जालोर दुर्ग का इतिहास
जालोर दुर्ग का इतिहास
जालोर जोधपुर से 75 मील दक्षिण में सुकडी नदी के किनारे पर स्थित है| जालोर का प्राचीन नाम जबालिपुर, जालहुर या जालंधर भी था जो की संभवत यहाँ के पर्वतो में जबाली ऋषि और जालंधर नाथ जी के तपस्या करने के कारण पड़ा होगा| जालोर नगर में दो मुख्य पर्वत शिखर है जिसमे एक का नाम कनकाचल अथवा सोनगिरी, स्वर्णगिरी है जिस पर जालोर का प्रसिद्द दुर्ग बना हुवा है जिसे सोनगढ़ अथवा सोनलगढ़ भी कहते है| समीप ही दूसरा पर्वत कन्याचल है जिस पर सिरे मंदिर बना हुवा है | जालोर पर विभिन्न राजपूत वंशो और मुसलमान शासको का शासन रहा जिसमे मुख्यत प्रतिहार, परमार, सोलंकी, सोनगरा चौहान,खिलजी, राठोड़, मुगल आदि थे|
प्रतिहार वंश का शासन – (750-1018) इतिहासकार डा दशरथ शर्मा के अनुसार जालोर दुर्ग का निर्माण प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम ने करवाया था |जालोर के इस सुद्रढ़ दुर्ग के सहारे ही उसने उत्तरी पश्चिमी सीमा से होने वाले अरबो के आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया|प्रतिहारो के समय जालोर एक सम्रद्धशाली नगर था|प्रतिहार शासक वत्सराज के शासन काल 778 के दौरान जैन आचार्य उधोतनसूरी ने प्रसिद्द जैन ग्रन्थ कुवलयमाला की रचना की थी|
परमारों (पंवारो) का शासन – प्रतिहारो के बाद परमारों ने जालोर पर शासन किया था| डा गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने परमारों को ही जालोर दुर्ग का निर्माता माना है| डा राघवेन्द्र सिंह मनोहर के अनुसार उपलब्ध एतिहासिक साक्ष्य इस बात की और संकेत करते है की परमारों ने पहले से विद्यमान और प्रतिहारो द्वारा निर्मित इस दुर्ग का जीर्णोधार करवाया था| जालोर दुर्ग के नीचे स्थित तोपखाने जिसके बारे में कहा जाता है की उसका निर्माण राजा भोज ने एक संस्कृत पाठशाला के रूप में करवाया था और ऐसी तीन पाठशालाओं का निर्माण क्रमश धार,अजमेर (ढाई दिन का झोपड़ा) और जालोर में करवाया था| तोपखाने से परमार शासक विसल का 1118 इसवी का एक शिलालेख प्राप्त हुवा है जिसमे पूर्वर्ती परमार शासको के नाम उत्कीर्ण है| इस शिलालेख में विसाल की रानी मेलरदेवी द्वारा सिन्धुराजेश्वर के मंदिर पर स्वर्ण कलश चढाने का उल्लेख है| पूर्ववर्ती परमार शासक अत्यंत प्रतापी थे किन्तु परवर्ती शासक निर्बल होते गए जिसके कारण जालोर पर चालुक्यो (सोलंकीयो) ने अधिकार कर लिया और परमार शासक उनके सामंत बन कर रह गए थे|
चौहानों का शासन – नाडोल के चौहान युवराज कीर्तिपाल ने जालोर पर आक्रमण कर परमारों को पराजित कर जालोर पर अधिकार कर लिया और चौहानों की जालोर शाखा की स्थापना की| स्वर्णगिरी दुर्ग के शासक होने के कारण ही जालोर के चौहान सोनगरा चौहान कहलाये| कीर्तिपाल के बाद उसका पुत्र समर सिंह जालोर का शासक बना उसने जालोर दुर्ग के चारो और प्राचीर का निर्माण करवाया और सुरक्षा की दृष्टी से दुर्ग को अनेक संहारक यंत्रो और उपकरणों से सुसज्जित किया | समर सिंह अत्यंत पराक्रमी, कुटनीतिज्ञ शासक था उसने जालोर के साम्राज्य का विस्तार किया और गुजरात के चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके सामरिक रूप से अपने आप को काफी मजबूत भी कर लिया | समर सिंह कला और विद्वानों का आश्रयदाता भी था|
