‘जीवेम शरदः शतम्’ - हम सौ वर्ष तक स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं। ‘सुजलाम् सुफलाम् शस्य श्यामलां’ धरती माँ को हमारे भारत देश में वंदनीय कहा गया है क्योंकि भूमि ही तो सम्पूर्ण जीव-जगत को जीवनदान देती है। यही कारण है कि हमारे जीवन का विकास सीधे-सीधे हमारे भू-संसाधनों से जुड़ा है। भूमि प्रकृति का वह अनुपम उपहार जो बुनियादी रूप से हमारे जीवन के विकास हेतु अनिवार्य है। हमारे वैदिक ग्रन्थों में भूमि की पर्याप्तता, सतत उपलब्धता और उत्पादकता वृद्धि हेतु अनेक प्रार्थनाएँ की गई हैं। हमारे अनेक मंत्रों में ऐसा उल्लेख मिलता है और मानव सभ्यता के विकास का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भूमि सर्वोपरि है।
धरती फसलों के रूप में सोना उगलती है लेकिन पैदावार ज्यादा लेने के मोह में अब अधिकांश लोग भू-प्रबंध पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझते। कितने स्वार्थी हो गये हैं हम? सतत एवं व्यापक खेती और अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग से थकी-हारी धरती आखिर कब तक हमारा साथ देगी? लेकिन हम बेखबर हैं कि हमारी मिट्टी खराब हो रही है। पानी अब खुद पानी माँग रहा है और प्रदूषित हो रहा है। कारण है हमारी घोर लापरवाही, उदासीनता, असावधानी और अनभिज्ञता। अब वक्त आ गया है कि हम प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर इन्हें बचाएँ। तभी हमारा जीवन भी बच सकेगा।
हम जानते हैं कि भू-संरक्षण के मामले में हमसे चूक हो रही है किन्तु इतिहास गवाह है कि जब-जब भू-संसाधनों को संरक्षित नहीं किया गया, उनका अति उपयोग या जमकर दुरुपयोग किया गया, तब-तब सभ्यताओं का विनाश हुआ। मिट्टी, पानी, हरियाली, जीव-जन्तु, फसलें, पशु चारा, रेशे, ईंधन, औषधियाँ, फल-फूल, और सब्जी से लेकर रोटी, कपड़ा और मकान आदि की हमारी सभी आवश्यकताएँ भूमि की सहायता से पूरी होती हैं। हमारे सामाजिक एवं आर्थिक विकास में भी भूमि संसाधन बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं। अतः हमारे जीवन के विकास में भूमि की महत्ता सर्वविदित है। पर्याप्त और उर्वर भूमि के अभाव में प्रगति तो दूर हमारा जीना भू दूभर हो जाता है।
निरन्तर बढ़ती जनसंख्या के कारण भूमि की माँग का ग्राफ तेजी से ऊपर की ओर जा रहा है। गाँव, खेत, शहर सब बढ़ रहे हैं। विभिन्न प्रयोजनों के लिये भूमि की माँग दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। दूसरी ओर निरन्तर जंगलों का सफाया, अनियोजित विस्तार, बाढ़, सूखे आदि से भूमि संसाधनों का अपघटन हो रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि अब प्रति व्यक्ति भूमि-संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग तो हो लेकिन किसी भी दृष्टि से उनका क्षरण अर्थात भूमि संसाधनों की मात्रा एवं गुणवत्ता में ह्रास न होने पाए क्योंकि हमारे जीवन की विकास-यात्रा भूमि पर ही निर्भर करती है।
यही कारण है कि विश्व के सभी विकासशील देशों में भूमि संरक्षण और भू-उपयोग जैसे मुद्दे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चिन्ता और चिन्तन के विषय बन गये हैं। भारत भी इस दृष्टि से अपवाद नहीं है। आमतौर पर भूमि का उपयोग और भूमि की उपयोगिता, इन दोनों में अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जा सका है जबकि भूमि संसाधनों के संरक्षण, प्रबंध एवं विकास की दृष्टि से न केवल किसान भाइयों बल्कि प्रत्येक आम आदमी को इन जरूरी बातों से वाकिफ होना चाहिये। अतः जन-जाग्रति बेहद जरूरी है।
अनुचित ढंग से उपयोग होने अथवा करने के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति घट रही है। भूमि-संरक्षण की उपेक्षा का परिणाम है कि बीस करोड़ से भी अधिक लोग आज भी हमारे देश में भूख की चपेट में हैं। उन्हें दो वक्त की रोटी भी मयस्सर नहीं है। विश्व कृषि एवं खाद्य संगठन ने इसे गम्भीर मानते हुये इस मुद्दे पर अपनी ताजा रिपोर्ट में चिन्ता प्रकट की है।
