Bharat Bharti Ka Vishleshnan भारत भारती का विश्लेषण

भारत भारती का विश्लेषण



Pradeep Chawla on 25-10-2018


साहितियक परिचय


भारतीय संस्Ñति के आख्याता, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 1886 र्इ. में चिरगाँव (जिला झाँसी) में हुआ था। आपके पिता सेठ रामचरण सीता के उपासक थे। इसलिए उन्होंने पुत्रा का नाम 'मिथिलाधिपनंदिनी रखा जो आगे चलकर 'मैथिलीशरण हो गया।


भगवदभकित, विशेषत: राम और सीता के प्रति भकित एवं कविता प्रेम की प्रेरणा श्री मैथिलीशरण गुप्त को अपने पिता से मानों उत्तराधिकार में प्राप्त हुर्इ। इस भकित-भाव और काव्य-प्रेम का निरन्तर विकास होता रहा जिसके फलस्वरूप मैथिलीशरण के मन में रामकथा के प्रति असीम श्रद्धा-भाव उत्पन्न हो गया। इस असीम श्रद्धा ने ही उन्हें रामकथा के अमर गायक के रूप में प्रसिद्ध कर दिया।


गुप्त जी आस्थावान व्यकित थे। अपने देश की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्Ñतिक प्रथा-परम्पराओं में उनकी अविचल आस्था थी। गाँधी जी के मार्ग-दर्शन में अपने देश के स्वातन्त्रय एवं उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में पूर्ण आश्वस्त थे। विश्वबन्धुत्व की भावना की उत्तरोत्तर सफलता के प्रति भी वे आशावादी थे। इसलिए उनकी Ñतियों में सृजन है, संहार नहीं, स्नेह-सौहार्द एवं समन्वय सहयोग है, संघर्ष नहीं।


आस्था और आराधना में पिता (सेठ रामचरण), साहित्य-साधना में कविता-गुरु (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी) और सामाजिक एवं राजनैतिक आदर्शो के नेता बापू (महात्मा गांधी) से प्रभावित होने के कारण गुप्त जी के काव्य में भकित, काव्य-साधना और देश-प्रेम आदि की विशेषताएँ मिलती हैं। गुप्त जी ने लगभग चालीस काव्य ग्रंथों की रचना की। उनका वण्र्य-विषय चाहे पौराणिक हो (उदाहरणार्थ 'शकुन्तला, 'पंचवटी, 'शकित, 'साकेत, 'द्वापर, 'नहुष, 'जयभारत आदि) चाहे ऐतिहासिक (उदाहरणार्थ 'रंग में भंग, 'सिद्धराज, 'कुणाल गीत आदि) अथवा सामयिक ('भारत-भारती, 'किसान, 'अंजलि, 'अध्र्य, 'स्वदेशश-संगीत, 'अजित, आदि) उपयर्ुक्त तीनों गुण उनकी काव्य रचनाओं में सदा विधमान रहे, और यही तीनों गुण उनके व्यकितत्व के आधार-स्तम्भ बने।


आरम्भ में गुप्त जी 'रसिकेश तथा 'रसिकेन्द्र नाम से ब्रजभाषा में कविता लिखा करते थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें खड़ीबोली में कविताएँ लिखने के लिए प्रेरित एवं उत्साहित किया। उन्होंने गुप्त जी की अनेक रचनाएँ 'सरस्वती में प्रकाशित की। गुप्त जी को अपने महाकाव्य 'साकेत की सृजन-प्रेरणा भी आचार्य द्विवेदी के एक लेख 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता से ही प्राप्त हुर्इ।


समाज और राष्ट्र ने मैथिलीशरण गुप्त का समुचित सत्कार किया। हिन्दी जगत के प्रिय 'दíा भारत के 'राष्ट्रकवि माने गए। 1937 र्इ. में उन्हें 'साकेत महाकाव्य पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ और 1946 र्इ. में हिन्दी साहित्य-सम्मेलन ने गुप्त जी को 'साहित्य वाचस्पति की


उपाधि से विभूषित किया। 1948 र्इ. में आपको आगरा विश्वविधालय ने डी. लिट की उपाधि देकर सम्मानित किया। और 1952 र्इ. से लेकर देहावसान (1964) तक वह राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे।


अèययन की सुविधा के लिए श्री मैथिलीशरण की रचनाओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैµअनुचित और मौलिक रचनाएँ। मौलिक रचनाओं को चार भागों में उपविभाजित किया जा सकता है : नाटक, मुक्तक काव्य, प्रबन्धात्मक मुक्तक और प्रबन्ध काव्य।


गुप्त जी की अनुदित रचनाओं के नाम हैं : 'विरहिणी ब्रजांगना, 'मेघनाध वध, 'प्लासी का युद्ध, 'स्वप्नवासवदत्ता और 'उमर खय्याम की रूबाइयाँ। इसमें से पहली दो रचनाएं बंगाल के सुप्रसिद्ध कवि मार्इकेल मधुसूदन दत्त की बंगला Ñतियों का हिन्दी अनुवाद है। 'प्लासी का युद्ध बाबू नवीनचन्द्र सेन की बंगला Ñति 'पलाशेर युद्ध का 'स्वप्नवासवदत्ता भास के प्रसिद्ध संस्Ñत नाटक का, 'उमर खयाम की रूबाइयाँ फारसी के प्रसिद्ध कवि उमर खय्याम की रूबाइयों का एडवर्ड फिटजरेल्ड द्वारा किये गये अंग्रेजी रूपान्तर का हिन्दी काव्यानुवाद है। इन अनुवादों में गुप्त जी ने मूल ग्रन्थों के भावों को अत्यन्त कुशलतापूर्वक व्यक्त करके अपने अनुवाद-कौशल का परिचय दिया है।


गुप्त जी के तीन प्रकाशित नाटक हैंµ'तिलोत्तमा, 'चन्द्रहार और 'अनय। इनमें से प्रथम दो पौराणिक हैं और 'अनध एक नाटयरूपक है जिसकी कथा कलिपत तथा समसामयिक है। मूलत: कवि और प्रधानत: प्रबन्धकार होने के कारण गुप्त जी को अपने नाटकों में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुर्इ है।


