रीतिकाल Ki Paristhitiyaan
रीतिकाल की परिस्थितियाँ
जनवरी 12, 2011
विदित है कि हिंदी साहित्य में सम्वत 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल से अभिहीत है । यह काल समृद्धि और विलासिता का काल है । श्रृंगार की अदम्य लिप्सा इस युग के जीवन और साहित्य, दोनों में स्पष्ट प्रतिबिंबित है । कला वासना -पूर्ति का साधन बनी और नारी उसका आलम्बन । स्पष्टत: प्रेम क्रीड़ाओं और नायक-नायिका -भेद का जो वैचित्र्यपूर्ण चित्रण इस काल की कविता में मिलता है, वह तत्कालीन परिस्थितियों का प्रतिबिंब है ।
राजनीतिक परिस्थितियाँ : राजनीतिक दृष्टि से यह दो सौ साल का समय मुगल-काल में शाहजहाँ से लेकर लार्ड हार्डिंग तक का समय है, जिसमें शाहजहाँ की उत्कृष्ट कला-प्रियता का युग भी है और औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के कत्लेआम और नृशंसता की घटनाएँ भी इसी काल में घटित हुई । अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों और कुचालों का जाल भी इसी युग में पनपा । छोटे-छोटे राज्यों-रजवाड़ों, सरदार-सामंतों का इस विपत्ति से अंग्रेज शासकों की अधीनता स्वीकार कर आँख मूँदकर दरबारी विलासिता में मस्त जीवन व्यतीत करने की कहानी भी इसी काल की कहानी है ।
इस काल के कवि इन विलासी रजवाड़ों के दरबारों में रहकर आश्रयदाताओं को विलासितामय सुरा के प्याले पिला रहे थे । राजमहलों में नाच-रंग तथा मदिरापान का ही बोलबोला था । सुरा,सुराही और सुंदरी के राज में विलासी जीवन से उत्पन्न कविता श्रृंगारिक कविता बनती गई ।
सामाजिक परिस्थितियाँ : सामाजिक दृष्टि से यह काल घोर अध:पतन का युग रहा । यह सामंतवादी युग था , जो सामंतवाद के अपने सभी दोषों से युक्त था । नीचे वालों को ये मात्र अपनी संपत्ति मानते थे, जिनका अस्तित्व केवल उनके लिए, उनकी सेवा के लिए ही था । नारी को अपनी सम्पत्ति मानकर उसका भोग, इनके जीवन का मूल मंत्र हो गया था । सुरा और सुंदरी राजा और प्रजा के उपास्य विषय हो गए थे । नैतिक मूल्यों का पूर्णत: अभाव था । चिकित्सा, शिक्षा और संपत्ति-रक्षा का कोई प्रबंध न था । धर्म-स्थान भ्रष्टाचार और पापाचार के केंद्र बन गए थे । हिंदू अपने आराध्य राम-कृष्ण का अतिशय श्रृंगार ही नहीं करते थे, बल्कि उनकी लीलाओं में अपने विलासी-जीवन की संगति खोजने लगे थे । रुढ़िवादिता के अत्यधिक बढ़ जाने से मुसलमान जीवन की वास्तविकता से दूर पड़ गए । कर्म और आचार का स्थान अंधविश्वास ने ले लिया ।
साहित्य और कला : साहित्य और कला की दृष्टि से यह युग काफी समृद्ध रहा । ललित कलाओं में चित्रकला, स्थापत्य और संगीत-कला का पोषण राजमहलों में हुआ । संगीत-शास्त्र पर कुछ प्रामाणिक ग्रंथ लिखे गए । अलंकार-प्रिय विलासी राजा और बादशाहों की अभिरुचि से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण तथा कल्पना-परक वैविध्य की न्यूनता के कारण कलाएँ कला की सीमाओं से दूर पड़ गई ।
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