समर सिंह के बाद उसका पुत्र उदय सिंह जालोर का शासक बना| उदय सिंह सबसे पराक्रमी शासक सिद्ध हुवा उसने अपने पराक्रम के बल पर जालोर का शासन का अत्याधिक विस्तार कर लिया और तुर्क आक्रान्ता इल्तुतमिश का भी सफलता पूर्वक प्रतिरोध किया| इल्तुतमिश ने दो बार जालोर पर आक्रमण किया किन्तु पहली बार जालोर दुर्ग की सुद्रढ़ता के कारण और उदयसिंह की रणनिति के कारण उसे मित्रता कर वापस लौट जाना पड़ा और दूसरी बार भी उदय सिंह द्वारा गुजरात के बाघेला शासक के साथ सयुक्त मोर्चा बना लेने के कारण बिना यद्ध किये लौटना पड़ा था| उदय सिंह के बाद चाचिगदेव और सामंत सिंह जालोर के शासक हुवे|
सामंत सिंह के बाद कान्हड़देव जालोर के शासक बने| कान्हड़देव के समय अल्लाउद्दीन खिलजी ने 1298 में गुजरात विजय हेतु अपने सेनापति उलगु खा और नुसरत खा के अधीन भेजी गई सेना को जालोर में होकर जाने वाले रास्ते से जाने की अनुमति मांगी किन्तु तब युवराज रहे कान्हडदेव ने सेना को गुजरने की अनुमति नहीं दी तब सेना को मेवाड़ से होकर जाना पड़ा और बाद में गुजरात से वापिस आती सेना पर भी कान्हड़दीव के सैनिको द्वारा आक्रमण कर लूटपाट की गई | तब कान्हड़देव को सबक सिखाने की उद्देश्य से अल्लाउद्दीन खिलजी ने पहले सिवाना पर आक्रमण किया और वहा के शासक सातलदेव जो की कान्हड़देव का भतीजा था को युद्ध में वीर गति प्राप्त हुई|फिर अपने सेनापति कमाल्लुद्दीन के नेतृत्व में एक सेना जालोर भेजी| कमाल्लुद्दीन बहोत अच्छा रणनीतिकार था उसने उसने दुर्ग का इतना जबरदस्त घेराव किया की एक आदमी भी न तो दुर्ग से आ सकता था और न ही दुर्ग में जा सकता था|कान्हड़देप्रबंध के अनुसार तीन वर्ष से अधिक समय तक घेरा डालने के कारण दुर्ग में मौजूद रसद समाप्त हो चली थी मगर फिर भी दुर्ग इतना अभेद था की अल्लुद्दीन की सेना हाथ पे हाथ धरे ही बैठी रही मगर बाद में चौहानों के विश्वासघाती बीका दईया सरदार ने अल्लाउद्दीन की सेना को दुर्ग को गुप्त रास्ता बता दिया और कान्हड़देव और उनके पुत्र वीरमदेव बड़ी बहादुरी के साथ लड़ते हुवे वीरगति को प्राप्त हुवे और हजारो राजपूत ललनाओं ने अपने आपको जौहर की अग्नि में झोक दिया|जालोर दुर्ग में सुदूर पर्वत पर वीरमदेव जी जहा वीरगति को प्राप्त हुवे थे वहा उनकी की छतरी बनी हुई है जिसे वीरम देवजी की चौकी कहते है| चोहानो के बाद जालोर के दुर्ग पर मुसलमानो का अधिकार रहा|
राठोड़ो का शासन- जोधपुर के शासक राव गांगा ने जालोर पर आक्रमण कर उसे हस्तगत करने का प्रयास किया था किन्तु जालोर के अधिपति अलीशेर खा ने उनके आक्रमण का सफलता पूर्वक प्रतिरोध कर उसे विफल कर दिया था|बाद में राव मालदेव ने आक्रमण कर जालोर को अपने अधिकार में कर लिया| राव मालदेव की म्रत्यु के बाद बिहारी पठानों ने जालोर को पुन राठोड़ो से छीन लिया| 1607 इसवी में जोधपुर के राठोड शासक गज सिंह ने जालोर पर आक्रमण कर बिहारी पठानों से दुर्ग पुन प्राप्त कर लिया |
बाद में जोधपुर की राजगद्दी पर आसीन भीम सिंह ने अपने छोटे भाई मानसिंह की हत्या करने का प्रयास किया ताकि राजगद्दी के सभी संभावित उत्तराधिकारीयो का सफाया हो जाए तब मान सिंह जी ने जालोर दुर्ग में ही शरण ली और कहते है की अनेक वर्षो तक जोधपुर की सेना जालोर दुर्ग का घेरा डाले बैठी रही और आखिरकार जब 1803 इसवी में मानसिंह जी ने हताश होकर जोधपुर की सेना के सेनापति सिंघवी इन्द्रराज से समझोते की बात चलाई और दुर्ग खाली करने का निश्चय किया तो दुर्ग की पास वाली पहाड़ी पर तपस्या करने वाले नाथ सम्प्रदाय के योगी गुरु अयास देवनाथ ने मानसिंह जी को गुप्त सन्देश भिजवाया की यदि वो कार्तिक सुदी 6 तक और प्रतिरोध कर ले और दुर्ग खाली नहीं करेंगे तो जोधपुर के शासक बन जायेंगे| मान सिंह जी ने योगी की सलाह मान कर कुछ दिन और प्रतिरोध किया और इस दरमियान कार्तिक सुदी 4 ,19 अक्टूबर 1803 को जोधपुर के शासक भीम सिंह जी की म्रत्यु हो गई और जालोर दुर्ग के बाहर घेरा डालने वाली जोधपुर की सेना के सेनापति इंदरचंद सिंघवी स्वयं मानसिंह जी को धूमधाम से जोधपुर ले गए और उनका राजतिलक किया गया|
