Oon Dene Wale Janwar ऊन देने वाले जानवर

ऊन देने वाले जानवर



Pradeep Chawla on 18-10-2018


वेदों में धार्मिक कृत्यों के समय ऊनी वस्त्रों का वर्णन मिलता है, जो इस बात का दृढ़ प्रमाण है कि प्रागैतिहासिक काल में भी लोग ऊन को जानते थे तथा उसका व्यवहार करते थे। मनु ने वैश्यों के यज्ञोपवीत के लिए ऊन को श्रेयस्कर माना है। ऋग्वेद में गड़ेरियों के देवता पश्म की स्तुति है, जिसमें ऊन श्वेतन करने तथा कातने का उल्लेख मिलता है कि कांबोज (बदख्शाँ और पामीर) के लोगों ने राजसूय यज्ञ के अवसर पर युधिष्ठिर को सुनहली कढ़ाई के ऊनी वस्त्र (ऊर्ण) भेंट में दिए थे। ब्रिटिश शासनकाल के आरंभिक दिनों में पंजाब, कश्मीर और तिब्बत के पश्मीने की बड़ी ख्याति थी।


भारत में भी मेरिनो जाति के मेढ़े मँगाए गए हैं और उनका मिलाप देशी भेड़ों से कराया जा रहा है। कश्मीर में इस प्रकार उत्पन्न संतति को "काश्मीरी मेरिनो" कहते हैं और पूना में इसी ढंग से उत्पन्न की जानेवाली जाति को "दक्षिणी मेरिनो" कहा जाता है।


पश्मीना, जो संसार में पशुओं से प्राप्त रेशों में से सबसे अच्छा रेशा माना गया है, कश्मीर और तिब्बत में पाई जानेवाली बकरियों से प्राप्त होती है।


ऐसा अनुमान किया जाता है कि संसार में लगभग 3 करोड़ क्विंतल ऊन पैदा होता है। इसमें से 42.8 प्रतिशत ऊन मेरिनो, 46 प्रतिशत वर्णसंकर (क्रॉसब्रेड) और 11.2 प्रतिशत कालीनी ऊन होता है। आधुनिकतम अनुमान के अनुसार भारत अपनी 4 करोड़ भेड़ों से लगभग पौने नौ लाख मन ऊन प्रति वर्ष पैदा करता है। कुल ऊन का 5 प्रतिशत से अधिक ऊन, जिसका मूल्य 120 करोड़ रुपए होता है, विदेशों को भेजा जाता है। देश की ऊनी कपड़ा मिलों को, जो अच्छे किस्म का कपड़ा बनाती हैं, बाहर से मँगाए गए 19 लाख मन कच्चे या अर्धविकसित ऊन पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका मूल्य विदेशी मुद्रा में लगभग 110 करोड़ रुपए पड़ता है। कृषि पदार्थों के निर्यात व्यापार में ऊन का स्थान आठवाँ है, जबकि पशु तथा पशुजन्य पदार्थों के व्यापार में खाल के साथ इसका भी प्रथम स्थान है। उत्तर प्रदेश में 24 करोड़ भेड़ों से 5 लाख मन ऊन पैदा होता है। ऊन उत्पादन में राजस्थान और पंजाब सर्वप्रथम हैं, इसके बाद उत्तर प्रदेश का स्थान है। समुद्री बरंदरगाहों द्वारा देश में आयात होनेवाला अधिकांश ऊन आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड से आता है। ये दोनों देश अपने कुल निर्यात का क्रमानुसार 16.5 और 12.1 प्रतिशत ऊन भारत भेजते हैं। भूभागों द्वारा ऊन तिब्बत, नेपाल, सिक्किम, भूटान, ईरान, पश्चिमी तथा पूर्वी अफगानिस्तान और उत्तरी अफगानिस्तान, मध्य एशिया और तुर्किस्तान से आता है। तिब्बत तथा आसपास के देशों से सबसे अधिक प्रतिशत (31.10 प्रतिशत) ऊन आता है। इसके बाद अफगानिस्तान और ईरान का स्थान है जहाँ से 25.1 प्रतिशत ऊन आता है। व्यापारिक नियमों तथा देश की भीतरी माँग के अनुसार प्रति वर्ष ऊन की मात्रा तथा प्रतिशत अनुपात में परिवर्तन हुआ करता है।


हमारे ऊन का सबसे बड़ा ग्राहक इंग्लैंड है। अधिकांश ऊन काठियावाड़ और ट्रावंकोर के बंदरगाहों से बाहर भेजा जाता है। द्वितीय महायुद्ध में अमरीका भारतीय ऊन बहुत अधिक खरीदने लगा था। पर्याप्त मात्रा में भारतीय ऊन खरीदनेवाले अन्य देशों में आस्ट्रेलिया और फ्रांस भी हैं। स्थलीय मार्गों से आयात किए गए ऊन का कुछ भाग विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है।


