रंगमंच का अर्थ
रंगमंच (थिएटर) वह स्थान है जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों। रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों के मिलने से बना है। रंग इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छतों और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेशभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है और मंच इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊँचा रहता है। दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला, या नाट्यशाला (या नृत्यशाला) कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम दिया जाता है।
अनुक्रम
1 आविर्भाव
2 भारत के रंगमंच
3 पाश्चात्य रंगमंच
4 आधुनिक रंगमंच
5 चित्रपट और रंगमंच
6 सन्दर्भ ग्रन्थ
7 इन्हें भी देखें
8 बाहरी कड़ियाँ
आविर्भाव
ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटकों के विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया है:
नाट्यकला की उत्पत्ति दैवी है, अर्थात् दु:खरहित सत्ययुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने स्रष्टा ब्रह्मा से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की जिससे देवता लोग अपना दु:ख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलत: उन्होंने ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गायन, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर, नाटक का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने रंगमंच बनाया आदि आदि।
नाटकों का विकास चाहे जिस प्रकार हुआ हो, संस्कृत साहित्य में नाट्य ग्रंथ और तत्संबंधी अनेक शास्त्रीय ग्रंथ लिखे गए और साहित्य में नाटक लिखने की परिपाटी संस्कृत आदि से होती हुई हिंदी को भी प्राप्त हुई। संस्कृत नाटक उत्कृष्ट कोटि के हैं और वे अधिकतर अभिनय करने के उद्देश्य से लिखे जाते थे। अभिनीत भी होते थे, बल्कि नाट्यकला प्राचीन भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग थी, ऐसा संस्कृत तथा पालि ग्रंथों के अन्वेषण से ज्ञात होता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से तो ऐसा ज्ञात होता है कि नागरिक जीवन के इस अंग पर राज्य को नियंत्रण करने की आवश्यकता पड़ गई थी। उसमें नाट्यगृह का एक प्राचीन वर्णन प्राप्त होता है। अग्निपुराण, शिल्परत्न, काव्यमीमांसा तथा संगीतमार्तंड में भी राजप्रसाद के नाट्यमंडपों के विवरण प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार महाभारत में रंगशाला का उल्लेख है और हरिवंश पुराण तथा रामायण में नाटक खेले जाने का वर्णन है।
इतना सब होते हुए भी यह निश्चित रूप से पता नहीं लगता कि वे नाटक किस प्रकार के नाट्यमंडपों में खेले जाते थे तथा उन मंडपों के क्या रूप थे। अभी तक की खोज के फलस्वरूप सीतावंगा गुफा को छोड़कर कोई ऐसा गृह नहीं मिला जिसे साधिकार नाट्यमंडप कहा जा सके।
