Saman Vidyaalay Pranali Aayog Bihar समान विद्यालय प्रणाली आयोग बिहार

समान विद्यालय प्रणाली आयोग बिहार



GkExams on 24-11-2018

समान स्कूल प्रणाली के लिए निर्णायक लड़ाई ही एक मात्र रास्ता
(सन्दर्भ : बिहार की प्राथमिक शिक्षा)


चैतन्य मित्र


(पिछली टिप्पणी : 'वो ढहा रहे हैं एक - एक कर विश्वसनीयता के सारे स्तंभ'... से आगे )


सर्वोपरि सवाल कि बच्चा किसका है ? जवाब मिलेगा - समाज का , राष्ट्र का। एक सशक्त नागरिक के रूप में बच्चों के विकास से आखिर किसका सशक्तिकरण होता है ? आप कहेंगे - समाज का , राष्ट्र का। तो फिर बताइए न - इन्हीं बच्चों के लिए हमारे देश में बुनियादी शिक्षा के इतने स्तर क्यों हैं ? एक तरफ सरकारी स्कूल , सरकारी स्कूल में भी केंद्रीय विद्यालय , नवोदय विद्यालय , आदर्श विद्यालय , कस्तूरबा कन्या विद्यालय , सामान्य स्कूल। अब सामान्य स्कूल में भी सुविधायुक्त स्कूल व सुविधाहीन स्कूल। दूसरी तरफ निजी स्कूल , निजी स्कूलों में निम्नवर्गीय के लिए अलग , निम्नमध्यवर्ग के लिए अलग , मध्यवर्ग के लिए अलग , उच्च्मध्यवर्ग व उच्च वर्ग के लिए अलग पाँच सितारा वातानुकूलित विद्यालय। लोकतांत्रिक , समाजवादी , समतामूलक , धर्मनिरपेक्ष व वैज्ञानिक भारत के लिए सशक्त नागरिक निर्माण की प्रक्रिया में इतना विभेदीकरण आखिर क्यूँ ?


सरकारों के सिद्धांत व व्यवहार में इतना अंतर साफ़ परिलक्षित करता है कि हम संवैधानिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सरकार चला ही नहीं रहे हैं। हमारी मंशा कुछ और ही है। इसका खुलासा स्वयं केंद्र सरकार के 11 वीं पंचवर्षीय योजना का दृष्टिकोण पत्र करता है -'भारत की शिक्षा व्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती वैश्विक बाजार की जरूरतों को पूरा करना है।' सरकारें अब शिक्षा , स्वास्थ्य , पोषण की सामाजिक जिम्मेदारी से बचाना चाह रही है. अपने नागरिकों के जीवन से जुड़े लगभग हरेक क्षेत्र को देशी - विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए खोलने के बाद अब शिक्षा को भी इन कंपनियों के लूट व मुनाफे के हवाले करने जा रही है। आम जनों को भ्रमित करने के लिए वह तुलनात्मक रूप से बेहतर सुविधायुक्त केंद्रीय विद्यालय , नवोदय विद्यालय जैसे शिक्षा के टापू बनाकर देश के अन्य 13 लाख से ज्यादा विद्यालयों को सर्वसुविधा संपन्न बनाने की जिम्मेवारी के साथ ही मुफ्त,अनिवार्य व समान गुणवत्ता की शिक्षा के संवैधानिक दायित्व से बचना चाहती है। यही कारण है कि वह सब कुछ निजी कंपनियों के हवाले कर रही है। और कारोबार तो मुनाफे के लिए किये जाते हैं , निजी कंपनियों की तो कोई संवैधानिक प्रतिबद्धता तो है नहीं। तो इस विश्व बाजार में आर्थिक रूप से वंचित तबका गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए कहाँ जायेगा ? मौंजू सवाल है यह ! कौन सोचेगा?


