Padmavat Ka Kavya Saundary पद्मावत का काव्य सौंदर्य

पद्मावत का काव्य सौंदर्य



Pradeep Chawla on 12-05-2019

महाकाव्यत्व


भारतीय

काव्य-शास्त्रा में महाकाव्य के लक्षणों का विस्तार से विवेचन किया गया

है। सामान्यत: आचार्य विश्वनाथ-वृ+त लक्षण ही सर्वमान्य है। संक्षेप में

महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार है-


1. यह सर्गो में बँधा हुआ होता है।


2. इसमें एक नायक रहता है जो देवता या धीरोदात्त गुणों से सम्बनिधत उच्च वंश का क्षत्रिय होता है।


3. श्रृंगार, वीर, शांत इन तीनों रसों में से कोर्इ एक रस अंगी रूप में रहता है। नाटक की सब सनिधयाँ इसमें रहती है।


4. महाकाव्य का वृत्तांत इतिहास प्रसिद्ध होता है या सज्जनाश्रित।


5. इसमें मंगलाचरण और वस्तुनिर्देश होता है।


6. कहीं-कहीं दुष्टों की निन्दा और सज्जनों का गुण-कीर्तन होता है।


7.

इस सर्ग में एक ही छन्द रहता है और अंत में वह बदल जाता है। सर्ग के अंत

में अगले सर्ग की सूचना रहती है। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिएँ।


8.

इसमें संध्या, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, सदन प्रात:काल,

मध्याद्द, आखेट, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संग्राम, यात्राा, अभ्युदय आदि

विषयों का वर्णन रहता है।


1.

पदमावत सर्गवद्ध काव्य न होकर खण्डबद्ध काव्य है। सर्ग और खण्ड में मौलिक

भेद है। सर्ग-विभाजन करते समय विभिन्न सर्गो± के आपसी परिमाण का ध्यान रखा

जाता है। किन्तु खण्ड-विभाजन करते समय कवि घटनाअें के अनुसार ही खण्डों का

नामकरण कर देता है। जैसे रत्सेन-जन्म खण्ड रत्नसेन-पदमावती-विवाह खण्ड,

राज-बादशाह युद्ध खण्ड इत्यादि। फलत: खण्डों का कलेवर भी घटनाओं के परिमाण

के अनुसार बढ़ता गया है। ग्रन्थ में 58 खण्ड हैं। इस प्रकार

प्रबन्ध-प्रद्धति भारतीय न होकर मसनवी पद्धति हो गर्इ है।


2. पदमावत का नायक रतनसेन उच्चवु+ल-संभूत क्षत्रिय राजा है-


जम्बू दीप चितउर देसा।


चित्रासेन बड़ तहाँ नरेसा।।


रतनसेन यह ताकर बेटा।


वु+ल चौहान जाइ नहिं मेटा।।


रत्तसेन

दृढ़-निश्चय, सिथर एवं साहसी व्यकित है। वह शूरवीर है और क्षमावान भी,

उसमें जातीय गौरव भी है और विनयशीलता भी। पदमावती के प्रति उसका प्रेम

निश्छल एवं दृढ़ है। समुद्र-यात्राा पर जाते समय राजा गजपति से रतनसेन कहता

है कि यदि मैं जीता रहा तो पदमावती को लेकर ही लौटूँगा और यदि मेरी मृत्यु

हुर्इ तो उसकी के द्वारा पर होगी।


जो रे जिओं तो बहुरों मरों तो औहिके वार।


इसी

प्रकार स्थल-स्थल पर रतनसेन के अन्य उदात्त एवं सामान्येतर गुणों का परिचय

मिलता है। सामान्यतया रतनसेन के चरित्रा में कोर्इ अवगुण नहीं है, फिर भी

वु+छ स्थलों पर उसके चरित्रा की दुर्बलता दिखार्इ पड़ जाती है। राजा रतसेन

सदी खण्ड के अन्तर्गत रतनसेन का पदमावती के अभाव में जर मरने की उधत होना

रतनसेन में धैर्य के अभाव को सिद्ध करता है। महाकाव्य के नायक की यह

आतुरता, नारी का इतना प्रबल मोह शोभा नहीं देता। रतनसेन में घीरोदात्त नायक

के गुण न होकर मसनवी काव्य के उन्मत्त पे्रमी के गुण आ गये हैं।


3.

श्रंृगाार के दोनों पक्ष-संयोग-पक्ष एवं वियोग-पक्ष पदमावत में पराकाष्ठा

से चित्रित है। इनमें भी यदि प्रमुखता के प्रश्न को लिया जाय तो यह निर्णय

सह नहीं है कि संयाग प्रमुख है अथवा वियों। यधपि काव्यात्मक उत्कर्ष जितना

वियोग के चित्राण में है, उतना संयोग के चित्राण में नहीं। फिर भी ग्रनथ

का अंगी रस शांत ही है क्योंकि अंत में रतनसेन की मृत्यु होती है। दोनों

सित्रायाँ सती हो जाती हैं। कवि कहता है, जो रे उवा सो अथवा रहा न कोउ

संसार। अलाउíीन भी विजय के अन्त में क्या पाता है-


छार उठाइ लीन्ह एक मूठी। दीन्ह उड़ाइ पिरथमी झूठी।


श्रंृगार-रस

के साथ-साथ पदमावत में वीर-रस का भी सुन्दर अंकन हुआ है। श्रंृगार के

पश्चात सर्वाधिक परिपाक वीर-रस का ही है। वीर के मूल में ही श्रंृगर-भावना

ही है। युद्ध का मूल कारण, पृथ्वीराज रासो इत्यादि की भाँति पदमावत में भी

नारी-सौन्दर्य ही है।


पदमावत

की कथावस्तु में नाटक की सनिधयों की योजना नहीं है। कवि ने सप्रयास कथा को

नाटकीय रंग देकर संधियों का समावेश नहीं किया किन्तु फिर भी, कथा की गति

सरल होने के कारण नाटक की संधियों को खोजा जा सकता है।


4.

पदमावत का कथानक पूर्णत: इतिहास पर आधृत नहीं है, किन्तु वह सर्वथा

काल्पनिक भी नहीं है। वस्तुत: जैसा कि आचार्य हजारीप्रासद द्विवेदी ने कहा

है, पदमावत में विशेषत: असके नायक रतनसेन में, पृथ्वीराज रासो के

पृथ्वीराज की भाँति पै+क्टस और फिक्शन-तथ्या और कल्पना-का अदभुत योग हुआ

है। पदमावत में इतिहास तो नाममात्रा का है किन्तु यह कथ लोकप्रसिद्ध

अर्थात ख्यात कथा है, इसमें कोर्इ सन्देह नहीं है। डाँ. रामसिंह तौमर का

कहना है कि प्रावृ+त के ग्रन्थ रयण सेहन-तरवइ कहा में भी यही कथानक लिया

गया है अत: पदमावत का कथानक लोकप्रसिद्ध जनकथानक है, इतना निशिचत है।


5. पदमावत के आरम्भ में र्इश्वर-स्तुति है-


संवरौ आदि एक करतारू।


जेर्इ जीउ दीन्ह कीन्ह संसारू।।


किन्तु

पदमावत का स्तुति-खण्ड भारतीय कहाकाव्याकं के मंगलाचरण से बिल्वु+ल भिन्न

है। इसमें मसनवी पद्धति की प्रस्तावना है। मसनवी में अल्लाह, पैगम्बर,

शाहेकक्त, पीर-परम्परा की स्तुति होती है। बाद में कवि अपनी परिचय देता है

और उपने ग्रंथ का परिचय देता है। यही सब पदमावत में मिलता है। भारतीय

परम्परा का मंगलाचरण गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में मिलता है।

स्पश्ट है पदमावत; का मंगलाचरण भारतीय पद्धति का नहीं है।


6.

पदमावत में विशेष रूप से दुर्जन-निन्दा अथाव सज्जन-प्रशंसा नहीं है। हमार

अभिप्राय उस प्रकार व्यवसिथत एवं विस्तृत तथा सोíेश्य दुर्जन-निदा और

सज्जन-्रशंसा है। जैसी कि रामचरितमानस में उपलब्ध होती है।


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1. डा.ह. प्र. द्विवेदी, हिनदी साहित्य का आदिकाल, पृए 70-71


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7. पदमावत आदि से अन्त तक एक ही छन्द चौपार्इ में लिखा गया है तथा प्रत्येक 7 चौपार्इ के पश्चात एक दोहे का क्रम रख गया है।


प्रत्येक

खझउ के अन्त में भावी खण्ड की सूचना अनिवार्यत: नहीं दी गर्इ है। पदमावत

खण्डों में विभाजित है और एक खण्ड से समग्र प्रभाव के रूप में दूसरे खण्ड

की कथा का आभास तो मिलताहै किन्तु विधिवत भावी खंड की घटनावली को सूचित

नहीं किया गया।


पदमावत में 58 खण्ड है। इतनी बड़ी खण्ड-संख्या का कारण है कथा की छोटी से छोटी घटना पर भी तत्सम्बन्èाी शीर्षक देना।


8.

पदमावत में दिन के विभिन्न प्रहरों, प्रवृ+ति के अनेक दृश्यों ओर मनुष्य

के नाना क्रियाकलाओं का वर्णन मिलता है। वर्णनात्मकता का इतना आधिक्य

महाकाव्य में उचित नहीं है।


तात्पर्य

यह है कि भारतीय महाकाव्य की कसौटी पर तो पदमावत खरा नहीं उतरता फिर भी

स्भूल रूप से देखकर अनेक विद्वान इसे महाकाव्य की कसौटी पर कम देते हैं।

पंñ रामचन्द्र शुक्ल जी ने इसको महाकाव्य न कहकर प्रबन्ध काव्य ही कहा था।

कारण यह है कि पदमावत भारतीय महाकाव्य के लक्षणों पर घटित नहीं होता। सच

तो यह है कि मलिक मुहम्मद जायसी को भारतीय महाकाव्यों के प्रणयन का अवसर

मिला ही न था। उन्होंने तो फारसी प्रबन्ध काव्य (मसनवी) को ही रूपान्तरित

कर दिया था।


महाकाव्य

के उपयर्ुक्त लक्षण वस्तुत: अमर काव्य की परीक्षा के लिए उपयुक्त कसौटी

नहीं है। प्रत्येक महान वृ+ति में ये सभी लक्षण अनिवार्यत: उपलब्ध नहीं

होते। महाकाव्यक की महानता का मापदण्ड ये लक्षण नहीं वरन महाकाव्य के अन्तर

में व्याप्त मानव जाति के शाश्वत भावों का यह चित्राण है, जो उसे

युगों-युगों के लिए सभयता एवं संस्वृ+ति की चिरंतन निधि बना देता है।

महाकाव्य का महत्त्व देशातीत होता है और उका गौरव युगव्यापी। कवीन्द्र

रवीन्द्र के शब्दों मेंमहाकवि-कर्म की व्याख्या इस प्रकार है-


जिसकी

रचना के भीतर एक देशा, एक समस्त युग अपने âदय को, अपनी अभिज्ञता को व्यस्त

कर उसको मानव जाति की चिरन्तन सामग्री बना देता है, उसी कवि को महाकवि कहा

जाता है।


अरस्तू

आदि पाश्चात्य विचारकों ने भी महाकाव्य के लिए तीन तत्त्वों का आवश्यक

माना है- 1. ळतमंज ब्ींतंबजमत महान पात्रा, 2. ळतमंज च्सवज महान कथानक, 3.

