GolMej Sammelan Kya Hai गोलमेज सम्मेलन क्या है

गोलमेज सम्मेलन क्या है



Pradeep Chawla on 12-05-2019

नमक यात्रा

के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं

टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस

लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों

का आयोजन शुरू किया। अंग्रेज़ सरकार द्वारा भारत में संवैधानिक सुधारों पर

चर्चा के लिए 1930-32 के बीच सम्मेलनों की एक श्रृंखला के तहत तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये गए थे। ये सम्मलेन मई 1930 में साइमन आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट के आधार पर संचालित किये गए थे। भारत में स्वराज,

या स्व-शासन की मांग तेजी से बढ़ रही थी। 1930 के दशक तक, कई ब्रिटिश

राजनेताओं का मानना था कि भारत में अब स्व-शासन लागू होना चाहिए। हालांकि,

भारतीय और ब्रिटिश राजनीतिक दलों के बीच काफी वैचारिक मतभेद थे, जिनका

समाधान सम्मलेनों से नहीं हो सका।









अनुक्रम



  • 1प्रथम गोलमेज सम्मेलन (नवंबर 1930 - जनवरी 1931)

    • 1.1सहभागी


  • 2दूसरा गोलमेज सम्मेलन (सितंबर - दिसंबर 1931)

    • 2.1युद्ध समाप्त


  • 3तीसरा गोलमेज सम्मेलन (नवंबर - दिसंबर 1932)
  • 4सन्दर्भ
  • 5इन्हें भी देखें
  • 6बाहरी कड़ियाँ






प्रथम गोलमेज सम्मेलन (नवंबर 1930 - जनवरी 1931)

पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए, इसी कारण अंतत: यह बैठक निरर्थक साबित हुई। यह आधिकारिक तौर पर जॉर्ज पंचम ने 12 नवम्बर 1930 को प्रारम्भ किया और इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री, रामसे मैकडॉनल्ड

ने की। तीन ब्रिटिश राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व सोलह प्रतिनिधियों

द्वारा किया गया। अंग्रेजों द्वारा शासित भारत से 57 राजनीतिक नेताओं और

रियासतों से 16 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और व्यापारिक नेताओं ने सम्मलेन में भाग नहीं लिया। उनमें से कई नेता सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के कारण जेल में थे।



जनवरी 1931 में गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। अगले ही महीने वायसराय के साथ उनकी कई लंबी बैठके हुईं। इन्हीं बैठकों के बाद गांधी-इरविन समझौते

पर सहमति बनी जिसकी शर्तो में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, सारे

कैदियों की रिहाई और तटीय इलाकों में नमक उत्पादन की अनुमति देना शामिल था।

रैडिकल राष्ट्रवादियों ने इस समझौते की आलोचना की क्योंकि गाँधी जी

वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हासिल नहीं कर

पाए थे। गाँधी जी को इस संभावित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल वार्ताओं

का आश्वासन मिला था।



सहभागी

  • मुस्लिम लीग: मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मोहम्मद शफी, आगा खान, मोहम्मद अली जिन्ना, मोहम्मद ज़फ़रुल्ला खान, ए के फजलुल हक.
  • हिंदू महासभा: बी एस मुंजे और एम. आर. जयकर
  • उदारवादी: तेज बहादुर सप्रू, सी. वाय. चिंतामणि और श्रीनिवास शास्त्री
  • सिख: सरदार उज्जल सिंह
  • केथोलिक (इसाई): ए. टी. पन्नीरसेल्वम
  • दलित वर्ग ("अछूत" लोग) : बी.आर.अम्बेडकर
  • रियासतें: अक़बर हैदरी (हैदराबाद के दीवान), मैसूर के दीवान सर मिर्ज़ा इस्माइल,

    ग्वालियर के कैलाश नारायण हक्सर, पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह, बड़ोदा

    के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय, जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह, बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह, भोपाल के नवाब हमीदुल्ला खान, नवानगर के के. एस. रणजीतसिंहजी, अलवर के महाराजा जय सिंह प्रभाकर और इंदौर, रीवा, धौलपुर, कोरिया, सांगली और सरीला के शासक।


एक अखिल भारतीय महासंघ बनाने का विचार चर्चा का मुख्य बिंदु बना रहा।

सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी समूहों ने इस अवधारणा का समर्थन किया।