देश - राज्य की मौजूदा शैक्षणिक परिदृश्य देखकर यही प्रतीत होता है कि 80 -90 के दशक में विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देशन में शुरू हुई निजीकरण की प्रक्रिया आज चरम पहुँच गयी है। और शायद इसी का असर रहा है कि 2005 में स्वयं को सामाजिक न्याय व समानता के प्रति समर्पित मुख्यमंत्री बताने वाले नीतीश कुमार (जो हर संभव मौके पर सामान स्कूल प्रणाली की वकालत करते हैं ) अपने सरकार द्वारा ही प्रोफ़ेसर मुचकुंद दूबे की अध्यक्षता में बनाए गए 'समान स्कूल प्रणाली आयोग' की 2007 में सौंपी गयी रिपोर्ट को राज्य में लागू नहीं कर सके।
अब आप पूछेंगे कि समान स्कूल प्रणाली क्या बिहार के बच्चों की शिक्षा सम्बन्धी समस्या का निदान है ?- हाँ है। दरअसल , 1964 - 66 में गठित कोठरी शिक्षा आयोग ने समान स्कूल प्रणाली के पक्ष में पड़ोसी विद्यालय की अवधारणा विकसित किया कि एक गाँव या एक मोहल्ले में रहने वाले सभी बच्चों के लिए बिना किसी विभेदीकरण के सर्व सुविधायुक्त विद्यालय की व्यवस्था हो। यह ठीक डॉ राम मनोहर लोहिया की सोच कि ' चपरासी हो या अफसर की संतान , सबकी शिक्षा एक समान 'का ही प्रतिनिधित्व करता है.यानि देश में चल रहे शिक्षा के स्तरीकरण की व्यवस्था को समाप्त कर सब बच्चे के लिए बराबर रूप से मुफ्त , अनिवार्य व समान गुणवत्ता की शिक्षा की व्यवस्था की जाये।


समान स्कूल प्रणाली जहाँ सुविधा संपन्न वर्ग के बच्चे को हवा -हवाई बनने से रोकता है , वहीँ वंचित वर्ग के बच्चे को कुंठा , मानसिक अवसाद व पलायन के भाव में फंसने से बचाता है। एक राष्ट्र के लिए अपने सब बच्चे की उपयोगिता तो एक जैसी ही है, इसलिए सबको समान गुणवत्ता की शिक्षा क्यों नहीं। पिछले दिनों ठीक ऐसी ही मंशा से व राज्य पोषित विद्यालयों के दुरुस्तीकरण के उद्देश्य से इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज माननीय सुधीर कुमार अग्रवाल ने 'शिव कुमार पाठक व अन्य' के वाद में जनप्रतिनिधियों , सरकारी वेतन प्राप्त करने वाले पदाधिकारियों व कर्मचारियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालय में पढ़ना अनिवार्य करने सम्बन्धी निर्देश्य राज्य सरकार को जारी किया।


उत्तर प्रदेश हो या बिहार सिर्फ न्यायालयी आदेश के बल पर यहाँ बात बनने वाली नहीं है। बिहार में शराब बंदी कोई न्यायलय के आदेश पर नहीं हुआ। लम्बे समय से चले आ रहे जनांदोलन और सत्ता केंद्र की अपनी समझ व समीकरण के कारण शराब बंदी हुआ। ठीक इसी तरह बिहार के प्राथमिक शिक्षा का निजीकरण के चपेट में पूरी तरह आ जाने से पहले ही समान स्कूल प्रणाली की निर्णायक लड़ाई के लिए खासकर वंचित वर्ग के लोगों (जो शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया का सबसे ज्यादा प्रभावित पक्ष है व जिसके बच्चों का भविष्य दांव पर है) के साथ ही आम जनों को आगे आना होगा। आगे आना होगा वंचित वर्ग की राजनीति करने वाले राजनितिक दलों को, साथ ही वंचित वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करने वाले बौद्धिक वर्ग को भी। अव्वल उस प्राथमिक शिक्षक समुदाय को सबसे पहले आगे आना होगा , जिसका निजीकरण की प्रक्रिया में पेशा व पेशागत सम्मान खतरे में है।






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