

राज्य अमेरिका

एवं कनाडा में

जानलेवा शीतलहर

चली। इन अनोखी

घटनाओं का कारण

1815 में इंडोनेशिया

में टम्बोरा

ज्वालामुखी

में विस्फोट

को माना जाता

है।

















§





पृथ्वी का झुकाव



प्रत्येक

वर्ष पृथ्वी

सूर्य के चारों

एक पूरी परिक्रमा

करता है। यह

अपने परिक्रमा

मार्ग पर 23.50

के कोण पर लम्बवत

झुकी हुई है।

वर्ष के आधे

समय जब गर्मी

होती है उत्तरी

भाग सूर्य की

तरफ झुका होता

है। दूसरे आधे

समय जब ठंड होती

है, तो पृथ्वी

सूर्य से दूर

होती है। यदि

झुकाव नहीं होता

तो हमें मौसम

का अनुभव नहीं

होता। पृथ्वी

के झुकाव में

परिवर्तन मौसम

की तीव्रता को

प्रभावित कर

सकता है- अधिक

झुकाव का अर्थ

है अधिक गर्मी

और कम ठंड; कम

झुकाव का अर्थ

है कम गर्मी

और अधिक ठंड।













पृथ्वी

की धुरी कुछ-कुछ

अंडाकार है।

इसका अर्थ हुआ

कि एक वर्ष में

सूर्य और पृथ्वी

की दूरी बदलती

रहती है। हम

सामान्यतः सोचते

हैं कि पृथ्वी

की धुरी निर्धारित

है क्योंकि यह

हमेशा ही पोलैरिस

(जिसे ध्रुव

तारा या नॉर्थ

स्टार भी कहा

जाता है) की तरफ

इंगित करता प्रतीत

होता है। वास्तव

में यह एकदम

स्थिर नहीं हैं.

धुरी भी प्रति

शताब्दी आधे

डिग्री से कुछ

अधिक की गति

से घूमती है

इसलिए पोलैरिस

हमेशा ही उत्तर

की तरफ इंगित

करता हुआ न तो

रहा है और न ही

रहेगा। जब 2500 ई0पू0

वर्ष पहले, पिरामिड

का निर्माण हुआ

था, तो थुबन तारा

(अल्फा ड्रैकोनिस)

के निकट ध्रुव

था। पृथ्वी की

धुरी की दिशा

में यह धीमा

परिवर्तन, जिसे

विषुवतीय अयन

भी कहा जाता

है, ऋतु परिवर्तन

के लिए उत्तरदायी

है।

















§





समुद्री लहरें



ऋतु

व्यवस्था का

एक प्रमुख घटक

समुद्री लहरें

हैं। पृथ्वी

के 71% भाग में ये

फैले हुए हैं

एवं वायुमंडल

या भूमि से दोगुना

सौर विकिरणों

को अवशोषित करते

हैं। समुद्री

लहरें ताप की

एक बड़ी मात्रा

को ग्रह के अन्य

भागों में फैलाते

हैं- यह मात्रा

वायुमंडल के

लगभग बराबर है।

लेकिन समुद्र

भू-भाग से घिरे

हुए हैं, अतः

जल द्वारा ताप

का संचरन मार्गों

से होता है।













वायु

समुद्र तल के

क्षैतिज स्तर

पर बहती है एवं

समुद्री लहरें

बनाती है। विश्व

के कुछ भाग अन्य

भागों की अपेक्षा

समुद्री लहरों

से अधिक प्रभावित

होते हैं। पेरू

का तट एवं अन्य

निकटवर्ती क्षेत्र

हम्बोल्ट लहरों

से प्रभावित

है जो पेरू के

तट के किनारे

बहती है। प्रशान्त

महासागर में

अब नीनो की घटना

दुनिया भर की

मौसमी परिस्थितियों

को प्रभावित

कर सकती है।













उत्तरी

अटलांटिक ऐसा

दूसरा क्षेत्र

है जो समुद्री

लहरों से बहुत

प्रभावित है।

यदि हम उसी अक्षांश

पर स्थित यूरोप

एवं उत्तरी अमेरिका

के स्थानों की

तुलना करें तो

प्रभाव तत्काल

स्पष्ट हो जाएगा।

इस उदाहरण पर

गौर करें- तटीय

नॉर्वे के कुछ

भागों का जनवरी

में औसत तापमान-

20C व जुलाई में

400C है; जबकि

इसी अक्षांश

पर अलास्का के

प्रशांत तट का

स्थान अत्यंत

ठंडा है- 150C जनवरी

में एवं केवल

100C जुलाई में।

नॉर्वे के तटों

पर बहने वाली

गर्म लहरें ठंड

में भी ग्रीनलैंड

नॉर्वे के समुद्र

में बर्फ जमने

नहीं देती। आर्कटिक

महासागर का शेष

भाग दक्षिण से

सुदूर होते हुए

भी जमा रहता

है।













समुद्री

लहरें या तो

अपना मार्ग बदल

लेती हैं या

धीमी पड़ जाती

हैं। समुद्र

से निकलने वाली

उष्मा का एक

बड़ा भाग जल

वाष्प के रूप

में होता है

जो कि पृथ्वी

पर प्रचुरता

में पाया जाने

वाला ग्रीनहाउस

गैस है। तथापि

जल वाष्प बादल

बनाने में भी

मदद करते हैं

जो स्थल को ढक

कर शीतल प्रभाव

देते हैं।













इनमें

सभी या किसी

एक घटना का प्रभाव

ऋतु पर पड़ सकता

है जैसा कि 14,000

वर्ष पहले प्रथम

हिम युग की समाप्ति

पर हुआ माना

जाता है।













मानवीय

कारण



19वीं

शताब्दी में

औद्योगिक क्रांति

के दौरान औद्योगिक

क्रिया-कलापों

के लिए बड़े

पैमाने पर जीवाश्म

ईंधन का प्रयोग

देखने में आया।

इन उद्योगों

से रोजगार सृजन

हुआ एवं लोगों

ने ग्रामीण क्षेत्रों

से शहरों की

ओर प्रस्थान

किया। यह परम्परा

आज भी चल रही

है। पेड़-पौधों

से भरी अधिक-से-अधिक

भूमि को भवन

निर्माण के लिए

साफ किया गया।

प्राकृतिक संसाधनों

का विस्तीर्ण

उपयोग निर्माण,

उद्योगों, परिवहन

एवं उपभोग के

लिए किया जा

रहा है। उपभोक्तावाद

(भौतिक वस्तुओं

की हमारी तृष्णा)

में तीव्रतर

वृद्धि हुई है

जिससे कूड़ा-करकट

का अंबार लग

गया है। साथ

ही हमारी जनसंख्या

अविश्वसनीय

सीमा तक बढ़

गई है।













इन सब

से वायुमंडल

में ग्रीनहाउस

गैसों की वृद्धि

हुई है। वाहनों

को चलाने, उद्योगों

के लिए विद्युत

उत्पन्न करने

के लिए, घर इत्यादि

के लिए जीवाश्म

ईंधन जैसे तेल,

कोयला एवं प्राकृतिक

गैसों से अधिकांश

ऊर्जा की पूर्ति

होती है। ऊर्जा

क्षेत्र ¾ भाग

कार्बन डाइआक्साइड,

1/5 भाग मिथेन एवं

नाइट्रस आक्साइड

की बड़ी मात्रा

में उत्सर्जन

के लिए उत्तरदायी

है। यह नाइट्रोजन

आक्साइड (NOx) एवं

कार्बन मोनोक्साइड

(CO) भी उत्पन्न

करता है जो यद्यपि

ग्रीनहाउस गैसें

नहीं है परंतु

इनका वायुमंडल

के रसायन चक्र

पर असर पड़ता

है जो ग्रीनहाउस

गैसें नष्ट करती

हैं।













ग्रीनहाउस

गैसें एवं उनका

स्रोत



कार्बन

डाइआक्साइड

निश्चित तौर

पर वायुमंडल

में सबसे महत्वपूर्ण

ग्रीनहाउस गैस

है। भू-उपयोग

पद्धति, वनों

का नाश, भूमि

साफ करने, कृषि

इत्याति जैसी

गतिविधियों

ने कार्बन डाइआक्साइड

के उत्सर्जन

की वृद्धि में

योगदान किया

है।













वायुमंडल

में दूसरी महत्वपूर्ण

गैस मीथेन है।

माना जाता है

कि मीथेन उत्सर्जन

का एक-चौथाई

भाग पालतू पशुओं

जैसे डेरी गाय,

बकरियों, सुअरों,

भैसों, ऊँटों,

घोड़ों एवं भेड़ों

से होता है।

ये पशु चारे

की जुगाली करने

के दौरान मीथेन

उत्पन्न करते

हैं। मीथेन का

उत्पादन चावल

और धान के खेतों

से भी होता है

जब वे बोने और

पकने के दौरान

बाढ़ में डूबे

होते हैं। जमीन

जब पानी में

डूबी होती है

तो ऑक्सीजन-रहित

हो जाती है।

ऐसी परिस्थितियों

में मीथेन उत्पन्न

करने वाले बैक्टीरिया

एवं अन्य जंतु

जैव सामग्री

को नष्ट कर मीथेन

उत्पन्न करते

हैं। संसार में

धान उत्पन्न

करने वाले क्षेत्र

का 90% भाग एशिया

में पाया जाता

है, चूंकि चावल

यहाँ मुख्य फसल

है। संसार में

धान उत्पन्न

करने वाले क्षेत्र

का 80-90% भाग चीन

एवं भारत में

है।













भूमि

को भरने तथा

कूड़े-करकट के

ढ़ेर से भी मीथेन

उत्सर्जित होता

है। यदि कूड़े

को भट्टी में

रखा जाता है

अथवा खुले में

जलाया जाता है

तो कार्बन डाइआक्साइड

उत्सर्जित होती

है। तेल शोधन,

कोयला खदान एवं

गैस पाइपलाइन

से रिसाव (दुर्घटना

एवं घटिया रख-रखाव)

से भी मीथेन

उत्सर्जित होती

है।













उर्वरकों

के उपयोग को

नाइट्रस आक्साइड

के विशाल मात्रा

में उत्सर्जन

का कारण माना

गया है। यह इस

बात पर भी निर्भर

करता है कि किस

प्रकार के उर्वरक

का उपयोग किया

किया है, कब और

किस प्रकार उपयोग

किया गया है

तथा उस के बाद

खेती की कौन

सी पद्धति अपनाई

गई है। लेग्युमिनस

पौधों जैसे बीन्स

एवं दलहन, जो

मिट्टी में नाइट्रोजन

की मात्रा को

बढ़ाते हैं,

भी इसके लिये

जिम्मेवार हैं।













हम सब

प्रति दिन कैसे

योगदान करते

हैं



दैनिक

जीवन में हम

में से प्रत्येक

का हाथ ऋतु के

इस परिवर्तन

में है। इन बिन्दुओं

पर गंभीरतापूर्वक

विचार करें:













- शहरी

क्षेत्रों में

ऊर्जा का प्रमुख

स्रोत विद्युत

है। हमारी सभी

घरेलू मशीनें

विद्युत से चलती

हैं जो ताप विद्युत

संयंत्रों से

उत्पन्न होती

है। ये ताप विद्युत

संयंत्र जीवाश्म

ईंधन (मुख्यतः

कोयला) से चलते

हैं एवं बड़ी

मात्रा में ग्रीन

हाउस गैसें एवं

अन्य प्रदूषकों

के उत्सर्जन

के लिए जिम्मेदार

है।



- कार,

बसें एवं ट्रक

वे प्रमुख साधन

हैं जिनके द्वारा

अधिकांश शहरों

में लोग यातायात

करते हैं। ये

मुख्यतः पेट्रोल

अथवा डीजल, जो

जीवाश्म ईंधन

हैं, पर कार्य

करते हैं।



- हम

प्लास्टिक के

रूप में बहुत

बड़ी मात्रा

में कूड़ा उत्पन्न

करते हैं जो

वर्षों तक वातावरण

में विद्यमान

रहता है एवं

नुकसान पहुँचाता

है।



- हम

विद्यालय एवं

कार्यालय में

कार्य के दौरान

बहुत बड़ी मात्रा

में कागज का

उपयोग करते हैं।

क्या कभी हमने

यह सोचा है कि

एक दिन में हम

कितने पेड़ों

का उपयोग करते

हैं?



- भवनों

के निर्माण में

बड़ी मात्रा

में लकड़ी का

उपयोग किया जाता

है। इसका मतलब

है कि वन के विशाल

भू-भाग की कटाई।



- बढ़ती

जनसंख्या का

मतलब है अधिक-से-अधिक

लोगों के लिए

भोजन की व्यवस्था।

चूंकि कृषि के

लिए बहुत सीमित

भू-भाग है (वास्तव

में, पारिस्थिकी

विनाश के कारण

यह संकुचित होती

जा रही है) अतः

किसी एक भू-भाग

से अपेक्षाकृत

अधिक उपजाऊं

फसलों किस्में

उगाई जा रही

हैं। तथापि,

फसलों की ऐसी

उच्च उपज वाली

नस्लों के लिए

विशाल मात्रा

में उर्वरक की

आवश्यकता होती

है, अधिक उर्वरक

उपयोग का अर्थ

है नाइट्रस आक्साइड

का अधिक उत्सर्जन

जो खेत, जहाँ

इसे डाला जाता

है, व उत्पादन

स्थल, दोनों

ही स्थानों से

होता है। उर्वरकों

के जल निकायों

में मिश्रण से

भी प्रदूषण होता

है।













ऋतु परिवर्तन

के प्रभाव









 मौसम परिवर्तन के कारण



ऋतु परिवर्तन

मानव के लिए

खतरा है। 19वीं

शताब्दी के अंत

के बाद से पृथ्वी

का औसत 0.3-0.60C तक

बढ़ गया है।

पिछले 40 वर्षों

के दौरान, यह

वृद्धि 0.2-0.30C रही

है।



1860 के बाद

से, जब से नियमित

सहायक अभिलेख

उपलब्ध है, हाल

के कुछ वर्ष

बहुत गर्म रहे

हैं। 1995 में, 2000 अग्रणी

वैज्ञानिकों

का एक समूह IPCC (ऋतु

परिवर्तन पर

अंतःशासकीय

पैनल) एकत्र

हुए और वे इस

निष्कर्ष पर

पहुँचे कि भूमंडलीय

तापन वास्तविक

है, गंभीर है

एवं यह तेजी

से बढ़ रहा है।

उन्होंने यह

अनुमान लगाया

कि अगले 100 वर्षों

के दौरान पृथ्वी

का औसत तापमान

1.4-5.80C तक और बढ़

सकता है। घोषित

चेतावनी का महत्व

नगण्य प्रतीत

हो सकता है लेकिन

पिछले 10,000 साल के

दौरान देखी गई

किसी भी अन्य

से इसकी दर कहीं

अधिक है। मौसम

प्रणाली में

परिवर्तनों

से हमारे जीवन

के कुछ महत्वपूर्ण

पहलू भी प्रभावित

हो सकते हैं

एवं उनमें से

कुछ पर यहाँ

चर्चा की गई

है।













कृषि



धीरे-धीरे

बढ़ रही जनसंख्या

ने खाद्यान्न

की अधिक माँग

को जन्म दिया

है। भूमि को



कृषि-योग्य

बनाने के साथ

ही प्राकृतिक

पारिस्थितिक

तंत्र पर दवाब

बढ़ेगा। प्रत्यक्षतः



तापमान

एवं वर्षा में

परिवर्तन तथा

अप्रत्यक्षतः

मिट्टी की गुणवत्ता,

कीटों एवं बीमारियों



के कारण कृषि

की उपज प्रभावित

होगी। विशेष

रूप से, भारत,

अफ्रीका एवं

मध्य-पूर्व में



अनाज के उत्पादन

में कमी संभावित

है। तापमान बढ़ने

के साथ परिस्थितियां

कीटों



विशेष रूप

से टिड्डों के

लिए सहज हो जाएंगी

और वे कई प्रजनन

चक्र पूरा कर

अपनी



जनसंख्या

बढ़ा सकेंगे।

ऊँचे अक्षांशों

में (उत्तरी

देशों में) तापमान

के बढ़ने से

कृषि को



लाभ होगा क्योंकि

शीत ऋतु छोटी

होगी एवं शरद

ऋतु लंबी होगी।

इसका यह भी



मतलब है कि

तापमान में वृद्धि

के साथ कीट उच्चतर

अक्षांशों की

तरफ बढ़ेंगे।













चरम मौसम परिस्थितियां

जैसे उच्च तापमान,

भारी वर्षा,

बाढ़ सूखा इत्यादि

भी फसल



उत्पादन को

प्रभावित करेंगे।













मौसम



गर्म मौसम

से वर्षा एवं

हिमपात में परिवर्तन,

सूखा एवं बाढ़

में वृद्धि,

हिमानी एवं ध्रुवीय



हिम

पट्टियों का

पिघलना एवं समुद्र-तल

के उठने में

तेजी से वृद्धि

आयेगी। गर्मी

में वृद्धि से

स्थलीय जल के

वाष्पीकरण स्तर

में बढ़ोतरी

होगी, वायु में

विस्तार के कारण

नमी धारण करने

की इसकी क्षमता

में वृद्धि होगी।

बदले में इससे

जल संसाधन, वन

एवं अन्य पारिस्थितिक

तंत्र, कृषि,

उर्जा उत्पादन,

आधारभूत संरचना,

पर्यटन, एवं

मानव स्वास्थ्य

प्रभावित होगा।

पिछले कुछ वर्षों

के दौरान अंधड़

एवं चक्रवात

की संख्या में

वृद्धि का कारण

तापमान में परिवर्तन

माना जा रहा

है।













समुद्र स्तर

में वृद्धि



तटीय क्षेत्र

एवं छोट द्वीप

दुनिया के सबसे

घनी आबादी वाले

क्षेत्रों में

से है। भूमंडलीय



तापन के कारण

समुद्र स्तर

में वृद्धि से

सबसे अधिक खतरा

भी उन्हें ही

है। समुद्रों

के



गर्म होने

तथा ध्रुवीय

हिम पट्टियों

के पिघलने के

कारण अगली शताब्दी

तक समुद्र का



औसत स्तर आधा

मीटर तक बढ़ने

का अनुमान है।

समुद्र स्तर

में वृद्धि का

तटीय क्षेत्रों



पर अनेक प्रभाव

पड़ सकते है

जिसमें आप्लावन

एवं अपरदन, बाढ़

में वृद्धि एवं



खारे पानी

के प्रवेश के

कारण भूमि का

नाश शामिल है।

यह सब तटीय खेती,

पर्यटन,



अलवणीय जल

संसाधन, मत्स्यपालन,

मानव स्थापना

एवं स्वास्थ्य

को विपरीततः



प्रभावित

कर सकता है।

समुद्रों के

बढ़ते स्तर से

नीचे स्थित अनेक

द्वीप राष्ट्रों

जैसे



मालदीव एवं

मार्शल द्वीप

के अस्तित्व

को खतरा है।













वर्षा एवं

हिमपात के कारण

बहुत सी नदियों

में जल की उपलब्धता

की बहुत कमी

हो



सकती है। कुछ

में हिमानियों

के पिघलने के

कारण मात्रा

बढ़ सकती है

जैसे, हिमालय



से निकलने

वाली नदियां।

जल उपलब्धता

में परिवर्तन

जल-विद्युत उत्पादन

एवं कागज,



औषधि एवं रसायन

उत्पादन जैसे

उद्योग को प्रभावित

कर सकता है जिनमें

अधिक मात्रा



में जल का उपयोग

होता है। भवन

एवं अन्य आधारभूत

संरचना आंधी

एवं अन्य तीव्र



घटनाओं

के कारण असुरक्षित

हो जायेगें जिसके

कारण परिवहन

मार्ग भी अस्त-व्यस्त

हो सकते है।













स्वास्थ्य



भूमंडलीय

तापन मानव स्वास्थ्य

को भी प्रत्यक्ष

रूप से प्रभावित

करेगा, जैसे-

ताप-जनित तनाव

की घटनाओं को

बढ़ाकर।













वन एवं वन्य

जीवन



पारिस्थितिक

तंत्र पृथ्वी

पर जीवों एवं

जैविक विविधता

के समग्र भंडारघर

का पोषण



करता है। प्राकृतिक

माहौल में पौधे

एवं पशु मौसम

में परिवर्तन

बहुत संवेदनशील

होते हैं।



इस परिवर्तन

से सबसे अधिक

प्रभावित उच्च

अक्षांश पर स्थित

टुंड्रा वन का



पारिस्थितिक

तंत्र है। महाद्वीपों

का आंतरिक भाग

तटीय क्षेत्रों

से अधिक गर्मी

का अनुभव



करेगा।













नेशनल

पार्क का उद्देश्य

वन्य जीवों को

मानव जाति द्वारा

प्रकृति के विनाशकारी

कार्य से सुरक्षा

प्रदान करना

है। लेकिन कोई

भी पार्क या

संरक्षण नियम

पारिस्थिक तंत्र

को ऋतु परिवर्तन

से बचा नहीं

सकता है। डब्ल्यू0डब्यलू0एफ0

द्वारा हाल में

प्रकाशित रिपोर्ट

में यह उल्लेख

किया गया है

कि इस अदृश्य

हत्यारे ने सबसे

अधिक हरियाली

वाले प्राकृतिक

क्षेत्रों को

भी अपने प्रकोप

में ले लिया

है। वोलोंग,

चीन के विशाल

पांडा, अमेरिका

के यलोस्टोन

नेशनल पार्क

के भालू एवं

भारत के कान्हा

नेशनल पार्क

के बाघ ऐसे कुछ

जीव हैं जिन्हें

भूमंडलीय तापन

से खतरा है।

पर्वत की चोटियों

को ऋतु परिवर्तन

के कारण वातावरण

में विनाश के

कारण विशेष रूप

से खतरा है।

उंचे स्थानों

पर रहने वाली

प्रजातियों

को अपने निवास

स्थान की तलाश

में और अधिक

उंचे स्थान की

ओर प्रवजन करना

पड़ा है जिससे

उनके लिए स्थान

में कमी आई है।

यदि ऋतु परिवर्तन

की गति तेज रही

तो कुछ पर्वतीय

पौधों एवं पशुओं

का विलोप होना

तय है।













प्रव्रजनकारी

पक्षी विश्व

के ठंडे उत्तरी

भाग से गर्म

दक्षिणी भाग

की ओर जाते हैं।

मार्ग में मौसम

एवं भोजन ऐसे

कुछ कारक है

जो उनकी यात्रा

के सफल समापन

के लिए अत्यंत

महत्वपूर्ण

है। ऋतु परिवर्तन

उनके भोजन स्थानों

एवं उनकी उड़ान

पद्धतियों में

परिवर्तन ला

सकता है।













समुद्रीय

जीवन



प्रवाल

को समुद्र का

ऊष्णकटिबंधीय

वन कहा जाता

है एवं यह विविध

जीवन रूपों को

पोषण प्रदान

करते हैं। आयन

सीमा में जल

के गर्म होने

के साथ प्रवाल

पट्टियों को

नुकसान में वृद्धि

होती जा रही

है। जल के तापमान

में परिवर्तन,

जिससे विरंजन

होता है, के प्रति

ये प्रवाल बहुत

संवेदी होते

हैं। विरंजन

के कारण ही ऑस्ट्रेलिया

के ग्रेट बैरियर

रीफ की विशाल

पट्टियों को

नुकसान पहुंचा

है।













समुद्र

के सतह पर तैरने

वाले प्राणीमंडप्लावक

(ज़ोप्लैंकटन्स)