पाश्चात्य विद्वानों की भी धारणा है कि धार्मिक कृत्यों से ही नाटकों का प्रादुर्भाव हुआ। इससे रंगस्थली (यदि वास्तव में उसे रंगस्थली की संज्ञा दी जा सके) के प्रारंभिक स्वरूप की कल्पना की जा सकती है कि वह वृत्ताकर रही होगी। धीरे-धीरे जब दर्शनीयता की ओर अधिक ध्यान दिया गया होगा, तब यह अनुभव किया गया होगा कि इस वृत्ताकार रंगस्थली में केवल आगे के कुछ दर्शक की दृश्य का पूरा आनंद उठा सकते हैं, पीछे बैठनेवालों को सिर उठाने की आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से कटोरानुमा स्थान रंगस्थली के लिए अधिक उपयुक्त समझा जाने लगा होगा। धार्मिक कृत्यों और नृत्य आदि के लिए यह उत्तम प्रबंध था। धीरे-धीरे जब नाटकों का रूप अधिक विकसित हुआ, तब यह अनुभव हुआ होगा कि कथाकार और अभिनेताओं के सामने की ओर बैठनेवालों को ही देखने और सुनने की अच्छी सुविधा होती है। इसके लिए पर्वतीय स्थानों में घाटी बहुत उपयुक्त प्रतीत हुई होगी, जिसमें ढाल पर बैठे दर्शक नीचे अभिनेताओं को भली भाँति देख सुन सकते थे और उनके पीछे फैला हुआ विस्तृत भूखंड सहज सुंदर चित्रित प्राकृतिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता था। शायद इसी का अनुकरण अपर्वतीय पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता था। शायद इसी का अनुकरण अपर्वतीय स्थानों में कृत्रिम रंगशालाएँ बनाकर किया गया, जिनमें वृत्ताकार दीवार के अंदर सीढ़ीनुमा स्थान दर्शकों के बैठने के लिए होता था, जो भीतर बने ऊँचे चबूतरे को तीन ओर से घेरे रहता था। चौथी ओर सीधी दीवार होती थी, जिसमें सुंदर चित्रकारी होती थी। इसके पीछे नेपथ्य होता था। जहाँ अभिनेताओं के उठने बैठने और उनकी रूपसज्जा का प्रबंध रहता था। उपर्युक्त चिरप्रतिष्ठित रंगशाला के प्राचीन रूपों में धीरे-धीरे सुधार होता गया। कालांतर में प्रेक्षास्थान तीन ओर के बजाय केवल एक ओर, सामने ही सामने रह गया। सारा विन्यास गोल से बदलकर चौकोर हो गया और नाट्यशाला का आधा, या इससे भी अधिक स्थान घेरने लगा।
भारत के रंगमंच
देखें :
मुख्य लेख : भारतीय रंगमंच
पाश्चात्य रंगमंच
यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यता में हम चौथी शती ई. पूर्व में रंगमंच होने की कल्पना कर सकते हैं। इतिहास प्रसिद्ध डायोनीसन का थिएटर एथेंस में आज भी उस काल की याद दिलाता है। एक अन्य थिएटर एपिडारस में है, जिसका नृत्यमंच गोल है। 364 ई. पूर्व रोमवाले इट्रस्कन अभिनेताओं की एक मंडली अपने नगर में लाए और उनके लिए सर्कस मैक्सियस में पहला रोमन रंगमंच तैयार किया। इससे कल्पना की जाती है कि इट्रूरियावालों से ही (जिनका उद्गम विवादग्रस्त है) नाट्यकला और फलत: रंगमंच का प्रारंभिक रूप रोम में आया। सीज़र (कैसर) आगस्टस (दूसरी शती ई.पू.) ने रोम को बहुत उन्नत किया। पांपेई का शानदार थिएटर तथा एक अन्य (पत्थर का) थिएटर उसी के बनवाए बताए जाते हैं।
प्रमुख चरण:
1. रोमीय परंपरावाला विसेंजा रंगमंच (1580-85 ई.), जिसमें बाद के दीवार के पीछे वीथिकाएँ जोड़ दी गई थीं
2. सैवियोनेटा में स्कमोज़ी ने इन वीथिकाओं को मुख्य रंगमंच से मिला दिया (1588 ई.)