ळतमंजेजलसम उदात्त शेली। डाñ शम्भूनाथ सिंह ने महाकाव्य के नवीन मानदण्ड

सिथ्र करते हुए उसकी रचना के लिए आठ आवश्यक शर्तो का उल्लेख किया है1-


1. महादुíेश्य, महत्पे्ररण और महती काव्य-प्रतिभा।


2. गुरुत्व, गाम्भीर्य और महत्त्व।


3. महत्कार्य और युग जीवन के विविध चित्रा।


4. सुसंगठित और जीवन्त कथानक।


5. महत्त्पूर्ण नायक तथा अन्य चरित्रा।


6. गरिमामयी उदात्त शैली।


7. प्रभावानिवति और गम्भीर रस-वयंजना।


8. अनवरुद्ध जीवनी-शकित और सशक्त प्राणवत्ता।


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1. शम्भूनाथ सिंह, हिन्दी काव्य का स्वरूप विकास, पृए 107-121


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इन

तत्त्वों का भी संगुम्फन किया जाये तो हम कह सकते हैं कि महाकाव्य के महान

पात्राों के कार्य-कलाओं पर आधृत कथानक का प्रतिपादन गरिमामय उदात्त शैली

मेें किसी महान उíेश्य की पू£त के लिए होना चाहिए। पदमावत में महाकाव्य की

परीक्षा भी इसी दृषिट से की जानी चाहिए।


1.

महदृíेश्य, महत्पे्ररण और महती काव्य-प्रतिभा-पदमावत में उíेश्य महान है।

इसमें लौकिक कथा के माèययम से अलौकिक प्रेम की अनुभूति प्रस्तुत है। कवि ने

मंगलाचरण में ही स्पष्ट कर दिया है कि पदमावत में लौकिक कहानी मुख्य नहीं

है। इसके मर्म को साधारण लोग नहीं जान सकते, इसको तो ज्ञानी ही जान सकता

है-


कवि बियास रस कोला पूरी। दूरहि निग्रर निग्रर भा दूरी।


ग्रन्थ में लौकिक प्रेम कहानी न होकर आèयातिमक पे्रम का निरूपण है।


2.

गुरुत्व गाम्भीर्य और महत्त्व-कथा पे्रम-प्रधान है किन्तु कवि स्थान-स्थान

पर ऐसे अवसर निकाल लेता है कि वह उपदेश कर सके। इन उपदेशों में जगत के

मिथ्यात्व तथा ब्रह्रा के महत्व का निरूपण होता है। उन तक पहुँचने का सरल

पे्रम-मार्ग का निरूपण समासोकित के द्वारा होता जाता है। यही कारण है कि

श्रृंगार-प्रधान होने पर भी ग्रन्थ में गाम्भर्य और महत्त्व का वातावरण बना

रह जाता है।


3.

महत्कार्य और युग-जीवन के विविध चित्रा-महाकाव्य का कार्य ग्रन्थ के अन्त

में ही प्रकट होता है। पÉावती और नागमती सती होता हैं। इसीलिए पंñ

रामचन्द्र शुक्ल ने इसी को कार्य माना है। कवि का उíेश्य आèयातिमक पे्रम का

निरूपरण था। इस महत्कार्य के बीच जीवन के विविध प्रसेंगों की सृषिट कवि ने

की है। उदाहरण के लिए मानसरोदक खण्ड में वु+मारियों की स्वच्छन्द क्रीड़ा,

स्त्राी का सौन्दर्य, नख-शिख वर्णन, रतनसेन के योगी होने पर परिवार वालों

का शोक, मार्ग के कष्ट, नागमती का विरह, रतनसेन का संयोग, षटऋतु और

बारहमासा, अलाउíीन के संदेश पर रतनसेन का रोष, युद्धोत्पाह-वर्णन, बादल की

वीरता, देवपाल की दूती के आने पर पदमावती का सतीत्व और अन्त में दोनों

रानियों का आन्नद के साथ सती होना। इस प्रकार पदमतवत में मानव-जीवन के

मा£म प्रसंग भरे पड़े हंै।


4.

सुसंगठित और जीवन्त कथानक-आध्यातिमक दृषिटकोण रखते हुए भी कवि ने कथा को

सुसंगठित रखा है। बड़े-बडे़ आध्यातिमक भाषण या संवाद ग्रन्थ में नहीं

मिलते। जो आध्यातिमकता है वह सांकेतिक ही। सामान्य कथा-पे्रमी को कहीं भी

उ+बाने वाले प्रसंग नहीं हैं। कथानक इतना जीवन्त है कि पाठक पढ़ते-पढ़ते

रोमांचित हो जाता है। सांसारिक प्रणय का मनभावना अनुभव होता है। साथ ही

आèयातिमक प्रतीकों के कारण भाव का उन्नयन होता जाता है। कहीं भी वासना का

कलुष उसे मलिन नहीं करता। बीच-बीच के वर्णन भी रोचकता ही प्रस्तुत करते

हैं। पूर्वाद्र्ध में अवश्य ही पे्रम-निरूपण का सैद्धानितक रूप मिलता है।

किन्तु उत्तराद्र्ध में कथा अधिक जीवन्त हो उठती है और पूर्वाद्र्ध की कमी

पूरी हो जाती है।


5.

महत्त्वपूर्ण नायक तथा अन्य चरित्रा-हम पात्राों को लेते हैं। नायक

रत्नसेन के विषय में हम कह आये हैं कि वह गुण सम्पन्न पुरुष है। एकाध

स्थलों पर उसके चरित्रा में कतिपय हेय गुणों के दर्शन होते हैं, जबकि वह

पदमावती के अभाव में सती होने का उधत होता है। किन्तु वह वास्तव में उसके

चरित्रा की दृढ़ता को प्रकट करता है, उसके पे्रम की पराकाष्ठा व्यंजित होती

है। पदमावत का मूल उíेश्य पे्रम की पीर की अभिव्यकित करना है, अत: यदि

नायक को प्रेमातुर दिखाया गया है तो वह अनुचित नहीं है। इसे नायक का

चारित्रिक गुण ही समझना चाहिए।


रतनसेन

में शौर्य गुण प्रचुर मात्राा में है। जब अलाउíीन ने उसके पास पदमावती को

समर्पण करने के लिए संदेश भेजा तो शूरवीर रतनसेत अपने अभिमान की रक्षा के

लिए आतुर हो गया और क्रोधावेश में उसने दूत से कहा-


सुनि अस लिखा, उठा जरि राजा।


जानहु देव तरपि घन गााजा।।


×××


का मो¯हते अस सूर अंगारां।


चढ़ी सरग औ परौं पसारां।।


उसका देवपाल को युद्ध के लिए ललकारना भी उसकी अपूर्व शौर्य की व्यंजना।


6.

गरिमामयी उदात्त शैली-शैली की दृषिट से पदमावत अनूठा काव्य है। पदमावत

की शैली में भारतीय और अभारतीय अथवा फारसी तत्त्वों का अपूर्व समिमश्रण है।

यह मसनवी शैली में लिखा गया काव्य है। मसनवी फारसी काव्य में छन्द की एक

पद्धति विशेष है। मसनवी का साहितियक उपबन्ध केवल इतना है कि एक छन्द में एक

पूर्ण वाक्य इस प्रकार दो भागों में विभक्त होता है कि दोनों भागों में

अन्त्यानुप्रास के गुण का समावेश हो जाता है अर्थात दोनों भाग एक दूसरे के

बराबर हो जाते हैं। मसनवी का शाबिदक अर्थ भी ;च्ंतंससमसद्ध अथवा समान ही

है। चौपार्इ में भी यही विशेषता है। अत: सूफी कवियों ने चौपार्इ को ही

ग्रहण किया। फारसी में पाँच या सात समान तुक वाली पंकितयों के पश्चात बैत

का विधान है। हिन्दी में इन कवियों ने बैंत के स्थान पर दोहे का प्रयोग

किया। सम्भवत: सूफी कवियों ने चौपार्इ को प्र्रमुखता इस कारण भी दी कि

चौपार्इ मसनवी छन्द से बहुत मिलता है। फिर चौपार्इ अवèाी का अपना छन्द है

और सूफियों की रचनाएँ पा्रय: सब की सब अवधी में ही उपलब्ध होती हैं।


पदमावत

का उदघाटन मसनवी शैली पर होता है। र्इश्वर-स्तुति, पैगम्बर-बन्दना,

गुरु-वन्दना और शाहेवक्त की प्रशंसा के पश्चात कवि कथावस्तु का निर्देश

करता है। किन्तु सम्पूर्ण कथा पूर्णत: मसनवी शैली में लिखित नहीं है। फारसी

के मसनवियों में काल्पनिक घटनाओं तथा अतिमानवीय वृ+त्यों की अधिकता रहती

है और कथा बिल्वु+ल अस्वाभाविक-सी प्रतीत होने लगती है। हिन्दी

प्रेमाख्यानों में भी परवर्ती काल में काल्पनिकता का तत्त्व प्रमुखता

ग्र्रहण कर गया था। किन्तु जायसी ने पदमावत की शैली की अस्वाभविकता से

रक्षा की है। यधपि पÉावत में अनेक काल्पनिक घटनाओं का समावेश है। (केवल इस

अर्थ में कि लोक-प्रचलित कथा में जायसी ने कर्इ नवीन स्थलों की उदभावना की

है) तथापि कलिपत घटनाओं की संगीत मुख्य घटनाअें के साथ इस प्रकार बैठार्इ

गर्इ है कि संयोजन में बाधा नहीं पड़ती।


पÉावत

की शैली में नाना भावों का वर्णनकरने की क्षमता है तथा नानारूपा प्रवृ+ति

और वैविध्यपूर्ण जगत के कार्य-कलापों का अंकन करने की सामथ्र्य है।

सामान्यता शैली की यह भव्यता, उसकी यह गरिमा आधोपान्त बनी रहती है। किन्तु

वु+छ स्थलों पर जहाँ कवि ने नाम-परिगणन शैली को ग्रहण किया है, जैसे सिंहल

द्वीप-वर्णन खंड के अन्तर्गत पेड़ों एवं पक्षियों के वर्णन में तथा

रतनसेन-पÉावती विवाह खंड और अलाउíीन भोज खंड के अन्तर्गत व्यंजनों के

वर्णन में शैली की यह गरिमा नष्ट हो गर्इ है। ऐसे स्थलों पर वर्णन गधात्मक

से प्रतीत होते हैं। ऐसे स्थल अधिक नहीं हैं।


अलंकारों

का स्वाभाविक सौन्दर्य पदमावती में प्रस्पु+टित हुआ है। लंकार का सचेष्ट

प्रयास जायसी में कहीं दृषिटगोचन नहीं होता। पÉावत में अलंकारों का

सौन्दर्य अंगभूत सौंदर्य है, पृथक सौन्दर्य नहीं।


7.