की संख्या में

कमी हो रही है

जिससे इन जंतुओं

पर भोजन के लिए

निर्भर रहने

वाले मछलियों

और पक्षिओं की

संख्या में कमी

हो रही है।













अपने

वातावरण तथा

हमारे कार्य

किस प्रकार इसे

परिवर्तित करेंगे

के बारे में

अभी भी बहुत

कुछ ऐसा है जो

हम नहीं जानते

हैं। लेकिन एक

तथ्य तो स्पष्ट

रूप से कहा जा

सकता हैः- यदि

हम इन प्रश्नों

का उत्तर ढूंढ़ने

में समय नष्ट

करेंगे तो शायद

बहुत देर हो

चुकी होगी।













समाधान



ऋतु

परिवर्तन से

गंभीर समस्याएं

उत्पन्न होंगी

जिनका समाधान

सभी देशों को

मिल कर करना

होगा। वर्षों

से, पर्यावरण

समस्याओं पर

चर्चाओं के लिए

अनेक सम्मेलन

आयोजित किए गए

हैं एवं अनेक

समझौतों पर हस्ताक्षर

किए गए हैं।

इस प्रक्रिया

की शुरूआत 1972 में

स्टाकहोम सम्मेलन

से हुई लेकिन

ऋतु परिवर्तन

पर वार्तालाप

का आरंभ 1990 में

हुआ। इन वार्तालापों

का परिणाम 1972 में

ऋतु परिवर्तन

पर संयुक्त राष्ट्र

प्राधार प्रतिज्ञा

(United Nations Framework Convention on Climate Change) को

अंगीकार करने

के रूप में हुआ।













चूँकि

मानवीय क्रिया-कलापों

का जलवायु पर

काफी गहरा प्रभाव

पड़ता है, अतः

काफी समाधान

हमारे अपने हाथों

में है। हम जीवाश्म

इंधन के उपयोग

में कटौती कर

सकते हैं, उपभोक्तावाद

को कम कर सकते

हैं, वन-विनाश

को रोक सकते

हैं एवं पर्यावरणभिमुख

कृषि उपायों

के उपयोग को

बढ़ा सकते हैं।













ऊर्जा

क्षेत्र में,

उत्सर्जन कम

किया जा सकता

है, यदि ऊर्जा

की मांग कम की

जाए और यदि हम

उर्जा के ऐसे

परिष्कृत स्रोत

अपनाएं जिनसे

कार्बन डाइआक्साइड

का उत्सर्जन

नहीं होता। इनमें

सौर, वायु, भूताप

एवं अणु उर्जा

शामिल है।













अनेक

देशों ने कोयले

का उपयोग बंद

कर दिया है एवं

उर्जा के परिष्कृत

रूप को अपनाया

है। ऊर्जा दक्षता

एवं वैकल्पिक

ऊर्जा स्रोतों

के विकास में

जापान विश्व

में अग्रणी है।













उच्च

तकनीकों एवं

ईंधन पर चलने

वाले वाहनों

का परीक्षण किया

जा रहा है एवं

परिवहन क्षेत्र

में कड़े उत्सर्जन

नियम अपनाए जा

रहे हैं। कुछ

देशों ने उद्योगों

पर जुर्माना

लगाना आरंभ कर

दिया है यानि

प्रदूषणकारी

उद्योगों को

वहां की जनता

को जुर्माना

देना पड़ता है।













विश्व

भर में सरकारों

को यह सुनिश्चित

करना चाहिए कि

वन क्षेत्र बरकरार

रहे क्योंकि

पौधे अपने विकास

के लिए कार्बन

डाइआक्साइड

का उपयोग करते

हैं एवं इस प्रकार

इसे वातावरण

से हटाने में

मदद करते हैं।

इसीलिए वनों

को कार्बन डाइआक्साइड

की ‘नली’ कहा जाता

है। यदि वनों

की कटाई की जाती

है तो अविलंब

पौधे लगाए जाने

चाहिए। बरसाती

जमीन एक अन्य

पारिस्थिक तंत्र

है जो पारिस्थतिक

संतुलन बनाए

रखने में अपनी

महत्वपूर्ण

भूमिका द्वारा

पर्यावरण को

स्थिर बनाए रखती

है। इन क्षेत्रों

के संरक्षण को

सर्वोच्च प्राथमिकता

दी जानी चाहिए।













जैव-तकनीकी

का उपयोग फसलों

की जलीय आवश्यकता

को कम करने, फसल

उत्पादन बढ़ाने

एवं उर्वरकों

एवं कीटनाशकों

का प्रयोग कम

करने के लिए

किया जा सकता

है। प्रयोगशालाओं

में धान की ऐसी

विशेष किस्मों

का विकास किया

जा रहा है जो

कम जल में भी

विकास कर सकती

है एवं जिसके

कारण मिथेन का

कम उत्सर्जन

होता है।



















 मौसम परिवर्तन के कारण



ग्रीनहाउस

प्रभाव



पृथ्वी

सूर्य से ऊर्जा

प्राप्त करती

है जो पृथ्वी

के धरातल को

गर्म करता है।

चूंकि यह ऊर्जा

वायुमंडल से

होकर गुजरती

है, इसका एक निश्चित

प्रतिशत (लगभग

30) तितर-बितर हो

जाता है। इस

ऊर्जा का कुछ

भाग पृथ्वी एवं

सूर्य की सतह

से वापस वायुमंडल

में परावर्तित

हो जाता है।

पृथ्वी को ऊष्मा

प्रदान करने

के लिए शेष (70%) ही

बचता है। संतुलन

बनाए रखने के

लिए यह आवश्यक

है कि पृथ्वी

ग्रहण किये गये

ऊर्जा की कुछ

मात्रा को वापस

वायुमंडल में

लौटा दे। चूँकि

पृथ्वी सूर्य

की अपेक्षा काफी

शीतल है, यह दृष्टव्य

प्रकाश के रूप

में ऊर्जा उत्सर्जित

नहीं करती है।

यह अवरक्त किरणों

अथवा ताप विकिरणों

के माध्यम से

उत्सर्जित करती

है। तथापि, वायुमंडल

में विद्यमान

कुछ गैसें पृथ्वी

के चारों ओर

एक आवरण-जैसा

बना लेती हैं

एवं वायुमंडल

में वापस परावर्तित

कुछ गैसों को

अवशोषित कर लेते

हैं। इस आवरण

से रहित होने

पर पृथ्वी सामान्य

से 300C और अधिक

ठंडी होती। जल

वाष्प सहित कार्बन

डाइआक्साइड,

मिथेन एवं नाइट्रस

ऑक्साइड जैसी

इन गैसों का

वातावरण में

कुल भाग एक प्रतिशत

है। इन्हें ‘ग्रीनहाउस

गैस’ कहा जाता

है क्योंकि इनका

कार्य सिद्धांत

ग्रीनहाउस जैसा

ही है। जैसे

ग्रीनहाउस का

शीशा प्राचुर्य

उर्जा के विकिरण

को रोकता है,

ठीक उसी प्रकार

यह ‘गैस आवरण’

उत्सर्जित कुछ

उर्जा को अवशोषित

कर लेता है एवं

तापमान स्तर

को अक्षुण्ण

बनाए रखता है।

एक फ्रेंच वैज्ञानिक

जॉन-बाप्टस्ट

फोरियर द्वारा

इस प्रभाव का

सबसे पहले पता

लगाया गया था

जिसने वातावरण

एवं ग्रीनहाउस

की प्रक्रियाओं

में समानता को

साबित किया और

इसलिए इसका नाम

‘ग्रीनहाउस प्रभाव’

पड़ा।













पृथ्वी

की उत्पति के

समय से ही यह

गैस आवरण अपने

स्थान पर स्थित

है। औद्योगिक

क्रांति के उपरांत

मनुष्य अपने

क्रिया-कलापों

से वातावरण में

अधिक-से-अधिक

ग्रीनहाउस गैसों

का उत्सर्जन

कर रहा है। इससे

आवरण मोटा हो

जाता है एवं

‘प्राकृतिक ग्रीनहाउस

प्रभाव’ को प्रभावित

करता है। ग्रीनहाउस

गैसें बनाने

वाले क्रिया-कलापों

को ‘स्रोत’ कहा

जाता है एवं

जो इन्हें हटाते

हैं उन्हें ‘नाली’

कहा जाता है।

‘स्रोत’ एवं ‘नाली’

के मध्य संतुलन

इन ग्रीनहाउस

गैसों के स्तर

को बनाए रखता

है।













मानवजाति

इस संतुलन को

बिगाड़ती है,

जब प्राकृतिक

नालियों से हस्तक्षेप

करने वाले उपाय

अपनाए जाते हैं।

कोयला, तेल एवं

प्राकृतिक गैस

जैसे इंधनों

को जब हम जलाते

हैं तो कार्बन

वातावरण में

चला जाता है।

बढ़ती हुई कृषि

गतिविधियां,

भूमि-उपयोग में

परिवर्तन एवं

अन्य स्रोतों

से मिथेन एवं

नाइट्रस आक्साइड

का स्तर बढ़ता

है। औद्योगिक

प्रक्रियाएं

भी कृत्रिम एवं

नई ग्रीनहाउस

गैसें जैसे सी0एफ0सी0

(क्लोरोफ्लोरोकार्बन)

उत्सर्जित करती

है जबकि यातायात

वाहनों से निकलने

वाले धुंए से

ओजोन का निर्माण

होता है। इसके

परिणामस्वरूप

ग्रीनहाउस प्रभाव

को साधारणतः

भूमंडलीय तापन

अथवा ऋतु परिवर्तन

कहा जाता है।









 मौसम परिवर्तन के कारण











 मौसम परिवर्तन के कारण



ग्रीनहाउस

प्रभाव पर अधिक

जानकारी के लिए

लिंकः







·





www.science.gmu.edu/~zli/ghe.html







·





www.fe.doe.gov/issues/climatechange/globalclimate_whatis.html













एल नीनो



ऊष्ण

कटिबंधीय प्रशांत

में समुद्र तापमान

और वायुमंडलीय

परिस्थितियों

में आये बदलाव

को एल नीनो कहा

जाता है जो पूरे

विश्व के मौसम

को अस्त-व्यस्त

कर देता है।

यह बार-बार घटित

होने वाली मौसमी

घटना है जो प्रमुख

रूप से दक्षिण

अमेरिका के प्रशान्त

तट को प्रभावित

करता है परंतु

इस का समूचे

विश्व के मौसम

पर नाटकीय प्रभाव

पड़ता है।













‘एल-नीन्यो’

के रूप में उच्चरित

इस शब्द का स्पैनिश

भाषा में अर्थ

होता है ‘बालक’

एवं इसे ऐसा

नाम पेरू के

मछुआरों द्वारा

बाल ईसा के नाम

पर किया गया

है क्योंकि ईसका

प्रभाव सामान्यतः

क्रिसमस के आस-पास

अनुभव किया जाता

है। इसमें प्रशांत

महासागर का जल

आवधिक रूप से

गर्म होता है

जिसका परिणाम

मौसम की अत्यंतता

के रूप में होता

है। एल नीनो

का सटीक कारण,

तीव्रता एवं

अवधि की सही-सही

जानकारी नहीं

है। गर्म एल

नीनो की अवस्था

सामान्यतः लगभग

8-10 महीनों तक बनी

रहती है।













सामान्यतः,

व्यापारिक हवाएं

गर्म सतही जल

को दक्षिण अमेरिकी

तट से दूर ऑस्ट्रेलिया

एवं फिलीपींस

की ओर धकेलते

हुए प्रशांत

महासागर के किनारे-किनारे

पश्चिम की ओर

बहती है। पेरू

के तट के पास

जल ठंडा होता

है एवं पोषक-तत्वों

से समृद्ध होता

है जो कि प्राथमिक

उत्पादकों, विविध

समुद्री पारिस्थिक

तंत्रों एवं

प्रमुख मछलियों

को जीवन प्रदान

करता है। एल

नीनो के दौरान,

व्यापारिक पवनें

मध्य एवं पश्चिमी

प्रशांत महासागर

में शांत होती

है। इससे गर्म

जल को सतह पर

जमा होने में

मदद मिलती है

जिसके कारण ठंडे

जल के जमाव के

कारण पैदा हुए

पोषक तत्वों

को नीचे खिसकना

पड़ता है और

प्लवक जीवों

एवं अन्य जलीय

जीवों जैसे मछलियों

का नाश होता

है तथा अनेक

समुद्री पक्षियों

को भोजन की कमी

होती है। इसे

एल नीनो प्रभाव

कहा जाता है

जोकि विश्वव्यापी

मौसम पद्धतियों

के विनाशकारी

व्यवधानों के

लिए जिम्मेदार

है।













अनेक

विनाशों का कारण

एल नीनो माना

गया है, जैसे

इंडोनेशिया

में 1983 में पड़ा

अकाल, सूखे के

कारण ऑस्ट्रेलिया

के जंगलों में

लगी आग, कैलिफोर्निया

में भारी बारिश

एवं पेरू के

तट पर एंकोवी

मत्स्य क्षेत्र

का विनाश। ऐसा

माना जाता है

कि 1982/83 के दौरान

इसके कारण समूचे

विश्व में 2000 व्यक्तियों

की मौत हुई एवं

12 अरब डॉलर की

हानि हुई।













1997/98 में

इस का प्रभाव

बहुत नुकसानदायी

था। अमेरिका

में बाढ़ से

तबाही हुई, चीन

में आंधी से

नुकसान हुआ,

ऑस्ट्रिया सूखे

से झुलस गया

एवं जंगली आग

ने दक्षिण-पूर्व

एशिया एवं ब्राजील

के आंशिक भागों

को जला डाला।

इंडोनेशिया

में पिछले 50 वर्षों

में सबसे कठिन

सूखे की स्थिति

देखने में आई

एवं मैक्सिको

में 1881 के बाद पहली

बार गौडालाजारा

में बर्फबारी

हुई। हिन्द महासागर

में मॉनसूनी

पवनों का चक्र

इससे प्रभावित

हुआ।













जब प्रशांत

महासागर में

दबाव की उपस्थिति

अत्यधिक हो जाती

है तब यह हिन्द

महासागर में

अफ्रीका से ऑस्ट्रेलिया

की ओर कम होने

लगता है। यह

प्रथम घटना थी

जिससे यह पता

चला कि ऊष्णकटिबंधी

प्रशांत क्षेत्र

के अन्दर तथा

इसके बाहर आये

परिवर्त्तन

एक पृथक घटना

नहीं बल्कि एक

बहुत बड़े प्रदोलन

के भाग के रूप

में घटित हुए

हैं।













ला नीनो



यह घटना

सामान्यतः एल

नीनो के बाद

होती है। ला

नीनो को कभी-कभी

एल वीयो, छोटी

बच्ची, अल नीनो-विरोधी

अथवा केवल ‘एक

ठंडी घटना’ अथवा

एक ‘ठंडा प्रसंग’

कहा जाता है।

ला नीनो (ला नी

न्या के रूप

में उच्चरित)