3. इमिगो जोंस ने बाद में इन्हें रंगमंच ही बना दिया तथा
4. आगे चलकर (1618-19 ई.), परमा थियेटर में, रंगमंच पीछे हो गया और पृष्ठभूमि की चित्रित दीवार आगे आ गई।
लगभग दूसरी शती ईसवी में रंगमंच कामदेव का स्थान माना जाने लगा। ईसाइयत के जन्म लेते ही पादरियों ने नाट्यकला को ही हेय मान लिया। गिरजाघर ने थिएटर का ऐसा गला घोटा कि वह आठ शताब्दियों तक न पनप सका। कुछ उत्साही पादरियों ने तो यहाँ तक फतवा दिया कि रोमन साम्राज्य के पतन का कारण थिएटर ही है। रोमन रंगमंच का अंतिम सन्दर्भ 533 ई. का मिलता है। किंतु धर्म जनसामान्य की आनंद मनाने की भावना को न दबा सका और लोकनृत्य तथा लोकनाट्य, छिपे छिपे ही सही, पनपते रहे। जब ईसाइयों ने इतर जातियों पर आधिपत्य कर लिया, तो एक मध्यम मार्ग अपनाना पड़ा। रीति रिवाजों में फिर से इस कला का प्रवेश हुआ। बहुत दिनों तक गिरजाघर ही नाट्यशाला का काम देता रहा और वेदी ही रंगमंच बनी। 10 वीं से 13 वीं शताब्दी तक बाइबिल की कथाएँ ही प्रमुखत: अभिनय का आधार बनीं, फिर धीरे-धीरे अन्य कथाएँ भी आईं, किंतु ये नाटक स्वतंत्र ही रहे। चिर प्रतिष्ठित रंगमंच, जो यूरोप भर में जगह जगह टूटे फूटे पड़े थे, फिर न अपनाए गए।
इतालवी पुनर्जागरण के साथ वर्तमान रंगमंच का जन्म हुआ, किंतु उस समय जहाँ सारे यूरोप में अन्य सभी कलाओं का पुनरुद्वार हुआ, रंगमंच का पुन: अपना शैशव देखना पड़ा। 14 वीं शताब्दी में फिर से नाट्यकला का जन्म हुआ और लगभग 16 वीं शताब्दी में उसे प्रौढ़ता प्राप्त हुई। शाही महलों की अत्यंत सजी धजी नृत्यशालाएँ नाटकीय रंगमंच में परिणत हो गईं। बाद में उद्यानों में भी रंगशालाएँ बनीं, जिनमें अनेक दीवारों के स्थान पर वृक्षावली या झाड़बंदी ही हुआ करती थी।
रंगमंच का विकास विसेंजा और परमा में बनी हुई रंगशालाओं से स्पष्ट परिलक्षित होता है। विसेंजा की ओलिंपियन अकादमी में एक सुंदर रंगशाला सन् 1580-85 में बनी, जिसपर छत भी थी। इसमें पीछे की ओर वीथिकाओं जैसे अनेक कक्ष बढ़ाए गए। सन् 1588 में सैवियोनेटा में स्कमोज़ी ने इन कक्षों को मुख्य रंगमंच से मिला दिया और धीरे-धीरे बाद में वे भी रंगमंच ही हो गए। आगे चलकर सन् 1618-19 में परमा थिएटर में समूचा रंगमंच ही पीछे कर दिया गया और पृष्ठभूमि की चित्रित दीवार आगे आ गई, जिसपर बीच में बने एक बड़े द्वार से ही नाटक देखा जा सकता है। इस द्वार पर पर्दा लगाया जाने लगा। पर्दा उठने पर दृश्य किसी फ्रेम में जड़ी तस्वीर जैसा दिखाई पड़ता है। रंगमंच में भी दृश्यों के अनुकूल प्रभाव उत्पन्न करने के लिए अनेक पर्दें लगाए जाने लगे। मिलन का ला स्काला ऑपेरा हाउस 18 वीं - 19 वीं शती में रंगमंच के विकास का आदर्श माना जाता है। इसमें पखवाइयाँ लगाने के लिए बगलों में स्थान बने हैं।