प्रभावानिवति और गम्भीर रस-व्यंजना-पदमावत के पूर्वाद्र्ध में पे्रम-कथा

बढ़ती जाती है। विवाह के उपरान्त सुगीत के विस्तत संदर्भ हैं किन्तु

उत्तराद्र्ध में क्रमश: जीवन-सुख में उतार आता जाता है। रतनसेन का पकड़ा

जाना, काल कोठरी में बन्द करके उसको भयंकर यातनाएँ देना, युद्ध में गौरा की

मृत्यु, देवपाल के साथ रतनसेन की मृत्यु क्रमश: नियति की ओर ले जाती हैं।

अन्त में पदमावती-नागमती का सती होना और क्षत्रााणियों का जौहर, बादल की

मृत्यु और उलाउíीन का चित्तोड़ जीतने के उपरान्त निराश जाना आदि पाश्चात्य

ढंग के कार्यावस्था-अवसान ;ब्ंजेंजतवचीलद्ध का रूप लेते हैं। फिर भी

पाश्चात्य काव्यों की अशांति और वेदना के दर्शन यहाँ नहीं होते। यहाँ

शानितपूर्ण गम्भरता और आèयातिमक आनन्द की झलक मिलती है। तात्पर्य यह कि जिस

प्रकार पूर्वाद्र्ध में गम्भीर प्रभावानिवति मिलती है उसी प्रकार अन्त में

भी।


रसव्यंजना

की दृषिट से पÉावत महत्त्वपूर्ण है। पे्रम-कथा होते हुए भी ग्रन्थ में

श्रृंगार अंगीरस के रूप में प्राप्त नहीं होता। नख-शिख एवं संयोग के अनेक

अवसर प्रस्तुत किए गए हैं, फिर भी अन्त में करुण-प्लावित शांत रस की ही

अभिव्यकित की गर्इ है। अनितम दृश्य में दोनों रानियाँ शांत भाव से ज्वालाओं

का अलिंगन करती हैं। वे कहती हैं-


जियत कंत तुम्ह हम कंठ लाइ। मुए कंठ नहिं छांड़हिं सांर्इ।


ओ जो गांठि कंत तुम जोरी। आदि अन्त दिनिह जाइ न छौरी।।


लागी कंठ आगि दै होरी। छार भर्इ, जरि अंग न मोरी।।


कवि

की दृषिट में जीवन का अन्त करुण-कन्दन नहीं, शानित है। इस प्रकार ग्रन्थ

का अंगीरस शान्त ही है। अंग रूप में श्रृंगार, करुण, वीर, भयानक, बीभत्स,

रौद्र और अदभुत के समावेश हैं। जायसी का लक्ष्य लौकिक पे्रम के माèयम से

आध्यातिमक पे्रम की व्यंजना है, अत: ग्रन्थ की समस्त रागात्मकता में

गाांभर्य की सिथति अनिवार्य रूप से विधमान रहती है।


8.

अनवरुद्ध जीवनीशकित और सशक्त प्राणवत्ता-यधपि ग्रन्थ आèयातिमक है फिर भी

आत्मजीवन का परिष्कार और मानव का उत्थान ही इसमें प्रतिपादित है। उíेश्य की

ओर निरन्तर प्रयास है और सर्वत्रा उसमें प्राणवत्त विधमान है। इसमें

गम्भीर जीवन-दर्शन एवं सार्वकालिक और सार्वजनीन पे्रम का संदेश प्रस्तुत

है। आèयातिमक पे्रम-साèाना और मानवतावाद ग्रन्थ की सिद्धि है। इसलिए इसमें

अनवरुद्ध जीवनी-शकित और सशक्त प्राणवत्ता विर्निवाद रूप से प्राप्य है।


निष्कर्ष

यह हे कि यधपि ग्रन्थ फारसी की मसनवी शैली पद्धति पर रचा हुआ प्रबन्ध

काव्य है, और इसमें भारतीय महाकाव्य के परम्परागत लक्षण उपलब्ध नहीं है फिर

भी इसे महाकाव्य कहने में ¯कचित मात्रा भी हिचक नहीं होती। आजकल के सभी

आलोचक इसे महाकाव्य स्वीकार करते हैं।


उपयर्ुक्त

विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि व्यापक अर्थ में पÉावत एकसफल महाकाव्य

है और जायसी एक सफल महाकवि, कारण कि सफल महाकाव्यों की रचना में महाकवि ही

सफल होते हैं। पात्रा, कथानक, शैली सभी दृषिटयों से उसका महाकाव्यत्व सिद्ध

है। उíेश्य की दृषिट से तो वह अप्रतिम काव्य है। उसके विषय वस्तु और शैली

दोनों में ही एकाधिक काव्य-प्रवृत्तियों की विशेषताओं के दर्शन होते हैं।

डाñ शम्भूनाथ ¯सह ने इसे रोमांचक महाकाव्य माना है। क्योंकि इसमें भी

रोमांचक तत्त्व और साहसिक कार्य जैसे भयंकर यात्राा, दुरूह मार्ग, देव-असुर

आदि के अलौकिक कार्य, युद्ध, कन्या-हरण आदि प्राप्त होते हैं। सâदय के मन

पर पÉावत का अनितम प्रभाव पÉावती-नागती के सहगमन से उत्पन वैराग्य अथवा

निर्वेद का होता है। उदबुद्ध चेतना वाले साहितियक व्यकित की सâदयता को

पÉावत के अन्तर में व्याप्त अनूठी सांकेतिकता अपनी ओर खींचती है। यह उसका

विशेष गुण है।


रस


सूफी

काव्यों में रस का स्वरूप ठीक वैसा ही प्राप्त नहीं होता जैसा कि भारतीय

काव्य परम्परा में। फिर भी रस का परिपाक प्रेमाख्यानक काव्यों में चरम सीमा

पर मिलता है। संयोग और विप्रलम्भ की परिसामा इन काव्यों में परिलक्षित

होती है। शास्त्राीय दृषिट से हम उसे सदोश भले ही कह दें, किनतु रसमयता

इसमें अपूर्व है।


अंगीरस


पÉावत

में आदि से लेकर अन्त तक पे्रम-भाव की प्रधनता हैं। अत: श्रृंगाार रस का

प्रतिधान्य दुषिटगोचर होता है, फिर भी ग्रंथ में श्रृंगारस नहीं स्वीकार

किया जा सकता। ग्रंथ प्रतीक-पद्धति पर लिखा गया है। श्रंृगाार लौकिक कथा का

प्रधान रस है, किन्तु कवि का लक्ष्य दो अलौकिक प्रणय की प्रतिष्ठा करना

है। अलौकिक प्रणय में संसार से विराग लेकर ब्रह्रा की ओर उन्मुख होना होता

है। यह मनोवृत्ति शान्त रस की है। रतनसेन पदमावती के नख-शिख को सुनकर योगी

हो जाता है। माता पिता पत्नी तथा अन्य सभी परिजनों के पे्रम को कच्चे धागे

की भाँति तोड़कर राजा योगी बनकर निकल जाता है। जब तक वह पदमावती से नहीं

मिलता उसमें वैराग्य ही वैराग्य मिलता है। इस प्रकार पूर्वाद्र्ध का

अधिकांश शान्त रस प्रधान ही माना जाएगौ। ग्रंथ के अन्त में दोनों रानियाँ

सती हो जाती हैं। सती होने समय रानियों में शान्त भाव ही उभरता है। वे कहती

है-


आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़।


आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम जूड़।।


इस

प्रकार यदि सती खंड ही कथा का कार्य है तो ग्रंथ की समातित शान्त रस में

ही रही है। आèयातिमक पे्रम-वयंजन के कारण सारी पे्रम-कथा रहसयात्मक है अत:

इसमें अंगरीरस के रूप में शांत को ही मानना चाहिए। डाñ शम्भूनाथ सिंह के

शब्दों में जिस प्रकार सूर, मीरा और कबीर के श्रंृगारिक वर्णन शांतरस के

अन्तर्गत माने जाते हैं उसी तरह पदमावत का समग्र प्रभाव शान्तरस-समनिवत

है, श्रंृगार रस वाला नहीं, अत: लौकिक काि की दृषिट से पदमावत में

विप्रलम्भ श्रंृगाार अंगी है और आध्यातिमक दृषिट से वह शान्तरस-प्रधान

-काव्य हैं।


श्रंृगार रस


पदमावत

एक पे्रमाख्यान काव्य है जिसका नायक रतनेसेन और नायकि पदमावती है। योगी

बने हुए रतनसेन का लक्ष्य भी अपनी प्रेमिका की प्रापित ही है। अत: सम्पूर्ण

काव्य में श्रंृगार रस की चारा ही प्रवहमान मिलती है। प्रत्यक्षा रूप से

सारे काव्य में श्रृंगार के ही क्रिया-कलाप मिलते है। श्रंृगार के दोनों

पक्षों संयोेग और वियोग का विस्तृत निरूपण ग्रंथ में उपलब्ध है।


संयोग श्रंृगार


पे्रमी-पे्रमिका

के मध्य पे्रम हिंडोल की भाँति चढ़ता-उतरता है। पे्रम एक ओर उत्पन्न होकर

दूसरी ओर बढ़ता है। जब पे्रमास्पद को ज्ञात हो जाता है तो उसमें भी पे्रम

की हिलोरें उठने लगती हैं, जब दोनों ओर पे्रम समान रूप का हो जाता है तब

पे्रम को शकित मिलती है। यदि दूसरी ओर पे्रम उत्पन्न न हुआ तो पे्रम इकहरा

होता है, वह अपूर्ण रहता है। पे्रमी चाहे जितना त्याग और तपस्या दिखाए

उसमें रस पे्रम का न होकर करुण का हो जाता है। सूफी पे्रम आèयातिमक है। साध

(मनुष्य) साध्य (परमेश्वर) के प्रति पे्रम करता है। साधक निरन्मर

पे्रम-मार्ग पर साधना की कठिन से कठिन सीढि़यों पर चढ़ता जाता है।

पे्रमास्पद का भाव स्पष्ट नहीं होता, इस प्रकार ऐसा लगता है कि पे्रम इकहरा

है। किन्तु बात ऐसी नहीं है, पे्रमास्पद ब्रह्रा ही पे्रम का मूल स्रोत

है। यदि पे्रम की सिथति न होती तो वह जगत की रचना ही क्यों करता।


इश्क अव्वल दरदिले माशरद।


अर्थात पे्रम सबसे पहले ब्रह्रा में ही उत्पन्न हुआ। चित्राावली में लिखा है-


आदि पे्रम विधि ने उपराजी।


पे्रम

के उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप उसने ज्योति की रचना की और फिर उस पर

इतना मुग्ध हुआ कि उसी के लिए सृषिट की रचना की। तभी तो पदमावत में जायसी

लिखते हैं-


कीनिहेसि प्रयम ज्योति परगाासू। कीन्हेसि तेहि विरीत कविलासू।।


तात्पर्य

यह कि सूफी मत के अनुसार भी ब्रह्रा में ही पे्रम का उत्स है अत। साधक और

साध्य के बीच में प्रव्हमान होने वाला पे्रम दो तरफा है।


पदमावत में पे्रम का स्पु+रण पहले पदमावती (ब्रह्रा) में ही होता है। पदमावती कहती है-


