Samajik Andolan Ke Mahatva सामाजिक आंदोलन के महत्व

सामाजिक आंदोलन के महत्व



Pradeep Chawla on 13-09-2018


राजनीतिक भागीदारी के संस्थागत दायरों के बाहर परिवर्तनकामी राजनीति करने वाले आंदोलनों को सामाजिक आंदोलनों की संज्ञा दी जाती है। लम्बे समय तक सामूहिक राजनीतिक कार्रवाई करने वाली ये आंदोलनकारी संरचनाएँ नागर समाज और राजनीतिक तंत्र के बीच अनौपचारिक सूत्र का काम भी करती हैं। हालाँकि ज़्यादातर सामाजिक आंदोलन सरकारी नीति या आचरण के ख़िलाफ़ कार्यरत रहते हैं, लेकिन स्वतःस्पूर्त या असंगठित प्रतिरोध या कार्रवाई को सामाजिक आंदोलन नहीं माना जाता। इसके लिए किसी स्पष्ट नेतृत्व और एक निर्णयकारी ढाँचे का होना ज़रूरी है। आंदोलन में भाग लेने वालों के लिए किसी साझा मकसद और विचारधारा का होना भी आवश्यक है। क्या ये ख़ूबियाँ राजनीति के औपचारिक दायरों में काम करने वाले किसी राजनीतिक दल या दबाव समूह में नहीं होतीं? दरअसल, सामाजिक आंदोलन अपने बुनियादी चरित्र में अनौपचारिक नेटवर्कों की अन्योन्यक्रिया से बनते हैं। वे ऐसे मुद्दे चुनते हैं जिन्हें औपचारिक राजनीति अपनाने से इनकार कर देती है। साथ ही वे प्रतिरोध और गोलबंदी के ग़ैर-परम्परागत रूपों का इस्तेमाल करते हैं। सामाजिक आंदोलनों ने अल्पसंख्यकों, हाशियाग्रस्त समूहों और अधिकार-वंचित तबकों की राजनीति को बढ़ावा दिया है। इसी कारण से यह भी माना जाता है कि समकालीन लोकतंत्र अपने विस्तार और गहराई के लिए सामाजिक आंदोलनों का ऋणी है।


द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद ग्लोबल और राष्ट्रीय राजनीतिक प्रणालियों में इस परिघटना का उदय हुआ। इनके पीछे ऐसी शख्सियतें, नेटवर्क, समूह और संगठन थे जिनका उद्देश्य औपचारिक राजनीति के दायरों के बाहर समाज, राज्य, सार्वजनिक नीतियों को जन-हित के लिहाज़ से प्रभावित करना था। पिछले साठ वर्षों में सामाजिक आंदोलनों ने राजनीतिक प्रणालियों और लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया पर उल्लेखनीय असर डाला है। सारी दुनिया में पर्यावरण का आंदोलन, युद्ध विरोधी आंदोलन, असंगठित मज़दूरों के आंदोलन, स्त्री-अधिकारों के आंदोलन, वैकल्पिक यौनिकताओं के आंदोलन इस परिघटना की सफलता के प्रमाण हैं। वित्तीय पूँजी के भूमण्डलीकरण से उपजी जन-विरोधी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन भी इसी श्रेणी में आते हैं। सामाजिक आंदोलनों की एक ख़ूबी यह भी है कि भले ही उनकी राजनीतिक कार्रवाई में स्थानीयता या ज़मीन से जुड़े होने या ग्रासरूट्स के संबंध को अहमियत दी जाए, लेकिन वे समस्याओं और मुद्दों को उत्तरोत्तर ग्लोबल सन्दर्भों में देखते और परिभाषित करते हैं। इसी कारण से वे स्थानीय स्तर पर चलाई जा रही प्रतिरोध की कार्रवाइयों को ग्लोबल नेटवॄकग के ज़रिये टिकाने में समर्थ हो पाते हैं। उनका नारा होता है ‘थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली’। इंटरनेट की परिघटना के उभार के बाद सामाजिक आंदोलनों के लिए प्रसार, समन्वय और नेटवर्किंग की सुविधा में और बढ़ोतरी हो गयी है।


द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों में उभरे मध्य वर्ग ने स्वयं को पुराने वर्ग आधारित आंदोलनों के मुकाबले राजनीतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से विशिष्ट महसूस करते हुए सामूहिक राजनीतिक कार्रवाई के ऐसे रूपों को अपनाना पसंद किया जिनके दायरे में कहीं व्यापक किस्म के नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दे आते थे। इस ज़माने में चले कई सामाजिक आंदोलन नागरिक अधिकारों, स्त्री-अधिकारों, युद्ध का विरोध करने और पर्यावरण की हिफ़ाज़त करने के आग्रहों के इर्द-गिर्द गोलबंद हुए। साठ का दशक आते-आते इन आंदोलनों की गतिविधियाँ युरोप और उत्तरी अमेरिका में काफ़ी बढ़ गयीं। इन्हें राजनीतिक कामयाबी भी मिलने लगी। यह देख कर समाज-वैज्ञानिकों ने इस परिघटना का अध्ययन शुरू किया। सामाजिक आंदोलनों को समझने के लिए सबसे पहले मनोविज्ञान का प्रयोग किया गया। इससे आंदोलनरत लोगों, समूहों और नेटवर्कों के सामूहिक व्यवहार पर रोशनी पड़ी। दूसरी तरीका संरचनागत-प्रकार्यवादी किस्म का था। उसने यह देखने की कोशिश की कि इन आंदोलनों का सामाजिक स्थिरता पर क्या असर पड़ रहा है। मास सोसाइटी का अध्ययन करने वाले मनोवैज्ञानिकों को लगा कि सामाजिक आंदोलन निजी तनाव से जूझ रहे व्यक्तियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। दूसरी तरफ़ संरचनागत-प्रकार्यवादी विद्वानों का ख़याल था कि ये आंदोलन सामाजिक प्रणाली में आये तनावों का फलितार्थ हैं।


सत्तर के दशक में इस अनुसंधान ने नयी करवट बदली। इस परिवर्तन के पीछे नये छात्र आंदोलनों और उनसे निकली प्रतिरोध की कार्रवाइयों का प्रभाव था। एक नये सिद्धांत ने जन्म लिया जिसे ‘रिसोर्स मोबिलाइज़ेशन’ थियरी (संसाधनों की लामबंदी का सिद्धांत)  के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत ने सामाजिक आंदोलनों को एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखा जिसके तहत राजनीतिक उद्यमी किसी इच्छित सामाजिक परिवर्तन की ख़ातिर पहले तो संसाधनों का तर्कसंगत संचय करते हैं और फिर लक्ष्यों को वेधने के लिए संसाधनों का प्रयोग करते हैं। इस सिद्धांत के पैरोकार मानते हैं कि सामाजिक आंदोलन पूरी तरह से अपनी संसाधन उपलब्ध कर पाने की क्षमता पर ही निर्भर करते हैं। ये संसाधन आर्थिक और मानवीय सहयोग जुटाने पर भी आधारित हो सकते हैं और इनका उद्गम नैतिक सरोकारों और प्राधिकार वग़ैरह में भी हो सकता है।




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Comments Deepa singh on 12-05-2019

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Anjali on 12-05-2019

Samajik Andolan K mehtav ko sashayed or uske ghatak

Samajik aandoln mahtoh on 12-05-2019

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Sarika on 12-05-2019

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