प्रशांत महासागर

का ठंडा होना

है।













एल नीनो

की तुलना में,

जोकि विषुवतीय

प्रशांत में

गर्म समुद्री

तापमान से युक्त

होता है, यह विषुवतीय

प्रशांत में

ठंडे समुद्री

तापमान की विशेषता

से युक्त होता

है। सामान्यतः

ला नीनो एल नीनो

की तुलना में

आधा होता है।













विश्व

के मौसम एवं

समुद्री तापमान

पर ला नीनो का

प्रभाव अल नीनो

का विपरीत होता

है। ला नीनो

वर्ष के दौरान

यू0एस0 में दक्षिण-पूर्व

में शीतकालीन

तापमान सामान्य

से कम होता है

एवं उत्तर-पश्चिम

में सामान्य

से ठंडा होता

है। दक्षिण-पूर्व

में तापमान सामान्य

से ज्यादा गर्म

एवं उत्तर-पश्चिम

में सामान्य

से अधिक ठंडा

होता है।













पश्चिमी

तट पर हिमपात

एवं वर्षा तथा

अलास्का में

असामान्य रूप

से ठंडे मौसम

का अनुभव किया

जाता है। इस

अवधि के दौरान

यहां पर, अटलांटिक

में सामान्य

से अधिक संख्या

में तूफान आते

हैं।













एल नीनो

एवं ला नीनो

पृथ्वी की सर्वाधिक

शक्तिशाली घटनाएं

हैं जो पूरे

ग्रह के आधे

से अधिक भाग

के मौसम को परिवर्तित

करती है।



















 मौसम परिवर्तन के कारण


















































 मौसम परिवर्तन के कारण



वर्ष 2000* में

विश्व मौसम की

स्थिति पर डब्यल्यू0एम0ओ0

का कथन













वर्ष

2000 के दौरान विश्व

मौसम में वही

प्रक्रिया रही

जो वर्ष 1990 में

थीः कुछ क्षेत्रों

में अत्यधिक

गर्मी अथवा अत्यधिक

ठंड, अत्यधिक

वर्षा अथवा गंभीर

सूखे का अनुभव

किया गया। अन्य

जगहों पर सामान्य-जैसी

स्थिति का अनुभव

किया गया, परंतु

औसतन विश्व मौसम

का सामान्य से

अधिक गर्म रहना

जारी है।













वर्ष

2000 में विश्व तापमान
1999 के समान

ही था जो कि डब्ल्यू0एम0ओ0

(विश्व मौसम

संगठन) के सदस्यों

द्वारा रखे गए

अभिलेखों के

अनुसार पिछले

140 वर्ष में पांचवा

सबसे गर्म वर्ष

था। वर्ष 1998 के

बाद 1997, 1995 एवं 1990 सबसे

गर्म वर्ष था।

विषुवत प्रशांत

सभी जगहों पर

‘नीसा’ को नीका

कर दें। के सतत

शीतलन प्रभाव

के बावजूद वर्ष

2000 में गर्म वर्षों

का क्रम जारी

है। 21वीं सदी

के आरंभ में

विश्व का औसत

तापमान 0.60C था

जोकि 20वीं सदी

के आरंभ में

से अधिक था।













अधिकांश

गैर-विषुवतीय

उत्तरी गोलार्ध

में प्रत्येक

मौसम में औसत

से अधिक तापमान

का अनुभव किया

गया। तथापि,

पूर्वी विषुवत

प्रशांत सामान्य

से अधिक ठंडा

था क्योंकि ला

नीनो वर्ष के

आरंभ में तीव्र

था, जुलाई तथा

अगस्त में कमजोर

था तथा वर्ष

के अंत में इसकी

वापसी के लक्षण

दिखाई दिए। शेष

विषुवत एवं गैर

विषुवत दक्षिणी

गोलार्ध में

अनेक विषमताएं

थीं एवं इसमें

गर्मी की बहुलता

थी।













वर्ष

के पहले आधे

भाग तथा वर्ष

के अंत में पूरे

विषुवत में बरसात

की अभिरचना यानि

वर्षा पर ला

नीनो जैसी स्थितियों

की प्रमुखता

थी। इंडोनेशिया,

विषुवतीय हिन्द

महासागर एवं

पश्चिम विषुवत

प्रशांत- इन

सभी में दोनों

अवधियों के दौरान

भारी वर्षा होती

थी जबकि मध्य

विषुवत प्रशांत

में वस्तुतः

कोई वर्षा नहीं

होती थी। ला

नीनो से प्रभावित

अन्य क्षेत्रों

में ऑस्ट्रेलिया,

उत्तर-पूर्व

दक्षिण अमेरिका

एवं दक्षिण अफ्रीका

था जिनमें इन

अवधियों के दौरान

भारी बारिश होती

थी। दक्षिण एशिया

में मॉनसून बारिश

भी बहुत था।

दूसरी तरफ, ला

नीनो के कारण

भूमध्यरेखीय

पूर्वी अफ्रीका

एवं संयुक्त

राज्य अमरिका

के तटों के किनारे

सामान्य से कम

वर्षा हुई।













तूफान,

अंधड़ एवं बाढ़



वर्ष

2000 के दौरान अटलांटिक

में 15 तूफान एवं

आंधी आई (औसत

10 है), जबकि प्रशांत

महासागर में

केवल 22 आंधी आई

जो कि 28 के औसत

से कम है। इनमें

सबसे उल्लेखनीय

तूफान कीथ और

गॉर्डन था जिसने

मध्य अमेरिका

में भारी नुकसान

पहुंचाया। प्रशांत

महासागर में

साओ माइ अंधड़

के कारण जापान

के कुछ हिस्सों

में रिकार्ड-तोड़

वर्षा हुई तथा

दो प्रमुख तूफानों

के कारण दक्षिण-पूर्व

एशिया में अत्यधिक

वर्षा हुई। बंगाल

की खाड़ी के

उपर एक प्रमुख

चक्रवात का निर्माण

हुआ जिसने दक्षिण

भारतीय प्रायद्वीप

को नवम्बर के

अंत में प्रभावित

किया। इनके कारण

वर्षा एवं पवन

से संपत्ति की

घोर हानि हुई।

वर्ष का सबसे

विनाशकारी चक्रवात

इलीन, ग्लोरिया

एवं हुडा था

जिसने मैडागास्कर,

मोजाम्बिक एवं

दक्षिण अफ्रीका

के कुछ भाग को

प्रभावित किया

तथा इससे भारी

बाढ़ एवं जीवन

की हानि हुई।

फरवरी के अंत

में, स्टीव नामक

चक्रवात से ऑस्ट्रेलिया

में गंभीर नुकसान

हुआ एवं रिकार्ड

बाढ़ आई।













संसार

के अन्य हिस्सों

में भी भारी

बारिश हुई और

इससे बाढ़ आई।

सर्वाधिक उल्लेखनीय

तथ्य है कि अक्टूबर

में दक्षिणी

स्विट्जरलैंड

एवं उत्तर-पूर्वी

इटली में भारी

बाढ़ आई, कोलंबिया

में जून से अगस्त

तथा भारत, बांग्लादेश,

कंबोडिया, थाइलैंड

लाओस एवं वियतनाम

में मॉनसूनी

वर्षा के कारण

बाढ़ आई जिससे

जान और संपत्ति

की भारी हानि

हुई। केवल भारत

में ही एक करोड़

लोग प्रभावित

हुए जिसमें 650

मौतें हुई। मई

और जून में बाढ़

और भूस्खलन के

कारण मध्य और

दक्षिणी अमेरिका

में नुकसान और

जीवन की क्षति

हुई। ग्वाटेमाला

में बाढ़ के

कारण भूस्खलन

से, 13 लोगों की

मौत हुई. पश्चिमी

क्वींसलैंड

के कुछ हिस्सों

में, जिसका वार्षिक

औसत वर्षा 200-300

मि0मी0 है, फरवरी

में 400 मि0मी0 वर्षा

हुई। नवम्बर

में भारी बारिश

के कारण मध्य

एवं उत्तर-पश्चिमी

क्वींसलैंड

में बाढ़ आई

जिससे न्यू साउथ

वेल्स का एक-तिहाई

हिस्सा प्रभावित

हुआ।













लू, सूखा

एवं आग



प्रमुख

सूखों ने उत्तरी

चीन के रास्ते

दक्षिण-पूर्वी

यूरोप, मध्य-पूर्व

एवं मध्य एशिया

को प्रभावित

किया। बुल्गारिया,

ईरान, ईराक, अफगानिस्तान

एवं चीन के कुछ

हिस्से विशेष

रूप से प्रभावित

थे। तीस सालों

में ईरान का

यह सबसे बदतर

सूखा था जिसमें

फसल व पशुधन

की हानि हुई।













जून

एवं जुलाई के

दौरान शताब्दी

पुराने रिकॉर्ड

को तोड़ने वाली

चिलचिलाती लू

ने दक्षिणी यूरोप

को प्रभावित

किया। इस लू

ने क्षेत्र में

अनेक जाने ली

क्योंकि तुर्की,

ग्रीस, रोमानिया

एवं इटली में

तापमान 430C से

भी अधिक हो गया

था। बुल्गारिया

में 05 जुलाई को

75% केन्द्रों

पर दैनिक अधिकतम

तापमान का 100 वर्षों

का रिकॉर्ड टूट

गया।













हार्न

ऑफ अफ्रीका में

लगातार तीसरे

वर्ष औसत से

कम वर्षा ने

क्षेत्र के काफी

बड़े हिस्से

में विद्यमान

सूखे की स्थिति

को और बदतर किया

जिससे भोजन की

भारी कमी हो

गई। इस सूखे

से लाखों-करोड़ो

लोग प्रभावित

हुए। इथियोपिया

तथा कीनिया,

सोमालिया, इरीट्रीया

एवं जिबूति विशेष

रुप से प्रभावित

थे।













शीत

लहर, राष्ट्रीय

तापमान एवं वर्षा

विषमता



चीन

एवं मंगोलिया

के बड़े हिस्से

को जनवरी व फरवरी

के दौरान घोर

ठंड ने प्रभावित

किया। जनवरी

व फरवरी में

जाड़े की स्थिति

ने भारत के कुछ

हिस्सों को प्रभावित

किया एवं इससे

300 मौतें हुई।





1866 में

मापन के आरंभ

के बाद से नॉर्वे

में तीसरा सबसे

गर्म वर्ष रिकार्ड

किया गया है।

पिछले 140 वर्षों

के दौरान न्यूजूलैंड

में कम ठंडी

शीत ऋतु के विपरीत

कम गर्मी वाली

ग्रीष्म ऋतु

का अनुभव किया

गया।



इंग्लैंड

एवं वेल्स 235-वर्ष

की मासिक बारिश

श्रृंखला में

अप्रैल 2000 सबसे

वर्षा वाला माह

था. 235-वर्ष के रिकॉर्ड

में यह सबसे

ज्यादा वर्षा

वाला शरदकालीन

समय था एवं सबसे

ज्यादा बारिश

वाला 3 माह का

रिकॉर्ड भी।













*वर्ष

2000 के नवम्बर अंत

तक के लिए यह

आरंभिक सूचना

जहाजों, प्लावों

एवं जमीन पर

स्थित मौसम स्टेशनों

के प्रेक्षणों

पर आधारित है।

डब्ल्यू0एम0ओ0

सदस्य देशों

की नेशनल मेटरोलॉजिकल

एंड हाइड्रोलॉजिकल

सर्विसेज द्वारा

इन आंकड़ों का

सतत संकलन एवं

वितरण किया जाता

है।













नक्शा

भी देखें:









 मौसम परिवर्तन के कारण





ओज़ोन

परत



ओज़ोन

परत समतापमंडल

के तापमान को

संतुलित बनाए

हुए है तथा सूर्य

से निकलने वाली

हानिकारण पराबैंगनी

किरणें को अवशोषित

कर ग्रह पर जीवन

की रक्षा करता

है। ओज़ोन कण

अथवा ओज़ोन परत

समताप मंडल में

15-35 किमी की ऊँजाई

पर स्थित है।

यह माना जाता

है कि लाखों

वर्षों से वायुमंडलीय

संरचना में अधिक

बदलाव नहीं आया

है। लेकिन पिछले

पचास वर्षों

में मनुष्य ने

प्रकृति के उत्कृष्ट

संतुलन को वायुमंडल

में हानिकारक

रसायनिक पदार्थों

को छोड़कर अस्त-व्यस्त

कर दिया है जो

धीरे-धीरे इस

जीवरक्षक परत

को नष्ट कर रहा

है।













ओज़ोन

की उपस्थिति

की खोज पहली

बार 1839 ई0 में सी

एफ स्कोनबिअन

के द्वारा की

गई जब वह वैद्युत

स्फुलिंग का

निरीक्षण कर

रहे थे। लेकिन

1850 ई0 के बाद ही

इसे एक प्राकृतिक

वायुमंडलीय

संरचना माना

गया। ओज़ोन का

यह नाम ग्रीक

(यूनानी) शब्द

ओज़ेन (ozein) के आधार

पर पड़ा जिसका

अर्थ होता है

"गंध" इसके सांन्द्रित

(गाढ़ा) रूप में

एक तीक्ष्ण तीखी/कड़वी)

गंध होती है।

1913 ई0 में, विभिन्न

अध्ययनों के

बाद, एक निर्णायक

सबूत मिला कि

यह परत मुख्यतः

समतापमंडल में

स्थित है तथा

यह सूर्य की

हानिकारक पराबैंगनी

किरणों को अवशोषित

कर लेती है।

1920 के दशक में, एक

ऑक्सफोर्ड वैज्ञानिक,

जी एम बी डॉब्सन,

ने सम्पूर्ण

ओज़ोन की निगरानी

(मानीटर करने)

के लिए यंत्र

बनाया।













समताप

मंडल में ओज़ोन

की उपस्थिति

विषुवत-रेखा

के निकट अधिक

सघन और सान्द्र

है तथा ज्यों-ज्यों

हम ध्रुवों की

ओर बढ़ते हैं,

धीरे-धीरे इसकी

सान्द्रता कम

होती जाती है।

यह वहाँ उपस्थित

हवाओं की गति,

पृथ्वी की आकृति

और इसके घूर्णन

पर निर्भर करता

है। ध्रुवों

पर मौसम के अनुसार

यह बदलता रहता

है। ओज़ोन परत

की क्षीणता दक्षिणी

ध्रुव जो अंटार्कटिका

पर है, पर स्पष्ट

दिखाई देती है,

जहाँ एक विशाल

ओज़ोन छिद्र

है। उत्तरी ध्रुव

में ओज़ोन परत

बहुत अधिक नष्ट

नहीं हुई है।

विश्व मौसम-विज्ञान

संस्था (WMO) ने ओज़ोन

क्षीणता की समस्या

को पहचानने और

संचार में अहम

भूमिका निभायी

है। चूँकि वायुमंडल

की कोई अंतर्राष्ट्रीय

सीमा नहीं है,

यह महसूस किया

गया कि इसके

उपाय के लिए

अंतराष्ट्रीय

स्तर पर विचार

होना चाहिए।





(UNEP) संयुक्त

राष्ट्र पर्यावरण

योजना ने विएना

संधि की शुरूआत

की जिसमें 30 से

अधिक राष्ट्र

शामिल हुए। यह

पदार्थों पर

एक ऐतिहासिक

विज्ञप्ति थी,

जो ओज़ोन परत

को नष्ट करते

हैं तथा इसे

1987 ई0 में मॉन्ट्रियल

में स्वीकार

कर लिया गया।

इसमें उन पदार्थों

की सूची बनाई

गई जिनके कारण

ओज़ोन परत नष्ट

हो रही है तथा

वर्ष 2000 तक क्लोरोफ्लोरो

कार्बन के उपयोग

में 50% तक की कमी

का आह्वान किया

गया। क्लोरोफ्लोरो

कार्बन अथवा

सी एफ सी को हरितगृह

प्रभाव के लिए

ज़िम्मेदार

गैस माना जाता

है। यह मुख्यतः

वातानुकूलन

मशीन, रेफ्रिजरेटर

से उत्सर्जित

होती है तथा

एरोसोल अथवा

स्प्रे इसके

प्रणोदक (बढ़ाने

वाला) हैं। एक

अन्य बहुत ज्यादा

उपयोग किया जाने

वाला रसायन मिथाइल

ब्रोमाइड है

जो ओज़ोन परत

के लिए एक चेतावनी

है। यह ब्रोमाइड

उत्सर्जित करता

है जो क्लोरीन

की तरह 30-50 गुणा

ज्यादा विनाशकारी

है। इसका उपयोग

मिट्टी, उपयोगी

वस्तुओं और वाहन

ईंधन संयोजी

के लिए धूमक

के रूप में होता

है (रोगाणुनाशी

के रूप में प्रयोग

किया जाने वाला

धुआँ)। वर्तमान

समय में कोई

ऐसा रसायन मौजूद

नहीं है जो पूरी

तरह से मिथाइल

ब्रोमाइड के

उपयोग को हटा

दें। यह स्पष्ट

रूप से कहना

चाहिए कि ओज़ोन

परत की आशा के

अनुरूप प्राप्ति

पदार्थों के

मॉन्ट्रयल प्रोटोकॉल

के बिना असंभव

है जो ओज़ोन

परत को नष्ट

करता है (1987) जिसने

ओज़ोन परत को

नुकसान पहुँचाने

वाले सभी पदार्थों

के उपयोग में

कमी के लिए आवाज

उठाया। विकासशील

राष्ट्रों के

लिए इसकी अंतिम

तिथि 1996 थी, जबकि

भारत को 2010 ई0 तक

इस बड़े विनाशकारी

रसायन को पूर्णतः

समाप्त कर देना

है।












प्राकृतिक

कुण्ड (हौज़)









 मौसम परिवर्तन के कारण



वैज्ञानिकों

ने पृथ्वी पर

ऐसी जगहों का

पता लगा लिया

है जिनमें हरितगृह

की गैसों को

अंदर रखने की

क्षमता है तथा

जो हमारे चारों

तरफ की हवा को

शुद्ध करती है।

ऐसी जगहों को

"प्राकृतिक

कुण्ड" कहते

हैं। इनमें से

कुछ प्राकृतिक

कुण्ड तो जंगल

(वृक्ष, पेड़-पौधे),

सागर तथा कुछ

हद तक मिट्टी

हैं, तथा सभी

में कार्बनडाईऑक्साड

लेने की क्षमता

है। वस्तुतः,

मिट्टी की क्रियाविधि

से मीथेन गैस

को हटाया जा

सकता है। वृक्ष

और अन्य पेड़-पौधे

कार्बन डाई-ऑक्साइड

अवशोषित करते

हैं तथा एक "गोदाम"

(Store house) अथवा "कार्बन

का कुण्ड" की

तरह काम करते

हैं। ये जंगल

दशकों और शताब्दियों

से जंगल में

कार्बन संग्रहण

क्षमता स्थापित

करने के लिए

कार्बन जमा कर

रहे हैं। बहुत

ही कम समय में

जंगल कार्बन

की अतिरिक्त

मात्रा को ग्रहण

करने की संभावना

व्यक्त करता

है।



























 मौसम परिवर्तन के कारण





जंगल

में संभवतः जैविक

आग से कार्बन

मुक्त होता है

या वृक्ष अपघटन

से अथवा आग की

स्थिति में कार्बन

वायुमंडल में

मुक्त हो जाता

है। किसी जंगल

में प्राकृतिक

कारणों से और

लोगों की लापरवाही

से अथवा उस क्षेत्र

में जहाँ लोग

पेड़ों को काटते

और जलाते हैं,

आग लग जाती है।

हालाँकि, जंगल

दोबारा कार्बन

कुण्ड बन सकता

है क्योंकि यह

जंगल के फैलाव

के साथ-साथ एकत्रित

होता है।













किसी

जंगल के पारिस्थितिकी-तंत्र

में

कार्बन के चार

तत्व होते हैं:-

वृक्ष, जंगल

की सतह पर बढ़ने

वाले पौधे, गिरे

हुए पत्ते तथा

जंगल की सतह

और मिट्टी में

अपघटित होने

वाले अन्य पदार्थ।

पौधे की वृद्धि

की प्रक्रिया

के दौरान कार्बन

अवशोषित हो जाता

है तथा कार्बन

वनस्पति कोशिका

निर्माण में

ग्रहण कर लिया

जाता है तथा

ऑक्सीजन को मुक्त

कर दिया जाता

है। जंगल की

सतह पर उगने

वाले पौधे इस

कार्बन के भण्डार

में वृद्धि करते

हैं। समय बीतने

के बाद, टहनियाँ,

पत्ते तथा अन्य

चीजें जंगल की

सतह पर गिरती

हैं तथा अपने

अपघटित होने

तक कार्बन को

जमा कर रखती

हैं। साथ ही,

जंगल की मिट्टी,

जड़/मिट्टी के

माध्यम से कुछ

अपघटित पौधों

को ग्रहण करती

है।













जंगलों

को लगाए जाने

को सम्पूर्ण

विश्व में सरकारों

द्वारा प्राथमिकता

दी जानी चाहिए।

उन्हें यह निश्चित

कर लेना चाहिए

कि जंगलों की

कटाई बंद हो

गई है। इसमें

सफलता प्राप्त

करने के लिए

उन्हें उन-लोगों

को ऊर्जा के

वैकल्पिक स्रोत

उपलब्ध कराने

चाहिए जो खाना

बनाने और ऊष्मा

के लिए लकड़ी

के ईंधन पर निर्भर

हैं।













वृक्षों

की तरह, सागर

भी कार्बन को

ग्रहण करने में

प्राकृतिक कुण्ड

की तरह काम करता

है। ये सागर

(समुद्री) जलवायु

को कार्बन डाईऑक्साइड

के अवशोषण और

भण्डारण से प्रभावित

करते हैं। जलवायु-परिवर्त्तन

का कारण मनुष्य

द्वारा निर्मित

कार्बन डाईऑक्साइड

तथा अन्य हरितगृह

गैसों का वायुमंडल

में बढ़ जाना

है। वैज्ञानिकों

का मानना है

कि सागर वर्त्तमान

समय में जीवाश्म-ईंधन

के जलने से उत्पन्न

कार्बन डाईऑक्साइड

का लगभग आधा

भाग अवशोषित

कर लेता है।













प्रवाल-भित्ति

(मूँगा-चट्टान)