सुनु हीरामनि कथा बुझार्इ दिन दिन मदन सतावै आइ।।


जीवन मोर भएउ जस गंगा। देह देह हम लाग अनंगा।


हिरामन तब कहउँ बुझार्इ। विधि कर लिखा मेटि ना जार्इ।।


पहले

हीरामन ही पदमावती के लिए योग्य वर की तलाख में चलता है। बाद में जब

हीरामन रतनसेन के समक्ष पदमावती का नख-शिख प्रस्तुत करता है तब रतनसेन में

पे्रम बड़ी तीव्रता से जग उठता है-


सुनतहि राज गा मुरझार्इ। मानहु किरिन सूरज के आर्इ।।


परा सो पेम समुन्द अपारा। लहरहि लहर होइ बेसभारा।।


रतनसेन

जोगी बन कर चल निकलता है। अनेक कठिनाइयों को परर कर जब वह शिव-मंडर पर

पÉावती का प्रथम साक्षात्कार करता है तब मू£च्छत हो जाता है। यहाँ भी पे्रम

सम-अवस्था का है। पदमावती बड़े उत्साह से मिलने आर्इ थी। जब रतनसेन

मू£च्छत हो गया तो क्या करती? चन्दन से âदय पर लिखकर चली गर्इ।


मेलेसि चन्दन मवु+ खिन जागाा।


अधिकौ सूत, सिअर तन लागा।।


जब रतनसेन बारात लेकर आता है तब पदमावती उल्लासित हो उठती है-


हुलसे नैन दरस मदमाते। हुलसे अधर रंग रस राते।।


हुलसा बदन ओप रवि पार्इ। हुलसि हिया कंचुकि न समार्इ।।


अंग अंग सब हुलसे, केउ कतहुँ न समाइ।


ठावहिं ठांव विमोहा, यह मुरछा गति आइ।।


इस प्रकार पदमावत में सम-भाव का पे्रम ही प्रद£शत है। पदमावती के पे्रम में भी वही प्रणय-भाव विधमान है जो तपस्वती रतनसेन में।


पÉावत

का संयोग वर्णन मनोरम और सरस है। फिर भी इसमें काव्य-शास्त्राीय संयोग

श्रृंगार नहीं मिलता फिर भी ये बड़ा मनोहारी और सâदय-संवेध।


विप्रलम्भ श्रृंगार


सूफी साधना में विरह का महत्त्व अधिक है। पे्रम का दूसरा नाम ही विरह है। जायसी ने आरम्भ में ही कहा कि-


मुहमद कवि जो पे्रम का, ना तन रकत न माँसु।


जेह मुख देखा तेइ हँसा, सुना तो आए आँसु।।


प्रेम

विरह ही तो है। समस्त सूफी साधना विरह साधना है। ब्रह्रा से एकीकरण जब तक

नहीं होता विरह ही बना रहता है। समस्त सूफी साधना यात्राा विरह की यात्राा

है। अत: सूफी पे्रमाख्यानों में विरह का ही प्रसार देखा जाता है। पदमावत

में भी विरह की सधानता है। सूफी काव्यों में आश्रय केवल नारी ही नहीं होती,

नर भी होता है। रतनसेन (साधक) पदमावती (ब्रह्रा) के विरह में बावला होता

है उसकी समस्त यात्राा विरह में ही व्यतीत होती है। पदमावत के विरह को

समझने के लिए हमें तीन-व्यकितयों के विरह-स्वरूप को देखना होगा- 1. रतनसेन,

2. पदमावती, 3. नागमती। रतनसेन के विरह में सूफी-साधना का सैद्धानितक

स्वरूप है। विरह की दश दशाएँ हैं-अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग,

प्रलाप, उन्माद, व्याधि, मूच्र्छा और मरण। यदि ध्यान से देखा जाए तो विरह

की अवथ्थाओं में ये सिथतियाँ क्रमश: आती हैं। पहले मिलन की अभिलाषा होती

है। फिर उसके लिए चिन्ता होती है, पूर्व-स्मृतियाँ आती है। विरही गुण-कथन

करते-करते उद्वेग की सिथति में होता है। फिर विरह के बढ़ने पर प्रलाप,

उन्माद, मूच्र्छा आते है। अनितम सिथति है मरण। मरण विप्रलम्भ में होता

नहीं, क्योंकि मरण होते ही करुण रस आ जाता है। किन्तु विरह की आत्यंतिक

अवस्था में मरण का उल्लेख है।


कठिन मरन ते पेम वेवस्था। ना जिअं जिवन न दसइ अवस्था।।


सूफी

विरह की विशेषता यह है कि इसमें विरह की दशाएँ उल्टी होती हैं। मूच्र्छा

जो विरह की अनितम अवस्था है, सूफी विरह में सबसे पहले होती है। उदाहरण के

लिए पदमावती का नख-शिख सुनते ही रतनसेन अभिलाषा, चिन्ता आदि में रत नहीं

होता वह तो एकद मू£च्छत हो जाता है।


सुनतहि राज गा मुरछार्इ। जानहुं लहरि सूरज के आर्इ।।


मूच्र्छा ही नहीं विरह के अन्तर्गत जिस चरमावस्था का उल्लेख मिलता है वह भी रतनसेन भोगता पाया जाता है-


कठिन मरन ते पेम वेवस्था। ना जिअं जिवनन दसइ अवस्था।।


जनु लेनिहारन्ह जीन्ह जिउ, हरहि तरासहिं ताहि।।


एतना बोल न आव मुख, करहि तराहि तराहि।।


स्पष्ट

है वह मरण्णावस्था का दु:ख भोग रहा है। मूच्र्छा की आत्यंतिक अवस्था के

उपरान्त रतनसेन व्याèाि की अवस्था में पड़ता है। उसे चरमावस्था का ज्वर

होता है। उसके उपचार के लिए गुनी, ओझा, वैध आदि आते हें-


चरकिहं चेष्टा परखहिं नारी। निअर नारि औषध तेहिं वारीं


व्याधि के उपरान्त वह उन्माद की अवस्था में पड़ता है। मूच्र्छा के छूटने पर वह अनाप-शनाप बकने लगता है-


हौं तो अहा अमरपुर जहाँ। इहाँ अमरपुर आएउ कहाँ।।


तात्पर्य

यह कि रतनसेन के विरह में विरह की आत्यंतिक अवस्थाएँ ही प्राप्त होती हैं।

इसके उपरान्त वह समस्त जगत छोड़कर जोगी बनकर चलता है, किन्तु इस योग में

वैराग्य नहीं है, पे्रम ही है। वह कहता है-


पू+ल फूल फिर पूछौं, जा पहुँची ओहि केत।


तन नेवछावरि वै+ मिलौं, जयों मधुकर जिउ देत।।


जिस प्रकार विरह की अवस्था में श्रीरामचन्द्र जी कहते हैं-


हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम देखी सीता मृगनैनी।।


उसी

प्रकार रतनसेन भी प्रत्येक पुष्प-वृक्ष से पूछता फिरता है। वह पÉावती से

मिलने की इच्छा में रमा हुआ है। वह तपस्या में लीन होता है, किन्तु जपता

पदमावती का नाम ही है-


बैठ सिंध छाला होइ तपा। पदुमावति पदुमावति जपा।।


उसक विरह दुक्ष की चरमसीमा का है और उसका तन विरह से जलता है और उसका रोम-रोम रोता है-


तस रोवै जस जरै। रकत औ मांसु।


रोवं रोवं सब रोवहिं, सोत सोत भरि आंसु।।


जब

वह सुनता है कि उसे सूली दी जाने वाली है तब वह मंसूर की भाँति विàल हो

जाता है। वह चाहता है कि उसे सूली मिल जाय और वह दुक्षों से मुक्त हो जाय-


आजु अबधि सरि पहुंची, वै+ सो चलेउ मुख रात।


बेगि होउ मोहि मारहु, का पूंछहु अब बात।।


तात्पर्य

यह कि नायक में जायसी ने विरह का आत्यंतिक रूप दिखाया है। यह विरह हिन्दी

साहित्य में अपूर्व है। एक तो नायक में विरह की सिथति ही कम दिखार्इ जाती

है। दिखार्इ भी जाती रही है तो उसमें वेदना का उतना पुट नहीं होता जितना

नायिका में। पदमावत में नायक ही प्रेमुख रूप से विरही है, कारण यह है कि

यहाँ साधना में साèय नायिका है। सैद्धानितक विचारों की प्रधानता के कारण ही

नायक में इस विरह की वेदना दिखार्इ गर्इ है। सूफी साèाना ही विरह-साधना

हैं इस विरह का आश्रय नायक ही है, अत: नायक में विरह की दशाएँ अनिवार्य रूप

से पार्इ जाती हैं। पदमावत में नायिका-विरह भी दो रूपों का है। एक तो

पदमावती का विरह, दूसरा नागमती का। पतिनयाँ दोनों हैं, किन्तु विरह की

सिथतियाँ दी हैं। विरह के चार प्रकार हैं-पूर्वराग, मान, प्रवास तथा करुण।

पदमावती में विरह की चारों सिथतियाँ मिलती हैं।


पूर्वराग-पदमावती

की बालावस्था में काम की ऐसी सिथति बतार्इ गर्इ है जिसमें वह काम के कारण

ही पीडि़त दिखार्इ पड़ती है। पदमावती हीरामन से कहती है-


जीवन मोर भएउ जस गंगा। देह देह हम लाग अनंगा।।


हीरामन

उसे सान्त्वना देता है और उसके योग्य वर खोजने का विश्वास भी देता है।

विवाह से पूर्व पदमावती का जो वियोग प्रस्तुत किया गया है वह पूर्वराग ही

है। उसे नींद नहीं आती, सेज उसे काटती और चाँद उसे जलता है। रात कटती नहीं,

वह बीन बजाती है कि रात कटे, किन्तु बीन को सुनकर चन्द्र का वाहन हिरन रुक

जाता है। तब वह सिंह का चित्रा बनाती है और हिरन डर कर भागता है-


नींद न परै रैनि जा आवा। सेज केवांछ जानु कोइ लावा।


दहै चांद औ चन्दन चोरू। दगध करे तन विरह गम्भीरू।।


गहै बीन मवु+ रैनि बिहार्इ। ससि वाहन तब रहै ओनार्इ।


पुनि धनि सिंह उरेहै लागै। ऐसी विधा रैनि सब जामै।।


मान-मान पदमावती और नागमती दोनों करती हैं। पहले नागमती मान करती है। जब चित्तौड़ आने पर राज उसके पास जाता है तो वह कहती है-