श्री मैथिलीशरण गुप्त की मुक्तक कविताएं गीतिकाव्य के विविध गुणोंµसंगीतात्मकता, रागात्मकता और लयात्मकता आदि से अलंÑत हैं। इन कविताओं के संग्रह 'पध-प्रबन्ध, 'पत्राावली, 'स्वदेश-संगीत, 'झंकार और 'मंगलघट के नाम से प्रकाशित हुए। 'पध-प्रबन्ध में विभिन्न मनोभावों के साथ-साथ प्रÑति-वर्णन सम्बन्धी अनेक कविताएं भी संग्रहित हैं और कुछ छोटे-छोटे उपदेशात्मक आख्यान हैं। 'पत्राावली में ऐतिहासिक आधार पर लिखे गए पधात्मक पत्रा हैं। 'स्वदेश-संगीत में संकलित कविताओं में कवि की सामयिक राजनीतिक तथा समकालीन आंदोलनों से प्रेरित-प्रभावित विचार तथा उदगार व्यक्त हुए हैं। 'झंकार कवि की नवीन शैली तथा भावनाओं से परिपूर्ण कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह की अनेक कविताओं पर छायावाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। 'मंगलघट नाम से प्रकाशित कविता-संग्रह में कुछ पूर्व प्रकाशित तथा बासठ नर्इ कविताएँ हैं।


प्रबन्धात्मक-मुक्तक शीर्षक के अन्र्तगत गुप्त जी की उन Ñतियों का समावेश किया जाता है, जिनमें कोर्इ श्रृंखलाबद्ध इतिवृत्त या किसी चरित्रा का सांगोपांग निरूपण न होने पर भी विचारों की एकता तथा भावों की क्रमबद्धता हो। देखने पर मुक्तक तुल्य जान पड़ने पर भी इनमें आंतरिक प्रबंधात्मकता विधमान है। 'भारती-भारती, 'वैतालिक, 'हिन्दू, 'कुणाल-गीत, 'विश्ववेदना, 'अंजलि और अहर्य, 'राजा और प्रजा गुप्त जी की ऐसी ही रचनाएं हैं। 'भारत-भारती अपने युग की सर्वाधिक लोकप्रिय रचना रही है। 'वैतालिक उदबोधन काव्य है जिनमें कवि अपने युग का वैतालिक बनकर युग-संदेश देने के लिए उपसिथत हुआ है। 'हिन्दू में कवि की हिन्दुत्व सम्बन्धी अत्यन्त उदार भावना का निरूपण हुआ है। 'कुणाल-गीत सम्राट अशोक के पुत्रा कुणाल की लोक प्रसिद्ध कथा पर


आधारित है। मुक्तक-शैली में रचित इन 95 गीतों में भावात्मक-अनिवति विधमान है। 'विश्व-वेदना वस्तुत: विश्व की वेदना से व्यथित कवि की कराह है और 'अंजलि और अध्र्य में महात्मा गांधी के निधन पर कवि के शोक संतप्त âदय से निकले उदगार संकलित हैं। 'राजा और प्रजा के दो खंड हैं; प्रथम खण्ड में प्रजातंत्रा प्रणाली के दोषों का वर्णन और द्वितीय में उक्त दोषों का निराकरण है। यह Ñति लोकतंत्रा के प्रति कवि के विश्वास का काव्यात्मक प्रमाण है।


प्रबन्ध काव्यों में सर्वप्रथम रचित तथा प्रकाशित होने का श्रेय 'रंग में भंग को प्राप्त है। ऐतिहासिक आख्यान के आधार पर इसमें राजपूताने की मान-मर्यादा का उल्लेख किया गया है। 'जयद्रथ-वध में महाभारत के उस आख्यान को काव्य-बद्ध किया गया है जिसमें अजर्ुन पुत्रा अभिमन्यु चक्रव्यूह मेें प्रवेश कर असाधारण शौर्य का प्रदर्शन करता है, वह कौरवों के छल का शिकार होता है और अजर्ुन उसके वध का प्रतिशोध 'जयद्रथ का वध करके लेते हैं। 'शकुन्तला में महाकवि कालिदास-Ñत नाटक को हिन्दी प्रबन्ध काव्य का रूप दिया गया है। 'किसान में भारतीय किसान की तत्कालीन सिथति का मार्मिक दिग्दर्शन है, और 'पंचवटी में रामकथा का शूर्पणखा-प्रसंग काव्यबद्ध किया गया है। गुप्त जी के प्रारमिभक रचनाओं में 'पंचवटी को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। 'शकित में कवि ने पौराणिक देव-दानव संग्राम और निरूपण इस उíेश्य के प्रतिपादन के लिए किया है कि संगठन में ही शकित रहती है।


'सैरंधी, 'वक-संहार और 'विकट में महाभारत के विविध आख्यानों का काव्य-रूपान्तर है। 'गुरुकुल में गुरु नानक, अंगद, अमरदास, रामदास, अजर्ुन, हरगोविन्द, हरराय, हरिÑष्ण, तेगबहादुर तथा गोविन्द सिंह जी की जीवन गाथाएं अंकित की गर्इ है। 'साकेत महाकाव्य में रामकथा के माèयम से उर्मिला और लक्ष्मण के जीवन के विभिन्न पक्षों का उदघाटन किया गया है। 'यशोधरा में गौतम बुद्ध और उसकी पत्नी यशोधरा की जीवन-झाँकी है, जिनमें नारी के स्वाभिमान तथा असहायता का अभूतपूर्व चित्राण है। 'द्वापर में आत्मोदगार शैली में श्रीÑष्ण तथा उनस सम्बनिधत कुछ भक्त-पात्राों के जीवन-चित्रा प्रस्तुत हैं। 'सिद्धराज एक ऐतिहासिक प्रबन्ध-काव्य है जिसमें पाटन के शासक सिद्धराज जयसिंह, मालवेश्वर नरवर्मा तथा महोवे के राजा मदनवमी की जीवन घटनाएं संकलित हैं। 'नहुष में महाभारत के एक आख्यान के आधार पर मनुष्य की शकित व सीमाओं का निरूपण है। 'अर्जन और विसर्जन में अर्जन के अंतर्गत पाप की कमार्इ की निन्दा है। विसर्जन में कवि ने कल्पना की है कि यदि भारत वैभवशाली न होता तो विदेशी आक्रमणकारी उसे कभी पददलित न करते। 'काबा और कर्बला द्वारा हमारे कवि ने हिन्दू-मुसिलम एकता को पुष्ट किया है और राष्ट्र के लिए वांछित उदारता एवं सहिष्णुता का परिचय दिया है। 'अर्जित नामक वर्णनात्मक काव्य में प्राय: आधुनिक युग के सिद्धान्तों एवं वास्तविक घटनाओं को स्थान दिया गया है। 'प्रदक्षिणा में संक्षेप में राम-कथा का वर्णन है। 'विष्ण-प्रिया में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी की जीवन झाँकी अंकित है। 'जयभारत नामक विशाल प्रबन्ध-काव्य में नहुष की कथा से लेकर पाण्डवों के स्वर्गारोहण तक की घटनाओं का वर्णन है। समय-समय पर रचे गये अंशों का संकलन होने के कारण इस काव्य-Ñति में कथा-ऐक्य तथा प्रबन्ध-सूत्राता शिथिल एवं क्षीण है। 'जय भारत का युद्ध नामक अंश उत्Ñष्ट है। यह अलग से पुस्तकाकार में भी प्रकाशित हो चुका है।