को प्रायः सागर

का जंगल कहा

जाता है, यह एक

मुख्य कुण्ड

है जिसमें कार्बन

डाई-ऑक्साइड

की बड़ी मात्रा

जमा होती है।

प्लावक सागर

में उपस्थित

रहते हैं, यह

मुख्यतः उस क्षेत्र

में पाये जाते

हैं जहाँ गर्म

तरंगे, ठंढ़ी

तरंगों से मिलती

हैं। यह एक जलीय

पौधा है, स्थलीय

पौधों की तरह

यह प्रकाश-संश्लेषण

की क्रिया में

कार्बन-डाईऑक्साइड

ग्रहण करता है।

पानी में घुली

गैस की मात्रा

पर पादपप्लावक

का उल्टा असर

पड़ता है (सूक्ष्मदर्शीय

पौधा, खासकर

शैवाल), जो प्रकाश

संश्लेषण के

दौरान कार्बन-डाई-ऑक्साइड

अवशोषित करता

है। पादपप्लावक

की क्रिया मुख्यतः

पहले 50 मीटर की

सतह पर होती

है तथा मौसम

और क्षेत्र के

अनुसार बदलती

रहती है। सागर

के कुछ भाग पर

संभवतः पर्याप्त

प्रकाश नहीं

पहुँच पाता जिससे

वे बहुत ठंडे

हैं; अन्य क्षेत्रों

में पादपप्लावक

की वृद्धि के

लिए पोषकतत्वों

की कमी होती

है। एक पंप की

तरह प्लावक सागर

की सतह से गैस

और पोषक तत्व

इसकी गहराई तक

पहुँचाते हैं।

कार्बन-चक्र

में इसकी भूमिका

अन्य वृक्षों

से अलग है। सागरीय

जीव प्रकाश-संश्लेषण

के दौरान कार्बन

डाईऑक्साइड

अवशोषित करते

हैं तथा कुछ

गैस भीतर लगभग

वर्ष भर मुक्त

होते रहते हैं,

इनमें से कुछ

मृत पौधों, शारीरिक

भाग, मल तथा अन्य

डूबती वस्तुओं

द्वारा सागर

की गहराई में

भेजी जाती हैं।

तत्पश्चात्

अपघटित पदार्थों

के रूप में कार्बन

डाई ऑक्साइड

जल में मुक्त

होती है तथा

इनमें से अधिकांश

समुद्री जल में

जल कण के साथ़

रासायनिक रूप

से जुड़कर अवशोषित

हो जाती है।

सागर में गर्म

जल कार्बन डाईऑक्साइड

से सामान्यतः

संतृप्त रहता

है जबकि ठंढ़ा

जल असंतृप्त

रहता है और इसमें

कार्बन डाईऑक्साइड

को पकड़ कर रखने

की बहुत क्षमता

होती है। यह

गैस ठंढ़े संतृप्त

जल में घुलनशील

है। ध्रुव की

ओर, अक्षांश

पर जहाँ सागर

ठंडे हैं, जल

के नजदीक की

हवा में मौजूद

कार्बनडाईऑक्साइड

जल में घुल जाती

हैं। कार्बन

जो सागर के माध्यम

से दो प्रक्रियाओं

द्वारा अवशोषित

किया जाता है,

उसे लगभग 1000 वर्षों

तक सुरक्षित

रखा जा सकता

है।













अब उन

साधनों की खोज

की जा रही है

जिनसे सागरों

का उपयोग कार्बन

डाईऑक्साइड

के एक भण्डार

के रूप में होः

पहला कार्बनडाईआक्साइड

को केन्द्रीय

बिंदुओं से नल-तंत्र

द्वारा ग्रहण

करना अथवा एक

बड़े पात्र में

जमा कर उसे सागर

के भीतर डालना।

दूसरा, सागर

में अधिक पोषक

तत्व डालकर उसे

उर्वर बनाना

ताकि पादपप्लावक

की पर्याप्त

पैदावार हो जो

हवा से कार्बन

डाईआक्साइड

ग्रहण करेगा।

इसे कार्यात्मक

रूप देने से

पहले इन क्रियाओं

के पर्यावरण

पर पड़ने वाले

प्रभाव के बारे

में अध्ययन करना

अभी भी बाकी

है।













वर्ष

1999 में भारत की

जलवायु









 मौसम परिवर्तन के कारण



भारतीय मौसम-विज्ञान

विभाग ने एक

रिपोर्ट में

भारत में वर्ष

1999 के दौरान मौसम

के बारे में

निम्नलिखित

तथ्यों को प्रस्तुत

कियाः-













बर्फीली

हवाओं ने भारत

के उत्तरी भाग

को जनवरी में

सामान्य से 50

नीचे जाकर अपनी

चपेट में ले

लिया। जनवरी

और फरवरी माह

में बारिश होना

सामान्य बात

थी। फरवरी महीने

में बंगाल की

खाड़ी के ऊपर

एक चक्रवाती

तूफान बना जो

बहुत ही अस्वभाविक

था। जैसा कि

ज्ञात है कि

इस क्षेत्र में

वर्ष के इस समय

चक्रवात नहीं

बनते हैं।













वर्ष

1999 के मार्च और

अप्रैल माह न

केवल उस वर्ष

के बल्कि पिछले

दस सालों के

सबसे गर्म महीने

थे जिसमें गर्म

हवाओं ने उत्तरी

और मध्य भारत

को अप्रैल महीने

में अपनी चपेट

में ले लिया।

वस्तुतः इन गर्म

हवाओं की स्थित

को मार्च महीने

में ही देश में

अनुभव कर लिया

गया था। 27 अप्रैल

को तितलागढ़

में 47.60C महत्तम

तापमान रिकार्ड

किया गया।













वर्ष

1999 के मई महीने

में मानसून आने

के पूर्व ही

छीटें पड़ने

लगे थे, वास्तव

में वर्ष 1990 से

लेकर यह दूसरे

सबसे अधिक गीला

महीना था। इसी

महीने में अरब

सागर के ऊपर

एक प्रचण्ड चक्रवाती

तूफान उत्पन्न

हुआ लेकिन मार्ग

से ही वापस मुड़

गया, कमज़ोर

हो गया और 22 मई

को भारत में

पश्चिमी राजस्थान

में प्रवेश कर

गया, यह एक गहरे

विक्षोभ में

बदल गया। दक्षिण-पश्चिम

मानसून केरल

और तमिलनाडु

में 25 मई को आया,

यह सामान्य से

लगभग एक सप्ताह

पहले था। यद्यपि

देश के लगभग

सभी भागों में

बारिश सामान्य

थी, सितम्बर

माह में अन्य

महीनों की तुलना

में सर्वाधिक

बारिश हुई। गुजरात,

हरियाणा, दिल्ली,

तमिलनाडु, केरल,

अंडमान और निकोबार

द्वीप समूह तथा

पांडिचेरी में

कम वर्षा हुई।

वर्ष 1990 से लेकर

अक्टूबर दूसरा

सबसे अधिक बारिश

वाला महीना रिकार्ड

किया गया।













अक्टूबर

1999 एक ऐसे महीने

के रूप में याद

किया जाएगा जब

बड़ा चक्रवाती

तूफान, जिसे

शताब्दी का सबसे

खराब तूफान माना

जाता है, उड़ीसा

के तट पर आया।

इस बड़े चक्रवात

के पूर्व अन्य

प्रबल चक्रवात

पूर्वी तटों,

गोला पुर के

निकट बंगाल और

उड़ीसा के तट

पर 17 अक्टूबर

को आ चुका था।













दूसरा

प्रचण्ड चक्रवात

अडमान सागर में

25 तारीख को एक

दुःख/प्रकोप

के रूप में उत्पन्न

हुआ तथा यह उत्तर-पश्चमी

दिशा में घूम

गया और अधिक

तेज़ हो गया।

28 तारीख की रात

तक एक प्रचण्ड

चक्रवात में

बदल गया तथा 29 तारीख की

दोपहर तक पारादीप

के निकट उड़ीसा

तट को पार कर

गया। हवा की

अनुमानित चाल

250 किमी/घंटा थी

तथा ज्वारीय-तरंगे

30 फीट (9.14मी0) तक पहँच

गईं और पृथ्वी

पर भयानक तबाही

हुई। हजारों

लोगों की जान

गईं तथा करोड़ों

रूपये की सम्पत्ति

नष्ट हो गई।













नवम्बर-दिसम्बर

में पूरे देश

में सामान्य

से कम वर्षा

हुई। वास्तव

में वर्ष 1990 से

लेकर नवम्बर

में बारिश न्यूनतम

रिकार्ड की गई।

बंगाल की खाड़ी

अथवा अरब सागर

में कोई चक्रवाती

तूफान नहीं बना

जो, बात बहुत

ही असामान्य

थी। दिसम्बर

में कश्मीर के

कुछ भागों, हरियाणा,

पंजाब, गुजरात

और महाराष्ट्र

में मामूली ठंडी

हवाएँ चलीं।













नक्शा

भी देखें:













जलवायु

परिवर्तन को

कम करने के लिए

आप क्या कर सकते

हैं



यद्यपि

समस्याएँ बहुत

हैं, हम सभी व्यक्तिगत

और सामाजिक रूप

से सहयोग कर

सकते हैं, जो

हरितगृह गैस

के उत्सर्जन

को कम करेगा

और इसप्रकार

जलवायु के हानिकारक

प्रभाव में बदलाव

आएगा।























हमोलोगों

ने जलवायु परिवर्तन

के बारे में

जो कुछ सीखा

उसे आपस में

बाँटें तथा उसके

बारे में लोगों

को बताएँ।























वैसे घरेलू

यंत्र खरीदें

जो अधिक फलदायक

हों।























सभी तापदीप्त

बल्ब के स्थान

पर ठोस प्रतिदीप्त

बल्ब लगाएँ जो

इससे चार गुणा

ज्यादा चलता

है तथा विद्युत

का केवल एक-चौथाई

भाग प्रयोग करता

है।























घर ऐसा बनाएँ

जिसमें दिन में

सूर्य की रोशनी

आ सके तथा कृत्रिम

प्रकाश की जरूरत

कम हो। गलियों

में रोशनी के

लिए सोडियम वेपर

लाइट्स (Sodium Vapour Lights)

का उपयोग करें,

यह अधिक फलदायक

है।























कार के इंजन

को दुरूस्त रखें

तथा वैसे वाहनों

का प्रयोग करें

जिनमें कम ईंधन

की ज़रूरत हो।























बहुत

लंबे समय तक

इंजन को खाली

चलाने से बहुत

अधिक मात्रा

में ईंधन बर्बाद

होता है। इससे

आराम से बचा

जा सकता है, खासकर

किसी चौराहे

पर और यातायात

अवरोध (जाम) में

इंजन को बंद

करें।























कार समूह

बनाएँ तथा अपने

माता-पिता और

दोस्तों को ऐसा

करने के लिए

प्रोत्साहित

करें।























पड़ोस/नज़दीकी

बाज़ार साइकिल

से या पैदल जाएं।























ईंधन

और प्रदूषण को

कम करने के लिए

वाहन यातायात

को सुव्यवस्थित

करें। फ्रांस

तथा इटली में

दिन कारें नहीं

चलतीं (No Car Days) तथा

शहरों में बारी-बारी

से विषम और सम

लाइसेंस संख्या

वाली कारों के

लिए सीमित पार्किंग

है।























सभी लाइट्स,

टेलीविजन, पंखे,

वातानुकूलन

मशीनों, कम्प्यूटर

तथा विद्युत

यंत्रों को बंद

कर दें, जब उनका

उपयोग न किया

जा रहा हो।























अपने पड़ोस

में पौधे लगाएँ

तथा उनका ख्याल

रखें।























सभी डिब्बों,

बोतलों और प्लास्टिक

की थैलियों को

बदलें तथा जहाँ

तक हो सके ऐसी

चीजें खरीदें

जिसका पुर्नआवर्त्तन

होता हो।













जितना

कम हो सके कूड़ा/रद्दी

बनाएँ, क्योंकि

कूड़े से अधिक

मात्रा में मिथेन

गैस निकलती है

और जब इसे जलाया

जाता है, तब कार्बन

डाई-ऑक्साइड

गैस मुक्त होती

है।













जलवायु-परिवर्तन

से स्वास्थ्य

पर प्रभाव



जलवायु-परिवर्तन

एक बड़ी समस्या

है जो मानव की

बढ़ती क्रियाओं

से उत्पन्न होती

है



तथा तथा इससे

स्वास्थ्य पर

कई प्रत्यक्ष

और परोक्ष

प्रभाव पड़ते

हैं। जीवाश्म

ईंधन का



जलना, उद्योग-धंधों

की संख्या में

वृद्धि तथा व्यापक

पैमाने पर पेड़ों

की कटाई हरितगृह



गैसों (जमजड़)

के वायुमंडल

में जमा होने

के कुछ कारण

हैं। IPCC(जलवायु-परिवर्तन

के अन्तर-सरकारी

पैनल) के अनुसार

कार्बन डाई-आक्साइड

और अन्य हरितगृह

गैसों



(जमजड़) जैसे

मिथेन, ओज़ोन,

नाइट्रस ऑक्साइड

तथा क्लोरोफ्लोरो

कार्बन की वायुमंडल



में वृद्धि

से यह अनुमान

लगाया जाता है

कि विश्व का

औसत तापमान 1.50

सेल्सियस से



4.5 डिग्री सेल्सियस

तक बढ़ सकता

है। इसके विपरित

इससे वर्षा और

बर्फ गिरने में



बदलाव, अधिक

प्रचण्ड अथवा

निरन्तर अकाल,

बाढ़, तूफान

तथा समुद्री

सतह का ऊपर



उठना

आदि स्थितियाँ

उत्पन्न हो सकती हैं।

जलवायु- परिवर्तन

के हानिकारक

प्रभाव क्षेत्र

बहुत व्यापक

है जैसे हृदय-संबंधी

बीमारियाँ मृत्यु-दर,

निर्जलन (dehydration), संक्रामक

बीमारियों

का फैलना, कुपोषण,

तथा स्वास्थ्य

क्षीण करना।

इसीलिए, हमें

इस जलवायु-परिवर्त्तन

को रोकने के

लिए उपयुक्त

कदम उठाने चाहिए।













प्रत्यक्ष

प्रभाव



मौसम

का हमारी सेहत

पर प्रत्यक्ष

प्रभाव पड़ता

है। यदि पूरा

जलवायु गर्म

हो जाए तब स्वास्थ्य

की समस्याएँ

बढ़ेंगी। यह

महसूस किया जा

रहा है कि गर्म

हवाओं के तेज़

होने और उनकी

प्रचण्डता से

तथा दूसरी मौसमी

घटनाओं से मृत्युदर

में वृद्धि होगी

वृद्ध, बच्चे

और वे लोग जो

श्वसन और हृदय-संबंधी

रोग से पीड़ित

हैं, उन पर संभवतः

ऐसे मौसम का

ज्यादा असर होगा

क्योंकि उनमें

सहने की क्षमता

कम है। तापमान

में वृद्धि का

असर नगर में

रहने वाले लोगों

पर गाँव में

रहने वालों की

अपेक्षा ज्यादा

पड़ेगा। यह "ऊष्माद्वीप"

के कारण होता

है क्योंकि यहाँ कंकड़ और

तारकोल से बनी

सड़कें हैं।

नगरों में अधिक

तापमान के कारण

ओजोन के धरातलीय

स्तर में वृद्धि

होगी जिससे वायुप्रदूषण

जैसी समस्याएँ

बढ़ेंगी।













अप्रत्यक्ष

प्रभाव



अप्रत्यक्ष

रूप से, मौसम

के रूप में परिवर्तन

पारिस्थितकी

गड़बड़ी पैदा

कर सकता है, भोज्य

पदार्थों के

(खाद्यान्न)

उत्पादन स्तर

में बदलाव, मलेरिया

तथा अन्य संक्रामक

बीमारियाँ बीमारियां

जलवायु में परिवर्त्तन,

खास कर तापमान,

वष्टिपात तथा

आर्द्रता में

उतार-चढ़ाव जैविक

अवयवों तथा उन

प्रक्रियाओं

को प्रभावित

करते हैं जो

संक्रामक बीमारियों

के फैलने से

जुड़ी हैं।













उच्च

तापमान के कारण

समुद्री-स्तर

ऊपर उठेगा जिससे

भूक्षरण (अपरदन)

होगा तथा महत्वपूर्ण

पारिस्थितिकी

तंत्र जैसे बरसाती

भूमि (wetlands) और प्रवाल-भित्ति

को क्षति पहुँचाएगा।

इसका प्रत्यक्ष

प्रभाव, प्रचण्ड

बाढ़ के कारण

मृत्यु और चोट

के रूप में आ

सकता है। तापमान

बढ़ाने का अप्रत्यक्ष

नतीजा भूमिगत

जलतंत्र में

परिवर्तन के

रूप में होगा,

साथ ही तटीय

रेखा, जैसे खारे

जल का, भूमिगत

जल तथा बरसाती

भूमि में जाने

से प्रवाल-भित्ति

में क्षय तथा

निचले प्रदेशों

में अपवहन-तंत्र

को नुकसान होगा।

जलवायु परिवर्तन

के कारण वायु

प्रदूषण का स्तर

बढ़ेगा जिससे

वायुमंडलीय

रासायनिक प्रतिक्रिया

तेज़ हो जाएगी

तथा तापमान बढ़ाने

के कारण प्रकाश

रासायनिक उपचायक

(oxidants) उत्पन्न

होंगे।













बीमारियाँ



हरितगृह

गैस प्रभाव के

कारण ही समतापमंडलीय

ओज़ोन परत का

क्षय हो रहा

है जो सूर्य

की हानिकारक

किरणों से पृथ्वी

की रक्षा करती

है। समतापमंडलीय

ओज़ोन के क्षय

से सूर्य की

हानिकारक पराबैंगनी

किरणें बड़ी

मात्रा में पृथ्वी

पर पहुँचती हैं,

जिससे श्वेत

वर्ण के लोगों

में त्वचा कैंसर

जैसी बीमारियाँ

होती हैं। इसकी

वजह से बहुत-सारे

लोग मोतियाबिंद

जैसी आँख की

बीमारियों से

पीड़ित होंगे।

ऐसा अनुमान है

कि यह प्रतिरक्षक-तंत्र

(बीमारियों से

रक्षा करने वाले

तंत्र) को भी

भी समाप्त कर

सकता है।













विश्व

में गर्मी बढ़ने

के कारण उन क्षेत्रों

में वृद्धि होगा

जहाँ बीमारी

फैलाने वाले

कीड़े जैसे मच्छर

आदि उत्पन्न

होंगे जिससे

संक्रमण तेज़ी

से फैलेगा।













समुद्री-स्तर

बढ़ने के कारण

स्वास्थ्य पर

पड़ने वाले कुछ

संभावित प्रभाव

हैं:-



  • बाढ़ की

    वज़ह से मृत्यु

    तथा क्षति;
  • खारे पानी

    के प्रवेश के

    कारण शुद्ध

    जल की उपलब्धता

    में कमी।
  • प्रदूषण

    फैलाने वाले

    कूड़े कचड़े

    जो पानी में

    डूबे रहते हैं,

    इनके माध्यम

    से जल आपूर्ति

    का संदूषण
  • बीमारी फैलाने

    वाले कीड़ों

    में बदलाव
  • कृषिभूमि

    के क्षय के कारण

    पोषक-तत्व प्रभावित

    होंगे तथा मछली-पकड़ने

    में अंतर आएगा

    तथा
  • जनसंख्या

    विस्थापन से

    जुड़ी स्वास्थ्य

    समस्याएँ












रोकथाम के

उपाय



  • ऊर्जा के

    वैसे साधन जिनको

    दोबारा निर्मित

    नहीं किया जा

    सकता है, के उपयोग

    में कमी कर तथा

    निर्मित साधनों

    का उपयोग बेशक

    हरितगृह गैसों

    (जमजड़) के उत्सर्जन

    को पर्याप्त

    मात्रा में

    कम करेगा। हरित-गृह

    गैसों (जमजड़)

    की इस कमी का

    लोगों के स्वास्थ्य

    पर सकारात्मक

    प्रभाव पड़ेगा।

  • इसके अतिरिक्त,

    साफ ईंधन तथा

    ऊर्जावान तकनीक

    को अपनाने से

    अस्थायी प्रदूषकों

    को कम किया जा

    सकता है। इस

    प्रकार, स्वास्थ्य

    पर इसका अच्छा

    प्रभाव पड़ेगा।


Pradeep Chawla on 12-05-2019

ऋतु

परिवर्तन क्या

है?















कल्पना

करें कि ग्रीष्मकालीन

अवकाश के दौरान

आप पिकनिक के

लिए जा रहे हैं।

आप यह सोच कर

ही पसीने-पसीने

हो जाते हैं।

और यह भी सोच

कर कि आपके माता-पिता

ने बचपन में

इससे बेहतर और

कुछ नहीं चाहा

होता। सच, पिछले

कुछ दशकों के

दौरान हुआ ऋतु

परिवर्तन वाकई

विस्मयकारी

है।









forest





पृथ्वी

के अस्तित्व

में आने के समय

से ही एक व्यवस्था

रही है। किसी

स्थान का ऋतु

औसत मौसम है

जो एक निश्चित

समय में उसको

प्रभावित करता

है। वर्षा, सूर्य

की किरणें, वायु,

आद्रता एवं तापमान

ऐसे कारक हैं

जो किसी स्थान

की ऋतु को प्रभावित

करते हैं।













मौसम

में परिवर्तन

अचानक हो सकता

है एवं इसका

अनुभव किया जा

सकता है, जबकि

ऋतु परिवर्तन

होने में लंबा

समय लगता है

इसलिए इसे अनुभव

करना अपेक्षाकृत

कठिन है।

पृथ्वी के पूरे

इतिहास के दौरान

ऋतु परिवर्तन

होता रहा है।

हमेशा ही स्पष्ट

रूप से परिभाषित

ग्रीष्म एवं

शीत ऋतु रही

है एवं इस परिवर्तन

के प्रति सभी

जीवन रूपों ने

अपने आप को ढाल

लिया है।













गत 150-200

वर्षों के दौरान

यह परिवर्तन

अधिक तेजी से

हो रहा है एवं

कुछ विशेष प्रजाति

के पौधों एवं

जंतु इसके अनुसार

स्वयं को नहीं

ढाल पाएं हैं।

मानवीय गतिविधियां

परिवर्तन की

इस गति के लिए

जिम्मेदार है

एवं वैज्ञानिकों

के लिए यह चिंता

का एक कारण है।













पृथ्वी

के चारों ओर

का वायुमंडल

मुख्यतः नाइट्रोजन

(78%), ऑक्सीजन (21%) तथा

शेष 1% में सूक्ष्ममात्रिक

गैसों (ऐसा इसलिए

कहा जाता है

क्योंकि ये बिल्कुल

अल्प मात्रा

में उपस्थित

होती हैं) से

मिलकर बना है,

जिनमें ग्रीन

हाउस गैसें कार्बन

डाईऑक्साइड,

मीथेन, ओजोन,

जलवाष्प, तथा

नाइट्रस ऑक्साइड

भी शामिल हैं।

ये ग्रीनहाउस

गैसें आवरण का

काम करती है

एवं इसे सूर्य

की पैराबैंगनी

किरणों से बचाती

हैं। पृथ्वी

की तापमान प्रणाली

के प्राकृतिक

नियंत्रक के

रूप में भी इन्हें

देखा जा सकता

है।



















sink



हम

परवाह क्यों

करें?



यदि विश्व

के सभी देश ग्रीन

हाउस गैसों का

उत्सर्जन कम

नहीं करते तो

21 वीं शताब्दी

के अंत तक निम्नलिखित

संभावित परिदृश्य

हो सकता है:-

















·





जनसंख्या और आर्थिक

वृद्धि के आधार

पर तापमान 1-3.50C

तक बढ़ जाएगा।







·





समुद्र तल 15-90 सें.

मी0 ऊँचा हो जाएगा

जिससे 9 करोड़

लोगों को बाढ़

का भय होगा।







·





वर्षा कम होगी

एवं खाद्य फसलों

में कमी होगी।













तो क्या यह सही

समय नहीं है

कि विश्व समुदाय

इस समस्या की

गंभीरता के प्रति

जागरूक हो?





वर्षों

से, मानवीय गतिविधियों

ने ग्रीन हाउस

गैसों के उत्सर्जन

में वृद्धि की

है, इतना कि प्रकृति

में अपने सामान्य

स्तर से वे कहीं

अधिक हैं। ग्रीनहाउस

गैसों के उत्पादन

में महत्वपूर्ण

कुछ मानवीय गतिविधियाँ

हैं:- औद्योगिक

क्रिया-कलाप,

ऊर्जा संयंत्रों

से उत्सर्जन

एवं परिवहन/वाहन।

ग्रीनहाउस गैसों

की मात्रा में

वृद्धि ने पृथ्वी

का तापमान बढ़ा

दिया है, एक ऐसी

प्रक्रिया जिसे

सामान्यतः भूमंडलीय

तापन (GLOBAL WARMING) कहा

जाता है। कार्बन

डाइआक्साइड

को ग्रहण कर

हमारी मदद करने

वाले पेड़ों

और वनों को काटने

से यह समस्या

और बदतर हो गई

है।













ऋतु

परिवर्तन के

कारण



पृथ्वी

का ऋतु चक्र

गतिशील है एवं

प्राकृतिक रूप

से उसमें एक

चक्र में सतत

परिवर्तन होता

रहता है। विश्व

इस बात से अधिक

चिंतित है कि

आज घटित हो रहे

परिवर्तनों

में मानवीय गतिविधियों

के कारण तेजी

आई है। इन परिवर्तनों

का पूरे विश्व

के वैज्ञानिकों

द्वारा अध्ययन

किया जा रहा

है, जो पेड़ के

चक्रों, पराग

नमूनों, बर्फ

के किनारों एवं

समुद्र की तलहटियों

से साक्ष्य प्राप्त

कर रहे हैं।

ऋतु परिवर्तन

के कारणों को

दो भागों में

बांटा जा सकता

है- एक जो प्राकृतिक

कारण हैं तथा

दूसरे जो मानवीय

कारण हैं।













प्राकृतिक

कारणः



ऋतु

परिवर्तन के

लिए अनेक प्राकृतिक

कारक उत्तरदायी

हैं। उनमें से

कुछ प्रमुख हैं

महाद्वीपीय

अपसरण, ज्वालामुखी,

समुद्री लहरें,

पृथ्वी का झुकाव

एवं धूमकेतु

तथा उल्कापिंड।

आइए इन्हें विस्तार

से जानें।

















§





महाद्वीपीय अपसरण



विश्व

के मानचित्र

पर दक्षिण अमेरिका

एवं अफ्रीका

के संबंध में

आपने कुछ असाधारण

पाया होगा- एक

चित्रखंड पहेली

की तरह क्या

वे एक-दूसरे

में समाहित होते

प्रतीत नहीं

होते?