तू जोगी होइगााबैरागी। हौं जरि भर्इ छार तोहि लागो।


काह हंससि तू मोसों, किए जो और सों नेह।


तेहि मुख चमवै+ बीजुरी, मोहिं मुख बरसै मेह।।


पदमावती

को इंगित करके वह कहती है कि तुम तो और नारी से प्रम करने का कारण प्रसन्न

हो और मरने नेत्राा में आंसू की झड़ी लगी है। इस प्रकार उनका मान बड़ा ही

स्वाभाविक है। राजा इस बात को जानता था। इसीलिए चित्तौड़ लौटने पर प्रथम

रात्रि को उसके पास गया। राजा ने उसे मनाया भी। उसने नामगती को गौरव दिया-


नागमती तू पहिलि बियाही। कान्ह पिरीति डही जस राही।


भलेहि सेत गंगा जल डीठा। जउन जा स्यम, नीर अति मीठा।।


राजा

रतनसेन नागमती को ज्येष्ठ कहता है। श्वेत गंगा से तात्पर्य पदमावती और

श्याम यमुना से तात्पर्य नागमती है। उसे मीठा कहकर उसकी मनुहार करता है और

अन्त में कवि कहता है कि-


कंठ लाइ वै+ नारि मनाइ। जरी जो बेली सीचि पलुहार्इ।।


विरह

से जी बेलि नागमती को राजा ने फिर से पल्लवित-ह£षत कर दिया। प्रात:काल जब

राजा पदमावती के पास जाताा है तो उसे भी मानवती पाता है। यह बिल्वु+ल नवीना

थी। वह सारी रात तारे गिन बिताती रही। राजा को देखते ही वह रो पड़ी। उसने

मान के भाव से कहा कि मुझे छोड़कर तुम तो सूखी हुर्इ बेलि (नागमती) को

सींचने लगे और मुझे वु+एँ में डाल दिया-


हौं के नेहु आनि वुं+व मैली। सींचै लाग झूरानी वेली।


उसके ये वचन सुनकरा राजा उसे भी मननने लगा। उसने कहा कि-तू तो प्राण है और प्राण से प्यारा कोर्इ हो नहीं सकता-


पदमावति तू जीव पराना। जियं ते जगत पियार न आना।।


इस प्रकार राजा मीठे वचनों से पदमावती को भी प्रसन्न करता है।


प्रवास-राजा रतनेसेन के बन्दी होने पर पदमावती और नागमती दोनों ही विलाप करती है-


नैन सीम मौतिन्ह भरि आँसू। टुटि टुटि करै तन नासू।।


दोनों

रानियाँ प्रिय-वियोग में सब प्रकार से कष्ट झेलती हैं। जब वु+मुदिनी नाम

की वु+टनी आती है और पदमावती से कहती है कि वह भी सिंहल द्वीप की है, तो

पदमावती रो पड़ती है। वह कहती है-


अब एक जीवन वारि जो भरना। भएउ पहार जनम दुख भरना।।


करुण

विप्रलल्भ-जब राजा रतनसे की मृत्यु हो जाती है तब दोनों रानियाँ सती होने

की तैयारी कर देती हैं। प्रिय के मरने पर मृत्यु का आवाहन करने क कारण

करुणा की सिथति है। फिर भी है श्रंृगार के अन्तर्गत, अत: दोनों रानियाँ न

बिलखती हैं और न रुदन करती हैं। उनमें उत्साह है। वे कहती हैं-


जियत जो जरहि कंत की आसा। मुएं रहसि बैठहि एक पासा।।


और मरते समय उन्होंने अंग मोड़ा भी नहीं-


लागी कंठ आगि दे होरी। छार भर्इ जरि अंग न मोरी।।


नागमती

का विरह-नागमती का वरिह अपने-आप में बेजोड़ है। विरहावस्था में नागमती में

रानात्व का भाव न होकर साधारण ग्रामीण नारी का स्वरूप मिलता हैं। वर्षा

में वह चिन्ता करती है कि मेरा घर अब कौन छाएगा?


पुख नक्षत्रा सिर उ+पर आवा। हौं बिनु नाह मंदिर को छावा।।


कहाँ

राजरानी और कहाँ घर छाने की चिन्ता! नागमती सारस जोड़ी के बिछुड़ने का दुख

मानती है। सारस जोड़ी में एक के बिछुड़ने पर दूसरा मर जाता है। नागमती

मृत्यु सरीखा दर्द महसूस करती है-


सारस जोरी किमि हरी, मारि भाउ किन खगिग।


झुरि झुरि पीजरि धनि मुर्इ, विरह के लागी अगिग।।


विरह के कारण वह मृतप्राय हो जाती हैं उसकी साँस रुकने लगती है-


खिन एक आव मेट महं स्वांसां। खिनहिं जाइ सब होइ निरासा।।


नागमती

के विरह-वर्णन से बारहमासा का वर्णन है। प्रत्येक मास के साथ उसकी दशा

दयनीय हो जाती है। प्रवृ+ति के बदलते रूप के साथ ही दु:ख के नाना रूपों औ

कारणों की उदभावना कवि करता जाता है-


चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा। साजा विरह दुन्द दल बाजा।


चमकी बीजु धन गरति तरासा। विरह काल होइ जीउ गरासा।।


चारों ओर पानी ही पानी दिखार्इ पड़ता है। उसे लगता है, सागर लहरा रहा हैं वह डूब रही है। प्रिय के अभाव में कौन उस उबारे?


शरद ऋतु का चन्द्र नागती को जलता है। वह कहती है-


तन मन सेज करै अगिडाहु। सब कहँ चाँद, मोहि होइ राहू।।


शीत ऋतु अधिक दग्धकारी है उस समय शरीर धीरे-धीरे सुलगता है-


सियरि अगिनि विरह हिय जारा सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।।


विरह उसे जीते-जी मार रहा है और यदि यह मर जाय तब भी नहीं छोड़ता-


विरह सचान चंवै+ तन चांड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहीं छांड़ा।।


बारहमास में विरहिणी का उ+हात्मक वर्णन भी मिलता है-


आइ जो साीर विरह की, आगि उठील तेहि हांक।


हंस जो रहा सरीर महं पांख जारे तन थाक।।


रकत ढरा आँसू गरा, हाड़ भए सब संख।


घनि सारस होइ ररि मुर्इ, आइ समेटहु पंख।।


यह तन जारौं छार कै, कहों कि पवन उड़ाव।


मवु+ तेहि मारग होइ परौं, कंत घरै जह पांव।।


पिय सौ कहैउ संदेसरा, ऐ भवरा ऐ काग।


सौ धनि बिरहै जरि मुर्इ, तेहिक धुंवा हम लाग।।


इस

प्रकार की उ+हात्मक अतिशयोकितयाँ चहाँ देखने को मिलती हैं यह फारसी-पद्धति

की विशेषता है। जायसी फारसी काव्य-पद्धति के ममज्ञ थे, अत: उन्होंने इस

प्रकार का वर्णन किया है। प्राय: इस पद्धति में उपहासास्पद्ध वर्णन हो जाया

करता है। जायसी के उपयर्ुक्त वणनों में उपहास का अवसर नहीं है, इससे

विरहिणी की असह्रा वेदना की व्यंजना प्रत्यक्ष होती है।


निष्कर्ष

यह कि पदमावत में विरह बड़ा ही व्यापक है। उसमें रतनसेन के विरह में

सूफीमत का सैद्धानितक विरह है, पदमावती के विरह में शास्त्राीय विहर के

पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण की सिथतियाँ मिलती हैं। नागमती के विरह में

लोकायन का बारहमामा तथा फारसी-पद्धति की उ+हा के दर्शन होते हैं। सर्वत्रा

वेदना की मर्मान्तक अवस्थाए देखने को मिलती है। विरह का विस्तार तथा विरह

की गहराइयों को दृषिट में रखते हुए पदमावत का विरह-निरूपण हिन्दी साहित्य

में उपूर्व और अनुपत है। इसमें भारतीय, फारसी और लोक-भावना की त्रिवेणी

प्रवहमान है।


वीर रस


वीर

रस प्रमुखतया तीन प्रकार का माना जाता है-युद्धवीर, दानवी और दयावीर।

युद्धवीर के अवसर पÉावत में है। आरम्भ में शेरशाह के वीरत्व का वर्णन कवि

ने किया है। शेरशाह वीर था उसने अपनी तलवार के बल पर समस्त संसार को वश में

कर रखा था। उसकी सेना का वर्णन कवि ने बड़े अत्युकितपूर्ण ढंग से किया है-


हय गय सेन चलइ जब पूरी। परबत टूटि उड़हि होइ धूरी।


रैनु रहनि होइ रबिहि गरासा। मानुस पंखि होंहि फिरि बासा।


उ+पर होइ छावइ महि मंडा। षट खंड धरति अष्ट ब्रह्रांडा।।


डोलइ गगन इन्द्र डरि कांपा। वासुकि जाइ पतारहिं चांपा।।


जो भट नयो न काउ+, चलत होर्इ सत चूर।


जबहिं चढ़इ पुहमीपति, सेरसाह जगसूर।।1


उपयर्ुक्त

वर्णन में वीर रस का निरूपण नहीं है। फिर भी इसमें शेरशाह के वीरत्व की

व्यंजना की गर्र्इ है। शेरशाह के समझा कोर्इ ठहर नहीं पाता। उसकी सेना बहुत

विशाल हैं उसके चलने पर तीनों लोक आक्रांत हो उठते हैं। सेना इतनी विशाल

है कि घोड़ों के चलने से पृथ्वी की सतह कटकर उ+पर छा जाती है। इस प्रकार

साख खंड वाली पृथ्वी छह खंडों की और सात खंडों वाला आकाश आठ खंडों का हो

जाता है। कवि का प्रतिपाध शेरशाह की युद्ध वीरता का निरूपण है। पर इसमें

वीररस का वास्तविक परिपाक नहीं है, वर्णन वीररसात्मक मात्रा है।


राजा

गढ़छेका खंड में वीररस का परिपाक मिलता है। योगियों ने राज के सिंहल गढ़

को घेर लिया है। राजा के संदेशवाहक आकर कहते हैं-जोगियो, तुम किस भ्रम में

हो, सिंहल के हाथी छूटेंगे तो तुम्हें वु+चल कर चकनाचूर कर देंगे-


जो यह बात हो तहं चली। छूटहिं हसित अबहिं सिंहली।


औ छूटहिं तहं वज्र के जोटा। बिसरे मुगुति होउ तुम रोटा।।2


यह

बात स्पष्ट भी थी। कहाँ राजा की विशावाहिनी और कहाँ योगियों की जमात!

