Gandhi Sagar Bandh jawahar sagar dam गांधी सागर बांध jawahar sagar dam

गांधी सागर बांध jawahar sagar dam



GkExams on 07-02-2019

मध्यप्रदेश-राजस्थान की सीमा पर चंबल नदी में बना गांधीसागर बांध आजाद भारत के शुरुआती बड़े बांधों में से एक था। भाखड़ा-नांगल और हीराकुड के साथ गांधी सागर बांध उन बांधों में से एक था, जिन्हें प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ‘आधुनिक भारत के तीर्थ’ कहा करते थे। श्री नेहरू ने गांधी सागर का उद्घाटन 19 नवंबर 1960 में किया था। यह महत्वाकांक्षी बहुउद्देश्यीय चंबल नदी घाटी योजना का पहला व प्रमुख बांध है, जो पानी के मुख्य संचय का काम करता है। बाद में इसके नीचे चंबल नदी पर तीन बांध और बनेμ राणा प्रताप सागर, जवाहर सागर और फिर कोटा बैराज। पहले तीन बांधों से बिजली बनती है और कोटा बैराज से नहरों में पानी छोड़ा जाता है। ये नहरें राजस्थान (कोटा, बांरा और बूंदी जिलों) और मध्यप्रदेश (मुरैना, भिंड और शिवपुर जिलों) में सिंचाई करती हैं। राणा प्रताप सागर जलाशय के किनारे ही राजस्थान अणु बिजली परियोजना की चार इकाइयां हैं तथा अब दो और बन रही हैं। कोटा में कोयले से बिजली बनाने का कारखाना है। उसे भी यही पानी मिलता है। लगभग 60 हजार हैक्टेयर क्षेत्रा में फैले विशाल गांधी सागर में 59 गांव पूरी तरह, 169 आंशिक यानी कुल 228 गांव और बहुत बड़ी मात्राा में खेत तथा जंगल डूब में आए थे। डूब में आए लोगों को नाममात्रा का मुआवजा दिया गया था। पुनर्वास पर नहीं के बराबर खर्च किया गया। आंशिक डूब में आए गांव तो साल में कई महीने टापू बनकर रह जाते हैं। उन्हें नगर या अपने खेतों तक पहुंचने में भी काफी दिक्कत होती है। पानी में टूटी-फूटी नाव से आवागमन करने में गांधीसागर जलाशय में अनेक छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं भी हो चुकी हैं। जरूरत से बड़ा बांध और जलाशय बनाने से अनावश्यक डूब का आकार भी बहुत है। रामपुरा नगर को डूब में आने से एक दीवार बना कर किसी तरह रोका गया, किंतु आसपास के गांव और खेत डूब में आने से इस नगर का पूरा धंधा चैपट हो गया। कभी व्यापार का एक बड़ा केन्द्र रहे इस नगर में आज कदम-कदम पर खंडहर नजर आते हैं। गांधी सागर के विस्थापित गांववासी पिछले 50 सालों से अपने समुचित पुनर्वास के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांधी सागर बांध और चंबल नदी घाटी योजना के कई अन्य पहलू हैं। इनकी तरफ कभी किसी का ध्यान ही नहीं गया। वर्षा के पानी की आवक की तुलना में ज्यादा बड़ा बनाया गया यह बांध ज्यादातर वर्षों से खाली रहता है। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि बांध में पानी की आवक कम न हो, इसके लिए इस जलग्रहण क्षेत्रा में छोटे बांध और तालाब बनाने पर प्रतिबंध लगाया गया था। बांध का जल ग्रहण क्षेत्रा मालवा के एक बड़े क्षेत्रा नीमच, मंदसौर, रतलाम, इंदौर, उज्जैन, धार, शाजापुर, देवास- इन आठ जिलों में फैला है। नतीजा यह हुआ कि इस पूरे क्षेत्रा में सतही जल सिंचाई का विकास नहीं हो पाया और भूजल दोहन पर ही पूरा जोर पड़ने से इस इलाके में भूजल स्तर खतरनाक रूप से नीचे चला गया है। किसानों ने अपनी जरूरत की पूर्ति के लिए सीधे नदियों व नालों से सिंचाई करना शुरू किया। इसलिए इस क्षेत्रा के ऐसे स्रोत बरसात के कुछ समय बाद ही खाली हो जाते हैं। भूजल स्तर पाताल में और नदियां बारिश के बाद ही खाली। परिणामस्वरूप मिट्टी की आद्र्रता में कमी और अंतिम परिणाम में मालवा के मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। बड़े