श्री मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं केवल परिमाण के नाते ही नहीं, काव्य-सौष्ठव के नाते भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन काव्यों में जीवन का वैविèय समाया हुआ है और विस्तार भी। भकित भावना से परिपूर्ण होने पर भी इसमें संकीर्णता न होकर उदारता है। समन्वयवादी होने के कारण गुप्त जी की राष्ट्रीयता सर्वत्रा सहयोग और सहअसितत्व का ही समर्थन करती है। अपनी Ñतियों के माèयम से गुप्तजी ने एक ओर अपने देशकाल को वाणी दी और दूसरी ओर मानव की युगयुगीन उमंगों, आकांक्षाओं तथा उच्छवासों को काव्यबद्ध किया। इसलिए मानवतावाद इन कविताओं का प्राण है। अतीत के प्रति अनुराग, वर्तमान के प्रति आत्मविश्वास और भविष्य के प्रति भरपूर आशावान होने के कारण गुप्त जी ने अपनी रचनाओं द्वारा जो सिद्धान्त निर्धारित किए हैं, तो मार्ग सुझाये हैं और जो आदर्श स्थापित किये हैं, वे देशकाल निरपेक्ष हैं।


गुप्त जी एक साहित्य-साधक थे। उन्होंने लिखा हैµßकेवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।Þ अत: काव्य-सर्जन उनके लिए केवल मनोरंजन मात्रा न था। इसका एक उíेश्य, एक निशिचत लक्ष्य था। वह लक्ष्य थाµकला (साहित्य) के माèयम से मानवता का उन्नयन, यह कार्य साधना से ही सम्भव था। गुप्त जी ने इसके लिए पहले अपने जीवन की साधना की। उन्होंने अपने प्रिय आदर्शों को अपने जीवन में मूर्तिमंत्रा किया। फिर भाषा एवं काव्य की साधना द्वारा उन आदर्शो को और काव्य को वाणी प्रदान की। इसीलिए उनकी गरिमामयी काव्य-Ñतियों में इतनी सहजता है।


गुप्त जी का विशिष्ट गुण थाµ'तीव्र स्वदेश-प्रेम। भारत उन्हें सर्वाधिक प्यारा था। उनका अखण्ड विश्वास था कि 'सर्वत्रा हमारे संग स्वदेश हमारा, इसीलिए वह अपने युग ओर देश की वाणी को इतने प्रभावशाली ढंग से काव्यबद्ध कर सके। उन्होंने अपने देश के अतीत की विरुदावलियां गायीं। वर्तमान का सही एवं यथार्थ मूल्यांकन किया और भविष्य के आलोक्य चित्रा उत्कीर्ण किये क्योंकि अपना देश उन्हें बहुत प्यारा था। यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि इस स्वदेश-प्रेम ने उन्हें संकीर्ण कभी नहीं होने दिया। अन्यथा वे समाज और राजनीति के प्रश्नों पर सम्पूर्ण विश्व के परिप्रेक्ष्य में चिंतन-मनन न करते, युद्ध एवं शानित की समस्याओं एवं उनके सभ्भावित समाधानों पर विश्वव्यापी दृषिट न डालते, 'विश्ववेदना से विकल न होते। उनका स्वदेश-प्रेम उनके मानव-प्रेम से भिन्न न था। वस्तुत: मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक हिन्दी के प्रतिनिधि कवि हैं।


(1) 'सखि, वे मुझसे कहकर जाते


कविता का प्रतिपाध


प्रस्तुत गीत राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रसिद्ध रचना 'यशोधरा से गृहीत है। इस काव्य की रचना मूलत: उपेक्षित यशोधरा के महत्त्व की प्रतिष्ठा के लिए की गर्इ है। वस्तुत: 'यशोधरा काव्य की कथा विरहिणी यशोधरा की कथा है। इस गीत में सिद्धार्थ-पत्नी यशोधरा की विरह-वेदना का ही वर्णन है।


एक दिन कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ को व्याधि, वृद्धावस्था और मृत्यु की अनिवार्यता का बोध होता है, तो वे इस क्षणभंगुर संसार को त्यागकर जीवन-सत्य की खोज में निकल पड़ने का निश्चय कर लेते हैं। फलस्वरूप अपनी नव-विवाहिता पत्नी यशोधरा और नवजात शिशु राहुल को सुसुप्तावस्था में ही छोड़कर अर्धरात्रि के समय कपिलवस्तु को त्याग वन में चले जाते हैं। जगने पर जब यशोधरा को उनके वन-गमन का समाचार मिलता है तो उनका âदय उíगिन हो जाता है। उनके आत्म-गौरव को गहरी ठेस पहुँचती है। वह अपनी सखि से कहती है कि उसके स्वामी सिद्धि लाभ के लिए गये हैं, यह बड़े गौरव की बात है, किन्तु वे चोरी-चोरी गये इस बात का दु:ख है। यदि वे मोक्ष-प्रापित के निमित्त उससे कहकर जाते तो वह उन्हें सहर्ष जाने देती। किसी प्रकार भी उनके मार्ग में बाधा बनकर न आतीं। प्रस्तुत गीत में यशोधा का नारी-गौरव दीप्त हो उठता है और वह कह उठती है कि उस जैसी सित्रायाँ ही अपने प्रियतमों को सजिजत करके युद्ध करने के लिए भेज देती है। यशोधरा अनुमान लगाती है कि सम्भवत: सिद्धार्थ इसलिए बिना बताए चले गये, क्योंकि उन्हें शायद इस बात का डर था कि यशोधरा के आंसू कहीं उनके सिद्धि-मार्ग की बाधा न बन जाऐं ? लेकिन ऐसी बात नहीं थी। उन्होंने शायद उन्हें पहचानने में बहुत बड़ी भूल की। अन्तत: उसकी यही कामना है कि सिद्धार्थ को उसके लक्ष्य-प्रापित में सफलता मिले और लक्ष्य (जीवन-सत्य) को प्राप्त कर शीघ्र ही पुन: कपिल-वस्तु लौट आएं।