बीस

करोड़ वर्ष पहले

वे एक-दूसरे

से जुड़े हुए

थे। वैज्ञानिक

मानते हैं कि

उस समय पृथ्वी

वैसी नहीं थी

जैसी कि आज हम

देखते हैं, परंतु

सभी महाद्वीप

एक बड़े भूभाग

के टुकड़े थे।

इस का प्रमाण

पौधों एवं जानवरों

के जीवाश्मों

तथा दक्षिण अमेरिका

की पूर्वी तटरेखा

तथा अफ्रीका

की पश्चिमी तटरेखा

जिन्हें अटलांटिक

महासागर अलग

करता है, से प्राप्त

विशाल शैल पट्टियों

से उपलब्ध होता

है। ऊष्णकटिबन्धीय

पौधों के जीवाश्मों

(कोयले के रूप

में) की खोज से

यह निष्कर्ष

निकलता है कि

भूतकाल में यह

भूमि निश्चित

रूप से भूमध्य

रेखा के निकट

रही होगी जहाँ

का मौसम ऊष्णकटिबन्धीय

था तथा यहाँ

दलदली व पर्याप्त

हरियाली थी।













आज जिन

महाद्वीपों

से हम परिचित

हैं वे करोड़ों

वर्ष पहले तब

बने जब भूभाग

शनैः-शनैः अलग

होने लगे। इस

विखंडन का प्रभाव

मौसम पर भी पड़ा

क्योंकि इसने

भू-भाग की भौतिक

विशेषताओं, उनकी

अवस्थिति एवं

जल निकायों का

स्थान परिवर्तित

कर दिया। भू-भाग

के इस विलगाव

ने समुद्री लहरों

की धार व हवा

में परिवर्तन

किया जिसने मौसम

को प्रभावित

किया। महाद्वीपों

का यह विखंडन

आज भी जारी है;

हिमालय श्रृंखला

1 मि0मी0 प्रत्येक

वर्ष उपर बढ़

रही है क्योंकि

भारतीय भू-भाग

धीरे-धीरे परंतु

लगातार एशियाई

भू-भाग की ओर

बढ़ रहा है।

















§





ज्वालामुखी



जब कोई

ज्वालामुखी

फटता है तो यह

वातावरण में

बहुत अधिक मात्रा

में सल्फर डाइऑक्साइड,

जल वाष्प, धूल

एवं राख फेंकता

है। यद्यपि ज्वालामुखी

की गतिविधि कुछ

दिनों तक ही

रहती है तथापि,

गैस एवं धूल

की वृहद् मात्रा

कई वर्षों तक

मौसम रचना को

प्रभावित कर

सकती है। किसी

प्रमुख विस्फोट

से सल्फर डाइऑक्साइड

गैस लाखों टन

में वायुमंडल

की ऊपरी परत

(समतापमंडल)

में पहुँच सकती

है। गैस एवं

धूल सूर्य से

आने वाली किरणों

को आंशिक रूप

से ढक लेते हैं

जिससे शीतलता

छा जाती है।

सल्फर डाइआक्साइड

जल के साथ मिल

कर सल्फ्यूरिक

एसिड यानी गंधक

के अम्ल के छोटे

कण बनाता है।

यह कण इतने छोटे

होते हैं कि

वर्षों तक ऊँचाई

पर रह सकते हैं।

सूर्य की किरणों

के ये सक्षम

प्रत्यावर्तक

हैं एवं भूमि

को उस ऊर्जा

से वंचित रखते

हैं जो सामान्यतः

सूर्य से प्राप्त

होती। वायुमंडल

की ऊपरी परत,

जिसे समताप मंडल

कहते हैं, की

हवा वायु-विलयों

(Aerosols) को तेजी से

पूर्व या पश्चिम

की दिशा में

ले जाती है।

वायु-विलयों

का उत्तर या

दक्षिण की दिशा

में जाना हमेशा

ही बहुत धीमा

होता है। इससे

आपको उन उपायों

का अंदाजा हो

जाना चाहिए जिसके

द्वारा किसी

प्रमुख ज्वालामुखी

विस्फोट के बाद

शीतलता लाई जा

सकती है।













फिलीपीन्स

द्वीप में स्थित

माउंट पिनाटोबा

में अप्रैल 1991

में विस्फोट

हुआ एवं इससे

वायुमंडल में

हजारों टन गैस

उत्सर्जित हुई।

ऐसे विशाल ज्वालामुखी

विस्फोट पृथ्वी

पर पहुँचने वाली

सौर विकिरणों

को रोक सकते

हैं, वायुमंडल

के निचले स्तर

(क्षोम मंडल)

में तापमान को

कम कर सकते हैं

एवं वायुमंडलीय

संचलन परिवर्तन

कर सकते हैं।

ऐसा किस सीमा

तक हो सकता है,

यह एक जारी रहने

वाला विषय है।













दूसरा

आश्चर्यजनक

घटना 1816 ई0 में हुई

जिसे अक्सर ‘‘ग्रीष्म

ऋतु विहीन’’ वर्ष

कहा जाता है।

न्यू इंग्लैन्ड

एवं पश्चिमी

यूरोप में महत्वपूर्ण

मौसम-संबंधी

विघटनाएं घटी

तथा संयुक्त

राज्य अमेरिका

एवं कनाडा में

जानलेवा शीतलहर

चली। इन अनोखी

घटनाओं का कारण

1815 में इंडोनेशिया

में टम्बोरा

ज्वालामुखी

में विस्फोट

को माना जाता

है।

















§





पृथ्वी का झुकाव



प्रत्येक

वर्ष पृथ्वी

सूर्य के चारों

एक पूरी परिक्रमा

करता है। यह

अपने परिक्रमा

मार्ग पर 23.50

के कोण पर लम्बवत

झुकी हुई है।

वर्ष के आधे

समय जब गर्मी

होती है उत्तरी

भाग सूर्य की

तरफ झुका होता

है। दूसरे आधे

समय जब ठंड होती

है, तो पृथ्वी

सूर्य से दूर

होती है। यदि

झुकाव नहीं होता

तो हमें मौसम

का अनुभव नहीं

होता। पृथ्वी

के झुकाव में

परिवर्तन मौसम

की तीव्रता को

प्रभावित कर

सकता है- अधिक

झुकाव का अर्थ

है अधिक गर्मी

और कम ठंड; कम

झुकाव का अर्थ

है कम गर्मी

और अधिक ठंड।













पृथ्वी

की धुरी कुछ-कुछ

अंडाकार है।

इसका अर्थ हुआ

कि एक वर्ष में

सूर्य और पृथ्वी

की दूरी बदलती

रहती है। हम

सामान्यतः सोचते

हैं कि पृथ्वी

की धुरी निर्धारित

है क्योंकि यह

हमेशा ही पोलैरिस

(जिसे ध्रुव

तारा या नॉर्थ

स्टार भी कहा

जाता है) की तरफ

इंगित करता प्रतीत

होता है। वास्तव

में यह एकदम

स्थिर नहीं हैं.

धुरी भी प्रति

शताब्दी आधे

डिग्री से कुछ

अधिक की गति

से घूमती है

इसलिए पोलैरिस

हमेशा ही उत्तर

की तरफ इंगित

करता हुआ न तो

रहा है और न ही

रहेगा। जब 2500 ई0पू0

वर्ष पहले, पिरामिड

का निर्माण हुआ

था, तो थुबन तारा

(अल्फा ड्रैकोनिस)

के निकट ध्रुव

था। पृथ्वी की

धुरी की दिशा

में यह धीमा

परिवर्तन, जिसे

विषुवतीय अयन

भी कहा जाता

है, ऋतु परिवर्तन

के लिए उत्तरदायी

है।

















§





समुद्री लहरें



ऋतु

व्यवस्था का

एक प्रमुख घटक

समुद्री लहरें

हैं। पृथ्वी

के 71% भाग में ये

फैले हुए हैं

एवं वायुमंडल

या भूमि से दोगुना

सौर विकिरणों

को अवशोषित करते

हैं। समुद्री

लहरें ताप की

एक बड़ी मात्रा

को ग्रह के अन्य

भागों में फैलाते

हैं- यह मात्रा

वायुमंडल के

लगभग बराबर है।

लेकिन समुद्र

भू-भाग से घिरे

हुए हैं, अतः

जल द्वारा ताप

का संचरन मार्गों

से होता है।













वायु

समुद्र तल के

क्षैतिज स्तर

पर बहती है एवं

समुद्री लहरें

बनाती है। विश्व

के कुछ भाग अन्य

भागों की अपेक्षा

समुद्री लहरों

से अधिक प्रभावित

होते हैं। पेरू

का तट एवं अन्य

निकटवर्ती क्षेत्र

हम्बोल्ट लहरों

से प्रभावित

है जो पेरू के

तट के किनारे

बहती है। प्रशान्त

महासागर में

अब नीनो की घटना

दुनिया भर की

मौसमी परिस्थितियों

को प्रभावित

कर सकती है।













उत्तरी

अटलांटिक ऐसा

दूसरा क्षेत्र

है जो समुद्री

लहरों से बहुत

प्रभावित है।

यदि हम उसी अक्षांश

पर स्थित यूरोप

एवं उत्तरी अमेरिका

के स्थानों की

तुलना करें तो

प्रभाव तत्काल

स्पष्ट हो जाएगा।

इस उदाहरण पर

गौर करें- तटीय

नॉर्वे के कुछ

भागों का जनवरी

में औसत तापमान-

20C व जुलाई में

400C है; जबकि

इसी अक्षांश

पर अलास्का के

प्रशांत तट का

स्थान अत्यंत

ठंडा है- 150C जनवरी

में एवं केवल

100C जुलाई में।

नॉर्वे के तटों

पर बहने वाली

गर्म लहरें ठंड

में भी ग्रीनलैंड

नॉर्वे के समुद्र

में बर्फ जमने

नहीं देती। आर्कटिक

महासागर का शेष

भाग दक्षिण से

सुदूर होते हुए

भी जमा रहता

है।













समुद्री

लहरें या तो

अपना मार्ग बदल

लेती हैं या

धीमी पड़ जाती

हैं। समुद्र

से निकलने वाली

उष्मा का एक

बड़ा भाग जल

वाष्प के रूप

में होता है

जो कि पृथ्वी

पर प्रचुरता

में पाया जाने

वाला ग्रीनहाउस

गैस है। तथापि

जल वाष्प बादल

बनाने में भी

मदद करते हैं

जो स्थल को ढक

कर शीतल प्रभाव

देते हैं।













इनमें

सभी या किसी

एक घटना का प्रभाव

ऋतु पर पड़ सकता

है जैसा कि 14,000

वर्ष पहले प्रथम

हिम युग की समाप्ति

पर हुआ माना

जाता है।













मानवीय

कारण



19वीं

शताब्दी में

औद्योगिक क्रांति

के दौरान औद्योगिक

क्रिया-कलापों

के लिए बड़े

पैमाने पर जीवाश्म

ईंधन का प्रयोग

देखने में आया।

इन उद्योगों

से रोजगार सृजन

हुआ एवं लोगों

ने ग्रामीण क्षेत्रों

से शहरों की

ओर प्रस्थान

किया। यह परम्परा

आज भी चल रही

है। पेड़-पौधों

से भरी अधिक-से-अधिक

भूमि को भवन

निर्माण के लिए

साफ किया गया।

प्राकृतिक संसाधनों

का विस्तीर्ण

उपयोग निर्माण,

उद्योगों, परिवहन

एवं उपभोग के

लिए किया जा

रहा है। उपभोक्तावाद

(भौतिक वस्तुओं

की हमारी तृष्णा)

में तीव्रतर

वृद्धि हुई है

जिससे कूड़ा-करकट

का अंबार लग

गया है। साथ

ही हमारी जनसंख्या

अविश्वसनीय

सीमा तक बढ़

गई है।













इन सब

से वायुमंडल

में ग्रीनहाउस

गैसों की वृद्धि

हुई है। वाहनों

को चलाने, उद्योगों

के लिए विद्युत

उत्पन्न करने

के लिए, घर इत्यादि

के लिए जीवाश्म

ईंधन जैसे तेल,

कोयला एवं प्राकृतिक

गैसों से अधिकांश

ऊर्जा की पूर्ति

होती है। ऊर्जा

क्षेत्र ¾ भाग

कार्बन डाइआक्साइड,

1/5 भाग मिथेन एवं

नाइट्रस आक्साइड

की बड़ी मात्रा

में उत्सर्जन

के लिए उत्तरदायी

है। यह नाइट्रोजन

आक्साइड (NOx) एवं

कार्बन मोनोक्साइड

(CO) भी उत्पन्न

करता है जो यद्यपि

ग्रीनहाउस गैसें

नहीं है परंतु

इनका वायुमंडल

के रसायन चक्र

पर असर पड़ता

है जो ग्रीनहाउस

गैसें नष्ट करती

हैं।













ग्रीनहाउस

गैसें एवं उनका

स्रोत



कार्बन

डाइआक्साइड

निश्चित तौर

पर वायुमंडल

में सबसे महत्वपूर्ण

ग्रीनहाउस गैस

है। भू-उपयोग

पद्धति, वनों

का नाश, भूमि

साफ करने, कृषि

इत्याति जैसी

गतिविधियों

ने कार्बन डाइआक्साइड

के उत्सर्जन

की वृद्धि में

योगदान किया

है।













वायुमंडल

में दूसरी महत्वपूर्ण

गैस मीथेन है।

माना जाता है

कि मीथेन उत्सर्जन

का एक-चौथाई

भाग पालतू पशुओं

जैसे डेरी गाय,

बकरियों, सुअरों,

भैसों, ऊँटों,

घोड़ों एवं भेड़ों

से होता है।

ये पशु चारे

की जुगाली करने

के दौरान मीथेन

उत्पन्न करते

हैं। मीथेन का

उत्पादन चावल

और धान के खेतों

से भी होता है

जब वे बोने और

पकने के दौरान

बाढ़ में डूबे

होते हैं। जमीन

जब पानी में

डूबी होती है

तो ऑक्सीजन-रहित

हो जाती है।

ऐसी परिस्थितियों

में मीथेन उत्पन्न

करने वाले बैक्टीरिया

एवं अन्य जंतु

जैव सामग्री

को नष्ट कर मीथेन

उत्पन्न करते

हैं। संसार में

धान उत्पन्न

करने वाले क्षेत्र

का 90% भाग एशिया

में पाया जाता

है, चूंकि चावल

यहाँ मुख्य फसल

है। संसार में

धान उत्पन्न

करने वाले क्षेत्र

का 80-90% भाग चीन

एवं भारत में

है।













भूमि

को भरने तथा

कूड़े-करकट के

ढ़ेर से भी मीथेन

उत्सर्जित होता

है। यदि कूड़े

को भट्टी में

रखा जाता है

अथवा खुले में

जलाया जाता है

तो कार्बन डाइआक्साइड

उत्सर्जित होती

है। तेल शोधन,

कोयला खदान एवं

गैस पाइपलाइन

से रिसाव (दुर्घटना

एवं घटिया रख-रखाव)

से भी मीथेन

उत्सर्जित होती

है।













उर्वरकों

के उपयोग को

नाइट्रस आक्साइड

के विशाल मात्रा

में उत्सर्जन

का कारण माना

गया है। यह इस

बात पर भी निर्भर

करता है कि किस

प्रकार के उर्वरक

का उपयोग किया

किया है, कब और

किस प्रकार उपयोग

किया गया है

तथा उस के बाद

खेती की कौन

सी पद्धति अपनाई

गई है। लेग्युमिनस

पौधों जैसे बीन्स

एवं दलहन, जो

मिट्टी में नाइट्रोजन

की मात्रा को

बढ़ाते हैं,

भी इसके लिये

जिम्मेवार हैं।













हम सब

प्रति दिन कैसे

योगदान करते

हैं



दैनिक

जीवन में हम

में से प्रत्येक

का हाथ ऋतु के

इस परिवर्तन

में है। इन बिन्दुओं

पर गंभीरतापूर्वक

विचार करें:













- शहरी

क्षेत्रों में

ऊर्जा का प्रमुख

स्रोत विद्युत

है। हमारी सभी

घरेलू मशीनें

विद्युत से चलती

हैं जो ताप विद्युत

संयंत्रों से

उत्पन्न होती

है। ये ताप विद्युत

संयंत्र जीवाश्म

ईंधन (मुख्यतः

कोयला) से चलते

हैं एवं बड़ी

मात्रा में ग्रीन

हाउस गैसें एवं

अन्य प्रदूषकों

के उत्सर्जन

के लिए जिम्मेदार

है।



- कार,

बसें एवं ट्रक

वे प्रमुख साधन

हैं जिनके द्वारा

अधिकांश शहरों

में लोग यातायात

करते हैं। ये

मुख्यतः पेट्रोल

अथवा डीजल, जो

जीवाश्म ईंधन

हैं, पर कार्य

करते हैं।



- हम

प्लास्टिक के

रूप में बहुत

बड़ी मात्रा

में कूड़ा उत्पन्न

करते हैं जो

वर्षों तक वातावरण

में विद्यमान

रहता है एवं

नुकसान पहुँचाता

है।



- हम

विद्यालय एवं

कार्यालय में

कार्य के दौरान

बहुत बड़ी मात्रा

में कागज का

उपयोग करते हैं।

क्या कभी हमने

यह सोचा है कि

एक दिन में हम

कितने पेड़ों

का उपयोग करते

हैं?