कार्यकारिणी सभा से व्यवस्थापिका सभा तक की जिम्मेदारियों पर चर्चा की गई

और बी.आर. अम्बेडकर ने अछूत लोगों के लिए अलग से राजनीतिक प्रतिनिधि की मांग की। यह वास्तव मे दलितो के लिए उपहार था। उनको भी इस प्रकार अंदेखा नहीं किया जा सकता था।



दूसरा गोलमेज सम्मेलन (सितंबर - दिसंबर 1931)

दूसरा गोल मेज सम्मेलन 1931

के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। उसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर

रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व

करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था

कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा

था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी

चुनौती तेज-तर्रार वकील और विचारक बी आर अंबेडकर की तरफ़ से थी जिनका कहना

था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं

करते। लंदन में हुआ यह सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका इसलिए गाँधी

जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। भारत लौटने पर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया।



नए वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन को गाँधी जी से बिलकुल हमदर्दी नहीं थी। अपनी बहन को लिखे एक निजी खत में विलिंग्डन ने लिखा था कि-



अगर गाँधी न होता तो यह दुनिया वाकई बहुत खूबसूरत होती। वह जो भी

कदम उठाता है उसे ईश्वर की प्रेरणा का परिणाम कहता है लेकिन असल में उसके

पीछे एक गहरी राजनीतिक चाल होती है। देखता हूँ कि अमेरिकी प्रेस उसको गज़ब

का आदमी बताती है। लेकिन सच यह है कि हम निहायत अव्यावहारिक, रहस्यवादी और

अंधिविश्वासी जनता के बीच रह रहे हैं जो गाँधी को भगवान मान बैठी है।


बहरहाल, 1935 में नए गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट

में सीमित प्रातिनिधिक शासन व्यवस्था का आश्वासन व्यक्त किया गया। दो साल

बाद सीमित मताधिकार के आधिकार पर हुए चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त

सफ़लता मिली। 11 में से 8 प्रांतों में कांग्रेस के प्रतिनिधि सत्ता में आए

जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते थे। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के

सत्ता में आने के दो साल बाद, सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों ही हिटलर

व नात्सियों के कड़े आलोचक थे। तदनुरूप, उन्होंने फ़ैसला लिया कि अगर

अंग्रेज युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने पर राजी हों तो

कांग्रेस उनके युद्द्ध प्रयासों में सहायता दे सकती है। सरकार ने उनका

प्रस्ताव खारिज कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अक्टूबर

1939 में इस्तीफ़ा दे दिया।



पहले गोलमेज सम्मलेन से दूसरा गोलमेज सम्मेलन तीन प्रकार से भिन्न था। दूसरे सम्मलेन के प्रारम्भ होने तक:



  • कांग्रेस प्रतिनिधित्व - गांधी-इरविन संधि की बदौलत इस सम्मेलन में काँग्रेस ने भी भाग लिया। भारत से महात्मा गांधी को आमंत्रित किया गया था और उन्होंने एकमात्र कॉँग्रेस प्रतिनिधि के रूप में सरोजिनी नायडू के साथ भाग लिया। इसके अलावा मदन मोहन मालवीय, घनश्याम दास बिरला, मोहम्मद इकबाल, सर मिर्ज़ा इस्माइल-मैसूर

    के दीवान, एस.के. दत्ता और सर सैयद अली इमाम ने भी भाग लिया। गांधीजी ने

    दावा किया कि एकमात्र कॉँग्रेस ही भारत का राजनीतिक प्रतिनिधित्व करती है

    और अछूत लोग हिंदू लोग हैं और उन्हें "अल्पसंख्यक" के रूप में नहीं देखा

    जाना चाहिए; और मुसलामानों या अन्य अल्पसंख्यकों के लिए पृथक मतदाता अथवा

    अन्य किसी भी प्रकार के सुरक्षा उपाय नहीं होने चाहिए। अन्य भारतीय

    सहभागियों ने इन दावों को अस्वीकार कर दिया। गांधी-इरविन संधि के अनुसार,

    गाँधीजी को नागरिक अवज्ञा आंदोलन (सीडीएम) को बंद करने को कहा गया और यदि

    वे ऐसा करते हैं तो ब्रिटिश सरकार आपराधिक कैदियों को छोड़कर, अन्य कैदियों

    को मुक्त कर देगी। आपराधिक कैदियों से तात्पर्य उन कैदियों से था

    जिन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को मारा था। परिणामों से निराश और खाली हाथ,