मानसिंह जी ने जोधपुर का शासक बनने के बाद नाथ सम्प्रदाय के गुरु अयास देवनाथ के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करने के लिए जोधपुर में महामंदिर और जालोर के कन्याचल पर्वत स्थित नाथ साम्प्रादाय के मंदिर और आश्रम का जिर्णोधार करवाया था और मानसिंह जी ने जालोर दुर्ग में महल का तथा अनेक अन्य निर्माण कार्य करवाए थे|
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान राजस्थान के अनेक स्वतन्त्रता सैनानियो को अंग्रेजो ने इसी दुर्ग में बंदी बना कर रखा था|
जालोर दुर्ग
मैंने राजस्थान के जितने भी दुर्ग देखे है उनमे से मुझे जालोर का दुर्ग अत्यत दुर्गम, अभेद और अपराजेय प्रतीत हुवा| जब आप जालोर दुर्ग पर चढ़ना प्रारम्भ करते है तब पता चलता है की इसकी पहाड़ी की खड़ीं और टेढ़ी मेढ़ी चढ़ाई कितनी दुष्कर है| इस दुर्ग की उंचाई 1200 फीट है इसीलिए यहाँ आने वाले वृद्ध जैन तीर्थ यात्रियों के लिए नीचे कहार भी मिल जाते है|अल्लाउद्दीन खिलजी को भी इस दुर्ग पर अधिकार करने इसको भेदने में नाको से चने चबाने पड गए थे, तीन वर्ष तक घेरा डाले रहने के बावजूद उसकी सेना इसको भेदने में विफल रही थी बाद में एक विश्वासघाती के कारण ही दुर्ग में उसकी सेना प्रवेश कर सकी थी |
जालोर दुर्ग चारो तरफ से सुद्रढ़ प्राचीर से घिरा हुवा है तथा इसके नीचे तलहटी में बसा पुराना शहर भी चारो तरफ से परकोटे से घिरा हुवा है जिसमे पांच दरवाजे है (बड़ी पोल, सूरज पोल, तिलक पोल, लाल पोल और आसन की पोल )डा मोहन लाल गुप्ता के अनुसार नगर में मध्कालीन आठ बावडिया है जिनके नाम है खिरनी बाव,सांड बाव, गोगडी बाव , कोली बाव , मछली बाव , अमर बाव , तोशखाना की बावड़ी और मेघवालो के बास की बावड़ी इनमे से सांड बाव सबसे पुरानी है और राजा कान्हड़ देव के समय की है जिसके प्रवेश द्वार पर दो शिलालेख अंकित है जिसमे एक मारवाड़ी में है और दूसरा फ़ारसी में है जो मुग़ल बादशाह जहांगीर के समय का है|
जालोर दुर्ग भी चार मजबूत दरवाजो से सुरक्षित है जिनमे क्रमश सूरज पोल ,ध्रुव पोल, चाँद पोल और सिरे पोल है| जालोर दुर्ग में जाने के लिए वर्तमान में सीढियों से बना रास्ता है जिसके प्रारम्भ में नीचे बायीं तरफ एक दरगाह बनी हुई है थोडा ऊपर जाने पर आशापूर्णा माताजी का मंदिर बना हुवा है और उससे थोडा सा आगे जाने पर सोनगरा बाबोसा (भैरूजी) और माताजी का मंदिर बना हुवा है| उसके बाद आता है दुर्ग का प्रथम और सबसे अभेद द्वार सूरजपोल जिसके सामने एक 25 फीट ऊँची और 15 फुट चौडी गोलाई लेती दीवार बनी हुई है जो इस द्वार को छुपा लेती है संभवत ये शत्रु से छुपाने और उसे भ्रम में डालने और तोप से रक्षा करने के लिए बनाई गई होगी|वर्तमान में इस द्वार के एक तरफ ऊपर की तरफ पर्यटकों के दर्शनार्थ दो तोपे रखी गई है|इसके बाद की चढ़ाई अत्यंत दुर्गम और थकावट भरी लगती है | रास्ते में एक और मजार बनी हुई है और पुरे रास्ते में अद्भुत मानवीय मुख और राक्षसी आकृतियो की विशालकाय चट्टाने दिखाई देती है