- भवनों

के निर्माण में

बड़ी मात्रा

में लकड़ी का

उपयोग किया जाता

है। इसका मतलब

है कि वन के विशाल

भू-भाग की कटाई।



- बढ़ती

जनसंख्या का

मतलब है अधिक-से-अधिक

लोगों के लिए

भोजन की व्यवस्था।

चूंकि कृषि के

लिए बहुत सीमित

भू-भाग है (वास्तव

में, पारिस्थिकी

विनाश के कारण

यह संकुचित होती

जा रही है) अतः

किसी एक भू-भाग

से अपेक्षाकृत

अधिक उपजाऊं

फसलों किस्में

उगाई जा रही

हैं। तथापि,

फसलों की ऐसी

उच्च उपज वाली

नस्लों के लिए

विशाल मात्रा

में उर्वरक की

आवश्यकता होती

है, अधिक उर्वरक

उपयोग का अर्थ

है नाइट्रस आक्साइड

का अधिक उत्सर्जन

जो खेत, जहाँ

इसे डाला जाता

है, व उत्पादन

स्थल, दोनों

ही स्थानों से

होता है। उर्वरकों

के जल निकायों

में मिश्रण से

भी प्रदूषण होता

है।













ऋतु परिवर्तन

के प्रभाव









 मौसम परिवर्तन के कारण



ऋतु परिवर्तन

मानव के लिए

खतरा है। 19वीं

शताब्दी के अंत

के बाद से पृथ्वी

का औसत 0.3-0.60C तक

बढ़ गया है।

पिछले 40 वर्षों

के दौरान, यह

वृद्धि 0.2-0.30C रही

है।



1860 के बाद

से, जब से नियमित

सहायक अभिलेख

उपलब्ध है, हाल

के कुछ वर्ष

बहुत गर्म रहे

हैं। 1995 में, 2000 अग्रणी

वैज्ञानिकों

का एक समूह IPCC (ऋतु

परिवर्तन पर

अंतःशासकीय

पैनल) एकत्र

हुए और वे इस

निष्कर्ष पर

पहुँचे कि भूमंडलीय

तापन वास्तविक

है, गंभीर है

एवं यह तेजी

से बढ़ रहा है।

उन्होंने यह

अनुमान लगाया

कि अगले 100 वर्षों

के दौरान पृथ्वी

का औसत तापमान

1.4-5.80C तक और बढ़

सकता है। घोषित

चेतावनी का महत्व

नगण्य प्रतीत

हो सकता है लेकिन

पिछले 10,000 साल के

दौरान देखी गई

किसी भी अन्य

से इसकी दर कहीं

अधिक है। मौसम

प्रणाली में

परिवर्तनों

से हमारे जीवन

के कुछ महत्वपूर्ण

पहलू भी प्रभावित

हो सकते हैं

एवं उनमें से

कुछ पर यहाँ

चर्चा की गई

है।













कृषि



धीरे-धीरे

बढ़ रही जनसंख्या

ने खाद्यान्न

की अधिक माँग

को जन्म दिया

है। भूमि को



कृषि-योग्य

बनाने के साथ

ही प्राकृतिक

पारिस्थितिक

तंत्र पर दवाब

बढ़ेगा। प्रत्यक्षतः



तापमान

एवं वर्षा में

परिवर्तन तथा

अप्रत्यक्षतः

मिट्टी की गुणवत्ता,

कीटों एवं बीमारियों



के कारण कृषि

की उपज प्रभावित

होगी। विशेष

रूप से, भारत,

अफ्रीका एवं

मध्य-पूर्व में



अनाज के उत्पादन

में कमी संभावित

है। तापमान बढ़ने

के साथ परिस्थितियां

कीटों



विशेष रूप

से टिड्डों के

लिए सहज हो जाएंगी

और वे कई प्रजनन

चक्र पूरा कर

अपनी



जनसंख्या

बढ़ा सकेंगे।

ऊँचे अक्षांशों

में (उत्तरी

देशों में) तापमान

के बढ़ने से

कृषि को



लाभ होगा क्योंकि

शीत ऋतु छोटी

होगी एवं शरद

ऋतु लंबी होगी।

इसका यह भी



मतलब है कि

तापमान में वृद्धि

के साथ कीट उच्चतर

अक्षांशों की

तरफ बढ़ेंगे।













चरम मौसम परिस्थितियां

जैसे उच्च तापमान,

भारी वर्षा,

बाढ़ सूखा इत्यादि

भी फसल



उत्पादन को

प्रभावित करेंगे।













मौसम



गर्म मौसम

से वर्षा एवं

हिमपात में परिवर्तन,

सूखा एवं बाढ़

में वृद्धि,

हिमानी एवं ध्रुवीय



हिम

पट्टियों का

पिघलना एवं समुद्र-तल

के उठने में

तेजी से वृद्धि

आयेगी। गर्मी

में वृद्धि से

स्थलीय जल के

वाष्पीकरण स्तर

में बढ़ोतरी

होगी, वायु में

विस्तार के कारण

नमी धारण करने

की इसकी क्षमता

में वृद्धि होगी।

बदले में इससे

जल संसाधन, वन

एवं अन्य पारिस्थितिक

तंत्र, कृषि,

उर्जा उत्पादन,

आधारभूत संरचना,

पर्यटन, एवं

मानव स्वास्थ्य

प्रभावित होगा।

पिछले कुछ वर्षों

के दौरान अंधड़

एवं चक्रवात

की संख्या में

वृद्धि का कारण

तापमान में परिवर्तन

माना जा रहा

है।













समुद्र स्तर

में वृद्धि



तटीय क्षेत्र

एवं छोट द्वीप

दुनिया के सबसे

घनी आबादी वाले

क्षेत्रों में

से है। भूमंडलीय



तापन के कारण

समुद्र स्तर

में वृद्धि से

सबसे अधिक खतरा

भी उन्हें ही

है। समुद्रों

के



गर्म होने

तथा ध्रुवीय

हिम पट्टियों

के पिघलने के

कारण अगली शताब्दी

तक समुद्र का



औसत स्तर आधा

मीटर तक बढ़ने

का अनुमान है।

समुद्र स्तर

में वृद्धि का

तटीय क्षेत्रों



पर अनेक प्रभाव

पड़ सकते है

जिसमें आप्लावन

एवं अपरदन, बाढ़

में वृद्धि एवं



खारे पानी

के प्रवेश के

कारण भूमि का

नाश शामिल है।

यह सब तटीय खेती,

पर्यटन,



अलवणीय जल

संसाधन, मत्स्यपालन,

मानव स्थापना

एवं स्वास्थ्य

को विपरीततः



प्रभावित

कर सकता है।

समुद्रों के

बढ़ते स्तर से

नीचे स्थित अनेक

द्वीप राष्ट्रों

जैसे



मालदीव एवं

मार्शल द्वीप

के अस्तित्व

को खतरा है।













वर्षा एवं

हिमपात के कारण

बहुत सी नदियों

में जल की उपलब्धता

की बहुत कमी

हो



सकती है। कुछ

में हिमानियों

के पिघलने के

कारण मात्रा

बढ़ सकती है

जैसे, हिमालय



से निकलने

वाली नदियां।

जल उपलब्धता

में परिवर्तन

जल-विद्युत उत्पादन

एवं कागज,



औषधि एवं रसायन

उत्पादन जैसे

उद्योग को प्रभावित

कर सकता है जिनमें

अधिक मात्रा



में जल का उपयोग

होता है। भवन

एवं अन्य आधारभूत

संरचना आंधी

एवं अन्य तीव्र



घटनाओं

के कारण असुरक्षित

हो जायेगें जिसके

कारण परिवहन

मार्ग भी अस्त-व्यस्त

हो सकते है।













स्वास्थ्य



भूमंडलीय

तापन मानव स्वास्थ्य

को भी प्रत्यक्ष

रूप से प्रभावित

करेगा, जैसे-

ताप-जनित तनाव

की घटनाओं को

बढ़ाकर।













वन एवं वन्य

जीवन



पारिस्थितिक

तंत्र पृथ्वी

पर जीवों एवं

जैविक विविधता

के समग्र भंडारघर

का पोषण



करता है। प्राकृतिक

माहौल में पौधे

एवं पशु मौसम

में परिवर्तन

बहुत संवेदनशील

होते हैं।



इस परिवर्तन

से सबसे अधिक

प्रभावित उच्च

अक्षांश पर स्थित

टुंड्रा वन का



पारिस्थितिक

तंत्र है। महाद्वीपों

का आंतरिक भाग

तटीय क्षेत्रों

से अधिक गर्मी

का अनुभव



करेगा।













नेशनल

पार्क का उद्देश्य

वन्य जीवों को

मानव जाति द्वारा

प्रकृति के विनाशकारी

कार्य से सुरक्षा

प्रदान करना

है। लेकिन कोई

भी पार्क या

संरक्षण नियम

पारिस्थिक तंत्र

को ऋतु परिवर्तन

से बचा नहीं

सकता है। डब्ल्यू0डब्यलू0एफ0

द्वारा हाल में

प्रकाशित रिपोर्ट

में यह उल्लेख

किया गया है

कि इस अदृश्य

हत्यारे ने सबसे

अधिक हरियाली

वाले प्राकृतिक

क्षेत्रों को

भी अपने प्रकोप

में ले लिया

है। वोलोंग,

चीन के विशाल

पांडा, अमेरिका

के यलोस्टोन

नेशनल पार्क

के भालू एवं

भारत के कान्हा

नेशनल पार्क

के बाघ ऐसे कुछ

जीव हैं जिन्हें

भूमंडलीय तापन

से खतरा है।

पर्वत की चोटियों

को ऋतु परिवर्तन

के कारण वातावरण

में विनाश के

कारण विशेष रूप

से खतरा है।

उंचे स्थानों

पर रहने वाली

प्रजातियों

को अपने निवास

स्थान की तलाश

में और अधिक

उंचे स्थान की

ओर प्रवजन करना

पड़ा है जिससे

उनके लिए स्थान

में कमी आई है।

यदि ऋतु परिवर्तन

की गति तेज रही

तो कुछ पर्वतीय

पौधों एवं पशुओं

का विलोप होना

तय है।













प्रव्रजनकारी

पक्षी विश्व

के ठंडे उत्तरी

भाग से गर्म

दक्षिणी भाग

की ओर जाते हैं।

मार्ग में मौसम

एवं भोजन ऐसे

कुछ कारक है

जो उनकी यात्रा

के सफल समापन

के लिए अत्यंत

महत्वपूर्ण

है। ऋतु परिवर्तन

उनके भोजन स्थानों

एवं उनकी उड़ान

पद्धतियों में

परिवर्तन ला

सकता है।













समुद्रीय

जीवन



प्रवाल

को समुद्र का

ऊष्णकटिबंधीय

वन कहा जाता

है एवं यह विविध

जीवन रूपों को

पोषण प्रदान

करते हैं। आयन

सीमा में जल

के गर्म होने

के साथ प्रवाल

पट्टियों को

नुकसान में वृद्धि

होती जा रही

है। जल के तापमान

में परिवर्तन,

जिससे विरंजन

होता है, के प्रति

ये प्रवाल बहुत

संवेदी होते

हैं। विरंजन

के कारण ही ऑस्ट्रेलिया

के ग्रेट बैरियर

रीफ की विशाल

पट्टियों को

नुकसान पहुंचा

है।













समुद्र

के सतह पर तैरने

वाले प्राणीमंडप्लावक

(ज़ोप्लैंकटन्स)

की संख्या में

कमी हो रही है

जिससे इन जंतुओं

पर भोजन के लिए

निर्भर रहने

वाले मछलियों

और पक्षिओं की

संख्या में कमी

हो रही है।













अपने

वातावरण तथा

हमारे कार्य

किस प्रकार इसे

परिवर्तित करेंगे

के बारे में

अभी भी बहुत

कुछ ऐसा है जो

हम नहीं जानते

हैं। लेकिन एक

तथ्य तो स्पष्ट

रूप से कहा जा

सकता हैः- यदि

हम इन प्रश्नों

का उत्तर ढूंढ़ने

में समय नष्ट

करेंगे तो शायद

बहुत देर हो

चुकी होगी।













समाधान



ऋतु

परिवर्तन से

गंभीर समस्याएं

उत्पन्न होंगी

जिनका समाधान

सभी देशों को

मिल कर करना

होगा। वर्षों

से, पर्यावरण

समस्याओं पर

चर्चाओं के लिए

अनेक सम्मेलन

आयोजित किए गए

हैं एवं अनेक

समझौतों पर हस्ताक्षर

किए गए हैं।

इस प्रक्रिया

की शुरूआत 1972 में

स्टाकहोम सम्मेलन

से हुई लेकिन

ऋतु परिवर्तन

पर वार्तालाप

का आरंभ 1990 में

हुआ। इन वार्तालापों

का परिणाम 1972 में

ऋतु परिवर्तन

पर संयुक्त राष्ट्र

प्राधार प्रतिज्ञा

(United Nations Framework Convention on Climate Change) को

अंगीकार करने

के रूप में हुआ।













चूँकि

मानवीय क्रिया-कलापों

का जलवायु पर

काफी गहरा प्रभाव

पड़ता है, अतः

काफी समाधान

हमारे अपने हाथों

में है। हम जीवाश्म

इंधन के उपयोग

में कटौती कर

सकते हैं, उपभोक्तावाद

को कम कर सकते

हैं, वन-विनाश

को रोक सकते

हैं एवं पर्यावरणभिमुख

कृषि उपायों

के उपयोग को

बढ़ा सकते हैं।













ऊर्जा

क्षेत्र में,

उत्सर्जन कम

किया जा सकता

है, यदि ऊर्जा

की मांग कम की

जाए और यदि हम

उर्जा के ऐसे

परिष्कृत स्रोत

अपनाएं जिनसे

कार्बन डाइआक्साइड

का उत्सर्जन

नहीं होता। इनमें

सौर, वायु, भूताप

एवं अणु उर्जा

शामिल है।













अनेक

देशों ने कोयले

का उपयोग बंद

कर दिया है एवं

उर्जा के परिष्कृत

रूप को अपनाया

है। ऊर्जा दक्षता

एवं वैकल्पिक

ऊर्जा स्रोतों

के विकास में

जापान विश्व

में अग्रणी है।













उच्च

तकनीकों एवं

ईंधन पर चलने

वाले वाहनों

का परीक्षण किया

जा रहा है एवं

परिवहन क्षेत्र

में कड़े उत्सर्जन

नियम अपनाए जा

रहे हैं। कुछ

देशों ने उद्योगों

पर जुर्माना

लगाना आरंभ कर

दिया है यानि

प्रदूषणकारी

उद्योगों को

वहां की जनता

को जुर्माना

देना पड़ता है।













विश्व

भर में सरकारों

को यह सुनिश्चित

करना चाहिए कि

वन क्षेत्र बरकरार

रहे क्योंकि

पौधे अपने विकास

के लिए कार्बन

डाइआक्साइड

का उपयोग करते

हैं एवं इस प्रकार

इसे वातावरण

से हटाने में

मदद करते हैं।

इसीलिए वनों

को कार्बन डाइआक्साइड

की ‘नली’ कहा जाता

है। यदि वनों

की कटाई की जाती

है तो अविलंब

पौधे लगाए जाने

चाहिए। बरसाती

जमीन एक अन्य

पारिस्थिक तंत्र

है जो पारिस्थतिक

संतुलन बनाए

रखने में अपनी

महत्वपूर्ण

भूमिका द्वारा

पर्यावरण को

स्थिर बनाए रखती

है। इन क्षेत्रों

के संरक्षण को

सर्वोच्च प्राथमिकता

दी जानी चाहिए।













जैव-तकनीकी

का उपयोग फसलों

की जलीय आवश्यकता

को कम करने, फसल

उत्पादन बढ़ाने

एवं उर्वरकों

एवं कीटनाशकों

का प्रयोग कम

करने के लिए

किया जा सकता

है। प्रयोगशालाओं

में धान की ऐसी

विशेष किस्मों

का विकास किया

जा रहा है जो

कम जल में भी

विकास कर सकती

है एवं जिसके

कारण मिथेन का

कम उत्सर्जन

होता है।



















 मौसम परिवर्तन के कारण



ग्रीनहाउस

प्रभाव



पृथ्वी

सूर्य से ऊर्जा

प्राप्त करती

है जो पृथ्वी

के धरातल को

गर्म करता है।

चूंकि यह ऊर्जा

वायुमंडल से

होकर गुजरती

है, इसका एक निश्चित

प्रतिशत (लगभग

30) तितर-बितर हो

जाता है। इस

ऊर्जा का कुछ

भाग पृथ्वी एवं

सूर्य की सतह

से वापस वायुमंडल

में परावर्तित

हो जाता है।

पृथ्वी को ऊष्मा

प्रदान करने

के लिए शेष (70%) ही

बचता है। संतुलन

बनाए रखने के

लिए यह आवश्यक

है कि पृथ्वी

ग्रहण किये गये

ऊर्जा की कुछ

मात्रा को वापस

वायुमंडल में

लौटा दे। चूँकि

पृथ्वी सूर्य

की अपेक्षा काफी

शीतल है, यह दृष्टव्य

प्रकाश के रूप

में ऊर्जा उत्सर्जित

नहीं करती है।

यह अवरक्त किरणों

अथवा ताप विकिरणों

के माध्यम से

उत्सर्जित करती

है। तथापि, वायुमंडल

में विद्यमान

कुछ गैसें पृथ्वी

के चारों ओर

एक आवरण-जैसा

बना लेती हैं

एवं वायुमंडल

में वापस परावर्तित

कुछ गैसों को

अवशोषित कर लेते

हैं। इस आवरण

से रहित होने

पर पृथ्वी सामान्य

से 300C और अधिक

ठंडी होती। जल

वाष्प सहित कार्बन

डाइआक्साइड,

मिथेन एवं नाइट्रस

ऑक्साइड जैसी

इन गैसों का

वातावरण में

कुल भाग एक प्रतिशत

है। इन्हें ‘ग्रीनहाउस

गैस’ कहा जाता

है क्योंकि इनका

कार्य सिद्धांत

ग्रीनहाउस जैसा

ही है। जैसे

ग्रीनहाउस का

शीशा प्राचुर्य

उर्जा के विकिरण

को रोकता है,

ठीक उसी प्रकार

यह ‘गैस आवरण’

उत्सर्जित कुछ

उर्जा को अवशोषित

कर लेता है एवं

तापमान स्तर

को अक्षुण्ण

बनाए रखता है।

एक फ्रेंच वैज्ञानिक

जॉन-बाप्टस्ट

फोरियर द्वारा

इस प्रभाव का

सबसे पहले पता

लगाया गया था

जिसने वातावरण

एवं ग्रीनहाउस

की प्रक्रियाओं

में समानता को

साबित किया और

इसलिए इसका नाम

‘ग्रीनहाउस प्रभाव’

पड़ा।













पृथ्वी

की उत्पति के

समय से ही यह

गैस आवरण अपने

स्थान पर स्थित

है। औद्योगिक

क्रांति के उपरांत

मनुष्य अपने

क्रिया-कलापों

से वातावरण में

अधिक-से-अधिक

ग्रीनहाउस गैसों

का उत्सर्जन

कर रहा है। इससे

आवरण मोटा हो

जाता है एवं

‘प्राकृतिक ग्रीनहाउस

प्रभाव’ को प्रभावित

करता है। ग्रीनहाउस

गैसें बनाने

वाले क्रिया-कलापों

को ‘स्रोत’ कहा

जाता है एवं

जो इन्हें हटाते

हैं उन्हें ‘नाली’

कहा जाता है।

‘स्रोत’ एवं ‘नाली’

के मध्य संतुलन

इन ग्रीनहाउस

गैसों के स्तर

को बनाए रखता

है।













मानवजाति

इस संतुलन को

बिगाड़ती है,

जब प्राकृतिक

नालियों से हस्तक्षेप

करने वाले उपाय

अपनाए जाते हैं।

कोयला, तेल एवं

प्राकृतिक गैस

जैसे इंधनों

को जब हम जलाते

हैं तो कार्बन

वातावरण में

चला जाता है।

बढ़ती हुई कृषि

गतिविधियां,

भूमि-उपयोग में

परिवर्तन एवं

अन्य स्रोतों

से मिथेन एवं

नाइट्रस आक्साइड

का स्तर बढ़ता

है। औद्योगिक

प्रक्रियाएं

भी कृत्रिम एवं

नई ग्रीनहाउस

गैसें जैसे सी0एफ0सी0

(क्लोरोफ्लोरोकार्बन)

उत्सर्जित करती

है जबकि यातायात

वाहनों से निकलने

वाले धुंए से

ओजोन का निर्माण

होता है। इसके

परिणामस्वरूप

ग्रीनहाउस प्रभाव

को साधारणतः

भूमंडलीय तापन

अथवा ऋतु परिवर्तन

कहा जाता है।









 मौसम परिवर्तन के कारण











 मौसम परिवर्तन के कारण



ग्रीनहाउस

प्रभाव पर अधिक

जानकारी के लिए

लिंकः







·





www.science.gmu.edu/~zli/ghe.html







·





www.fe.doe.gov/issues/climatechange/globalclimate_whatis.html













एल नीनो



ऊष्ण

कटिबंधीय प्रशांत

में समुद्र तापमान

और वायुमंडलीय

परिस्थितियों

में आये बदलाव

को एल नीनो कहा

जाता है जो पूरे

विश्व के मौसम

को अस्त-व्यस्त

कर देता है।

यह बार-बार घटित

होने वाली मौसमी

घटना है जो प्रमुख

रूप से दक्षिण

अमेरिका के प्रशान्त

तट को प्रभावित

करता है परंतु

इस का समूचे

विश्व के मौसम

पर नाटकीय प्रभाव

पड़ता है।













‘एल-नीन्यो’

के रूप में उच्चरित

इस शब्द का स्पैनिश

भाषा में अर्थ

होता है ‘बालक’

एवं इसे ऐसा

नाम पेरू के

मछुआरों द्वारा

बाल ईसा के नाम

पर किया गया

है क्योंकि ईसका

प्रभाव सामान्यतः

क्रिसमस के आस-पास

अनुभव किया जाता

है। इसमें प्रशांत

महासागर का जल

आवधिक रूप से

गर्म होता है

जिसका परिणाम

मौसम की अत्यंतता

के रूप में होता

है। एल नीनो

का सटीक कारण,

तीव्रता एवं

अवधि की सही-सही

जानकारी नहीं

है। गर्म एल

नीनो की अवस्था

सामान्यतः लगभग

8-10 महीनों तक बनी

रहती है।













सामान्यतः,

व्यापारिक हवाएं

गर्म सतही जल

को दक्षिण अमेरिकी

तट से दूर ऑस्ट्रेलिया

एवं फिलीपींस

की ओर धकेलते

हुए प्रशांत

महासागर के किनारे-किनारे

पश्चिम की ओर

बहती है। पेरू

के तट के पास

जल ठंडा होता

है एवं पोषक-तत्वों

से समृद्ध होता

है जो कि प्राथमिक

उत्पादकों, विविध

समुद्री पारिस्थिक

तंत्रों एवं

प्रमुख मछलियों

को जीवन प्रदान

करता है। एल

नीनो के दौरान,

व्यापारिक पवनें

मध्य एवं पश्चिमी

प्रशांत महासागर

में शांत होती

है। इससे गर्म

जल को सतह पर

जमा होने में

मदद मिलती है

जिसके कारण ठंडे

जल के जमाव के

कारण पैदा हुए

पोषक तत्वों

को नीचे खिसकना

पड़ता है और

प्लवक जीवों

एवं अन्य जलीय

जीवों जैसे मछलियों

का नाश होता

है तथा अनेक

समुद्री पक्षियों

को भोजन की कमी

होती है। इसे

एल नीनो प्रभाव

कहा जाता है

जोकि विश्वव्यापी

मौसम पद्धतियों

के विनाशकारी

व्यवधानों के

लिए जिम्मेदार

है।













अनेक

विनाशों का कारण

एल नीनो माना

गया है, जैसे

इंडोनेशिया

में 1983 में पड़ा

अकाल, सूखे के

कारण ऑस्ट्रेलिया

के जंगलों में

लगी आग, कैलिफोर्निया

में भारी बारिश

एवं पेरू के

तट पर एंकोवी

मत्स्य क्षेत्र

का विनाश। ऐसा

माना जाता है

कि 1982/83 के दौरान

इसके कारण समूचे

विश्व में 2000 व्यक्तियों

की मौत हुई एवं

12 अरब डॉलर की

हानि हुई।













1997/98 में

इस का प्रभाव

बहुत नुकसानदायी

था। अमेरिका

में बाढ़ से

तबाही हुई, चीन

में आंधी से

नुकसान हुआ,

ऑस्ट्रिया सूखे

से झुलस गया

एवं जंगली आग

ने दक्षिण-पूर्व

एशिया एवं ब्राजील

के आंशिक भागों

को जला डाला।

इंडोनेशिया

में पिछले 50 वर्षों

में सबसे कठिन

सूखे की स्थिति

देखने में आई

एवं मैक्सिको

में 1881 के बाद पहली

बार गौडालाजारा

में बर्फबारी

हुई। हिन्द महासागर

में मॉनसूनी

पवनों का चक्र

इससे प्रभावित

हुआ।













जब प्रशांत

महासागर में

दबाव की उपस्थिति

अत्यधिक हो जाती

है तब यह हिन्द

महासागर में

अफ्रीका से ऑस्ट्रेलिया

की ओर कम होने

लगता है। यह

प्रथम घटना थी

जिससे यह पता

चला कि ऊष्णकटिबंधी

प्रशांत क्षेत्र

के अन्दर तथा

इसके बाहर आये

परिवर्त्तन

एक पृथक घटना

नहीं बल्कि एक

बहुत बड़े प्रदोलन

के भाग के रूप

में घटित हुए

हैं।













ला नीनो



यह घटना

सामान्यतः एल

नीनो के बाद

होती है। ला

नीनो को कभी-कभी

एल वीयो, छोटी

बच्ची, अल नीनो-विरोधी

अथवा केवल ‘एक

ठंडी घटना’ अथवा

एक ‘ठंडा प्रसंग’

कहा जाता है।

ला नीनो (ला नी

न्या के रूप

में उच्चरित)