गुप्त जी ने इस गीत में सिद्धार्थ-पत्नी यशोधरा का एक आदर्श गरिमामयी भारतीय नारी के रूप में चित्राण किया तथा नारी को पुरुष का पूरक बताया। इस गीत की भाषा सरल, सहज और प्रवाहमयी है।


शब्दार्थ एवं व्याख्या


1. सिद्धि हेतु स्वामी गये..............................................................................................लाते।


शब्दार्थ- सिद्धि-हेतु ¾ सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त, मुकित-प्रापित के लिए, व्याघात ¾ बाधा, पथ-बाधा ¾ मार्ग की बाधा।


प्रसंग-प्रस्तुत पंकितयाँ मैथिलीशरण गुप्त रचित 'यशोधरा से उद्धत हैं। कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ अपनी नव-विवाहिता पत्नी यशोधरा और नवजात शिशु राहुल को जब सोता हुआ छोड़कर वन में चले जाते हैं तब


यशोध का मन दु:ख से भर उठता है। उसे दु:ख इस बात का है कि उससे बिना पूछे ही चले गये हैं। सिद्धार्थ को यदि सिद्धि-मार्ग के लिए जाना था तो वह कभी उनकी राह का रोड़ा न बनती। प्रस्तुत पंकितयों में


यशोधरा अपनी इन्हीं âदयगत भावनाओं को एक सखी के सामने व्यक्त करते हुए कह रहीं हैंµ


व्याख्या- हे सखि, मेरे स्वामी सिद्धि-प्रापित के लिए गये हैं, यह मेरे गौरव की बात है, किन्तु उन्होंने मुझसे छिपाकर और बिना कुछ कहे जो गृह-त्याग किया है, वह मुझे अत्यन्त पीड़ादायक लग रहा है, यदि वे मुझे कहकर जाते तो मैं उनके शुभ कार्य के मार्ग में कभी भी बाधक बनकर न आती, अपितु सहर्ष उन्हें वन जाने देती।


यशोधरा अपने गृहस्थ जीवन की स्मृतियों को स्मरण कर कह रही है कि मेरे प्रियतम ने आज तक मुझे बहुत अधिक आदर और मान दिया है, किन्तु फिर भी क्या वे मुझे पूर्ण रूप से पहचान सके हैं ? यदि वे मुझे भली-भांति पहचान जाते तो कभी चोरी-चोरी वन नहीं जाते। मैंने तो सदा वही किया जो उन्हें रुचिकर प्रतीत होता था। उनकी जो भी इच्छा होती थी, अपनी सभी इच्छाओं को भुलाकर मैं उसी को प्रमुखता देती थी। हे सखि! उन्हें मुझे पूछकर जाना चाहिए था।


विशेष-प्रस्तुत पंकितयों में यशोधरा ने भारतीय नारी के गौरवपूर्ण उज्ज्वल जीवन की एक मधुर झांकी प्रस्तुत की है।


2. स्वयं सुसजिजत.......................................................................................................खाते।


शब्दार्थ-पण ¾ दाव या सौदा, क्षात्रा-धर्म ¾ क्षत्रिय धर्म, विफल ¾ निष्फल, असफल, निष्ठुर ¾ कठोर, सदय-âदय ¾ करुणापूर्ण âदय वाले।


प्रसंग-पूर्ववत।


व्याख्या- नारी-गौरव की प्रतिष्ठा करती हुर्इ यशोधरा अपनी सखी से कह रही है कि हम जैसी नारियां ही हैं जो अपने प्रियतम को अस्त्रा-शस्त्राों से सुसजिजत करके प्राणों की बाजी लगाकर, क्षत्रिय-धर्म को दृषिटपथ में रखती हुर्इ युद्ध-भूमि में भेज देती हैं। अत: इस सिद्धि के हेतु वन जाते समय मैं अपने पति को कैसे रोक सकती थी। किन्तु मुझे अपने पति को हर्षपूर्वक विदा करने का सौभाग्य भी प्राप्त न हो सका, अब मैं किस बात पर मिथ्या गर्व करूं क्योंकि मैं अपने जिस भाग्य पर इठलाती हुर्इ रहती थी, (क्योंकि सिद्धार्थ यशोधरा से बहुत प्रेम करते थे, अत: यशोधरा को अपने लिए सौभाग्यवती मानना उचित ही था) वह अभागा भाग्य भी मेरा न हो सका। जिस पति ने मुझे बड़े प्रेम के साथ अपनाया था उसी ने अब मुझे त्याग दिया है। वे भले ही उसे भूल जाएं, लेकिन मैं तो हमेशा उनको याद करती रहूँगी। आज मेरे नेत्रा उन्हें क्रूर समझ रहे हैं, क्योंकि वे मुझसे बिना कहे चले गये। किन्तु मान लो कि वे मुझसे पूछकर भी जाते तो क्या इन नेत्राों से अश्रुधारा प्रवाहित न होती, अवश्य होती और इस अश्रुधारा को ये दयालु âदय भला किस प्रकार सह सकते थे। इसीलिए उन्होंने चोरी-चोरी गृह-त्याग करना ही उपयुक्त समझा।


विशेष- 'स्वयं सुसजिजत.................नाते में आर्य ललनाओं का महान आदर्श मुखर हो उठा है। यशोधरा क्षत्रााणी है। उसके क्षत्रियोचित व्यकितत्व को उभारने के लिए सिद्धार्थ ने उचित अवसर नहीं दिया, उस पर संदेह किया। इस बात की ग्लानि, क्षोभ और टीस यशोधरा को है। यही उसने उक्त उपालम्भ में कहा है।


3. जाएँ..................................................................................................................गाते ?


