Nepal Ka RajNeetik Itihas नेपाल का राजनीतिक इतिहास

नेपाल का राजनीतिक इतिहास



GkExams on 05-02-2019


दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट और हरी-भरी घाटियों वाला नेपाल अपने लगभग दो शताब्दियों के इतिहास में कभी लंबे समय तक शांत नहीं रहा। उसकी वर्तमान सीमाओं का निर्धारण उसके और अंग्रेजों के बीच 1814 से 1816 तक चले युद्ध के बाद हुई संधि का परिणाम है। उसके बाद 1846 से वहां राणाओं के वंशवाद ने उसे लंबे समय तक बाहरी दुनिया से अलग-थलग रखा।

1923 में ब्रिटेन से हुई संधि के फलस्वरूप उसे संप्रभुता मिल तो गई पर भारत की आजादी के प्रभाव में नेपाल में भी लोकतांत्रिक आंदोलन शुरू हो गए। नेपाल की कांग्रेस पार्टी ने इस आंदोलन को तीव्र किया और 1951 में राणाओं की सत्ता समाप्त हो गई। राजा त्रिभुवन वीर बिक्रम को संवैधानिक प्रमुख बना दिया गया। नेपाल के राजनीतिक इतिहास में 1959 एक महत्वपूर्ण साल साबित हुआ, क्योंकि इसी साल नेपाल ने अपना लोकतांत्रिक संविधान बनाया और संसदीय चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया, पर अगले ही साल राजा महेंद्र ने सरकार पर भ्रष्टाचार और अकुशलता का आरोप लगाकर संसद भंग कर दी। 1962 में उन्होंने बुनियादी लोकतंत्र के नाम पर किसी भी पार्टी के सहयोग के बिना ही 'राष्ट्र पंचायत' का गठन किया। राजा ने खुद ही एक मंत्रिमंडल चुना।
1972 में राजा महेंद्र की मृत्यु के बाद राजा बीरेंद्र को गद्दी मिली। 1980 के दशक में संवैधानिक सुधार की मांग फिर जोर पकड़ने लगी। राजा नैशनल असेंबली के लिए सीधे चुनाव पर सहमत तो हुए मगर राजनीतिक दलों के गठन की इजाजत नहीं दी। बहुदलीय पद्धति अपनाने की मांग पर 1985 में नेपाली कांग्रेस पार्टी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। इसी क्रम में उसने अगले ही साल होने वाले चुनावों का बहिष्कार किया। कांग्रेस पार्टी का आंदोलन जोर पकड़ने लगा और 1990 तक सड़कों पर प्रदर्शनों, सभाओं, हड़तालों के दबाव में आखिरकार राजा बीरेंद्र ने पंचायत पद्धति खत्म कर राजनीतिक पार्टियों को वैधता देने वाले नए संविधान पर अपनी संस्तुति दे दी।
नई संवैधानिक व्यवस्था के तहत संपन्न हुए 1991 के पहले लोकतांत्रिक चुनावों में नेपाली कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिला और गिरिजा प्रसाद कोइराला प्रधानमंत्री बने, पर तीन साल बाद ही 1994 में कोइराला सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया। नए चुनावों में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ मगर इस सरकार को अगले ही साल भंग कर दिया गया। उधर, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ने राजशाही के खात्मे के लिए नेपाल के ग्रामीण इलाकों में विद्रोह शुरू कर दिया।