बांधों के कारण अक्सर इलाकों और राज्यों में विवाद पैदा होते रहते हैं। गांधी सागर के पानी के बंटवारे को लेकर भी मध्य प्रदेश और राजस्थान के बीच तनाव रहा है। कोटा और बूंदी के किसान तो बासमती धान की खेती करते हैं और उधर अंतिम छोर पर बसे मुरैना के किसान पानी को तरसते रहते हैं। मध्य प्रदेश ने विस्थापन और मरुस्थलीकरण को भी झेला है और उसे पानी भी अपने हिस्से से कम मिलता रहा है। पड़ोसी राज्य को पानी बांटने से पहले ही राजस्थान पेयजल, परमाणु बिजलीघरों, ताप बिजलीघरों आदि में काफी अधिक पानी का उपयोग कर लेता है। यह मात्रा हर बरस बढ़ती ही जा रही है। वैसे मध्य प्रदेश के ज्यादातर बांधों के साथ यही किस्सा है। पठारी क्षेत्रा होने के कारण ज्यादातर नदियां मध्य प्रदेश से दूसरे राज्यों में गई हैं और ज्यादातर बांध सीमा पर बने हैं। विस्थापन और डूब मध्य प्रदेश के हिस्से में आया है तथा सिंचाई और बिजली का ज्यादा लाभ पड़ोसी राज्यों को मिला है। एक तरह से देखें तो बड़े बांधों में इस तरह का भौगोलिक अन्याय अंतर्निहित ही है। एक इलाके (पठारी, पहाड़ी क्षेत्रा) के गांवों के लोग ‘त्याग’ करते हैं और दूसरे इलाकों के लोगों को ‘लाभ’ मिलते हैं। दो दशक पहले केंद्रीय जल आयोग ने सुरक्षा की दृष्टि से देश के कुछ बांधों का अध्ययन कराया था। इस अध्ययन ने गांधी सागर बांध को असुरक्षित पाया था। वर्षा और अधिकतम बाढ़ के जिस अनुमान के आधार पर इस बांध में पानी की निकास व्यवस्था की गई है, वह प्रारंभ से ही अपर्याप्त थी। फिर समय के साथ वर्षा और जलाशय में पानी की आवक के बदलते रिश्तों के कारण अब अधिकांश पानी बाढ़ के रूप में आता है। चंबल में आने वाली बाढ़ों की संख्या भी ढाई गुनी हो गई। इस पृष्ठभूमि में निकास व्यवस्था और भी अपर्याप्त हो गई है। ऐसी आशंका भी बढ़ी है कि बड़ी बाढ़ आ गई तो बांध के सारे द्वार खोलने पर भी पूरा पानी नहीं निकल पाएगा। तब पानी बांध के ऊपर से बहने लगेगा। यह आशंका बांध की सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक है। ऐसी हालत में बांध टूट भी सकता है। हम तो यही मनाएंगे कि ऐसा कभी न हो। नहीं तो नीचे के सारे बांध टूटेंगे। पांच लाख की आबादी वाला कोटा शहर और सैकड़ों गांव बह जाएंगे, अणु बिजली कारखानों में बाढ़ का पानी घुसने से कैसी बड़ी दुर्घटना हो सकती है, देश के इतिहास में ‘विकास’ से पैदा हुई कैसी अभूतपूर्व त्रासदी घटित हो सकती है- इसकी बात तक सोची नहीं जा पाती। गांधी सागर और चंबल नदी घाटी योजना से सिंचाई, बिजली उत्पादन, मछली उत्पादन आदि के जो दावे इसे बनाते समय किए गए थे, वास्तविक उपलब्धियां उससे काफी कम रही हैं। क्या ऐसे बढ़ा-चढ़ा कर दावे हर बांध के संदर्भ में जानबूझकर किए जाते हैं, ताकि उसकी योजना को आसानी से मंजूरी मिल सके? बड़े बांधों के संदर्भ में जो सवाल और संदेह उठ रहे हैं, वे गांधी सागर में साक्षात दिखाई देते हैं। गांधी सागर का 50 वर्ष का अनुभव महत्वपूर्ण है। इसकी समीक्षा होनी चाहिए। इसका अध्ययन होना चाहिए और उसके प्रकाश में बड़े बांधों पर नए सिरे से विचार होना चाहिए। इस वर्ष उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली में आई ताजी बाढ़ इन बड़े बांधों के ओछपन पर बहुत कुछ कह चुकी है।



Comments Shekhar mehta on 13-01-2020

भारि जल का अनुभार कितना है

Shekhar mehta on 13-01-2020

भारि जल का अनुभार है

Vikram on 22-08-2018

Gandhi sagar dam ke get






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