शब्दार्थ-उपालम्भ ¾ उलाहना, अपूर्व ¾ अनुपम, परम विचित्रा वस्तु।


प्रसंग-पूर्ववत


व्याख्या-हे सखी! अब जबकि वे यहाँ से चले गये हैं, मेरी हार्दिक कामना है कि वे सुखपूर्वक सिद्धि लाभ करें और कभी मेरा èयान करके दु:खी न हों। मैं उन्हें किसी भी प्रकार उलाहना नहीं देना चाहती। इस वियोग-दशा में वे मुझसे अधिक अच्छे लग रहे हैं, क्योंकि वे एक महान उíेश्य लेकर यहाँ से गये हैं। यदि वे यहाँ से गये हैं तो इतना भी निशिचत है कि वे एक दिन यहाँ लौटकर भी अवश्य आएंगे और अपने साथ कोर्इ अपूर्व वस्तु भी लाएंगे। किन्तु प्रश्न तो यह है कि मेरे प्राण उनका किस प्रकार स्वागत करेंगे। वे उनका स्वागत हँसते-हँसते करेंगे अथवा रोते-रोते। विरहिणी यशोधरा के लिए सिद्धार्थ का स्वागत हँसते-हँसते करना तो कठिन है, वे उससे बिना पूछे जो चले गए हैं।


विशेष-


(1) 'दु:खी न हो जन के दु:ख से में भारतीय नारी को अपने पति के कल्याण के लिए उदात्त और अवदात्त भावना छिपी है। भारतीय नारी स्वयं अनेक कष्टों को सहकर भी यह कभी नहीं चाहती कि उसका पति किसी प्रकार से भी दु:खी हो।


(2) प्रस्तुत पंकितयों में विप्रलम्भ श्रृंगार की स्रोतसिवनी प्रवाहित हो रही है और उसमें मर्मस्पर्शिता भी विधमान है।


(3) इस गीत की भाषा सहज और सरल है।


(2) 'जयद्रथ-बध


काव्य का प्रतिपाध


यह काव्यांश मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित 'जयद्रथ-वध खण्डकाव्य से उद्धत है। प्रस्तुत खण्डकाव्य सात सर्गों में विभक्त है। इसमें महाभारत का वह प्रसंग वर्णित है, जिसके अंतर्गत द्रोणाचार्य द्वारा चक्रव्यूह की रचना किये जाने से लेकर अजर्ुन द्वारा जयद्रथ के वध तक की कथा आ जाती है। आपके पाठयक्रम में निर्धारित काव्यांश इस काव्य के प्रथम सर्ग से लिया गया है। कवि ने ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में भगवान राम की स्तुति की है और इसके बाद इस Ñति के उíेश्य, महाभारत-युद्ध के कारण, उसके उत्तरदायी व्यकित और परिणामों का संकेत किया है।


महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य के द्वारा बनाये गये चक्रव्यूह में, अजर्ुन की अनुपसिथति में युद्ध के लिए गये हुए अभिमन्यु को अब फंसा लिया जाता है और जयद्रथ द्वारा उसका वध का दिया जाता है तो युद्ध से लौटे हुए अजर्ुन के लिए यह दु:खद मृत्यु असहनीय हो उठती है और वे जयद्रथ-वध की भीषण प्रतिज्ञा कर बैठते हैं तथा उसको अंजाम भी देते हैं। गुप्त जी ने महाभारत की कथा के इसी अंश को इस खण्ड-काव्य का वण्र्य-विषय बनाया है।


महाभारत का युद्ध होने के मूल कारण पर विचार करते हुए कवि का मत है कि संसार का सबसे बुरा कर्म अपने अधिकार का उपयोग न करना है। अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए यदि कभी अपने बन्धुओं को दण्ड देना पड़े तो यह कर्म अधर्म न माना जाकर धर्म ही माना जायेगा। यही कारण है कि महाभारत का युद्ध धर्म का अधर्म से युद्ध कहा जाता है। प्राचीनकाल में कौरवों और पाण्डवों के बीच जो युद्ध हुआ था, यह अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए हुआ था। यह युद्ध इतना भयानक था कि प्रलय का सा दृश्य उपसिथत हो गया। इसी युद्ध के कारण भारतवर्ष प्रगति में इतना पिछड़ गया कि आज तक वह अपने प्राचीन गौरव को पुन: प्राप्त न कर सका। अत: कवि ने देश-वासियों को यह संदेश दिया है कि पारस्परिक र्इष्र्या-द्वेष का भाव छोड़कर हित-मिल कर रहना चाहिए। आपस की फूट विनाशकारी होती है।


दुर्योधन के क्षुद्र स्वार्थ तथा राज्य-सत्ता के मोह के कारण ही महाभारत का भीषण युद्ध लड़ा गया। यदि वह पांडवों को पाँच गाँव देकर संधि कर लेता तो कुरुक्षेत्रा का मैदान रक्त का पारावार नहीं बनता। दुर्योधन के हठ के कारण ही महाभारत का युद्ध हुआ। भार्इ-भार्इ के रक्त का प्यासा बन गया। कत्र्तव्यपूर्ति के लिएµसमझदार व्यकितयों को भी अवांछित कार्यों में समिमलित होना पड़ा। महाभारत की सभी घटनाएँ भारतवासियों से सम्बद्ध हैं। इसीलिए उन्हें इनका ज्ञान होना आवश्यक है।


इन प्रकार कवि भगवान पर विश्वास रखने के लिए कहता है क्योंकि मानव का अधिकार केवल कर्म करने का है और कर्म का फल देने का काम भगवान का है। महाभारत के युद्ध के मूल कारणों और भयंकार परिणामों का संकेत करके कवि ने मूल Ñति के उíेश्यµ'अधिकार खोकर बैठा रहना, यह महादुष्कर्म है पर प्रकाश डाला है। भाषा तत्समनिष्ठ खड़ी बोली है। हरिगीतिका छन्द का प्रयोग किया गया है। आलंकारिक भाषा की छटा दर्शनीय है।


शब्दार्थ एवं व्याख्या


1. अधिकार खोकर.......................................................................................कारण हुआ।


शब्दार्थ- दुष्कर्म ¾ बुरा काम, भव्य ¾ सुन्दर, कल्पान्त ¾ कल्प का अन्त (प्रलय)।


प्रसंग- यहाँ पर कवि ने व्यकित को अपने अधिकारों के प्रति सजग किया है और बताया है कि अपने अधिकारों के लिए लड़ना अर्धम न होकर धर्म होता है।