जो काफी कुछ माउंट आबू की चट्टानों जैसी है| एक मोड़ पर दो विशालकाय चट्टाने है जिन्हें डोकरा (वृद्ध) और डोकरी (वृद्धा) कहते है तथा ये मान्यता है की यदि यहाँ गर्भवती महिला इन चट्टानों पर पत्थर फेंके और यदि वो डोकरे के ऊपर गिरा तो संतान पुत्र होगा और यदि डोकरी पर गिरा तो संतान पुत्री होगी|इसके बाद चाँद पोल और सिरे पोल द्वार पास पास बने है सिरे पोल द्वार के सामने गणेश जी की प्रतिमा विराजित है और द्वार के बाहर भी हनुमानजी और लोक देवता की प्राचीन मुर्तिया लगी हुई है|
सिरे पोल में प्रवेश करते ही दोनों तरफ कुछ कक्ष बने हुवे है संभवत ये सैनिको अथवा दुर्ग के प्रहरियो के रहने के लिए निर्मित होंगे वर्तमान में यहाँ पुलिस चौकी बनी हुई है | थोडा आगे दाई और पुरानी शाही मस्जिद है और सामने विशालकाय जैन मंदिर है जिसमे प्रवेश के लिए वर्धमान द्वार बना हुवा है| जैन मंदिर के दायी तरफ, बायीं तरफ, पीछे की तरफ अनेक जैन मंदिर निर्मित है| वस्तुत जालोर दुर्ग प्रमुख जैन तीर्थ स्थल है | जैन समाज की यहाँ के मंदिरों और यहाँ हुवे जैन संतो में अगाध श्रद्धा है|दायी और एक तिराहा बना हुवा है जहा एक परमारकालीन प्रस्तर स्तम्भ रखा हुवा है कहते है की दुर्ग में परमारों का एकमात्र यही अवशेष बचा है ये स्तम्भ भी कई वर्ष पूर्व एक बावड़ी की सफाई करते समय प्राप्त हुवा था| स्तम्भ के सामने ही श्री आदेश्वर भगवान् का अद्भुत जैन मंदिर बना हुवा है |मुख्य मंदिर के चारो तरफ बहोत सुन्दर शिल्पांकन किया हुवा है | जैन मंदिर के बाहर ही एक मजार बनी हुई है|
जैन मंदिर से थोडा आगे जाने पर मानसिंह जी महल बने हुवे है जिनके बाहर सुन्दर कलात्मक गोखडे निर्मित है| महल में प्रवेश करते ही बड़ा सा चौक है जिसमे एक पुरानी तोप रखी हुई है और एक तरफ सभा भवन बना हुवा है उसी मे बाहर की तरफ गोखडे बने हुवे है| चौक से अन्दर प्रवेश करते ही पुन एक चौक आता है जिसके चारो तरफ अनेक कक्ष बने हुवे है| ये महल इतना विशाल है और इसमें इतने कक्ष और चौक है की भूल भुलैया सा लगता है | इस महल में बने हुवे शौचालय और स्नानाघर भी देखने लायक है | महल में जल निकासी का नाली तंत्र भी उन्नत है|महल के बाहर एक तरफ एक भूमिगत बावड़ी बनी हुई है जिसमे नीचे जाने के लिए सीढ़िया बनी हुई है संभवत ये बावड़ी और इन महलो के स्थान पर कुछ पुराने महल रहे होंगे उन्ही पर मानसिंह जी ने अपने महलो का निर्माण किया होगा और उक्त बावड़ी को भी पेय जल के स्रोत होने के कारण उसे ऊपर से ढक दिया गया होगा| इन महलो के पीछे जनाना महल अथवा रानियों के महल बने हुवे है जो दो मंजिला है और इन महलो के बीच में एक विशाल चौक है|
जनाना महलो के पीछे ही एक शिव मंदिर और नाथ सम्प्रदाय के संत योगी श्री जालंधर नाथ जी का मंदिर है| जिसके पास प्राचीन चामुंडा माता का और जोग माया माता का मंदिर है और पास ही एक प्राचीन बावड़ी है| यहाँ से आगे वीरम देव जी की चौकी और संत मल्लिक शाह की दरगाह के लिए रास्ता जाता है| चामुंडा मंदिर से थोडा पहले प्राचीन जैन मंदिर बने हुवे है जो की पार्श्वनाथ जी का मंदिर है वहा लगे शिलालेख के अनुसार इसका प्राचीन नाम कुमार विहार था इन मंदिरों का निर्माण कुमारपाल ने 1221 में करवाया था जिसे अल्लाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग पर अधिकार होने के उपरान्त ध्वस्त कर दिया था बाद में 1242 में भंडारी पासू के पुत्र यशोवीर ने इसका पुनः जिर्णोधार करवाया था|
जालोर दुर्ग का इतिहास