नेपाली कांग्रेस पार्टी समेत नेपाल की दूसरी पार्टियां एक के बाद एक भीतरी कलह का शिकार होने लगीं। 1999 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई और कृष्ण प्रसाद भट्टराई प्रधानमंत्री बने। पर अगले ही साल पार्टी में विद्रोह के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा और गिरिजा प्रसाद कोइराला चौथी बार प्रधानमंत्री बनाए गए। 1 जून 2001 नेपाल के इतिहास का सबसे त्रासदपूर्ण दिन साबित हुआ, जब राजकुमार दीपेंद्र ने राजा बीरेंद्र और रानी ऐश्वर्या समेत राजपरिवार के कई सदस्यों की हत्या कर खुद को भी गोली मार ली। बीरेंद्र की मौत के बाद नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरोधी उनके भाई राजकुमार ज्ञानेंद्र राजा बने। उनके राजा बनने के बाद से ही अचानक नेपाल के माओ विद्रोहियों की गतिविधियां तेज हो गईं। वे नेपाल के कई हिस्सों पर अपना कब्जा करने में कामयाब हुए।
माओवादियों की हिंसक गतिविधियों को रोकने में नाकामयाब कोइराला ने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया और 11 साल में 11वें प्रधानमंत्री के रूप में शेर बहादुर देउबा ने सत्ता संभाली। उन्होंने माओ विद्रोहियों से शांति वार्ता शुरू की जो चार महीने में ही फेल हो गई। शाही सेना और माओ विद्रोहियों के बीच भयानक युद्ध शुरू हो गया। स्थिति को नियंत्रण में लेने के लिए राजा ज्ञानेंद्र ने आपातकाल की घोषणा कर दी। देउबा माओवादियों से लड़ने के लिए मदद मांगने ब्रिटेन और दूसरे देशों की यात्रा पर गए। अमेरिका ने उन्हें दो करोड़ डॉलर की सहायता देने का वादा किया।
मई 2002 में राजा ज्ञानेंद्र ने संसद भंग कर इमरजेंसी लगा दी। कांग्रेस पार्टी ने देउबा को पार्टी से बाहर कर दिया। देउबा अंतरिम सरकार का नेतृत्व करने लगे। अक्टूबर 2002 में उनके माओ विद्रोहियों की हिंसा के बीच चुनाव को एक साल स्थगित करने की बात पर राजा ज्ञानेंद्र ने उन्हें पदच्युत कर लोकेंद्र बहादुर चंद्र को सरकार का नया प्रमुख बनाया। कुछ महीनों बाद उन्हें हटाकर सूर्य बहादुर थापा को उनका स्थान दे दिया गया।
जनवरी 2003 में माओ विद्रोहियों और सरकार द्वारा घोषित युद्धविराम कुछ ही महीनों में खत्म हो गया, जिसके बाद पूरा नेपाल हत्याओं, आंदोलनों, प्रदर्शनों की आग में झुलसने लगा। इस स्थिति को नियंत्रित कर पाने में असफल सूर्य बहादुर थापा ने इस्तीफा दिया। राजा ज्ञानेंद्र ने एक बार फिर शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया पर वे भी माओवादियों की हिंसा के बीच बद से बदतर होती जा रही राजनैतिक स्थिति को संभाल नहीं पाए। 1 फरवरी 2005 को राजा ज्ञानेंद्र ने देउबा को बर्खास्त कर सारी कार्यकारी शक्तियां अपने हाथों में ले लीं। नेपाल में मीडिया और संचार साधनों पर राजा का कब्जा हो गया।