प्रति पशु ऊन की उपज जाति, स्थान की प्राकृतिक बनावट, वर्षा और चरागाहों की उपलब्धता के अनुसार बदला करती है। क्योंकि भारत के विभिन्न भागों में पूर्वोक्त बातों में बड़ा अंतर पाया जाता है, इसलिए विभिन्न स्थानों के ऊन में भी बहुत अंतर पाया जाता है। एक बार की ऊन की कटाई में प्रति भेड़ कितना ऊन प्राप्त होता है, इसके बारे में अभी तक यद्यपि पर्याप्त प्रेक्षण नहीं किए गए हैं, फिर भी यह अनुमान किया जाता है कि भारत के विभिन्न भागों में एक भेड़ से प्रति वर्ष 6 छटाँक से लेकर 2 सेर तक ऊन प्राप्त होता है। सबसे अधिक ऊन राजस्थान और काठियावाड़ की भेड़ों से प्राप्त होता है। उत्तर प्रदेश के कुछ पहाड़ी भागों पर किए गए आरंभिक प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ है कि पहाड़ी क्षेत्रों में प्रति भेड़ प्रति कटाई 12 छटाँक ऊन प्राप्त होता है। इस देश में भेड़ का ऊन साधारणतया वर्ष में दो बार उतारा जाता है, परंतु कुछ स्थानों में वर्ष में तीन बार भी उतारा जाता है। वसंत ऋतु में उतारा गया ऊन अन्य ऋतुओं में उतारे गए ऊन की अपेक्षा अधिक होता है। विभिन्न ऋतुओं में उतारे गए ऊन के रंग में भी बड़ा अंतर पाया जाता है। वसंत का ऊन अधिक सफेद होता है और पतझड़ ऋतु का ऊन हल्का पीला होता है। रंगीन ऊन, जैसे काले और कत्थई में ऋतु के अनुसार रंग में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता।


गुणों के आधार पर विशेषज्ञ ऊन को विभिन्न श्रेणियों में बाँटते हैं। रेशे की लंबाई, ऊर्मिलता, कोमलता और ऊन की चमक कुछ ऐसे महत्वपूर्ण गुण हैं जिनका छाँटनेवाले विशेष ध्यान रखते हैं। इनमें से अधिकांश गुण एक दूसरे से संबंधित हैं। अन्य देशों में ऊन छाँटना एक कला हो गई है। ऊन को सैंकड़ों वर्गों में बाँटा जाता है। परंतु यह बात हमारे भारतीय ऊन पर लागू नहीं होती। अधिकांश भारतीय ऊन अपने व्यापारिक नामों से छाँटे जाते हैं, जो भौगोलिक उत्पादन क्षेत्र के अनुसार उन्हें दिए जाते हैं। निर्यात व्यापार में प्रयुक्त होनेवाले ऊन हैं–जोरियो, बीकानेरी, राजपूताना, पेशावर, ब्यावर, मारवाड़, बीकानेर और सामान्य काला तथा कत्थई।


कुटीर स्तर पर ऊन कातने, देशी कंबल बनाने, हाथ या मशीन द्वारा कालीन या फर्शी कंबल बनाने, आधुनिक मिलों में ऊनी कपड़ों की बुनाई तथा अन्य उद्योगों, जैसे घरेलू ढंग से शाल, लोई या ट्वीड बनाने के लिए भारत में ऊन की माँग है। कुल ऊन का 50 प्रतिशत से अधिक तो देशी कंबल बनाने के काम आता है, लगभग 28 प्रतिशत ऊन मिलों के काम आता है और 12 प्रतिशत कालीन उद्योग में प्रयुक्त होता है। अन्य उद्योग, जैसे शाल बनाने में 4 प्रतिशत ऊन की खपत होती है। ऊनी कुटीर उद्योग विविध क्षेत्रों की आवश्यकता के अनुसार देश के विभिन्न भागों में फैले हैं। कालीन उद्योग कुटीर स्तर पर तथा मशीन स्तर पर दोनों भाँति चलता है। यह उद्योग उत्तर प्रेदश में बहुत अधिक विकसित है। इसके बनाने के मुख्य स्थान हैं भदोही (वाराणसी), मिर्जापुर, गोपीगंज (इलाहाबाद), माधोसिंह (मिर्जापुर), आगरा, जौनपुर तथा कमरिहा। युद्धकाल में इस उद्योग की विशेष वृद्धि हुई। अमरीका तथा इंग्लैंड भारतीय कालीन के सबसे बड़े खरीदार हैं। बहुत ही अच्छे किस्म के कालीन कश्मीर में बनते हैं। बढ़िया किस्म का ऊनी माल विदेशों से मँगाए गए ऊनी धागे से बनाया जाता है। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद से भारत में बननेवाले माल में बहुत सुधार हुआ है, जो इस बात से स्पष्ट है कि भारत के बाहर से तथा कुछ यूरोपीय देशों से ऊनी माल की बड़ी माँग है। भारत की प्रमुख ऊनी मिलें ये हैं : कानपुर (उत्तर प्रदेश) में लाल इमली, पंजाब में धारीवाल, बंबई में रेमंड वूलन मिल्स तथा इंडियन वूलन मिल्स, बंगलोर में बंगलोर वूलन, काटन ऐंड सिल्क मिल्स और सौराष्ट्र में जामनगर वूलन मिल्स। अहमदाबाद की कैलिको मिल भी अब ऊनी माल बनाने लगी है।