पुनर्जागरण सारे यूरोप में फैलता हुआ एलिज़बेथ काल में इंग्लैंड पहुँचा। सन् 1574 तक वहाँ एक भी थिएटर न था। लगभग 50 वर्ष में ही वहाँ रंगमंच स्थापित होकर चरम विकास को प्राप्त हुआ। इस कला की प्रगति की ज्योति इटली से फ्रांस, स्पेन और वहाँ से इंग्लैंड पहुँची। रानी एलिज़वेथ को आर्डबर और तड़क भड़क से प्रेम था। इससे रंगमंच को भी प्रोत्साहन मिला। 1590 से 1620 ई. तक शेक्सपियर का बोलबाला रहा। रंगमंच विशिष्ट वर्ग का ही नहीं, जनसामान्य के मनोरंजन का साधन बना। किंतु प्रोटेस्टैट संप्रदाय द्वारा इसका विरोध भी हुआ और फलस्वरूप 1642 ई. में नाट्य कला पर रोक लग गई। धीरे-धीरे दरबारियों और जनता का आग्रह प्रबल हुआ और रोक हटानी पड़ी। मार्लो, शेक्सपियर तथा जॉनसन आदि के विश्वविश्रुत नाटक पुन: प्रकाश में आए। ग्लोब थिएटर एलिज़बेथ कालीन रंगमंच का प्रतिनिधि है। इसमें पुरानी धर्मशालाओं का स्वरूप परिलक्षित होता है, जहाँ पहले नाटक खेले जाते थे। प्रांगण के बीच में रंगमंच होता था और चारों ओर तथा छज्जों में दर्शकों के बैठने का स्थान रहता था।
जब सारे यूरोप के रंगमंच लोकतंत्र की ओर अग्रसर हो रहे थे, संयुक्त राज्य, अमरीका, में अपनी ही किस्म के जीवन का स्वतंत्र विकास हो रहा था। चार्ल्सटन, फिलाडेल्फ़िया, न्यूयॉर्क और बोस्टन के रंगमंचों पर लंदन का प्रभाव बिलकुल नहीं पड़ा। फिर भी अमरीकी रंगमंचों में कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं थीं। उनके सामान्य रंगमंच घुमंतू कंपनियों के से ही होते थे। किंतु 18 वीं शती के अंत तक अनेक उत्कृष्ट काटि के भिएटर बन गए, जिनमें फ़िलाडेल्फ़िया का चेस्टनट स्ट्रीट थिएटर (1794 ई.) और न्यूयॉर्क का पार्क थिएटर (1798 ई.) उल्लेखनीय हैं। इनमें सुंदर प्रेक्षागृह बने और कुछ यूरोपीय प्रभाव भी आ गया। तदनंतर 20-25 वर्ष में ही अमरकी रंगमंच यूरोपीय रंगमंच के समकक्ष, बल्कि उससे भी उत्कृष्ट हो गया।
आधुनिक रंगमंच
आधुनिक रंगमंच का वास्तविक विकास 19वीं शती के उत्तरार्ध से आरंभ हुआ और विन्यास तथा आकल्पन में प्रति वर्ष नए नए सुधार होते रहे हैं यहाँ तक कि 10 वर्ष पहले के थिएटर पुराने पड़ जाते रहे और 20 वर्ष पहले के अविकसित और अप्रचलित समझे जाने लगे। निर्माण की दृष्टि से लोहे के ढाँचोंवाली रचना, विज्ञान की प्रगति, विद्युत् प्रकाश की संभावनाएँ और निर्माण संबंधी नियमों का अनिवार्य पालन ही मुख्यत: इस प्रगति के मूल कारण हैं। सामाजिक और आर्थिक दशा में परिवर्तन होने से भी कुछ सुधार हुआ है। अभी कुछ ही वर्ष पहले के थिएटर, जिनमें अनिवार्यत: खंभे, छज्जे और दीर्घाएँ हुआ करती थीं, अब प्राचीन माने जाते हैं।
आधुनिक रंगशाला में एक तल फर्श से नीचे होता है, जिसे वादित्र कक्ष कहते हैं। ऊपर एक ढालू बालकनी होती है। कभी कभी इस बालकनी और फर्श के बीच में एक छोटी बालकनी और होती है। प्रेक्षागृह में बैठे प्रत्येक दर्शक को रंगमंच तक सीधे देखने की सुविधा होनी चाहिए, इसलिए उसमें उपयुक्त ढाल का विशेष ध्यान रखा जाता है। ध्वनि उपचार भी उच्च स्तर का होना चाहिए। समय की कमी के कारण आजकल नाटक बहुधा अधिक लंबे नहीं होते और एक दूसरे के बाद क्रम से अनेक खेल होते हैं। इसलिए दर्शकों के आने जाने के लिए सीढ़ियाँ, गलियारे, टिकटघर आदि सुविधाजनक स्थानों पर होने चाहिए, जिससे अव्यवस्था न फैले।