किन्तु राज भयभीत नहीं होता। उसे गुरु का भरोसा है। वह कहता है-


तुम्हरे जो हैं सिंहल हाथा। मोरे हसित गुरू बड़ साथी।


जोगी

सोत्साह वहाँ डटे रहते हैं। रतनसे सेंध लगाता है। उसे शूली का आज्ञा होती

है किन्तु उसका उत्साह बढ़ता ही जाता हे। वह तो मृत्यु का आवाहन सहर्ष करता

है। शूली देखकर मारे विàलता के रतनसेन कहता है-


आजु अवधि सिर पहुँची, वै+ सोव चलेउ मुख रात।


वेगि होहु मोहिं मारहु, का पूछहु अब बात।।3


भरपूर उत्साह होने के कारण यहाँ पर वीर रस का परिपाक है।


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1. पÉावत, पद संए 1-7


2. वही, 2204


3. वही, 261


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अलाउíीन

अब अपना दूत रतनसेन के पास भेजता है तब उसके संदेश को सुनकर रतनसेन का

वीरत्व जाग उठता है। वह डरता नहीं। कहता है, माना कि शाह बहुत शकितशाली है

और महान है किन्तु जब वह यहाँ पर चलेगा तो मैं उसका सामना करूँगाा, स्र्वग

तक चढ़ूँगा और पाताल में गिरूँगा-


का मोहि ते अस सूर अंगारा। चढ़ौ समरग, औ परौं पतारा।।


पÉावत में युद्ध-वर्णन बहुत ही भयंकर और विस्तृत है-


कोपि जुझार दुहँ दिसि मेले। और हस्ती हसितन्ह कहं पेले।।


आंवु+स चमकि बीज अस जाहीं। गरजहिं हसित मेघ घहराहीं।।1


घमासान

युद्ध का वर्णन है। हाथी, घोड़े, पैदल सबके-सब बड.े जोर-शोर से भिड़ते

हैं। शस्त्राों की कटाकट, भाले, बरछी और तीरों का पें+का जाना चारण-कालीन

युद्धों की याद कराते हैं। बडे़-बड़े गोले छोड़े गये। किला एक बार तो टूट

ही गया-


एक बार सब छूअहिं गोला। गरजै गगन धरणि सब डोला।


पू+टै कोट पू+ट जस सीसा। और दरहिं बुरुज परहिं कोसीसा।।2


किन्तु

वीर रतनसेन घबराता नहीं। रात्रि में सारे किले की मरम्मत करवा कर फिर

दूसरे दिन लड़ने लगता है। वीर के उत्साह के सम्मुख अलाउíीन की वु+छ न चली।

आठ वर्ष तक सुलतान अलाउíीन चित्तौड़ को घेरे रहा। शाह के आने पर जो वृक्ष

लगाए गए थे, वे फले और झड़ भी गये।


आठ बारिस गढ़ छेका अहा। धनि सुलतान कि राज महा।।


आइ साहि अंमराउ जो लाए। फरे भरे पै गढ़ नहिं पाए।।3


अन्त में अलाउíीन को संधि के लिए विवश होना पड़ा।


गोरा-बादल

युद्ध खण्ड में वीर रस का और भी चमत्कारी वर्णन है। जब गोरा-बादल राज

रतनसेन को छुड़ाकर चले और शाह अलाउíीन की विशाल वाहिनी उनके पीछे दौड़ी, तो

वीर बादल कहता है-हे गोरा, राजा की रक्षा करता हुआ चल और मैं अकेला अब

शत्राु-वाहिनी से भिडूँगा। इस समय उसके दर्प और वाक्यों में वीररस साकार हो

जाता है-


तू अब राजहिं लै चलु गोरां। हौं अब उलटि जूरौं भा जोरा।।


दहुँ चौयान तुरुक कस खेला। होइ खेलार रन जुरौं अकेला।।


तब पावों बादिल अस नाउं+। जीति मैदान ओह लै जाउं+।।


आजु खरग चौगान गहि, करौ साीस रन गोइ।


खेलौ सांैह साहि सौं, हाल जगत पहं होइ।।4


यह

जानते हुए भी कि वह युद्ध में काम आएगा, वह विàल है। वह एक अपूर्व युद्ध

प्रस्तुत करने की अभिलाषा रखता हैं जितनी ही विषम उसकी परिसिथति है, उतना

ही उíाम उमंगयुक्त उसका उत्साह है।


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1. पÉावत पद संख्या 516


2. वही 525


3. वही 532।1-2


4. वही 626


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बलिदान होने वाले जोश ने

उसे दुर्दान्त बना दिया है। किन्तु जौजवान बादल की दान सुनकर गोरा कहता

है-नहीं, तू ही राजा को लेकर जाना। मैंने तो अपनी आयु भोग ली है। मेरा ही

मरना ठीक है। उसके वचन सुनने लायक हैं-


मै अब आउ मेरी औ भूंजी। का पछिताउं आउ जो पूजी।


बहुतंह मारि मरौं जो जूझी। ता कहं जनि रोवहु मन बूझी।।1


युद्ध

भी बड़ा रोमोंचक होता है। शाह की अपार सेना गोरा पर टूट पड़ती है। गोरा के

साथी इस प्रकार मरने लगे जैसे अगिन में पतंगे, पर क्या मजाल कि गोरा की

बाग मुडे़-


लागे मरै गोरा के आगे। बाग न मुरै, घाव मुख लागे।


जैस पतंग आगि धंसि लेही। एक मूएं दोसर जिउ देहीं।।2


जब वह अकेला हो जाता है तब गरज कर कहता है-मत सझो कि गोरा अकेला है। सिंह की मूंछ को कौन पकडे़गा? जीते-जी वह पीठ नही देगा-


जनि जानहु गोरा सो अकेला। सिंघ की मोंछ हाथ को मेला।


सिंघ जियत नहिं आपु धरावा। मुएं पर कोर्इ घिरायावा।।3


उसने कहा-तुमने राजा को बांधा था। उसका कलंक मेरे शरीर पर है। जब तक अपने खून से उस दशग को न धो लूंगा, मान नहीं सकता-


रतनसेन तुम्ह बाँधा, भसि गोरा के गात।


जब लगि रुधिर न धोवों, तब लगि होउं न रान।।4


गोरा

का युद्ध भी अत्यन्त चमत्कारी हैं अनेक लोगों से घिर जाने पर भी वह लड़ता

रहा। सरजा ने एक ऐसी सांग मारी कि वह गोरा के पेट में घुस गर्इ। गोरा ने

ताकत से सांग खींच ली। ऐसा करने से उसकी सारी आँते बाहर आ गइ±, फिर भी वह

युद्ध करता रहा। उसे देखकर चारण बोल उठा-गोरा तू धन्य है। तू रण में इतना

मस्त है कि आंतों को वं+धे पर समेट कर घोड़े को एड़ लगा रहा है-


भाट कहा धनि गोरा, तू भोरा रन राउ।


आंति सैति कर कांधे, तुरै देत है पाउ।।5


युद्धवीरों के वर्णन लाखों हैं किन्तु गोरा का यह वीरत्व कदाचित ही कहीं देखने को मिले। जायसी की लेखनी अप्रतिम है।


तात्पर्य

यह है कि जिस प्रकार जायसी संयोग और वियोग श्रंृगार चित्राण में अद्वितीय

हैं, उसी प्रकार वीर रस के चित्राण में भी उनका कोर्इ जवाब नहीं है। वीर रस

का श्रेष्ठ परिपाक वहीं होता है जहाँ शत्राु अपेक्षावृ+त बहुत अधिक बरिबंड

होता है। गोरा का युद्ध-वीरत्व अपने ढंग का एक ही है।


----------------------------------


1. पÉावत पद सं. 627।4-5


2. वही 632।3-4


3. वही 635।3-5


4. वही 634


5. वही 635


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करूण रस


विरह

का काव्य करुण भाव के निकट ही होता है। पदमावत में करुण की अन्त:सलिला

आदि से अन्त तक बहती है और अन्त में पू+ट पड़ती है। रतनसेन का मरना और

दोनों रानियो का सती होना ही कथावस्तु का कार्य है, अत: अन्त में तो करूण

ही प्रधान बन जाता है। यह बात और है कि अèयात्मवादी सन्त जायसी इस दुखान्त

को सहज वैराग्य या समरसता के आन्नद में परिणत कर देते हैं।


जब

रतनसेन जोगी बनकर चल निकलता है तब चित्तौड़ में करुणा का साम्राज्य छा

छाता है। रानियाँ, माता-पिता, परिजन सब इकटठे रोते है, हाहाकार मच जाता है,

नानियों द्वारा नौ मन मोती और दस मन काँच की चूडि़याँ तोड़ कर ढेर कर दी

गइ±-


रोवें मता न बहुरा वारा। रतन चला जग मा अधियारा।।


रोवहिं रानी तजहिं पराना। फोरहिं वलय, करहिं खरिहाना।।


चूरहिं गिउ अभरन औ हारू। अब का कहं हम करब सिंगारू।।


पू+टे नौ मन मोती, पू+टे दस मन कांच।


लीन्ह समेटि भोवारिनह, होइगाा दुख का नाच।।1


इसी

प्रकार जब सिंहल से पदमावती का विदार्इ होती है तब भी करुण रस आप्लावित हो

जाता है। माता-पिता-भार्इ आदि का रोना, सखियों का भेंटना आदि करुण रस से

भरपूर हैं-


वनि रोवत सब रावहिं सखी। हम तुम्ह देखि आपु कहं भूखी।


चलने कहं हम औतरी, चलन सिखा हम आइ।


अब सो चलन चलवों, को राखै गहि पाइ।।2


ग्रन्थ का अन्त करुण प्रधान है। राजा मारा जाता है। उसके कोर्इ सन्ता भी नहीं है। वह गढ़ बादल को सौंप जाता हैं-


गढ़ सौंपा आदिल कहं, गए निकसि वसुदेउ।


छांड़ी लंक भभीखन, जहि भावै सो लेउ।।3


जिस

प्रकार लंका का रावण मरा तो उसका अपना कोर्इ नहीं, विभीषण को लंका मिली।

उसी प्रकार चित्तौड़ के राजा के मरने पर कवि लिखता है, जेहि भावै सो लेउ।

वै+सा निराशाजनक अन्त है? कहाँ चित्तौड़ का राजा, जिस राजा ने सिंहल की

पदिमनी पार्इ तथा नागमती भी जिसकी रानी थी उसके मरने पर उसका कोर्इ नहीं जो

इस राज्य को उत्तराधिकार में संभलता है।


दोनों महारानियाँ सती होने की तैयारी करती है। निराशा की सिथति को प्रस्तुत करते हुए कवि कहता है-


सूरज छपा रैनि होइ गर्इ। पूनिउ ससि सो अमावस भर्इ।।4


चित्तौड़ में अंधेरा ही अंधेरा रह गया। रानियाँ महाप्रयाण की तैयारी में है-


---------------------------------------


1. पदमावत, पद संए 133


2. वही, 380


3. वही, 647


4. वही, 648।2


---------------------------------------


छोरे केस मोति लर छूटे। मानहुं रैनि रखता सब टूटे।


सेदुर परा जो सीस उघारी। अभिलाषा जनु जग अंधियारी।।1


रानियाँ जलने को प्रस्तुत है जैसे पतंगे आग में वू+दने के लिए विàल होते हैं-


दीपक प्रीति पतंग जेउ, जनम निबाह करेउं।


नेवछावरि चहुं पास होइ, कंठ लागि जिउ देउं।।2


मृत

पति के कंठ से लगकर जान देना उनका लक्ष्य है। अत: इस करुण-प्रधान अवसर पर

उनमें परिवर्तन आता है। वे न रोती हैं, न पीटती हैं। वे सानन्द उस विषम

परिसिथति का वरण करती हैं। सिथति है तो सर्वनाश और महा अंधकार की-


आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूडि़।


आजु वांचि जिय दीजिउ, आजु आगि हम जूडि़।।3


इस

प्रकार करुणावस्था में समरसता की भावना प्रस्तुत की गर्इ है। वास्तव में

सन्त की दृषिट में मृत्यु कोर्इ भयावह वस्तु नहीं, जो अनिवार्य है उसका

विषाद ही क्या है? इसीलिए दु:खांत में भी प्रशांत भावना प्रस्तुत है।


अलंकार


वर्ण-योजना

के सन्दर्भ में उ+पर लिखा जा चुका है कि पदमावत में अनुप्रास अलंकार की

ओर कवि की चेष्टा नहीं है, फिर भी उसमें अनुप्रास की उपलबिध सर्वत्रा

प्राप्त हो जाती है।


अनुप्रास


अलख अरूप अवरन सो करता। (7)