व्याख्या- महाभारत का युद्ध होने का मूल कारण यह था कि कौरवों ने पांडवों से उनका राज्य छलपूर्वक ले लिया था। पाण्डवों ने अपने राज्य को पाने के लिए उन से युद्ध किया था। पाण्डव क्षत्रिय थे और क्षत्रिय कभी अन्याय सहन नहीं करते। इसलिए उन्होंने अपने खोये हुए राज्य के अधिकार को पाने के लिए कौरवों से युद्ध किया। यदि वे अपने राज्य को, अपने अधिकार को पाने के लिए युद्ध न करते तो उनका यह कार्य अपमानजनक माना जाता, निन्दनीय माना जाता। क्योंकि कवि की दृषिट में अपने अधिकारों के लिए किया गया युद्ध अन्याय न होकर न्याय संगत होता है। इस न्याय के लिए यदि अपने भाइयों को भी दण्ड देना पड़े तो दे देना चाहिए। इसी न्याय भावना को अपनाते हुए पाण्डवों ने अपने ही कौरव भार्इयों से युद्ध करके उनको दण्ड दिया और अपने खोये हुए अधिकारों को फिर से प्राप्त किया। कौरवों और पाण्डवों का यह युद्ध महाभारत का युद्ध कहलाया। महाभारत के इस युद्ध के साथ ही सुन्दर, समृद्ध भारतवर्ष का एक कल्प (समय की अवधि का नाम) समाप्त हो गया।


विशेष-


(1) 'अधिकार खोकर बैठे रहना.............इस पंकित में कवि ने 'जयद्रथ-बध काव्य में निहित संदेश की ओर संकेत किया है।


(2) 'जो भव्य.........हुआ पंकित में महाभारत का भयंकर परिणाम उल्लेखित है।


(3) 'अधिकार खोकर बैठे रहना तथा 'न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दंड देनाµसूकितयों का प्रयोग किया गया है।


(4) 'भव्य भारतवर्ष, 'कल्पान्त का कारण में अनुप्रास अलंकार है।


(5) हरिगीतिका छन्द का प्रयोग किया गया है।


2. सब लोग.............................................................................................स्वाहा हो गया।


शब्दार्थ- शौर्य ¾ पराक्रम, वीरता, समरागिन ¾ युद्ध रूपी ज्वाला।


प्रसंग- महाभारत के भयंकर परिणाम की ओर संकेत करते हुए कवि ने सब लोगों को अपनी र्इष्र्या-द्वेष की भावना को भुलाकर आपस में मिलजुल कर रहना चाहिए का संदेश दिया है। यदि लोगों में यही भावना आरंभ से ही विधमान रहती तो भारतवर्ष को यह बुरा दिन न देखना पड़ता और इस देश की भूमि पर महाभारत का भयंकर युद्ध न लड़ा जाता। अर्थात र्इष्र्या की वृत्ति ही इस प्रलयकारी युद्ध का कारण बनी। इस युद्ध में भारतवर्ष की अतुलनीय वीरता जो आज स्वप्न के समान समझी जाती है सब नष्ट हो गर्इ। इस शौर्य के साथ देश का वैभव भी युद्ध रूपी अगिन में जलकर नष्ट हो गया।


विशेष-


(1) यहाँ पर महाभारत के भयंकर परिणामों का प्रतिपादन किया गया है। आपस की फूट विनाशकारी होती है। देश के सभी निवासियों को परस्पर प्रेमपूर्वक रहना चाहिए।


(2) भाषा तत्समनिष्ठ खड़ी बोली है।


(3) हरिगीतिका छन्द का प्रयोग किया गया है।


(4) अन्त्यानुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है।


(5) 'स्वप्नतुल्य में उपमा, समरागिन में रूपक तथा 'समागिन में सर्वस्व स्वाहा में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है। 'हा! हा! में वीप्सा अलंकार है।


3. दुवर्ृत दुर्योधन.............................................................................................मझदार में।


शब्दार्थ- दुर्वत ¾ दुष्ट आचरण या बुरी नियत वाला, शठता ¾ दुष्टता, पारावार ¾ समुद्र, मझदार ¾ बीच धारा।


प्रसंग-महाभारत के युद्ध का उत्तरदायी दुर्योधन को मानते हुए कवि कहता है कि वह युधिष्ठर के राज्य को हड़प लेता है। महाभारत का युद्ध केवल दुर्योधन की सदान्धता तथा सत्ता लोलुपता के कारण हुआ था। यदि वह जरा भी सुबुद्धि अपनाता तो सम्भवत: इतना अधिक जन-संहार होने से बच जाता। श्रीÑष्ण का प्रस्ताव था कि वह पांडवों को आधा राज्य दे दे, किन्तु दुर्योधन ने इस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया। इसके बाद Ñष्ण ने पांडवों के लिए केवल पाँच गाँव माँग कर ही समझौता करना चाहा तो दुर्योधन ने हठ करके यह कहा कि बिना युद्ध के वह सुर्इ की नोंक के बराबर भूमि भी पांडवों को न देगा। इन पंकितयों में महाभारत के युद्ध के उत्तरदायी दुर्योधन की दुष्टता का वर्णन किया गया है।


व्याख्या- कवि का कहना है कि महाभारत का युद्ध दुर्योधन की दुष्टता, कुबुद्धि और नीचता के कारण हुआ। यदि वह थोड़ी सी सुबुद्धि को अपनाता तो सम्भवत: इतना अधिक जनसंहार होने से बच जाता। उसने श्रीÑष्ण के शानित प्रयासों को विफल कर दिया। श्रीÑष्ण ने पांडवों के लिए केवल पाँच गाँव मांगकर ही समझौता करना चाहा। किन्तु दुर्योधन ने उसके संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा पांडवों को महायुद्ध करने के लिए विवश कर दिया। यदि वह न्यायपूर्वक उन्हें उनका अधिकार दे देता तो भारतवर्ष युद्ध-क्षेत्रा के रक्त-सागर में न डूबता। इस प्रकार अकेले दुर्योधन के क्षुद्र-स्वार्थ तथा राज्य-सत्ता के मोह के कारण ही महाभारत का भीषण युद्ध लड़ा गया। एक पापी के पाप-कर्मो के कारण ही पूरी नौका डूब जाती है। वह स्वयं भी डूबता है और दूसरों के डूबने का कारण भी बनता है। भाव यह है कि दुर्योधन का पापी âदय पांडवों को हमेशा कष्ट में ही देखना चाहता है। उसके जीवन-दर्शन में धर्म और न्याय के लिए कोर्इ स्थान नहीं है। उसे केवल साèय की चिन्ता है। उसकी पूर्ति के लिए उसे चाहे जैसे साधन अपनाने पड़े, कितना ही जल-संहार करना पड़े, उनके लिए वह पूर्ण रूप से तत्पर है।