दूसरे माल जैसे लोई, ट्वीड, शाल आदि बनाने के मुख्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों, पंजाब और कश्मीर में हैं।


भारतीय अर्थव्यवस्था में ऊन के महत्व को देखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्, भारत सरकार तथा राज्य सरकारों ने कई अनुसंधान योजनाओं को आरंभ किया तथा बढ़ावा दिया है। विभिन्न राज्यों में ऊन संबंधी प्रयोगशालाएँ स्थापित करने का काम भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने आरंभ किया, जिसने राज्य सरकारों के साथ मिलकर इन प्रयोगशालाओं मे धन लगाया। ये प्रयोगशालाएँ वर्तमान ऊन के गुण तथा प्रयोगस्वरूप उत्पन्न सुधरे ऊन के गुण आँकने के लिए आवयश्यक हैं। पूना, मद्रास, बनिहाल (कश्मीर) और ऋषिदेश (उत्तर प्रदेश) में चार क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाएँ हैं। इनके अतिरिक्त गया (बिहार), बीकानेर (राजस्थान) और हिसार (हरियाणा) में भी ऊन प्रयोगशालाएँ हैं। ऊन के सुधार के बारे में नीति यह रही है कि मैदान की स्थानीय भेड़ों का बीकानेरी–या इससे थोड़ी भिन्न चोकला, नाली, मागरा आदि–जाति के मेढ़ों से मेल कराया जाए, जिसमें अधिकांश राज्यों में भेड़ों की उत्पत्ति बढ़े तथा मैदानी भेड़ों में सुधार हो। वर्तमान जातियों में, जैसे बीकानेरी में, चुनाव के बाद प्रजनन कराके तथा स्थानीय भेड़ों का विदेशी जातियों से मेल कराकर अच्छा ऊन पैदा करने के कुछ प्रयोग बीकानेरी तथा मेरिनो का मेल कराकर पैदा की गई है। विदेशी मेढ़ों से मेल कराकर ऊन सुधारने का प्रयत्न अधिकतर पहाड़ों में ही किए जा रहे हैं। कश्मीर, पूना, हिसार और पीपलकोठी में स्थानीय भेड़ों का मेल कराने के लिए मेरिनो मेढ़े उपयोग में लाए जा रहे हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में संकर जाति के उत्पादन (क्रॉस ब्रीडिंग) पर प्रयोग करने के लिए आस्ट्रेलिया से पोलवर्थ, बोर्डर, लीस्टर और कोरीडेल जातियाँ मँगाई गई हैं। छोटा नागपुर के क्षेत्र में स्थानीय भेड़ों का सुधार करने के लिए रोमनीमार्श जाति के मेढ़े बाहर से मँगाए गए हैं। विभिन्न राज्यों में विकास कार्य को भेड़ तथा ऊन विकास केंद्र, ऊन प्रतियोगिता केंद्र आदि स्थापित करके बढ़ाया जा रहा है। राजस्थान में सामूहिक ढंग से ऊन उतारने का स्थान बनाने की भी योजना है, जिसमें राज्य सरकार ऊन की छँटाई (ग्रेडिंग) तथा बिक्री की सुविधा देकर उत्पादक को अपने माल का अच्छा मूल्य प्राप्त करने में सहायक हो। सन् 1974 के दौरान हिसार स्थित केंद्रीय भेड़ प्रजनन फार्म के लिए आस्ट्रेलिया से कोरीडेल नस्ल की 1,033 भेंड़ें प्राप्त हुई हैं। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और जम्मू तथा कश्मीर में तीन और भेड़ प्रजनन फार्मो में कार्य व्यापक स्तर पर तेजी से प्रगति कर रहा है। उत्तर प्रदेश और राजस्थान में ऐसे दो फार्मों की स्थापना का अनुमोदन कर दिया गया है।


जब से आदिम मनुष्य ने अपने शरीर को ढकने के लिए भेड़ की खाल का प्रयोग किया तब से अब तक इस पशु के ऊन पर मानव जाति की निर्भरता बढ़ती ही गई है, यहाँ तक कि अब हमारे जीवन का कदाचित् ही कोई ऐसा पहलू रह गया है, जिसमें यह प्रकृतिक रेशा काम न आता हो।



Comments Komalprsad on 14-03-2023

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