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दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट और हरी-भरी घाटियों वाला नेपाल अपने लगभग दो शताब्दियों के इतिहास में कभी लंबे समय तक शांत नहीं रहा। उसकी वर्तमान सीमाओं का निर्धारण उसके और अंग्रेजों के बीच 1814 से 1816 तक चले युद्ध के बाद हुई संधि का परिणाम है। उसके बाद 1846 से वहां राणाओं के वंशवाद ने उसे लंबे समय तक बाहरी दुनिया से अलग-थलग रखा।

1923 में ब्रिटेन से हुई संधि के फलस्वरूप उसे संप्रभुता मिल तो गई पर भारत की आजादी के प्रभाव में नेपाल में भी लोकतांत्रिक आंदोलन शुरू हो गए। नेपाल की कांग्रेस पार्टी ने इस आंदोलन को तीव्र किया और 1951 में राणाओं की सत्ता समाप्त हो गई। राजा त्रिभुवन वीर बिक्रम को संवैधानिक प्रमुख बना दिया गया। नेपाल के राजनीतिक इतिहास में 1959 एक महत्वपूर्ण साल साबित हुआ, क्योंकि इसी साल नेपाल ने अपना लोकतांत्रिक संविधान बनाया और संसदीय चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया, पर अगले ही साल राजा महेंद्र ने सरकार पर भ्रष्टाचार और अकुशलता का आरोप लगाकर संसद भंग कर दी। 1962 में उन्होंने बुनियादी लोकतंत्र के नाम पर किसी भी पार्टी के सहयोग के बिना ही 'राष्ट्र पंचायत' का गठन किया। राजा ने खुद ही एक मंत्रिमंडल चुना।
1972 में राजा महेंद्र की मृत्यु के बाद राजा बीरेंद्र को गद्दी मिली। 1980 के दशक में संवैधानिक सुधार की मांग फिर जोर पकड़ने लगी। राजा नैशनल असेंबली के लिए सीधे चुनाव पर सहमत तो हुए मगर राजनीतिक दलों के गठन की इजाजत नहीं दी। बहुदलीय पद्धति अपनाने की मांग पर 1985 में नेपाली कांग्रेस पार्टी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। इसी क्रम में उसने अगले ही साल होने वाले चुनावों का बहिष्कार किया। कांग्रेस पार्टी का आंदोलन जोर पकड़ने लगा और 1990 तक सड़कों पर प्रदर्शनों, सभाओं, हड़तालों के दबाव में आखिरकार राजा बीरेंद्र ने पंचायत पद्धति खत्म कर राजनीतिक पार्टियों को वैधता देने वाले नए संविधान पर अपनी संस्तुति दे दी।
नई संवैधानिक व्यवस्था के तहत संपन्न हुए 1991 के पहले लोकतांत्रिक चुनावों में नेपाली कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिला और गिरिजा प्रसाद कोइराला प्रधानमंत्री बने, पर तीन साल बाद ही 1994 में कोइराला सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया। नए चुनावों में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ मगर इस सरकार को अगले ही साल भंग कर दिया गया। उधर, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ने राजशाही के खात्मे के लिए नेपाल के ग्रामीण इलाकों में विद्रोह शुरू कर दिया।
नेपाली कांग्रेस पार्टी समेत नेपाल की दूसरी पार्टियां एक के बाद एक भीतरी कलह का शिकार होने लगीं। 1999 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई और कृष्ण प्रसाद भट्टराई प्रधानमंत्री बने। पर अगले ही साल पार्टी में विद्रोह के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा और गिरिजा प्रसाद कोइराला चौथी बार प्रधानमंत्री बनाए गए। 1 जून 2001 नेपाल के इतिहास का सबसे त्रासदपूर्ण दिन साबित हुआ, जब राजकुमार दीपेंद्र ने राजा बीरेंद्र और रानी ऐश्वर्या समेत राजपरिवार के कई सदस्यों की हत्या कर खुद को भी गोली मार ली। बीरेंद्र की मौत के बाद नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरोधी उनके भाई राजकुमार ज्ञानेंद्र राजा बने। उनके राजा बनने के बाद से ही अचानक नेपाल के माओ विद्रोहियों की गतिविधियां तेज हो गईं। वे नेपाल के कई हिस्सों पर अपना कब्जा करने में कामयाब हुए।
माओवादियों की हिंसक गतिविधियों को रोकने में नाकामयाब कोइराला ने प्रधानमंत्री पद छोड़ दिया और 11 साल में 11वें प्रधानमंत्री के रूप में शेर बहादुर देउबा ने सत्ता संभाली। उन्होंने माओ विद्रोहियों से शांति वार्ता शुरू की जो चार महीने में ही फेल हो गई। शाही सेना और माओ विद्रोहियों के बीच भयानक युद्ध शुरू हो गया। स्थिति को नियंत्रण में लेने के लिए राजा ज्ञानेंद्र ने आपातकाल की घोषणा कर दी। देउबा माओवादियों से लड़ने के लिए मदद मांगने ब्रिटेन और दूसरे देशों की यात्रा पर गए। अमेरिका ने उन्हें दो करोड़ डॉलर की सहायता देने का वादा किया।
मई 2002 में राजा ज्ञानेंद्र ने संसद भंग कर इमरजेंसी लगा दी। कांग्रेस पार्टी ने देउबा को पार्टी से बाहर कर दिया। देउबा अंतरिम सरकार का नेतृत्व करने लगे। अक्टूबर 2002 में उनके माओ विद्रोहियों की हिंसा के बीच चुनाव को एक साल स्थगित करने की बात पर राजा ज्ञानेंद्र ने उन्हें पदच्युत कर लोकेंद्र बहादुर चंद्र को सरकार का नया प्रमुख बनाया। कुछ महीनों बाद उन्हें हटाकर सूर्य बहादुर थापा को उनका स्थान दे दिया गया।
जनवरी 2003 में माओ विद्रोहियों और सरकार द्वारा घोषित युद्धविराम कुछ ही महीनों में खत्म हो गया, जिसके बाद पूरा नेपाल हत्याओं, आंदोलनों, प्रदर्शनों की आग में झुलसने लगा। इस स्थिति को नियंत्रित कर पाने में असफल सूर्य बहादुर थापा ने इस्तीफा दिया। राजा ज्ञानेंद्र ने एक बार फिर शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया पर वे भी माओवादियों की हिंसा के बीच बद से बदतर होती जा रही राजनैतिक स्थिति को संभाल नहीं पाए। 1 फरवरी 2005 को राजा ज्ञानेंद्र ने देउबा को बर्खास्त कर सारी कार्यकारी शक्तियां अपने हाथों में ले लीं। नेपाल में मीडिया और संचार साधनों पर राजा का कब्जा हो गया।






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