जालोर जोधपुर से 75 मील दक्षिण में सुकडी नदी के किनारे पर स्थित है| जालोर का प्राचीन नाम जबालिपुर, जालहुर या जालंधर भी था जो की संभवत यहाँ के पर्वतो में जबाली ऋषि और जालंधर नाथ जी के तपस्या करने के कारण पड़ा होगा| जालोर नगर में दो मुख्य पर्वत शिखर है जिसमे एक का नाम कनकाचल अथवा सोनगिरी, स्वर्णगिरी है जिस पर जालोर का प्रसिद्द दुर्ग बना हुवा है जिसे सोनगढ़ अथवा सोनलगढ़ भी कहते है| समीप ही दूसरा पर्वत कन्याचल है जिस पर सिरे मंदिर बना हुवा है | जालोर पर विभिन्न राजपूत वंशो और मुसलमान शासको का शासन रहा जिसमे मुख्यत प्रतिहार, परमार, सोलंकी, सोनगरा चौहान,खिलजी, राठोड़, मुगल आदि थे|
प्रतिहार वंश का शासन – (750-1018) इतिहासकार डा दशरथ शर्मा के अनुसार जालोर दुर्ग का निर्माण प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम ने करवाया था |जालोर के इस सुद्रढ़ दुर्ग के सहारे ही उसने उत्तरी पश्चिमी सीमा से होने वाले अरबो के आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया|प्रतिहारो के समय जालोर एक सम्रद्धशाली नगर था|प्रतिहार शासक वत्सराज के शासन काल 778 के दौरान जैन आचार्य उधोतनसूरी ने प्रसिद्द जैन ग्रन्थ कुवलयमाला की रचना की थी|
परमारों (पंवारो) का शासन – प्रतिहारो के बाद परमारों ने जालोर पर शासन किया था| डा गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने परमारों को ही जालोर दुर्ग का निर्माता माना है| डा राघवेन्द्र सिंह मनोहर के अनुसार उपलब्ध एतिहासिक साक्ष्य इस बात की और संकेत करते है की परमारों ने पहले से विद्यमान और प्रतिहारो द्वारा निर्मित इस दुर्ग का जीर्णोधार करवाया था| जालोर दुर्ग के नीचे स्थित तोपखाने जिसके बारे में कहा जाता है की उसका निर्माण राजा भोज ने एक संस्कृत पाठशाला के रूप में करवाया था और ऐसी तीन पाठशालाओं का निर्माण क्रमश धार,अजमेर (ढाई दिन का झोपड़ा) और जालोर में करवाया था| तोपखाने से परमार शासक विसल का 1118 इसवी का एक शिलालेख प्राप्त हुवा है जिसमे पूर्वर्ती परमार शासको के नाम उत्कीर्ण है| इस शिलालेख में विसाल की रानी मेलरदेवी द्वारा सिन्धुराजेश्वर के मंदिर पर स्वर्ण कलश चढाने का उल्लेख है| पूर्ववर्ती परमार शासक अत्यंत प्रतापी थे किन्तु परवर्ती शासक निर्बल होते गए जिसके कारण जालोर पर चालुक्यो (सोलंकीयो) ने अधिकार कर लिया और परमार शासक उनके सामंत बन कर रह गए थे|
चौहानों का शासन – नाडोल के चौहान युवराज कीर्तिपाल ने जालोर पर आक्रमण कर परमारों को पराजित कर जालोर पर अधिकार कर लिया और चौहानों की जालोर शाखा की स्थापना की| स्वर्णगिरी दुर्ग के शासक होने के कारण ही जालोर के चौहान सोनगरा चौहान कहलाये| कीर्तिपाल के बाद उसका पुत्र समर सिंह जालोर का शासक बना उसने जालोर दुर्ग के चारो और प्राचीर का निर्माण करवाया और सुरक्षा की दृष्टी से दुर्ग को अनेक संहारक यंत्रो और उपकरणों से सुसज्जित किया | समर सिंह अत्यंत पराक्रमी, कुटनीतिज्ञ शासक था उसने जालोर के साम्राज्य का विस्तार किया और गुजरात के चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके सामरिक रूप से अपने आप को काफी मजबूत भी कर लिया | समर सिंह कला और विद्वानों का आश्रयदाता भी था|