1890 ई. तक रंगमंच से चित्रकारी को दूर करने की कोई कल्पना भी न कर सकता था, किंतु आधुनिक रंगमंचों में रंग, कपड़ों, पर्दों और प्रकाश तक ही सीमित रह गया है। रंगमंच की रंगाछुही और सज्जा पूर्णतया लुप्त हो गई है। सादगी और गंभीरता ने उसका स्थान ले लिया है, ताकि दर्शकों का ध्यान बँट न जाए। विद्युत् प्रकाश के नियंत्रण द्वारा रंगमंच में वह प्रभाव उत्पन्न किया जाता है जो कभी चित्रित पर्दों द्वारा किया जाता था। प्रकाश से ही विविध दृश्यों का, उनकी दूरी और निकटता का और उनके प्रकट और लुप्त होने का आभास कराया जाता है।
विभिन्न दृश्यों के परिवर्तन में अभिनेताओं के आने जाने में जो समय लगता है, उसमें दर्शकों का ध्यान आकर्षित रखने के लिए कुछ अवकाश गीत आदि कराने की आवश्यकता होती थी, जिनका खेल से प्राय: कोई संबंध न होता था। अब परिभ्रामी रंगमंच बनने लगे हैं, जिनमें एक दृश्य समाप्त होते ही, रंगमंच घूम जाता है और दूसरा दृश्य जो उसमें अन्यत्र पहले से ही सजा तैयार रहती है, समने आ जाता है। इसमें कुछ क्षण ही लगते हैं।
चित्रपट और रंगमंच
चित्रपट (सिनेमा) के आ जाने से रंगमंच का स्थान बहुत संकीर्ण हो गया है। विशाल प्रेक्षागृहों में, केवल एक छोटा सा रंगमंच जिसपर कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर छोटे माटे नृत्य, या एकांकी आदि खेले जा सकें, बना देना पर्याप्त समझा जाता है। पृष्ठभूमि पर रजतपट रहता है : आवश्यकतानुसार एक दो पर्दे भी लगाए जा सकते हैं। वादित्र के लिए रंगमंच के सामने एक गढ़े में थोड़ा सा स्थान रहता है। दर्शकों के लिए अधिक स्थान होने के कारण उपयुक्त संवातन, ध्वनिनियंत्रण, एवं अन्य व्यवस्थाओं की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है। अब तो पाँच छह हजार दर्शकों के लिए स्थानवाले, बड़ी सुखप्रद कुर्सियों से युक्त प्रेक्षागृह सभी बड़े नगरों में बनते हैं।
सिनेमा का आकर्षण अधिक होने पर भी, नाटकों के लिए उपयुक्त रंगमंच बनाने का पाश्चात्य देशों में काफी प्रयास हो रहा है। मनोरंजन की दृष्टि से कम, शिक्षा की दृष्टि से इनकी उपयोगिता अधिक समझी गई है। शैक्षणिक रंगमंच में अमरीका संसार में अग्रणी है। अमरीकी शैक्षणिक रंगमंच की शाखाएँ बहुत से विश्वविद्यालयों में खुली हैं।
भारत में भी सिनेमा का प्रचार दिन दिन बढ़ रहा है। किंतु यहाँ देहात अधिक होने के कारण रंगमंच के लिए अब भी पर्याप्त क्षेत्र है और प्रोत्साहन मिलने पर यह सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग बना रहेगा। इस दृष्टि से रंगमंच के पति केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों की अनुभूति बढ़ती रही है और वे सक्रिय सहायता भी देती हैं
Rangmunch ka vislesdatmak abhiyan
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।