साठ के दशक में हम पेट भरने के लिये भी दूसरों पर निर्भर थे। आयातित खाद्यान्न खाते थे। हरित क्रान्ति के कारण आज हम आत्मनिर्भर हैं लेकिन प्रतिदिन 50 हजार की दर से हमारी जनसंख्या बढ़ रही है। आर्थिक सर्वेक्षण 1996 के आँकड़ों के अनुसार 1995 की तुलना में खाद्यान्न का उत्पादन 56 लाख टन कम हुआ था। विश्व कृषि पुर्वानुमान 2010 के रिपोर्ट के अनुसार कृषि में अवसर और कम होंगे। भविष्य की जटिल चुनौतियों का सामना करने क लिये जो रणनीति बनाई जाए उसमें भूमि-संसाधनों के संरक्षण का मुद्दा प्रमुख होना चाहिये। विशेष रूप से लोगों में नवचेतना एवं जाग्रति लाने पर बल देना चाहिये ताकि भूमि-संसाधनों के संरक्षण से सम्बन्धित मोर्चे पर केवल सरकारी प्रयास ही दिखाई न दें।
आम भाषा में कारगर ढ़ंग से लोगों को कर्तव्यबोध कराया जाए। इस दिशा में जनसंचार के विभिन्न माध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। बदली परिस्थितियों एवं समय के प्रभाव से भूमि संसाधनों में व्यापक परिवर्तन और क्षरण हुआ है और हो रहा है। साथ ही संरक्षण पर समुचित ध्यान न दिये जाने के कारण यह समस्या अब और भी गम्भीर तथा ध्यान देने योग्य बनती जा रही है। भू-क्षरण, ऊसर-बीहड़ भूमि तथा जल भराव की समस्या से निबटना सरल कार्य नहीं है। इन्हें रोकने और कम करने के लिये यह जरूरी है कि हम सब भूमि-संसाधनों के संरक्षण हेतु सदैव चेष्टा करते रहें। किन्तु इसके लिये यह जानना जरूरी है कि उर्वरकता, प्रजनन क्षमता एवं जीवनदायिनी शक्ति बनाये रखने हेतु भूमि के संरक्षण एवं प्रबंध और विकास हेतु हमें क्या करना चाहिये और हम क्या-क्या कर सकते हैं, ये बातें सभी को अच्छी तरह से पता हों। फिर मार्गदर्शन और सतत प्रेरणा का सिलसिला अनवरत चलना चाहिये। इस विषय पर एक ‘थिंक टैंक’ बनाये जाने की जरूरत है क्योंकि भूमि संरक्षण हेतु चल रहे सरकारी प्रयासों की सफलता हेतु जरूरी है कि हम सब उन उपायों को कारगर बनाने एवं उनके रख-रखाव में अपना पूर्ण सहयोग दें।
आवश्यकता इस बात की है कि लोगों की भावनाएँ जगाई जाएँ। धरती को तो हमारे देश में ‘माँ’ का दर्जा दिया गया है। फिर भला अपनी ‘माँ’ को कौन नहीं बचाना चाहेगा? जो जहाँ जिस रूप में है, जिस पद पर है, अपना योगदान स्वेच्छा से अवश्य करेगा। इसी की आज जरूरत है और यही समय की माँग है। वक्त का भी यही तकाजा है क्योंकि भूमि-संसाधनों का संरक्षण जीवन के विकास के लिये अत्यावश्यक है।
यह तथ्य देखकर ही दिल दहल उठता है कि उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता सन 1951 में 0.46 हेक्टेयर थी जो 1991 में घटकर 0.21 हेक्टेयर रह गई तथा सन 2000 में यह घटकर 0.18 हेक्टेयर हो जाने का अनुमान है। इसी प्रकार कृषि भूमि 0.25 हेक्टेयर से घटकर 0.12 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति रह गई है तथा इस सदी के अंत तक उसके 0.10 हो जाने का अनुमान है। उत्तर प्रदेश के कुल भौगोलिक भू-भाग में से करीब 46 प्रतिशत किसी न किसी रूप में अपघटित हो रहा है। देश की 40 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ में परिवर्तित हो चुकी है और इसका एक-तिहाई हिस्सा उत्तर प्रदेश में है। यदि इसके फैलाव पर नियन्त्रण न हुआ तो यह सिलसिला आगे चलता रहेगा और 21वीं सदी में अनेक नदियों के जल मुक्त क्षेत्र बीहड़ों की चपेट में आ जाएँगे। वर्षा और हवा से देश भर में करीब 533.04 करोड़ टन मिट्टी का कटाव प्रतिवर्ष होता है। 60 प्रतिशत भाग एक स्थान से दूसरे स्थान पर 30 प्रतिशत भाग नदियों द्वारा समुद्रों में तथा शेष 10 प्रतिशत झीलों, जलाशयों तथा नदियों के पेट में जमा हो रहा है। हमारे देश में भूमि कटाव की दर 16.55 टन वार्षिक है जबकि औसतन इसे 4.50 से 11.20 टन वार्षिक होना चाहिये।Vhikantola gav ke nivasi te
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