प्रशांत महासागर

का ठंडा होना

है।













एल नीनो

की तुलना में,

जोकि विषुवतीय

प्रशांत में

गर्म समुद्री

तापमान से युक्त

होता है, यह विषुवतीय

प्रशांत में

ठंडे समुद्री

तापमान की विशेषता

से युक्त होता

है। सामान्यतः

ला नीनो एल नीनो

की तुलना में

आधा होता है।













विश्व

के मौसम एवं

समुद्री तापमान

पर ला नीनो का

प्रभाव अल नीनो

का विपरीत होता

है। ला नीनो

वर्ष के दौरान

यू0एस0 में दक्षिण-पूर्व

में शीतकालीन

तापमान सामान्य

से कम होता है

एवं उत्तर-पश्चिम

में सामान्य

से ठंडा होता

है। दक्षिण-पूर्व

में तापमान सामान्य

से ज्यादा गर्म

एवं उत्तर-पश्चिम

में सामान्य

से अधिक ठंडा

होता है।













पश्चिमी

तट पर हिमपात

एवं वर्षा तथा

अलास्का में

असामान्य रूप

से ठंडे मौसम

का अनुभव किया

जाता है। इस

अवधि के दौरान

यहां पर, अटलांटिक

में सामान्य

से अधिक संख्या

में तूफान आते

हैं।













एल नीनो

एवं ला नीनो

पृथ्वी की सर्वाधिक

शक्तिशाली घटनाएं

हैं जो पूरे

ग्रह के आधे

से अधिक भाग

के मौसम को परिवर्तित

करती है।



















 मौसम परिवर्तन के कारण


















































 मौसम परिवर्तन के कारण



वर्ष 2000* में

विश्व मौसम की

स्थिति पर डब्यल्यू0एम0ओ0

का कथन













वर्ष

2000 के दौरान विश्व

मौसम में वही

प्रक्रिया रही

जो वर्ष 1990 में

थीः कुछ क्षेत्रों

में अत्यधिक

गर्मी अथवा अत्यधिक

ठंड, अत्यधिक

वर्षा अथवा गंभीर

सूखे का अनुभव

किया गया। अन्य

जगहों पर सामान्य-जैसी

स्थिति का अनुभव

किया गया, परंतु

औसतन विश्व मौसम

का सामान्य से

अधिक गर्म रहना

जारी है।













वर्ष

2000 में विश्व तापमान
1999 के समान

ही था जो कि डब्ल्यू0एम0ओ0

(विश्व मौसम

संगठन) के सदस्यों

द्वारा रखे गए

अभिलेखों के

अनुसार पिछले

140 वर्ष में पांचवा

सबसे गर्म वर्ष

था। वर्ष 1998 के

बाद 1997, 1995 एवं 1990 सबसे

गर्म वर्ष था।

विषुवत प्रशांत

सभी जगहों पर

‘नीसा’ को नीका

कर दें। के सतत

शीतलन प्रभाव

के बावजूद वर्ष

2000 में गर्म वर्षों

का क्रम जारी

है। 21वीं सदी

के आरंभ में

विश्व का औसत

तापमान 0.60C था

जोकि 20वीं सदी

के आरंभ में

से अधिक था।













अधिकांश

गैर-विषुवतीय

उत्तरी गोलार्ध

में प्रत्येक

मौसम में औसत

से अधिक तापमान

का अनुभव किया

गया। तथापि,

पूर्वी विषुवत

प्रशांत सामान्य

से अधिक ठंडा

था क्योंकि ला

नीनो वर्ष के

आरंभ में तीव्र

था, जुलाई तथा

अगस्त में कमजोर

था तथा वर्ष

के अंत में इसकी

वापसी के लक्षण

दिखाई दिए। शेष

विषुवत एवं गैर

विषुवत दक्षिणी

गोलार्ध में

अनेक विषमताएं

थीं एवं इसमें

गर्मी की बहुलता

थी।













वर्ष

के पहले आधे

भाग तथा वर्ष

के अंत में पूरे

विषुवत में बरसात

की अभिरचना यानि

वर्षा पर ला

नीनो जैसी स्थितियों

की प्रमुखता

थी। इंडोनेशिया,

विषुवतीय हिन्द

महासागर एवं

पश्चिम विषुवत

प्रशांत- इन

सभी में दोनों

अवधियों के दौरान

भारी वर्षा होती

थी जबकि मध्य

विषुवत प्रशांत

में वस्तुतः

कोई वर्षा नहीं

होती थी। ला

नीनो से प्रभावित

अन्य क्षेत्रों

में ऑस्ट्रेलिया,

उत्तर-पूर्व

दक्षिण अमेरिका

एवं दक्षिण अफ्रीका

था जिनमें इन

अवधियों के दौरान

भारी बारिश होती

थी। दक्षिण एशिया

में मॉनसून बारिश

भी बहुत था।

दूसरी तरफ, ला

नीनो के कारण

भूमध्यरेखीय

पूर्वी अफ्रीका

एवं संयुक्त

राज्य अमरिका

के तटों के किनारे

सामान्य से कम

वर्षा हुई।













तूफान,

अंधड़ एवं बाढ़



वर्ष

2000 के दौरान अटलांटिक

में 15 तूफान एवं

आंधी आई (औसत

10 है), जबकि प्रशांत

महासागर में

केवल 22 आंधी आई

जो कि 28 के औसत

से कम है। इनमें

सबसे उल्लेखनीय

तूफान कीथ और

गॉर्डन था जिसने

मध्य अमेरिका

में भारी नुकसान

पहुंचाया। प्रशांत

महासागर में

साओ माइ अंधड़

के कारण जापान

के कुछ हिस्सों

में रिकार्ड-तोड़

वर्षा हुई तथा

दो प्रमुख तूफानों

के कारण दक्षिण-पूर्व

एशिया में अत्यधिक

वर्षा हुई। बंगाल

की खाड़ी के

उपर एक प्रमुख

चक्रवात का निर्माण

हुआ जिसने दक्षिण

भारतीय प्रायद्वीप

को नवम्बर के

अंत में प्रभावित

किया। इनके कारण

वर्षा एवं पवन

से संपत्ति की

घोर हानि हुई।

वर्ष का सबसे

विनाशकारी चक्रवात

इलीन, ग्लोरिया

एवं हुडा था

जिसने मैडागास्कर,

मोजाम्बिक एवं

दक्षिण अफ्रीका

के कुछ भाग को

प्रभावित किया

तथा इससे भारी

बाढ़ एवं जीवन

की हानि हुई।

फरवरी के अंत

में, स्टीव नामक

चक्रवात से ऑस्ट्रेलिया

में गंभीर नुकसान

हुआ एवं रिकार्ड

बाढ़ आई।













संसार

के अन्य हिस्सों

में भी भारी

बारिश हुई और

इससे बाढ़ आई।

सर्वाधिक उल्लेखनीय

तथ्य है कि अक्टूबर

में दक्षिणी

स्विट्जरलैंड

एवं उत्तर-पूर्वी

इटली में भारी

बाढ़ आई, कोलंबिया

में जून से अगस्त

तथा भारत, बांग्लादेश,

कंबोडिया, थाइलैंड

लाओस एवं वियतनाम

में मॉनसूनी

वर्षा के कारण

बाढ़ आई जिससे

जान और संपत्ति

की भारी हानि

हुई। केवल भारत

में ही एक करोड़

लोग प्रभावित

हुए जिसमें 650

मौतें हुई। मई

और जून में बाढ़

और भूस्खलन के

कारण मध्य और

दक्षिणी अमेरिका

में नुकसान और

जीवन की क्षति

हुई। ग्वाटेमाला

में बाढ़ के

कारण भूस्खलन

से, 13 लोगों की

मौत हुई. पश्चिमी

क्वींसलैंड

के कुछ हिस्सों

में, जिसका वार्षिक

औसत वर्षा 200-300

मि0मी0 है, फरवरी

में 400 मि0मी0 वर्षा

हुई। नवम्बर

में भारी बारिश

के कारण मध्य

एवं उत्तर-पश्चिमी

क्वींसलैंड

में बाढ़ आई

जिससे न्यू साउथ

वेल्स का एक-तिहाई

हिस्सा प्रभावित

हुआ।













लू, सूखा

एवं आग



प्रमुख

सूखों ने उत्तरी

चीन के रास्ते

दक्षिण-पूर्वी

यूरोप, मध्य-पूर्व

एवं मध्य एशिया

को प्रभावित

किया। बुल्गारिया,

ईरान, ईराक, अफगानिस्तान

एवं चीन के कुछ

हिस्से विशेष

रूप से प्रभावित

थे। तीस सालों

में ईरान का

यह सबसे बदतर

सूखा था जिसमें

फसल व पशुधन

की हानि हुई।













जून

एवं जुलाई के

दौरान शताब्दी

पुराने रिकॉर्ड

को तोड़ने वाली

चिलचिलाती लू

ने दक्षिणी यूरोप

को प्रभावित

किया। इस लू

ने क्षेत्र में

अनेक जाने ली

क्योंकि तुर्की,

ग्रीस, रोमानिया

एवं इटली में

तापमान 430C से

भी अधिक हो गया

था। बुल्गारिया

में 05 जुलाई को

75% केन्द्रों

पर दैनिक अधिकतम

तापमान का 100 वर्षों

का रिकॉर्ड टूट

गया।













हार्न

ऑफ अफ्रीका में

लगातार तीसरे

वर्ष औसत से

कम वर्षा ने

क्षेत्र के काफी

बड़े हिस्से

में विद्यमान

सूखे की स्थिति

को और बदतर किया

जिससे भोजन की

भारी कमी हो

गई। इस सूखे

से लाखों-करोड़ो

लोग प्रभावित

हुए। इथियोपिया

तथा कीनिया,

सोमालिया, इरीट्रीया

एवं जिबूति विशेष

रुप से प्रभावित

थे।













शीत

लहर, राष्ट्रीय

तापमान एवं वर्षा

विषमता



चीन

एवं मंगोलिया

के बड़े हिस्से

को जनवरी व फरवरी

के दौरान घोर

ठंड ने प्रभावित

किया। जनवरी

व फरवरी में

जाड़े की स्थिति

ने भारत के कुछ

हिस्सों को प्रभावित

किया एवं इससे

300 मौतें हुई।





1866 में

मापन के आरंभ

के बाद से नॉर्वे

में तीसरा सबसे

गर्म वर्ष रिकार्ड

किया गया है।

पिछले 140 वर्षों

के दौरान न्यूजूलैंड

में कम ठंडी

शीत ऋतु के विपरीत

कम गर्मी वाली

ग्रीष्म ऋतु

का अनुभव किया

गया।



इंग्लैंड

एवं वेल्स 235-वर्ष

की मासिक बारिश

श्रृंखला में

अप्रैल 2000 सबसे

वर्षा वाला माह

था. 235-वर्ष के रिकॉर्ड

में यह सबसे

ज्यादा वर्षा

वाला शरदकालीन

समय था एवं सबसे

ज्यादा बारिश

वाला 3 माह का

रिकॉर्ड भी।













*वर्ष

2000 के नवम्बर अंत

तक के लिए यह

आरंभिक सूचना

जहाजों, प्लावों

एवं जमीन पर

स्थित मौसम स्टेशनों

के प्रेक्षणों

पर आधारित है।

डब्ल्यू0एम0ओ0

सदस्य देशों

की नेशनल मेटरोलॉजिकल

एंड हाइड्रोलॉजिकल

सर्विसेज द्वारा

इन आंकड़ों का

सतत संकलन एवं

वितरण किया जाता

है।













नक्शा

भी देखें:









 मौसम परिवर्तन के कारण





ओज़ोन

परत



ओज़ोन

परत समतापमंडल

के तापमान को

संतुलित बनाए

हुए है तथा सूर्य

से निकलने वाली

हानिकारण पराबैंगनी

किरणें को अवशोषित

कर ग्रह पर जीवन

की रक्षा करता

है। ओज़ोन कण

अथवा ओज़ोन परत

समताप मंडल में

15-35 किमी की ऊँजाई

पर स्थित है।

यह माना जाता

है कि लाखों

वर्षों से वायुमंडलीय

संरचना में अधिक

बदलाव नहीं आया

है। लेकिन पिछले

पचास वर्षों

में मनुष्य ने

प्रकृति के उत्कृष्ट

संतुलन को वायुमंडल

में हानिकारक

रसायनिक पदार्थों

को छोड़कर अस्त-व्यस्त

कर दिया है जो

धीरे-धीरे इस

जीवरक्षक परत

को नष्ट कर रहा

है।













ओज़ोन

की उपस्थिति

की खोज पहली

बार 1839 ई0 में सी

एफ स्कोनबिअन

के द्वारा की

गई जब वह वैद्युत

स्फुलिंग का

निरीक्षण कर

रहे थे। लेकिन

1850 ई0 के बाद ही

इसे एक प्राकृतिक

वायुमंडलीय

संरचना माना

गया। ओज़ोन का

यह नाम ग्रीक

(यूनानी) शब्द

ओज़ेन (ozein) के आधार

पर पड़ा जिसका

अर्थ होता है

"गंध" इसके सांन्द्रित

(गाढ़ा) रूप में

एक तीक्ष्ण तीखी/कड़वी)

गंध होती है।

1913 ई0 में, विभिन्न

अध्ययनों के

बाद, एक निर्णायक

सबूत मिला कि

यह परत मुख्यतः

समतापमंडल में

स्थित है तथा

यह सूर्य की

हानिकारक पराबैंगनी

किरणों को अवशोषित

कर लेती है।

1920 के दशक में, एक

ऑक्सफोर्ड वैज्ञानिक,

जी एम बी डॉब्सन,

ने सम्पूर्ण

ओज़ोन की निगरानी

(मानीटर करने)

के लिए यंत्र

बनाया।













समताप

मंडल में ओज़ोन

की उपस्थिति

विषुवत-रेखा

के निकट अधिक

सघन और सान्द्र

है तथा ज्यों-ज्यों

हम ध्रुवों की

ओर बढ़ते हैं,

धीरे-धीरे इसकी

सान्द्रता कम

होती जाती है।

यह वहाँ उपस्थित

हवाओं की गति,

पृथ्वी की आकृति

और इसके घूर्णन

पर निर्भर करता

है। ध्रुवों

पर मौसम के अनुसार

यह बदलता रहता

है। ओज़ोन परत

की क्षीणता दक्षिणी

ध्रुव जो अंटार्कटिका

पर है, पर स्पष्ट

दिखाई देती है,

जहाँ एक विशाल

ओज़ोन छिद्र

है। उत्तरी ध्रुव

में ओज़ोन परत

बहुत अधिक नष्ट

नहीं हुई है।

विश्व मौसम-विज्ञान

संस्था (WMO) ने ओज़ोन

क्षीणता की समस्या

को पहचानने और

संचार में अहम

भूमिका निभायी

है। चूँकि वायुमंडल

की कोई अंतर्राष्ट्रीय

सीमा नहीं है,

यह महसूस किया

गया कि इसके

उपाय के लिए

अंतराष्ट्रीय

स्तर पर विचार

होना चाहिए।





(UNEP) संयुक्त

राष्ट्र पर्यावरण

योजना ने विएना

संधि की शुरूआत

की जिसमें 30 से

अधिक राष्ट्र

शामिल हुए। यह

पदार्थों पर

एक ऐतिहासिक

विज्ञप्ति थी,

जो ओज़ोन परत

को नष्ट करते

हैं तथा इसे

1987 ई0 में मॉन्ट्रियल

में स्वीकार

कर लिया गया।

इसमें उन पदार्थों

की सूची बनाई

गई जिनके कारण

ओज़ोन परत नष्ट

हो रही है तथा

वर्ष 2000 तक क्लोरोफ्लोरो

कार्बन के उपयोग

में 50% तक की कमी

का आह्वान किया

गया। क्लोरोफ्लोरो

कार्बन अथवा

सी एफ सी को हरितगृह

प्रभाव के लिए

ज़िम्मेदार

गैस माना जाता

है। यह मुख्यतः

वातानुकूलन

मशीन, रेफ्रिजरेटर

से उत्सर्जित

होती है तथा

एरोसोल अथवा

स्प्रे इसके

प्रणोदक (बढ़ाने

वाला) हैं। एक

अन्य बहुत ज्यादा

उपयोग किया जाने

वाला रसायन मिथाइल

ब्रोमाइड है

जो ओज़ोन परत

के लिए एक चेतावनी

है। यह ब्रोमाइड

उत्सर्जित करता

है जो क्लोरीन

की तरह 30-50 गुणा

ज्यादा विनाशकारी

है। इसका उपयोग

मिट्टी, उपयोगी

वस्तुओं और वाहन

ईंधन संयोजी

के लिए धूमक

के रूप में होता

है (रोगाणुनाशी

के रूप में प्रयोग

किया जाने वाला

धुआँ)। वर्तमान

समय में कोई

ऐसा रसायन मौजूद

नहीं है जो पूरी

तरह से मिथाइल

ब्रोमाइड के

उपयोग को हटा

दें। यह स्पष्ट

रूप से कहना

चाहिए कि ओज़ोन

परत की आशा के

अनुरूप प्राप्ति

पदार्थों के

मॉन्ट्रयल प्रोटोकॉल

के बिना असंभव

है जो ओज़ोन

परत को नष्ट

करता है (1987) जिसने

ओज़ोन परत को

नुकसान पहुँचाने

वाले सभी पदार्थों

के उपयोग में

कमी के लिए आवाज

उठाया। विकासशील

राष्ट्रों के

लिए इसकी अंतिम

तिथि 1996 थी, जबकि

भारत को 2010 ई0 तक

इस बड़े विनाशकारी

रसायन को पूर्णतः

समाप्त कर देना

है।












प्राकृतिक

कुण्ड (हौज़)









 मौसम परिवर्तन के कारण



वैज्ञानिकों

ने पृथ्वी पर

ऐसी जगहों का

पता लगा लिया

है जिनमें हरितगृह

की गैसों को

अंदर रखने की

क्षमता है तथा

जो हमारे चारों

तरफ की हवा को

शुद्ध करती है।

ऐसी जगहों को

"प्राकृतिक

कुण्ड" कहते

हैं। इनमें से

कुछ प्राकृतिक

कुण्ड तो जंगल

(वृक्ष, पेड़-पौधे),

सागर तथा कुछ

हद तक मिट्टी

हैं, तथा सभी

में कार्बनडाईऑक्साड

लेने की क्षमता

है। वस्तुतः,

मिट्टी की क्रियाविधि

से मीथेन गैस

को हटाया जा

सकता है। वृक्ष

और अन्य पेड़-पौधे

कार्बन डाई-ऑक्साइड

अवशोषित करते

हैं तथा एक "गोदाम"

(Store house) अथवा "कार्बन

का कुण्ड" की

तरह काम करते

हैं। ये जंगल

दशकों और शताब्दियों

से जंगल में

कार्बन संग्रहण

क्षमता स्थापित

करने के लिए

कार्बन जमा कर

रहे हैं। बहुत

ही कम समय में

जंगल कार्बन

की अतिरिक्त

मात्रा को ग्रहण

करने की संभावना

व्यक्त करता

है।



























 मौसम परिवर्तन के कारण





जंगल

में संभवतः जैविक

आग से कार्बन

मुक्त होता है

या वृक्ष अपघटन

से अथवा आग की

स्थिति में कार्बन

वायुमंडल में

मुक्त हो जाता

है। किसी जंगल

में प्राकृतिक

कारणों से और

लोगों की लापरवाही

से अथवा उस क्षेत्र

में जहाँ लोग

पेड़ों को काटते

और जलाते हैं,

आग लग जाती है।

हालाँकि, जंगल

दोबारा कार्बन

कुण्ड बन सकता

है क्योंकि यह

जंगल के फैलाव

के साथ-साथ एकत्रित

होता है।













किसी

जंगल के पारिस्थितिकी-तंत्र

में

कार्बन के चार

तत्व होते हैं:-

वृक्ष, जंगल

की सतह पर बढ़ने

वाले पौधे, गिरे

हुए पत्ते तथा

जंगल की सतह

और मिट्टी में

अपघटित होने

वाले अन्य पदार्थ।

पौधे की वृद्धि

की प्रक्रिया

के दौरान कार्बन

अवशोषित हो जाता

है तथा कार्बन

वनस्पति कोशिका

निर्माण में

ग्रहण कर लिया

जाता है तथा

ऑक्सीजन को मुक्त

कर दिया जाता

है। जंगल की

सतह पर उगने

वाले पौधे इस

कार्बन के भण्डार

में वृद्धि करते

हैं। समय बीतने

के बाद, टहनियाँ,

पत्ते तथा अन्य

चीजें जंगल की

सतह पर गिरती

हैं तथा अपने

अपघटित होने

तक कार्बन को

जमा कर रखती

हैं। साथ ही,

जंगल की मिट्टी,

जड़/मिट्टी के

माध्यम से कुछ

अपघटित पौधों

को ग्रहण करती

है।













जंगलों

को लगाए जाने

को सम्पूर्ण

विश्व में सरकारों

द्वारा प्राथमिकता

दी जानी चाहिए।

उन्हें यह निश्चित

कर लेना चाहिए

कि जंगलों की

कटाई बंद हो

गई है। इसमें

सफलता प्राप्त

करने के लिए

उन्हें उन-लोगों

को ऊर्जा के

वैकल्पिक स्रोत

उपलब्ध कराने

चाहिए जो खाना

बनाने और ऊष्मा

के लिए लकड़ी

के ईंधन पर निर्भर

हैं।













वृक्षों

की तरह, सागर

भी कार्बन को

ग्रहण करने में

प्राकृतिक कुण्ड

की तरह काम करता

है। ये सागर

(समुद्री) जलवायु

को कार्बन डाईऑक्साइड

के अवशोषण और

भण्डारण से प्रभावित

करते हैं। जलवायु-परिवर्त्तन

का कारण मनुष्य

द्वारा निर्मित

कार्बन डाईऑक्साइड

तथा अन्य हरितगृह

गैसों का वायुमंडल

में बढ़ जाना

है। वैज्ञानिकों

का मानना है

कि सागर वर्त्तमान

समय में जीवाश्म-ईंधन

के जलने से उत्पन्न

कार्बन डाईऑक्साइड

का लगभग आधा

भाग अवशोषित

कर लेता है।













प्रवाल-भित्ति

(मूँगा-चट्टान)