    महात्मा गांधी भारत लौटे।
  • राष्ट्रीय सरकार - दो सप्ताह पूर्व लंदन में लेबर सरकार गिर गई थी। रामसे मैकडोनाल्ड अब कंजर्वेटिव पार्टी के प्रभुत्व वाली राष्ट्रीय सरकार की अध्यक्षता कर रहे थे।
  • वित्तीय संकट - सम्मेलन के दौरान, ब्रिटेन सरकार ने स्वर्ण मानक कि विनिमेयता रद्द कर दी जिससे राष्ट्रीय सरकार का ध्यान भी भंग हो गया।


सम्मेलन के दौरान, गांधीजी मुस्लिम प्रतिनिधित्व और सुरक्षा उपायों पर

मुसलमानों के साथ कोई समझौता नहीं कर पाए। सम्मेलन के अंत में रामसे

मैकडोनाल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के संबंध में एक सांप्रदायिक निर्णय

की घोषणा की और उसमें यह प्रावधान रखा गया कि राजनीतिक दलों के बीच किसी

भी प्रकार के मुक्त समझौते को इस निर्णय के स्थान पर लागू किया जा सकता है।



गांधी ने अछूतों को हिन्दू समुदाय से अलग एक अल्पसंख्यक समुदाय का

दर्ज़ा देने के मुद्दे का विशेष रूप से विरोध किया। उनका अछूतों के नेता बी.आर. अम्बेडकर के साथ इस मुद्दे पर विवाद हुआ। अंततः दोनों नेताओं ने इस समस्या का हल 1932 की पूना संधि द्वारा निकाला।



युद्ध समाप्त

मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान

के नाम से एक पृथक राष्ट्र की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया और उसे अपना

लक्ष्य घोषित कर दिया। अब राजनीतिक भूदृश्य का्फ़ी जटिल हो गया था : अब यह

संघर्ष भारतीय बनाम ब्रिटिश नहीं रह गया था। अब यह कांग्रेस, मुस्लिम लीग

और ब्रिटिश शासन, तीन धुरियों के बीच का संघर्ष था। इसी समय ब्रिटेन में एक

सर्वदलीय सरकार सत्ता में थी जिसमें शामिल लेबर पार्टी के सदस्य भारतीय

आकांक्षाओं के प्रति हमदर्दी का रवैया रखते थे लेकिन सरकार के मुखिया

प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल कट्‌टर साम्राज्यवादी थे। उनका कहना था कि

उन्हें सम्राट का सर्वोच्च मंत्री इसलिए नहीं नियुक्त किया गया है कि वह

ब्रिटिश साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े कर दें।



1942 के वसंत में चर्चिल

ने गाँधी जी और कांग्रेस के साथ समझौते का रास्ता निकालने के लिए अपने एक

मंत्री सर स्टेप्फ़ार्ड क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स के साथ वार्ता में

कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया कि अगर धुरी शक्तियों से भारत की रक्षा के

लिए ब्रिटिश शासन कांग्रेस का समर्थन चाहता है तो वायसराय को सबसे पहले

अपनी कार्यकारी परिषद् में किसी भारतीय को एक रक्षा सदस्य के रूप में

नियुक्त करना चाहिए। इसी बात पर वार्ता टूट गई। जिस से कहीं राजनेतिक विचार

बने।



तीसरा गोलमेज सम्मेलन (नवंबर - दिसंबर 1932)

तीसरा

और अंतिम सत्र 17 नवम्बर 1932 को प्रारम्भ हुआ। मात्र 46 प्रतिनिधियों ने

इस सम्मलेन में भाग लिया क्योंकि अधिकतर मुख्य भारतीय राजनीतिक प्रमुख इस

सम्मलेन में मौजूद नहीं थे। ब्रिटेन की लेबर पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस सत्र में भाग लेने से इनकार कर दिया।



इस सम्मेलन में एक कॉलेज छात्र चौधरी रहमत अली ने विभाजित भारत के मुस्लिम भाग का नाम "पाकिस्तान" (जिसका अर्थ है "पवित्र भूमि") रखा। उसने पंजाब का पी पंजाब, अफगान से ए, कश्मीर से कि, सिंध से "स" और बलूचिस्तान से "तान" लेकर यह शब्द बनाया। जिन्ना ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया।



सितंबर, 1931 से मार्च, 1933 तक, सैमुअल होअरे के पर्यवेक्षण में,

प्रस्तावित सुधारों को लेकर प्रपत्र बनाया गया; जिसके आधार पर भारत सरकार

का 1935 का अधिनियम बना।



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