वु+ह वु+हू कोइल करि राखा। (29)


पिउ पिउ लागै करै पपीहा। (29)


भर भादौ दूभर अति भारी। (346)


यमक


जाति सूर और खांडइ सूरा। (13)


रतनहिं रतनहिं एकौ भावा।


गर्इ सो पूजि मन पूजि न आसा।


श्लेष


श्लेष

जायसी का प्रिय अलंकार है। श्लेष कवि का कवित्व भी मानते थे। इसलिए

पदमावत में श्लेष के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं-



हँसता सुआ पहं आइ सोनारी। दीन्ह कसौटी और वनवारी।।1


सोनारी¾वह स्त्राी, सोनारिन


जेहि निद कहै निति डरौं, रैनि छपाधौ सूर।


लैचह दीन्ह वं+वल कहं, मो कह होइ मंजूर।।1


वं+वल¾कमस, पदमावती (पदम)


कनक दुआदस बानि होइ, चह सोहाग वह मांग।3


सोहाग¾सोहागा, सौभाग्य


मांग¾मांगना, सिर की माँग


रतन चला घर भा अंधियारा


रतन¾रतनसेन, रत्न


धनि औ पिउ महं सीउ सुहागा।


सुहागा¾सुहागा, सौभाग्य


----------------------------------------


1. पदमावत, पद संए 648।3-4


2. वही 648


3. वही 649


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शब्द-क्रीड़ा


शब्दालंकारों

में शब्द-क्रीड़ा सम्बन्धी एक अलंकार कवि ने प्रयोग किया है जिसे फारसी

में तजनीस कहते हैं। वह हिन्दी में पनरुवित से मिलता है किन्तु पुनरुकित

में दोष होता है। यहाँ पुनरुकित तो होती है, पर उस पुनरुकित में सौन्दर्य

होता है। जैसे-


घरी सौ बैठि गनै धरिआरी। पहर पहर सो आपनि बारी।।


जबहिं घरी पूजी वह मारा। घरी घरी घरिआर पुकारा।।


घरी जो भरे। घटै तुम आउ+। का निचिंत सोवहिं रे बटाउ+।।


मुहमद जीवन जल भरन, रहेंट घरी की रीति।


घरी सो आइ± जयों भरौ, ढरी जनम गा बीति।।


यहाँ घरी शब्द क्रीड़ा प्रस्तुत की गर्इ है।


अर्थालंकार


अर्थालंकार-सादृष्यमूलक

अलंकार जायसी के प्रिय अलंकार हैं। उपमा, रूपक, उत्पे्रक्षा, अपद्दुति,

प्रताप और व्यतिरेक इन्हें बहुत ही प्रिय हैं। रूप-वर्णन में इन अलंकारों

की छटा देखते बनती है।


उपमा- मानसरोदक देखिउ काहा। भरा समुद अस अति अवगााहा।।


सुभर समुद अस नैन दोउ, मानिक भरे तरंग।


आवत तीर जाहिं फिरि, काल भंवर तेन्ह संग।।


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1. पदमावत, पद संए 83।5


2. वही 85


3. वही 100


4. वही 43


--------------------------------------


सौह निरखि नहिं जाइ निहारी नैनन्ह आवै नीर।।


रूपक- मुहमद जीवन जल भरन, रहट घरी की रीति।


घरी सो आर्इ ज्यौं भरै, ढरी जनम गाा बीति।।


जायसी

ने पदमावत में सांग रूपकी भ अनेक प्रस्तुत कियो हैं। उपयर्ुक्त उदाहरणों

में सांग रूपक मिलता है। जायसाी के सांग रूपकी एक अलग विशेषता है उसमें

कहीं-कहीं दोहरे रूपक मिलते हैं। जैसे-


गगन सरोवर, ससि कंवल, वु+मुद तरार्इ पास।


तू रवि उवा भंवर होइ, पवन मिला तेहि वास।।1


यहाँ

तो गगन रूपी सरोवर में शशि (पदमावती) कमल है। रतनसेन रवि और भैंर बनकर आया

है। इस प्रकार शशि के लिए रवि और कमल के लिए भौंर बनकर रतनसेन आया है।

इसलिए एक कही उपमेंय क्े दौ उपमान साथ-साथ आ रहें हैं।


तात्पर्य

यह कि जायसी रूपक-रचना में सिद्ध कवि थे। उन्होंने सामान्य निरंग और सांग

रूपक नहीं लिखे हैं। यह बात अवश्य है कि सूरदास और तुलसीदास जैसे बहुत बड़े

सांग रूपक इन्होंने नहीं प्रस्तुत किये हैं। फिर भी इनके सांग रूपकों की

अपनी विशेषताएं है। इनके रूपकों में अर्थ-वैभव अधिक है उपमानों की सरणि

मात्रा नहीं बिठार्इ गर्इ है।


उत्प्रेक्षा-लगता

है जायसी को उत्प्र्रेक्षा सबसे अधिक प्रिय था। सहज कवि होने के कारण

कल्पना की उड़ान उन्होंने बहुत दिखार्इ अत: उत्पे्रक्षाएं सर्वाधिक मिलती

हैं। उत्प्रेक्षा के तीन भेद मिलते हैं-


वस्तूत्पे्रक्षा-


कंचन रेख कसौटी कसी। जनु घन मह दामिनि परगसी।।


बरुनी का वरनौ इमि बनी। साधे बान जान दुइ अनी।।


जुरी राम रान की सेना। बीच समुंद भए दुइ नैना।।


छोरे केस मोति लर टूटी। जानहु रैनि नखत सब टूटी।।


उपयर्ुक्त पंकितयों में एक वस्तु के लिए दूसरी वस्तु के रूप की कमनीय कल्पना प्रस्तुत है। इससे अभिव्यकित में सौन्दर्य आ जाता है।


फलोत्पे्रक्षा-


सरवर रूप विमोहा, हिए हिलीरह लेह।


पाइ छुउइ मवु+, एहि मिस लहरै लेइ।।


पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। मवु+ हिरकाइ लेह हम पासा।।


किसी

न किसी फल की कामना रखकर उत्पे्रक्षा की गर्इ है। इससे कल्पना में तीव्रता

आती हैं उ+पर के उदाहरण में है कि पू+ल केवल इस कामना से फलते हैं कि

कदाचित पदमावती उसे अपनी नाक के पास ले ले।


हेतूत्प्रेक्षा-अहेतु

में हेतु की संभावना में हेतूत्पे्रक्षा होती है। प्रवृ+त वस्तु में किसी

कारण की जो सम्भावना की जाती है उसमें अभिव्यकित बड़ी कमनीय हो जाती है।

जैसे-


--------------------------------


1. पदमावत, पद सं. 160


--------------------------------


विहँसत हँसत दसन तस चमके, पाहन उटे झरकिक।


दारिवं सहि जो न वै+ सका, फठेउ हिया दरकिक।।


हीरे

(पत्थर) अपने आप चमकते हैं किनतु कवि कल्पना कर रहा है कि इनकी चमक का

कारण है उसकी हँसी। इसी प्रकार दाडि़म के âदय के फटने का कारण है उसके

दांतों की समता न कर पाना। इस प्रकार हेतु की सम्भावना ही पंकित को मनारम

करती है।


प्रतीप-उपमेंय

की समता में उपमान जब सर्वथा पराजित होता है तब प्रतीप अलंकार होता है।

जायसी ने इस अलंकार की भी बहुत उपयोग किया है क्योंकि ऐसा करने से वण्र्य

का सौन्दर्य बहुत बढ़ जाता है। जैसे-


सहस करां जो सुरुज दिखार्इ। देखि ललाट सोइ छपि जाइ±।।


नासिका देखि लजानेउ सूझा। सूक आइ बेसरि होइ उआ।।


सिंध न जीता लंक सरि। हारि जीन्ह वनवास।।


सूर्य

ललाट को देखकर छिप गया। नासिका को देखकर तोता शरमा गया औ कटि की सूक्ष्मता

देखकर सिंह जंगल को भाग गया। इस प्रकार उपमान का पराजित होना प्रतीप

अलंकार प्रस्तुत करता है। उससे उपमेय की सुन्दरता दिखार्इ जाती है। प्रतीप

के भी सैकड़ों अनुपम उदाहरण पदमावत में प्राप्त होते है।


व्यतिरेक-प्रतीप

का ही अगि्रम चरण व्यतिरेक होता है। प्रतीप में उपमेय का बड़प्पन मात्रा

दिखाया जाता है किन्तु व्यतिरेक में इस बड़प्पन का कारण भी प्रस्तुत किया

जाता है। ऐसा करने से अभिव्यकित में विशेष चटकीलापन आ जाता है। उदाहरण-


का सरवरि तेहि देउ मयंवू+। चांद कलंकी वह निकलंवू+।।


स्पष्ट है चन्द्रमा उसके मुख की समता वै+से करेगा क्योंकि चन्द्रमा कलंकी है और पदमावती का मुख निष्कलंक है।


इसी प्रकार-


नासिक खरग देउं केहि जोगू। खरग खीन ओहि बदन सेंजोगू।।


जानहु रक्त हथौरी बूड़ी। रवि परभात तपत, वह जूड़ी।।


भ्रांतिमान-उत्पे्रक्षा का परिणाम ऐसा प्रस्तुत किया जाता है किसी को वास्तविक भ्रम हो जाता है जैसे-


शशि छपि गै दिनहि भानु वै+ दसा। लै निसि नखत चांद परगसा।।


भूलि चकोर दिषिट तहं लावा। मेघ घटा पै मंह चांद देखावा।।


यहाँ

पदमावत का मुख-चन्द्र प्रकाशित है, सूर्य प्रकाशहीन हो गया है। चकोर

पदमावती के मुख को सचमुच चाँद समझकर उस पर दृषिट लगाने लगा है।


इसी

प्रकार जब पदमावती ने सरोवर में प्रवेश किया तो कवि ने लिखा है कि सखियों

के साथ पदमावती इस प्रकार लग रही है मानो चाँद नहाइ पैठ लए तारा इस

उत्पे्रक्षा का परिणाम यह हुआ कि-


चकर्इ बिछुरि पुकारै, कहा मिलौ हो नाँह।


एक चा।द निसि सरग महं, दिन दोसर जल माँह।।


चकर्इ समझती है कि एक चाँद रात में आकाश में रहता है, दूसरा जल में ही आ गया है।


रूपकातिशयोकित-केवल

उपमान-कथन से उपमेय का परिणाम होता है। रूपक में उपमेंय और उपमान दोनों

होते हैं किन्तु यहाँ उपमेय का कथन नहीं होता। उपमेय के कथन के अभाव में

उकित में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। पदमावत में यह अलंकार भी अनेक स्थलों