समर सिंह के बाद उसका पुत्र उदय सिंह जालोर का शासक बना| उदय सिंह सबसे पराक्रमी शासक सिद्ध हुवा उसने अपने पराक्रम के बल पर जालोर का शासन का अत्याधिक विस्तार कर लिया और तुर्क आक्रान्ता इल्तुतमिश का भी सफलता पूर्वक प्रतिरोध किया| इल्तुतमिश ने दो बार जालोर पर आक्रमण किया किन्तु पहली बार जालोर दुर्ग की सुद्रढ़ता के कारण और उदयसिंह की रणनिति के कारण उसे मित्रता कर वापस लौट जाना पड़ा और दूसरी बार भी उदय सिंह द्वारा गुजरात के बाघेला शासक के साथ सयुक्त मोर्चा बना लेने के कारण बिना यद्ध किये लौटना पड़ा था| उदय सिंह के बाद चाचिगदेव और सामंत सिंह जालोर के शासक हुवे|
सामंत सिंह के बाद कान्हड़देव जालोर के शासक बने| कान्हड़देव के समय अल्लाउद्दीन खिलजी ने 1298 में गुजरात विजय हेतु अपने सेनापति उलगु खा और नुसरत खा के अधीन भेजी गई सेना को जालोर में होकर जाने वाले रास्ते से जाने की अनुमति मांगी किन्तु तब युवराज रहे कान्हडदेव ने सेना को गुजरने की अनुमति नहीं दी तब सेना को मेवाड़ से होकर जाना पड़ा और बाद में गुजरात से वापिस आती सेना पर भी कान्हड़दीव के सैनिको द्वारा आक्रमण कर लूटपाट की गई | तब कान्हड़देव को सबक सिखाने की उद्देश्य से अल्लाउद्दीन खिलजी ने पहले सिवाना पर आक्रमण किया और वहा के शासक सातलदेव जो की कान्हड़देव का भतीजा था को युद्ध में वीर गति प्राप्त हुई|फिर अपने सेनापति कमाल्लुद्दीन के नेतृत्व में एक सेना जालोर भेजी| कमाल्लुद्दीन बहोत अच्छा रणनीतिकार था उसने उसने दुर्ग का इतना जबरदस्त घेराव किया की एक आदमी भी न तो दुर्ग से आ सकता था और न ही दुर्ग में जा सकता था|कान्हड़देप्रबंध के अनुसार तीन वर्ष से अधिक समय तक घेरा डालने के कारण दुर्ग में मौजूद रसद समाप्त हो चली थी मगर फिर भी दुर्ग इतना अभेद था की अल्लुद्दीन की सेना हाथ पे हाथ धरे ही बैठी रही मगर बाद में चौहानों के विश्वासघाती बीका दईया सरदार ने अल्लाउद्दीन की सेना को दुर्ग को गुप्त रास्ता बता दिया और कान्हड़देव और उनके पुत्र वीरमदेव बड़ी बहादुरी के साथ लड़ते हुवे वीरगति को प्राप्त हुवे और हजारो राजपूत ललनाओं ने अपने आपको जौहर की अग्नि में झोक दिया|जालोर दुर्ग में सुदूर पर्वत पर वीरमदेव जी जहा वीरगति को प्राप्त हुवे थे वहा उनकी की छतरी बनी हुई है जिसे वीरम देवजी की चौकी कहते है| चोहानो के बाद जालोर के दुर्ग पर मुसलमानो का अधिकार रहा|
राठोड़ो का शासन- जोधपुर के शासक राव गांगा ने जालोर पर आक्रमण कर उसे हस्तगत करने का प्रयास किया था किन्तु जालोर के अधिपति अलीशेर खा ने उनके आक्रमण का सफलता पूर्वक प्रतिरोध कर उसे विफल कर दिया था|बाद में राव मालदेव ने आक्रमण कर जालोर को अपने अधिकार में कर लिया| राव मालदेव की म्रत्यु के बाद बिहारी पठानों ने जालोर को पुन राठोड़ो से छीन लिया| 1607 इसवी में जोधपुर के राठोड शासक गज सिंह ने जालोर पर आक्रमण कर बिहारी पठानों से दुर्ग पुन प्राप्त कर लिया |
बाद में जोधपुर की राजगद्दी पर आसीन भीम सिंह ने अपने छोटे भाई मानसिंह की हत्या करने का प्रयास किया ताकि राजगद्दी के सभी संभावित उत्तराधिकारीयो का सफाया हो जाए तब मान सिंह जी ने जालोर दुर्ग में ही शरण ली और कहते है की अनेक वर्षो तक जोधपुर की सेना जालोर दुर्ग का घेरा डाले बैठी रही और आखिरकार जब 1803 इसवी में मानसिंह जी ने हताश होकर जोधपुर की सेना के सेनापति सिंघवी इन्द्रराज से समझोते की बात चलाई और दुर्ग खाली करने का निश्चय किया तो दुर्ग की पास वाली पहाड़ी पर तपस्या करने वाले नाथ सम्प्रदाय के योगी गुरु अयास देवनाथ ने मानसिंह जी को गुप्त सन्देश भिजवाया की यदि वो कार्तिक सुदी 6 तक और प्रतिरोध कर ले और दुर्ग खाली नहीं करेंगे तो जोधपुर के शासक बन जायेंगे| मान सिंह जी ने योगी की सलाह मान कर कुछ दिन और प्रतिरोध किया और इस दरमियान कार्तिक सुदी 4 ,19 अक्टूबर 1803 को जोधपुर के शासक भीम सिंह जी की म्रत्यु हो गई और जालोर दुर्ग के बाहर घेरा डालने वाली जोधपुर की सेना के सेनापति इंदरचंद सिंघवी स्वयं मानसिंह जी को धूमधाम से जोधपुर ले गए और उनका राजतिलक किया गया|