को प्रायः सागर

का जंगल कहा

जाता है, यह एक

मुख्य कुण्ड

है जिसमें कार्बन

डाई-ऑक्साइड

की बड़ी मात्रा

जमा होती है।

प्लावक सागर

में उपस्थित

रहते हैं, यह

मुख्यतः उस क्षेत्र

में पाये जाते

हैं जहाँ गर्म

तरंगे, ठंढ़ी

तरंगों से मिलती

हैं। यह एक जलीय

पौधा है, स्थलीय

पौधों की तरह

यह प्रकाश-संश्लेषण

की क्रिया में

कार्बन-डाईऑक्साइड

ग्रहण करता है।

पानी में घुली

गैस की मात्रा

पर पादपप्लावक

का उल्टा असर

पड़ता है (सूक्ष्मदर्शीय

पौधा, खासकर

शैवाल), जो प्रकाश

संश्लेषण के

दौरान कार्बन-डाई-ऑक्साइड

अवशोषित करता

है। पादपप्लावक

की क्रिया मुख्यतः

पहले 50 मीटर की

सतह पर होती

है तथा मौसम

और क्षेत्र के

अनुसार बदलती

रहती है। सागर

के कुछ भाग पर

संभवतः पर्याप्त

प्रकाश नहीं

पहुँच पाता जिससे

वे बहुत ठंडे

हैं; अन्य क्षेत्रों

में पादपप्लावक

की वृद्धि के

लिए पोषकतत्वों

की कमी होती

है। एक पंप की

तरह प्लावक सागर

की सतह से गैस

और पोषक तत्व

इसकी गहराई तक

पहुँचाते हैं।

कार्बन-चक्र

में इसकी भूमिका

अन्य वृक्षों

से अलग है। सागरीय

जीव प्रकाश-संश्लेषण

के दौरान कार्बन

डाईऑक्साइड

अवशोषित करते

हैं तथा कुछ

गैस भीतर लगभग

वर्ष भर मुक्त

होते रहते हैं,

इनमें से कुछ

मृत पौधों, शारीरिक

भाग, मल तथा अन्य

डूबती वस्तुओं

द्वारा सागर

की गहराई में

भेजी जाती हैं।

तत्पश्चात्

अपघटित पदार्थों

के रूप में कार्बन

डाई ऑक्साइड

जल में मुक्त

होती है तथा

इनमें से अधिकांश

समुद्री जल में

जल कण के साथ़

रासायनिक रूप

से जुड़कर अवशोषित

हो जाती है।

सागर में गर्म

जल कार्बन डाईऑक्साइड

से सामान्यतः

संतृप्त रहता

है जबकि ठंढ़ा

जल असंतृप्त

रहता है और इसमें

कार्बन डाईऑक्साइड

को पकड़ कर रखने

की बहुत क्षमता

होती है। यह

गैस ठंढ़े संतृप्त

जल में घुलनशील

है। ध्रुव की

ओर, अक्षांश

पर जहाँ सागर

ठंडे हैं, जल

के नजदीक की

हवा में मौजूद

कार्बनडाईऑक्साइड

जल में घुल जाती

हैं। कार्बन

जो सागर के माध्यम

से दो प्रक्रियाओं

द्वारा अवशोषित

किया जाता है,

उसे लगभग 1000 वर्षों

तक सुरक्षित

रखा जा सकता

है।













अब उन

साधनों की खोज

की जा रही है

जिनसे सागरों

का उपयोग कार्बन

डाईऑक्साइड

के एक भण्डार

के रूप में होः

पहला कार्बनडाईआक्साइड

को केन्द्रीय

बिंदुओं से नल-तंत्र

द्वारा ग्रहण

करना अथवा एक

बड़े पात्र में

जमा कर उसे सागर

के भीतर डालना।

दूसरा, सागर

में अधिक पोषक

तत्व डालकर उसे

उर्वर बनाना

ताकि पादपप्लावक

की पर्याप्त

पैदावार हो जो

हवा से कार्बन

डाईआक्साइड

ग्रहण करेगा।

इसे कार्यात्मक

रूप देने से

पहले इन क्रियाओं

के पर्यावरण

पर पड़ने वाले

प्रभाव के बारे

में अध्ययन करना

अभी भी बाकी

है।













वर्ष

1999 में भारत की

जलवायु









 मौसम परिवर्तन के कारण



भारतीय मौसम-विज्ञान

विभाग ने एक

रिपोर्ट में

भारत में वर्ष

1999 के दौरान मौसम

के बारे में

निम्नलिखित

तथ्यों को प्रस्तुत

कियाः-













बर्फीली

हवाओं ने भारत

के उत्तरी भाग

को जनवरी में

सामान्य से 50

नीचे जाकर अपनी

चपेट में ले

लिया। जनवरी

और फरवरी माह

में बारिश होना

सामान्य बात

थी। फरवरी महीने

में बंगाल की

खाड़ी के ऊपर

एक चक्रवाती

तूफान बना जो

बहुत ही अस्वभाविक

था। जैसा कि

ज्ञात है कि

इस क्षेत्र में

वर्ष के इस समय

चक्रवात नहीं

बनते हैं।













वर्ष

1999 के मार्च और

अप्रैल माह न

केवल उस वर्ष

के बल्कि पिछले

दस सालों के

सबसे गर्म महीने

थे जिसमें गर्म

हवाओं ने उत्तरी

और मध्य भारत

को अप्रैल महीने

में अपनी चपेट

में ले लिया।

वस्तुतः इन गर्म

हवाओं की स्थित

को मार्च महीने

में ही देश में

अनुभव कर लिया

गया था। 27 अप्रैल

को तितलागढ़

में 47.60C महत्तम

तापमान रिकार्ड

किया गया।













वर्ष

1999 के मई महीने

में मानसून आने

के पूर्व ही

छीटें पड़ने

लगे थे, वास्तव

में वर्ष 1990 से

लेकर यह दूसरे

सबसे अधिक गीला

महीना था। इसी

महीने में अरब

सागर के ऊपर

एक प्रचण्ड चक्रवाती

तूफान उत्पन्न

हुआ लेकिन मार्ग

से ही वापस मुड़

गया, कमज़ोर

हो गया और 22 मई

को भारत में

पश्चिमी राजस्थान

में प्रवेश कर

गया, यह एक गहरे

विक्षोभ में

बदल गया। दक्षिण-पश्चिम

मानसून केरल

और तमिलनाडु

में 25 मई को आया,

यह सामान्य से

लगभग एक सप्ताह

पहले था। यद्यपि

देश के लगभग

सभी भागों में

बारिश सामान्य

थी, सितम्बर

माह में अन्य

महीनों की तुलना

में सर्वाधिक

बारिश हुई। गुजरात,

हरियाणा, दिल्ली,

तमिलनाडु, केरल,

अंडमान और निकोबार

द्वीप समूह तथा

पांडिचेरी में

कम वर्षा हुई।

वर्ष 1990 से लेकर

अक्टूबर दूसरा

सबसे अधिक बारिश

वाला महीना रिकार्ड

किया गया।













अक्टूबर

1999 एक ऐसे महीने

के रूप में याद

किया जाएगा जब

बड़ा चक्रवाती

तूफान, जिसे

शताब्दी का सबसे

खराब तूफान माना

जाता है, उड़ीसा

के तट पर आया।

इस बड़े चक्रवात

के पूर्व अन्य

प्रबल चक्रवात

पूर्वी तटों,

गोला पुर के

निकट बंगाल और

उड़ीसा के तट

पर 17 अक्टूबर

को आ चुका था।













दूसरा

प्रचण्ड चक्रवात

अडमान सागर में

25 तारीख को एक

दुःख/प्रकोप

के रूप में उत्पन्न

हुआ तथा यह उत्तर-पश्चमी

दिशा में घूम

गया और अधिक

तेज़ हो गया।

28 तारीख की रात

तक एक प्रचण्ड

चक्रवात में

बदल गया तथा 29 तारीख की

दोपहर तक पारादीप

के निकट उड़ीसा

तट को पार कर

गया। हवा की

अनुमानित चाल

250 किमी/घंटा थी

तथा ज्वारीय-तरंगे

30 फीट (9.14मी0) तक पहँच

गईं और पृथ्वी

पर भयानक तबाही

हुई। हजारों

लोगों की जान

गईं तथा करोड़ों

रूपये की सम्पत्ति

नष्ट हो गई।













नवम्बर-दिसम्बर

में पूरे देश

में सामान्य

से कम वर्षा

हुई। वास्तव

में वर्ष 1990 से

लेकर नवम्बर

में बारिश न्यूनतम

रिकार्ड की गई।

बंगाल की खाड़ी

अथवा अरब सागर

में कोई चक्रवाती

तूफान नहीं बना

जो, बात बहुत

ही असामान्य

थी। दिसम्बर

में कश्मीर के

कुछ भागों, हरियाणा,

पंजाब, गुजरात

और महाराष्ट्र

में मामूली ठंडी

हवाएँ चलीं।













नक्शा

भी देखें:













जलवायु

परिवर्तन को

कम करने के लिए

आप क्या कर सकते

हैं



यद्यपि

समस्याएँ बहुत

हैं, हम सभी व्यक्तिगत

और सामाजिक रूप

से सहयोग कर

सकते हैं, जो

हरितगृह गैस

के उत्सर्जन

को कम करेगा

और इसप्रकार

जलवायु के हानिकारक

प्रभाव में बदलाव

आएगा।























हमोलोगों

ने जलवायु परिवर्तन

के बारे में

जो कुछ सीखा

उसे आपस में

बाँटें तथा उसके

बारे में लोगों

को बताएँ।























वैसे घरेलू

यंत्र खरीदें

जो अधिक फलदायक

हों।























सभी तापदीप्त

बल्ब के स्थान

पर ठोस प्रतिदीप्त

बल्ब लगाएँ जो

इससे चार गुणा

ज्यादा चलता

है तथा विद्युत

का केवल एक-चौथाई

भाग प्रयोग करता

है।























घर ऐसा बनाएँ

जिसमें दिन में

सूर्य की रोशनी

आ सके तथा कृत्रिम

प्रकाश की जरूरत

कम हो। गलियों

में रोशनी के

लिए सोडियम वेपर

लाइट्स (Sodium Vapour Lights)

का उपयोग करें,

यह अधिक फलदायक

है।























कार के इंजन

को दुरूस्त रखें

तथा वैसे वाहनों

का प्रयोग करें

जिनमें कम ईंधन

की ज़रूरत हो।























बहुत

लंबे समय तक

इंजन को खाली

चलाने से बहुत

अधिक मात्रा

में ईंधन बर्बाद

होता है। इससे

आराम से बचा

जा सकता है, खासकर

किसी चौराहे

पर और यातायात

अवरोध (जाम) में

इंजन को बंद

करें।























कार समूह

बनाएँ तथा अपने

माता-पिता और

दोस्तों को ऐसा

करने के लिए

प्रोत्साहित

करें।























पड़ोस/नज़दीकी

बाज़ार साइकिल

से या पैदल जाएं।























ईंधन

और प्रदूषण को

कम करने के लिए

वाहन यातायात

को सुव्यवस्थित

करें। फ्रांस

तथा इटली में

दिन कारें नहीं

चलतीं (No Car Days) तथा

शहरों में बारी-बारी

से विषम और सम

लाइसेंस संख्या

वाली कारों के

लिए सीमित पार्किंग

है।























सभी लाइट्स,

टेलीविजन, पंखे,

वातानुकूलन

मशीनों, कम्प्यूटर

तथा विद्युत

यंत्रों को बंद

कर दें, जब उनका

उपयोग न किया

जा रहा हो।























अपने पड़ोस

में पौधे लगाएँ

तथा उनका ख्याल

रखें।























सभी डिब्बों,

बोतलों और प्लास्टिक

की थैलियों को

बदलें तथा जहाँ

तक हो सके ऐसी

चीजें खरीदें

जिसका पुर्नआवर्त्तन

होता हो।













जितना

कम हो सके कूड़ा/रद्दी

बनाएँ, क्योंकि

कूड़े से अधिक

मात्रा में मिथेन

गैस निकलती है

और जब इसे जलाया

जाता है, तब कार्बन

डाई-ऑक्साइड

गैस मुक्त होती

है।













जलवायु-परिवर्तन

से स्वास्थ्य

पर प्रभाव



जलवायु-परिवर्तन

एक बड़ी समस्या

है जो मानव की

बढ़ती क्रियाओं

से उत्पन्न होती

है



तथा तथा इससे

स्वास्थ्य पर

कई प्रत्यक्ष

और परोक्ष

प्रभाव पड़ते

हैं। जीवाश्म

ईंधन का



जलना, उद्योग-धंधों

की संख्या में

वृद्धि तथा व्यापक

पैमाने पर पेड़ों

की कटाई हरितगृह



गैसों (जमजड़)

के वायुमंडल

में जमा होने

के कुछ कारण

हैं। IPCC(जलवायु-परिवर्तन

के अन्तर-सरकारी

पैनल) के अनुसार

कार्बन डाई-आक्साइड

और अन्य हरितगृह

गैसों



(जमजड़) जैसे

मिथेन, ओज़ोन,

नाइट्रस ऑक्साइड

तथा क्लोरोफ्लोरो

कार्बन की वायुमंडल



में वृद्धि

से यह अनुमान

लगाया जाता है

कि विश्व का

औसत तापमान 1.50

सेल्सियस से



4.5 डिग्री सेल्सियस

तक बढ़ सकता

है। इसके विपरित

इससे वर्षा और

बर्फ गिरने में



बदलाव, अधिक

प्रचण्ड अथवा

निरन्तर अकाल,

बाढ़, तूफान

तथा समुद्री

सतह का ऊपर



उठना

आदि स्थितियाँ

उत्पन्न हो सकती हैं।

जलवायु- परिवर्तन

के हानिकारक

प्रभाव क्षेत्र

बहुत व्यापक

है जैसे हृदय-संबंधी

बीमारियाँ मृत्यु-दर,

निर्जलन (dehydration), संक्रामक

बीमारियों

का फैलना, कुपोषण,

तथा स्वास्थ्य

क्षीण करना।

इसीलिए, हमें

इस जलवायु-परिवर्त्तन

को रोकने के

लिए उपयुक्त

कदम उठाने चाहिए।













प्रत्यक्ष

प्रभाव



मौसम

का हमारी सेहत

पर प्रत्यक्ष

प्रभाव पड़ता

है। यदि पूरा

जलवायु गर्म

हो जाए तब स्वास्थ्य

की समस्याएँ

बढ़ेंगी। यह

महसूस किया जा

रहा है कि गर्म

हवाओं के तेज़

होने और उनकी

प्रचण्डता से

तथा दूसरी मौसमी

घटनाओं से मृत्युदर

में वृद्धि होगी

वृद्ध, बच्चे

और वे लोग जो

श्वसन और हृदय-संबंधी

रोग से पीड़ित

हैं, उन पर संभवतः

ऐसे मौसम का

ज्यादा असर होगा

क्योंकि उनमें

सहने की क्षमता

कम है। तापमान

में वृद्धि का

असर नगर में

रहने वाले लोगों

पर गाँव में

रहने वालों की

अपेक्षा ज्यादा

पड़ेगा। यह "ऊष्माद्वीप"

के कारण होता

है क्योंकि यहाँ कंकड़ और

तारकोल से बनी

सड़कें हैं।

नगरों में अधिक

तापमान के कारण

ओजोन के धरातलीय

स्तर में वृद्धि

होगी जिससे वायुप्रदूषण

जैसी समस्याएँ

बढ़ेंगी।













अप्रत्यक्ष

प्रभाव



अप्रत्यक्ष

रूप से, मौसम

के रूप में परिवर्तन

पारिस्थितकी

गड़बड़ी पैदा

कर सकता है, भोज्य

पदार्थों के

(खाद्यान्न)

उत्पादन स्तर

में बदलाव, मलेरिया

तथा अन्य संक्रामक

बीमारियाँ बीमारियां

जलवायु में परिवर्त्तन,

खास कर तापमान,

वष्टिपात तथा

आर्द्रता में

उतार-चढ़ाव जैविक

अवयवों तथा उन

प्रक्रियाओं

को प्रभावित

करते हैं जो

संक्रामक बीमारियों

के फैलने से

जुड़ी हैं।













उच्च

तापमान के कारण

समुद्री-स्तर

ऊपर उठेगा जिससे

भूक्षरण (अपरदन)

होगा तथा महत्वपूर्ण

पारिस्थितिकी

तंत्र जैसे बरसाती

भूमि (wetlands) और प्रवाल-भित्ति

को क्षति पहुँचाएगा।

इसका प्रत्यक्ष

प्रभाव, प्रचण्ड

बाढ़ के कारण

मृत्यु और चोट

के रूप में आ

सकता है। तापमान

बढ़ाने का अप्रत्यक्ष

नतीजा भूमिगत

जलतंत्र में

परिवर्तन के

रूप में होगा,

साथ ही तटीय

रेखा, जैसे खारे

जल का, भूमिगत

जल तथा बरसाती

भूमि में जाने

से प्रवाल-भित्ति

में क्षय तथा

निचले प्रदेशों

में अपवहन-तंत्र

को नुकसान होगा।

जलवायु परिवर्तन

के कारण वायु

प्रदूषण का स्तर

बढ़ेगा जिससे

वायुमंडलीय

रासायनिक प्रतिक्रिया

तेज़ हो जाएगी

तथा तापमान बढ़ाने

के कारण प्रकाश

रासायनिक उपचायक

(oxidants) उत्पन्न

होंगे।













बीमारियाँ



हरितगृह

गैस प्रभाव के

कारण ही समतापमंडलीय

ओज़ोन परत का

क्षय हो रहा

है जो सूर्य

की हानिकारक

किरणों से पृथ्वी

की रक्षा करती

है। समतापमंडलीय

ओज़ोन के क्षय

से सूर्य की

हानिकारक पराबैंगनी

किरणें बड़ी

मात्रा में पृथ्वी

पर पहुँचती हैं,

जिससे श्वेत

वर्ण के लोगों

में त्वचा कैंसर

जैसी बीमारियाँ

होती हैं। इसकी

वजह से बहुत-सारे

लोग मोतियाबिंद

जैसी आँख की

बीमारियों से

पीड़ित होंगे।

ऐसा अनुमान है

कि यह प्रतिरक्षक-तंत्र

(बीमारियों से

रक्षा करने वाले

तंत्र) को भी

भी समाप्त कर

सकता है।













विश्व

में गर्मी बढ़ने

के कारण उन क्षेत्रों

में वृद्धि होगा

जहाँ बीमारी

फैलाने वाले

कीड़े जैसे मच्छर

आदि उत्पन्न

होंगे जिससे

संक्रमण तेज़ी

से फैलेगा।













समुद्री-स्तर

बढ़ने के कारण

स्वास्थ्य पर

पड़ने वाले कुछ

संभावित प्रभाव

हैं:-



  • बाढ़ की

    वज़ह से मृत्यु

    तथा क्षति;
  • खारे पानी

    के प्रवेश के

    कारण शुद्ध

    जल की उपलब्धता

    में कमी।
  • प्रदूषण

    फैलाने वाले

    कूड़े कचड़े

    जो पानी में

    डूबे रहते हैं,

    इनके माध्यम

    से जल आपूर्ति

    का संदूषण
  • बीमारी फैलाने

    वाले कीड़ों

    में बदलाव
  • कृषिभूमि

    के क्षय के कारण

    पोषक-तत्व प्रभावित

    होंगे तथा मछली-पकड़ने

    में अंतर आएगा

    तथा
  • जनसंख्या

    विस्थापन से

    जुड़ी स्वास्थ्य

    समस्याएँ












रोकथाम के

उपाय



  • ऊर्जा के

    वैसे साधन जिनको

    दोबारा निर्मित

    नहीं किया जा

    सकता है, के उपयोग

    में कमी कर तथा

    निर्मित साधनों

    का उपयोग बेशक

    हरितगृह गैसों

    (जमजड़) के उत्सर्जन

    को पर्याप्त

    मात्रा में

    कम करेगा। हरित-गृह

    गैसों (जमजड़)

    की इस कमी का

    लोगों के स्वास्थ्य

    पर सकारात्मक

    प्रभाव पड़ेगा।

  • इसके अतिरिक्त,

    साफ ईंधन तथा

    ऊर्जावान तकनीक

    को अपनाने से

    अस्थायी प्रदूषकों

    को कम किया जा

    सकता है। इस

    प्रकार, स्वास्थ्य

    पर इसका अच्छा

    प्रभाव पड़ेगा।




सम्बन्धित प्रश्न



Comments



नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें Culture Current affairs International Relations Security and Defence Social Issues English Antonyms English Language English Related Words English Vocabulary Ethics and Values Geography Geography - india Geography -physical Geography-world River Gk GK in Hindi (Samanya Gyan) Hindi language History History - ancient History - medieval History - modern History-world Age Aptitude- Ratio Aptitude-hindi Aptitude-Number System Aptitude-speed and distance Aptitude-Time and works Area Art and Culture Average Decimal Geometry Interest L.C.M.and H.C.F Mixture Number systems Partnership Percentage Pipe and Tanki Profit and loss Ratio Series Simplification Time and distance Train Trigonometry Volume Work and time Biology Chemistry Science Science and Technology Chattishgarh Delhi Gujarat Haryana Jharkhand Jharkhand GK Madhya Pradesh Maharashtra Rajasthan States Uttar Pradesh Uttarakhand Bihar Computer Knowledge Economy Indian culture Physics Polity

Labels: , , , , ,
अपना सवाल पूछेंं या जवाब दें।






Register to Comment