विशेष-


(1) दुर्योधन के चरित्रा के प्रमुख गुणµदुष्टता, कुबुद्धि तथा नीचता की ओर संकेत किया गया है।


(2) महाभारत युद्ध का उत्तरदायी कवि ने दुर्योधन को माना है उसके क्षुद्र-स्वार्थ तथा राज्य-सत्ता के मोह के कारण ही महाभारत का भीषण युद्ध लड़ा गया।


(3) भाषा तत्समनिष्ट खड़ी बोली है।


(4) हरिगीतिका छन्द का प्रयोग किया गया है।


(5) 'ले डूबता है एक पापी नाव को मझधार मेंµलोकोकित का प्रयोग किया गया है।


4. हा! बंधुओं.............................................................................................करते कहो ?


शब्दार्थ- सहट ¾ हठपूर्वक, संहारे गये ¾ मारे गये, रत ¾ प्रवृत्त, विज्ञजन ¾ ज्ञानवान लोग, अपूर्व ¾ अदभुत।


प्रसंग- प्रस्तुत पंकितयों में महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों द्वारा किए गए अनुचित कार्यो का उल्लेख है।


व्याख्या-महाभारत के युद्ध में पारिवारिक सम्बन्ध उपेक्षित हो गये। बंधुओं के हाथों बन्धुओं का संहार हुआ। कौरव और पाण्डव चचेरे भार्इ थे, किन्तु अपने अधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें यह प्रलयकारी युद्ध लड़ना पड़ा, दोनों ओर से अवांछित कार्य किये गये। भले ही पांडव इस दुष्Ñत्य से दूर रहना चाहते थे। किन्तु न चाहते हुए भी उन्हें यह कर्म, अधर्म न मानकर धर्म मानना पड़ा। युद्ध में पिता के हाथों पुत्रा की, गुरु के हाथों शिष्य की हत्या हुर्इ। इतिहास में इस युद्ध से पहले कहीं भी ऐसी घटना घटित नहीं हुर्इ, जिसमें ज्ञानवान व्यकितयों को चाहे-अनचाहे ऐसा दुष्Ñत्य करने को विवश होना पड़ा हो। कवि चाहता है कि ऐसी घटना से सभी भारतवासियों को अवगत होना चाहिए। जिस वस्तु से व्यकित का सम्बन्ध हो उसे जान लेना आवश्यक होता है।


भावार्थ यह है कि प्राचीनकाल में यदि अपने अधिकार प्रापित के लिए युद्ध लड़ा जा सकता है तो आज के युग में अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने तथा अपनी स्वाधीनता को प्राप्त करने के लिए भी लड़ना है। (गुप्त जी ने इस Ñति की रचना जब की तब हमारा देश परतंत्रा था)।


विशेष-


(1) कभी-कभी अधिकार प्राप्त करने के लिए कुल के ही बंधु-बांधवों का वध कर देना पड़ता हैµइसी दुष्Ñत्य की ओर इन पंकितयों में संकेत किया गया है।


(2) भाषा तत्समनिष्ठ खड़ी बोली है।


(3) हरिगीतिका छन्द का प्रयोग किया गया है।


(3) 'हम राज्य लिये मरते हैं


काव्य का प्रतिपाध


'हम राज्य लिए मरते हैं, शीर्षक गीत मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित 'साकेत महाकाव्य के नवम सर्ग से उद्धृत है। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के सामने अपना तथा राज-परिवार का जीवन भी है और Ñषकों का जीवन भी। दोनों के अन्तर को लेकर वह विचार करती है कि हम राज्य को अपना सर्वस्व समझकर उचित-अनुचित सब कुछ करते रहते हैं। परन्तु वास्तविक रूप में सच्चा राज्य तो हमारे Ñषक ही करते हैं। राजा का कत्र्तव्य प्रजा का पालन करना होता है और यह कार्य Ñषक अपने खेत में अन्न उत्पन्न करके करते हैं। अत: हमें उन्हें ही सच्चा राजा मानना न्यायसंगत है।


जिस राज्य को लेकर हम इतना गर्व करते हैं और जिसे प्राप्त करने के लिए हम प्राणों की बाजी तक लगा देते हैं, उस राज्य में राज-परिवार को दु:ख-कष्टों के अलावा और दिया ही क्या ? यह राज्य तो सभी दु:ख-दर्दों और झगड़ों का मूल कारण है। यहाँ पर कवि के द्वारा राज्य के प्रति उर्मिला की घृणा और तिरस्कार की भावना की बड़ी ही सहज अभिव्यकित की गर्इ है।


आगे वे पुन: विचार करने लगती हैं किµहम इस राज्य को प्राप्त करने के लिए अनेक तर्क-कुतर्क का सहारा लेते हैं, जबकि इन सबसे मुक्त किसान गोधन के धनी, उदार और सुखी दाम्पत्य जीवन बिताते हैं। यदि उन्हें अपने जीवन पर गर्व है तो वे इसके अधिकारी हैं, राज्य को पाने के लोलुप हम व्यर्थ ही गर्व से भरे हुए राज्य प्रापित के लिए मरते रहते हैं।


प्रस्तुत गीत में गुप्त जी ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में राज्य को तुच्छ बताते हुए बुद्धिवादिता का खंडन किया है तथा Ñषकों के चिन्ताहीन, आनंदपूर्ण सरल जीवन को श्रेष्ठ बताया है। उनके अनुसार बुद्धि की अपेक्षा धर्म को ही जीवन का मूल मानना चाहिए। भाषा तत्समनिष्ठ खड़ी बोली है।


शब्दार्थ एवं व्याख्या


1. हम राज्य लिए.............................................................................................मरते हैं।


शब्दार्थ- Ñषक ¾ किसान, भव-वैभव ¾ सांसारिक ऐश्वर्य, आगर ¾ भंडार, प्रहरी ¾ पहरेदार।


प्रसंग- प्रस्तुत गीत में उर्मिला राज्य के वास्तविक अधिकारी किसान को मानते हुए कहती हैंµ