पर प्राप्त होता है। जैसे-


खरग धनुक औ चक वान दह, जग मारन तिन्ह जाउं।


सुनिवै+ परा मुरछि वै+ राजा। मो कहं भए एक ठाउं।।


यहाँ खडग रूपी नासिका, धनुष रूपी भैहें और चक्रबाण रूपी कटाक्षों का उल्लेख है। उपमेंय के अभाव में उपमानों से ही काम चलाया गया है।


भंवर छपान हंस परगटा।


यहाँ यौवन के वानक काले बाल के लिए भंवर और सपे+द बालों के लिए हंस का प्रयोग है।


सम्बन्धातिशयोकित-फारसी

कवि बढ़ा-चढ़ाकर लिखने में अधिक विश्वास रखते हैं। इसीलिए पÉावत में भी

सम्बन्ध से असम्बन्ध-सम्बन्धी अतिशयोकितयाँ भरी पड़ी है। वु+छ उदाहरण इस

प्रकार हैं। शेरशाह की सेना के विषय में लिखा है-


रेनु रयनि होर्इ रविहिं गरासा। मानुष पंखि लैहिं फिर वासा।।


उ+पर होइ छावइ महि मंडा। षट खंड धरति सप्त ब्रह्रांडा।।


डोलहि गगन इन्द्र उरि कांपा। वासुकि जाइ पसारहिं चांपा।।


शेरशाह के न्याय के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहा है-


परी नाथ कोइ छुउइ न पारा। मारग मानुष सोन उछारा।।


गउव सिंघ रैगहिं इक वाटा। दुअउ पानि पिअहिं एक घाटा।।


अत्युकित-अत्युकित

और सम्बन्धातिश्येकित में अन्तर होता है। सम्बन्धतिशयोकित में बढ़ा-चढ़ाकर

कहा जाता है उसमें वु+छ सम्बन्ध-असम्बन्ध का कम होता है किन्तु अत्युकित

में ऐसा नहीं होता। उसमें सम्भावना से परे वर्णन होता है। नागमती के

विरह-प्रसंग में कहा है-


पिउ सौ कहंउ संदेसरा, है भौंरा है काग।


सौ धनि बिरहै जरि मुर्इ, तैहिक धुंवा हम लाग।


जेहि पंखी के नियर होइ, कहै विरह की बात।


सोइ पंख जाइ लरि, तरिवर हांहि निपात।।


इन असम्भव अत्युकितयों को उ+हा कहा जाता है। जायसी ने फारसी के काव्य से इन उ+हाओं को ग्रहण किया होगा।


तदगुण-एक

के प्रभाव से दूसरे में रंग का परिवर्तन होना तदगुण अलंकार होता है।

पÉावत के निम्नलिखित प्रसिद्ध पद में तदगुण पाया जात है-


नयन जो देख कंवल भे, निमर नीर सरीर।


हंसल जो देखे हंस भे, दसन जोति लगन हीर।।


विहँसत, हँसन, दमन तस चमके, पाहन उठे भरकिक।



तदगुण का अपरिमित सौन्दर्य निम्नलिखित पंकितयों में है-


दमक रंग भए हाथ मजीठी। मुवु+ता लेउं पै घुंघची दीठी।


पदमावती

कहती है कि रतनसेन के हाथ माणिक की भांति लाल हैं। जब में अपना हाथ उनके

हाथ से मिलताी हूँ तो मेरे हाथ मजीठ की भाँति लाल हो जाते हैं। फिर जब में

अपनी हथेली पर मोती लेती हूँ तो हथेली के प्रभाव से मीती गुंजा का रूप धारण

करता है।


प्रत्यनीक-हेतुत्पे्रक्षा

की अतिरंजना में जब बदले की भावना काम करती है तब प्रत्यनोक अलंकार हो

जाता है। पÉावत में प्रत्यनीक के अनुपम उदाहरण मिलते हैं। जैसे-


बस लंक बरनै जग झीनी। तेहि तै अधिक लंक कह खीनी।


परिहरु ¯पअर भए तेहि वसा। लीन्है लंक लोगन्ह कहं डसा।।


अर्थात

ततैया या भिड़ की कटि बड़ी झीनी होती है, किन्तु वह भी पÉावती की क्षीण

कटि से अनादृत हुर्इ। इसीलिए ततैया पीला हो गया और इसी का बदला लेने के लिए

डंक मारकर लोगों को कष्ट देता है।


कटि के लिए ही उत्पे्रक्षा की इसी प्रकार है-


¯सहं न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह वनवासु।


तेहि रिसि रक्त पिअै मनर्इ कर, खाइ मारि वै+ मांसु।।


सिंह

मनुष्य का रक्त पीता और मांस खाता है। कारण यह है कि कटि की उपमा में वह

हारा है और इसीलिए वह पÉावती का बदला मनुष्य से चुकाता है।


समासोकित-पÉावत

में यह अलंकार सर्वाधिक है। कारण यह है कि पÉावत प्रतीक-काव्य है। कवि ने

लौकिक कथा के माध्यम से पारलौकिक प्रेम का निरूपण किया है। अप्रस्तुत अर्थ

के प्रमुख होने पर भी इसे अन्योकित नहीं कहा जा सकता। क्यांकि अन्याकित में

प्रस्तुत अर्थ होता ही नहीं। पÉावत में अप्रस्तुत आèयातिमक तात्पर्य तो

है, साथ ही लौकिक अर्थ भी विधमान रहता है। जहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत की

भी व्यंजना विधमान होती है, वहाँ समासोकित अलंकार होता है। अत: पदमावत के

पदों में समासोकित अलंकार ही माना जा सकता है। कवि को दोनों अर्थ-प्रस्तुत

और अप्रस्तुत उपसिथत करने हैं। उदाहरण-


आजुहि खेल बहुरि कत होर्इ। खेल गए कत खेले कोर्इ।


घनि सौ खेल खेलहिं रस पेमा। रौतार्र्इ औ वू+सल खेगा।।


स्पष्ट है, यहाँ पर मानसरोवर पर का खेल तथा तथा आध्यातिमक पे्रम दोनों ही प्रतिपाध हैं, अत: समासोकित है।


इसी प्रकार-


नवौ खण्ड नव पौरी, और तहं वज्त्रा केवार।


चारि बसेरे सौं चढ़ै, सत सौ चढै़ जो पार।।


नव पौरी पर दसवैं दुआरू। तेहि पर बाजि रहा परिभारू।।


दृष्टान्त-पÉावत

में दृष्टान्त अलंकार बहुत मिलता है। प्राय: सन्त कवियों ने इस अलंकार का

प्रयोग अèािक किया है। इस अलंकार में दो समान वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब

भाव का साम्य होता है। जैसे-


जायसी

ने आत्म-परिचय में अपने एक नेत्रा होने तथा उसके गौरव के सम्बन्ध में कर्इ

दृष्टान्त प्रस्तुत किये हैं-


दीन्ह कलंक कीन्ह उजियारा।


जग सूझा एकै नैनाहां।।


जो लहि अंबहिं डम्भ न होर्इ। तौ लहि सुगन्ध बसाइ न सोर्इ।।


कीन्ह समुद्र पानि औ खारा तो अति भएउ असूझ अपारा।।


जो सुमेरु तिरसूल विनासा। भा कंचनगिरि लाग अकासा।।


जौलहिुं धरी कलंक न पारां कांचा होइ नहिं कंचन करां।।


विरोधाभास-जहाँ विरोध प्रतीत होता है किन्तु वास्तविक अर्थ समझने पर वह ठीक लगता है-


घर सूखै भरै भादो माहां।


सयिरि अगिनि विसहिन हिय पारा। सुलगि सुलगि दगधै में छारा।


विरह संचान भँवे तन चाँड़ा। जीयत खाइ सुए नहिं छांड़ा।।


विरोध-विरोध में विरोध वास्तविक होता है। जैसे-


कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल हों विरहै जारी।।


तन मन सेज करै अगिदाहू। सब कहं चाँद, मोहि होइ राहू।।


विभावना-विभावना में बिना कारण के ही कार्य हो जाता है। जैसे-


जीव नाहिं पै जियहि गोसाइ±। कर नाहीं पर करै गुसाइ±।


स्रवन नाहिं पै सब किछु सुना। हिया नाहिं पै सब किछु गुना।।


नयन नाहिं पै सब किछु देखा। कौन भाँति जस जाइ विसेखा।।


विषादन-


गहै बीन मवु+ रैनि बिहार्इ। ससिवाहन नहं रहे ओनार्इ।


पुनि धनि सिंह उरेहै लागे। ऐसेहि विधा रैनि सब जागै।।


उपयर्ुक्त

अलंकारों के उदाहरणों से निष्कर्ष निकलता है कि जायसी निशिचत ही एक गुनी

कवि थे। उनकी अभिव्यकित देखने में सरल और सरस थी किन्तु उसमें अलंकारों की

अपूर्व छटा है। कवि विचारों की दृषिट से गढ़ की बातें सूझ-बूझ कर कहता है।

उसमें समासोकित पद-पद पर मिलती है। पे्रमाख्यान काव्य में रूप-वर्णन

(नख-शिख) विषय की धुरी हैं रूप-वर्णन करते हुए कवि साम्यमूलक अलंकारों की

अवलियाँ लगा देता है। यह अलंकरण ही, आलोच्य को अलौकिक कर देता है। कवि एक

अलंकार को अनेक अलंकारों के साथ सजाता है। अलंकारों की जाली स्वत: बनती

जाती है। इन्हीं अलंकारों के द्वारा ही तो अदृश्य सुन्दरी का रूप श्रोता के

समक्ष प्रत्यक्ष हो जाता है और इस अनदेखी सुन्दरी के समझा समस्त देखी

हुर्इ सुन्दरियाँ फीकी लगने लगती हैं।


जायसी

के अलंकारों की धुरी अतिशय है। उनकी प्रत्येक उकित अतिशय पर आधारित होती

है। इस अतिशय को भी वे साम्यमूलक अलंकारों में ढाल देते हैं और कभी

विरोधमूलक में अत्युकित और अतिशयोकितयाँ उन्हें बहुत ही प्रिय थीं।


श्लेष

जायसी को अत्यन्त प्रिय था इस अलंकार को सहायक बनाकर अन्य अलंकारों को जब

वे सिद्ध कहते हैं तो उसमें अलौकिक सौन्दर्य की सृषिट होती है। मुद्र और

समासोकितयाँ श्लेष के बल पर ही बना करती हैं। उनके गूढ़ार्थ और रहस्य भरे

पदों में श्लेष का चमत्कार विधमान रहता है।


जायसी

ने अनेक अलंकारों को भी प्रस्तुत किया हैं जो सर्वथा नवीन हैं। सच तो यह

है कि जायसी हिन्दी के अलंकारों के विशेषज्ञ न थे फिर भी उनकी उकित इतनी

काव्यमयी थी कि उसमें अनेक अलंकारों का दमक जाना स्वाभाविक बात है।




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