मानसिंह जी ने जोधपुर का शासक बनने के बाद नाथ सम्प्रदाय के गुरु अयास देवनाथ के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करने के लिए जोधपुर में महामंदिर और जालोर के कन्याचल पर्वत स्थित नाथ साम्प्रादाय के मंदिर और आश्रम का जिर्णोधार करवाया था और मानसिंह जी ने जालोर दुर्ग में महल का तथा अनेक अन्य निर्माण कार्य करवाए थे|
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान राजस्थान के अनेक स्वतन्त्रता सैनानियो को अंग्रेजो ने इसी दुर्ग में बंदी बना कर रखा था|
जालोर दुर्ग
मैंने राजस्थान के जितने भी दुर्ग देखे है उनमे से मुझे जालोर का दुर्ग अत्यत दुर्गम, अभेद और अपराजेय प्रतीत हुवा| जब आप जालोर दुर्ग पर चढ़ना प्रारम्भ करते है तब पता चलता है की इसकी पहाड़ी की खड़ीं और टेढ़ी मेढ़ी चढ़ाई कितनी दुष्कर है| इस दुर्ग की उंचाई 1200 फीट है इसीलिए यहाँ आने वाले वृद्ध जैन तीर्थ यात्रियों के लिए नीचे कहार भी मिल जाते है|अल्लाउद्दीन खिलजी को भी इस दुर्ग पर अधिकार करने इसको भेदने में नाको से चने चबाने पड गए थे, तीन वर्ष तक घेरा डाले रहने के बावजूद उसकी सेना इसको भेदने में विफल रही थी बाद में एक विश्वासघाती के कारण ही दुर्ग में उसकी सेना प्रवेश कर सकी थी |
जालोर दुर्ग चारो तरफ से सुद्रढ़ प्राचीर से घिरा हुवा है तथा इसके नीचे तलहटी में बसा पुराना शहर भी चारो तरफ से परकोटे से घिरा हुवा है जिसमे पांच दरवाजे है (बड़ी पोल, सूरज पोल, तिलक पोल, लाल पोल और आसन की पोल )डा मोहन लाल गुप्ता के अनुसार नगर में मध्कालीन आठ बावडिया है जिनके नाम है खिरनी बाव,सांड बाव, गोगडी बाव , कोली बाव , मछली बाव , अमर बाव , तोशखाना की बावड़ी और मेघवालो के बास की बावड़ी इनमे से सांड बाव सबसे पुरानी है और राजा कान्हड़ देव के समय की है जिसके प्रवेश द्वार पर दो शिलालेख अंकित है जिसमे एक मारवाड़ी में है और दूसरा फ़ारसी में है जो मुग़ल बादशाह जहांगीर के समय का है|
जालोर दुर्ग भी चार मजबूत दरवाजो से सुरक्षित है जिनमे क्रमश सूरज पोल ,ध्रुव पोल, चाँद पोल और सिरे पोल है| जालोर दुर्ग में जाने के लिए वर्तमान में सीढियों से बना रास्ता है जिसके प्रारम्भ में नीचे बायीं तरफ एक दरगाह बनी हुई है थोडा ऊपर जाने पर आशापूर्णा माताजी का मंदिर बना हुवा है और उससे थोडा सा आगे जाने पर सोनगरा बाबोसा (भैरूजी) और माताजी का मंदिर बना हुवा है| उसके बाद आता है दुर्ग का प्रथम और सबसे अभेद द्वार सूरजपोल जिसके सामने एक 25 फीट ऊँची और 15 फुट चौडी गोलाई लेती दीवार बनी हुई है जो इस द्वार को छुपा लेती है संभवत ये शत्रु से छुपाने और उसे भ्रम में डालने और तोप से रक्षा करने के लिए बनाई गई होगी|वर्तमान में इस द्वार के एक तरफ ऊपर की तरफ पर्यटकों के दर्शनार्थ दो तोपे रखी गई है|इसके बाद की चढ़ाई अत्यंत दुर्गम और थकावट भरी लगती है | रास्ते में एक और मजार बनी हुई है और पुरे रास्ते में अद्भुत मानवीय मुख और राक्षसी आकृतियो की विशालकाय चट्टाने दिखाई देती है जो काफी कुछ माउंट आबू की चट्टानों जैसी है| एक मोड़ पर दो विशालकाय चट्टाने है जिन्हें डोकरा (वृद्ध) और डोकरी (वृद्धा) कहते है तथा ये मान्यता है की यदि यहाँ गर्भवती महिला इन चट्टानों पर पत्थर फेंके और यदि वो डोकरे के ऊपर गिरा तो संतान पुत्र होगा और यदि डोकरी पर गिरा तो संतान पुत्री होगी|इसके बाद चाँद पोल और सिरे पोल द्वार पास पास बने है सिरे पोल द्वार के सामने गणेश जी की प्रतिमा विराजित है और द्वार के बाहर भी हनुमानजी और लोक देवता की प्राचीन मुर्तिया लगी हुई है|