व्याख्या-यह दुर्भाग्य की बात है कि हम राजवंशी लोग तो राज्य की प्रापित पर अभिमान करते हैं, उसके लिए मरते रहते हैं, जबकि वास्तविक राज तो हमारे Ñषकगण ही करते हैं। जिसके खेतों में फसलों के रूप में अन्न भरा हो, उनसे अधिक सम्पत्तिवान और कौन हो सकता है ? अपने धन्य-धन्य (फसल रूपी धन) से भरे खेतों में पत्नी सहित विचरण करते हुए Ñषकों को समस्त सांसारिक वैभवों का स्वामी कहा जा सकता है, अपने इस अन्न-धन से वे संसार के वैभव में भी अभिवृद्धि करते रहते हैं।


इस उदार किसानों के पास गाय-धन की भी कभी नहीं होती, जिनका उन्हें अमृत के समान मीठा दूध पीने के लिए सहजतया ही उपलब्ध हो जाता है। सहनशीलता की तो वे साक्षात मूर्ति ही होते हैं तथा अपने कर्मठ स्वभाव के द्वारा परिश्रम के सागर को पार करते रहते हैंµवे अत्यधिक परिश्रमी होते हैं।


विशेष-


(1) उर्मिला राज्य के वास्तविक अधिकारी किसानों का ही मानती हैं, क्योंकि उनके द्वारा उपजाए अन्न से हम सबका पेट भरता है।


(2) वे बहुत ही परिश्रमी तथा सहनशील होते हैं।


2. यदि वे करें...................................................................................................भरते हैं।


शब्दार्थ- मीन-मेख ¾ व्यर्थ की दलीलें देना, बुध ¾ विद्वान।


प्रसंग- इन पंकितयों में उर्मिला Ñषकों के गुणों (महत्ता) पर प्रकाश डालती हैं।


व्याख्या- उर्मिला के अनुसारµयदि Ñषक अपनी वृत्ति पर गर्व करें तो वह उचित ही है। ऐसे परिश्रमशील पुरुषों द्वारा छोटी-छोटी बातों के अवसर पर भी उत्सव और पर्व मनाना पूर्णतया न्यायसंगत ही है, क्योंकि इन उत्सर्वो से उनके श्रम का परिहार होता है। जब उनके हम जैसे पहरेदार हों, उनकी तथा उनके धन-धान्य की रक्षा करने वाले हों तो उन्हें किसी से भयभीत होने की आवश्यकता ही क्या है ? बुद्धिमान व्यकित अनावश्यक तर्क-वितर्क करते हुए कठोर वाद-विवादों में फंसे रहते हैं, जबकि किसान कुटिल बुद्धि को तजकर, व्यर्थ की बातों में न उलझकर धर्म के वास्तविक तत्त्व (परोपकार, परिश्रमशीलता आदि) को ही ग्रहण करते हैं, धर्म के मूल लक्षणों के अनुसार ही आचरण करते हैं अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि तिलक-कंठी, पूजार्चना न करते हुए भी किसान इस रूप में सच्चे धर्मात्मा हैं कि अन्न-फल-दूध आदि प्रदान करके प्राणियों को जीवित रखते हैं।


किसानों के सुख-समृद्धिमय जीवन की प्रकारान्तर से प्रशंसा करती हुर्इ उर्मिला आगे कहती हैं कि यदि हम लोग भी किसान ही होते तो इन कष्टों को फिर कौन भोगता ? किसान तो र्इश्वर के ही प्रतिरूप होते हैं इसीलिए वे हमारे अन्नदाता कहलाते हैं। हमारे दु:ख भी उन्हें सुखी देखकर दूर हो जाते हैंµउनके सुख में ही हमारा भी सुख निहित है। इस प्रकार परिश्रमी, सहनशील किसान धन्य हैं, जबकि हम राजवंशी लोग या तो राज्य-प्रापित की कामना से व्यर्थ ही लड़ते-मरते रहते हैं अथवा राज्य की प्रापित पर व्यर्थ ही गर्व से फूले रहते हैं।


विशेष-


(1) उर्मिला Ñषकों को सबसे ज्यादा सुखी मानती हैं।


(2) वे Ñषकों को कुटिलतारहित और Ñषक-धर्म का निर्वाह करने वाला मानती हैं।


(3) भाषा तत्समनिष्ठ खड़ी बोली है।


प्रश्न


1. मैथिलीशरण गुप्त की कविता 'हम राज्य लिए मरते हैं का प्रतिपाध स्पष्ट कीजिए।


2. निम्नलिखित पंकितयों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-


'अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है,


न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।


इस तत्त्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,


जो भव्य भारतवर्ष के कल्पांत का कारण हुआ।।




सम्बन्धित प्रश्न



Comments Mamtha on 09-11-2021

यों देख कर चिन्तित उन्हें धर ध्यान समरोत्कर्ष का,

प्रस्तुत हुआ अभिमन्यु रण को शूर षोडश वर्ष का।

वह वीर चक्रव्यूह-भेदने में सहज सज्ञान था,

निज जनक अर्जुन-तुल्य ही बलवान था, गुणवान था।।


Tanu neha on 18-09-2021

Konse chapter ka hai ye

Udbodhan Kavita ka Saar on 09-08-2021

भारत भारती कविता में उद्बोधन कविता का सार


Answer de on 07-07-2021

Maithili Sharan Gupt dwara Rachit Kavita Bharat Bharti ka Kendriya Bhav spasht kijiye

Baljeet Kaur on 18-10-2020

भारत भारती अतीत खंड मंगलाचरण की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए





नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें Culture Current affairs International Relations Security and Defence Social Issues English Antonyms English Language English Related Words English Vocabulary Ethics and Values Geography Geography - india Geography -physical Geography-world River Gk GK in Hindi (Samanya Gyan) Hindi language History History - ancient History - medieval History - modern History-world Age Aptitude- Ratio Aptitude-hindi Aptitude-Number System Aptitude-speed and distance Aptitude-Time and works Area Art and Culture Average Decimal Geometry Interest L.C.M.and H.C.F Mixture Number systems Partnership Percentage Pipe and Tanki Profit and loss Ratio Series Simplification Time and distance Train Trigonometry Volume Work and time Biology Chemistry Science Science and Technology Chattishgarh Delhi Gujarat Haryana Jharkhand Jharkhand GK Madhya Pradesh Maharashtra Rajasthan States Uttar Pradesh Uttarakhand Bihar Computer Knowledge Economy Indian culture Physics Polity

Labels: , , , , ,
अपना सवाल पूछेंं या जवाब दें।






Register to Comment