सिरे पोल में प्रवेश करते ही दोनों तरफ कुछ कक्ष बने हुवे है संभवत ये सैनिको अथवा दुर्ग के प्रहरियो के रहने के लिए निर्मित होंगे वर्तमान में यहाँ पुलिस चौकी बनी हुई है | थोडा आगे दाई और पुरानी शाही मस्जिद है और सामने विशालकाय जैन मंदिर है जिसमे प्रवेश के लिए वर्धमान द्वार बना हुवा है| जैन मंदिर के दायी तरफ, बायीं तरफ, पीछे की तरफ अनेक जैन मंदिर निर्मित है| वस्तुत जालोर दुर्ग प्रमुख जैन तीर्थ स्थल है | जैन समाज की यहाँ के मंदिरों और यहाँ हुवे जैन संतो में अगाध श्रद्धा है|दायी और एक तिराहा बना हुवा है जहा एक परमारकालीन प्रस्तर स्तम्भ रखा हुवा है कहते है की दुर्ग में परमारों का एकमात्र यही अवशेष बचा है ये स्तम्भ भी कई वर्ष पूर्व एक बावड़ी की सफाई करते समय प्राप्त हुवा था| स्तम्भ के सामने ही श्री आदेश्वर भगवान् का अद्भुत जैन मंदिर बना हुवा है |मुख्य मंदिर के चारो तरफ बहोत सुन्दर शिल्पांकन किया हुवा है | जैन मंदिर के बाहर ही एक मजार बनी हुई है|
जैन मंदिर से थोडा आगे जाने पर मानसिंह जी महल बने हुवे है जिनके बाहर सुन्दर कलात्मक गोखडे निर्मित है| महल में प्रवेश करते ही बड़ा सा चौक है जिसमे एक पुरानी तोप रखी हुई है और एक तरफ सभा भवन बना हुवा है उसी मे बाहर की तरफ गोखडे बने हुवे है| चौक से अन्दर प्रवेश करते ही पुन एक चौक आता है जिसके चारो तरफ अनेक कक्ष बने हुवे है| ये महल इतना विशाल है और इसमें इतने कक्ष और चौक है की भूल भुलैया सा लगता है | इस महल में बने हुवे शौचालय और स्नानाघर भी देखने लायक है | महल में जल निकासी का नाली तंत्र भी उन्नत है|महल के बाहर एक तरफ एक भूमिगत बावड़ी बनी हुई है जिसमे नीचे जाने के लिए सीढ़िया बनी हुई है संभवत ये बावड़ी और इन महलो के स्थान पर कुछ पुराने महल रहे होंगे उन्ही पर मानसिंह जी ने अपने महलो का निर्माण किया होगा और उक्त बावड़ी को भी पेय जल के स्रोत होने के कारण उसे ऊपर से ढक दिया गया होगा| इन महलो के पीछे जनाना महल अथवा रानियों के महल बने हुवे है जो दो मंजिला है और इन महलो के बीच में एक विशाल चौक है|
जनाना महलो के पीछे ही एक शिव मंदिर और नाथ सम्प्रदाय के संत योगी श्री जालंधर नाथ जी का मंदिर है| जिसके पास प्राचीन चामुंडा माता का और जोग माया माता का मंदिर है और पास ही एक प्राचीन बावड़ी है| यहाँ से आगे वीरम देव जी की चौकी और संत मल्लिक शाह की दरगाह के लिए रास्ता जाता है| चामुंडा मंदिर से थोडा पहले प्राचीन जैन मंदिर बने हुवे है जो की पार्श्वनाथ जी का मंदिर है वहा लगे शिलालेख के अनुसार इसका प्राचीन नाम कुमार विहार था इन मंदिरों का निर्माण कुमारपाल ने 1221 में करवाया था जिसे अल्लाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग पर अधिकार होने के उपरान्त ध्वस्त कर दिया था बाद में 1242 में भंडारी पासू के पुत्र यशोवीर ने इसका पुनः जिर्णोधार करवाया था|
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