UpNayan Sanskar Ki Vidhi उपनयन संस्कार की विधि

उपनयन संस्कार की विधि



GkExams on 12-02-2019

इस संस्कार के दौरान जातक को गुरु के सानिध्य में भेजा जाता है ताकि वह गुरु से ज्ञान प्राप्त कर देश व समाज की उन्नति सहित अपने जीवन को सही ढंग से जी सके। इस संस्कार के दौरान आरंभ में वेदों की शिक्षा भी आरंभ की जाती थी जिसकी शुरुआत गुरु द्वारा जातक को गायत्री मंत्र में दीक्षित कर दी जाती थी। इसके लिये पहले जातक को यज्ञोपवीत भी धारण करवाया जाता था क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात ही वह वेद शिक्षा आरंभ करने का अधिकारी हो पाता था। वेदाध्ययन अपनी-अपनी शाखाओं के अनुसार किया जाता था। अपने शिक्षा काल के दौरान जातक से ब्रह्मचर्य का पालन करने का संकल्प भी लिया जाता था। इस संकल्प के पश्चात ही गुरु उसे अपने पास रहने की आज्ञा देते थे। तत्पश्चात जातक को गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ स्वयं व गुरु के भरण-पोषण के लिये भिक्षा मांग कर लानी पड़ती थी। मान्यता है इससे जातक के अंदर से अहंकार की भावना नष्ट होती थी। गृह्यसूत्र एवं स्मृति ग्रंथों में उपनयन संस्कार की विधि विस्तार से मिलती है। इसमें वर्णानुसार जातकों को मेखला धारण करवाई जाती है जो कि ब्राह्मण बालक के लिये मूंज तो क्षत्रियों के लिये धनुष की डोर होती थी। वैश्य जातक ऊन के धागे की कोंधनी धारण करते थे। मेखला के साथ ही जातकों को दंड यानि डंडा भी दिया जाता था ब्राह्मण ढ़ाक या बेल का डंडा रखते थे तो क्षत्रिय जातक बरगद वृक्ष का वहीं वैश्य जातकों के लिये उदुंबर का दंड धारण करने का विधान था। प्राचीन समय में वन क्षेत्र अधिक होते थे सुदूर क्षेत्रों से भिक्षा मांग कर लानी पड़ती ऐसे में जातकों की सुरक्षा के लिये यह उपयोगी सिद्ध होते थे।


उपनयन संस्कार को लेकर यह भी मान्यता है कि यह संस्कार अधिकृत वर्णों के भी सभी जातकों के लिये अनिवार्य नहीं था बल्कि जो जातक वेदों की शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक होते थे उनके लिये ही उपनयन संस्कार की अनिवार्यता थी। वैदिक परंपरानुसार इस उपनयन के पश्चात जातक को गुरु या कहें आचार्यों के सानिध्य में रहना होता था इसी दौरान उन्हें सभी व्रतों का पालन भी करना पड़ता। प्रात: एवं सांय काल में हवन करना उनका नित्यकर्म था, साथ ही अपने व गुरु के पोषण हेतु भिक्षाचरण भी आवश्यक होता था। इस प्रकार वैदिक ज्ञान को प्राप्त करने के पश्चात गुरु से अंतिम दीक्षा पाने के पश्चात ही जातक को वापस आना होता था। यही उपनयन संस्कार का मुख्य ध्येय भी होता था। धार्मिक ग्रंथों में जो आख्यान मिलता है वह इस प्रकार है।


बटुक का पिता उसे लेकर आचार्य के पास जाता है वहां बटुक विनीत भाव से आचार्य को प्रणाम कहता है मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं। तत्पश्चात गुरु वैदिक मंत्र के साथ उसे नये वस्त्र धारण करवाते हैं। इसके पश्चात कमर में मेखला बंधन करते थे। यज्ञोपवीत, अजिन एवं दंड प्रदान करते थे व बटुक इसे स्वीकार कर धारण करता था। इसके बाद अपनी अंजलि में जल लेकर बटुक की अंजलि में डालते थे व उसे सूर्य दर्शन करवा कर उसके दाहिने हाथ को पकड़ कर पूछते कि तुम्हारा नाम क्या है। इसके पश्चात वह अपना नाम लेकर कहता है कि मैं अमूक नाम वाला हूं। आचार्य पुन: पूछते हैं तुम किसके ब्रह्मचारी यानि किसके शिष्य हो। वह उत्तर देता कि आपका ब्रह्मचारी हूं। इसके बाद गुरु कहते हैं कि “हे वत्स तुम इंद्र परमैश्वर्य संपन्न के ब्रह्मचारी हो, तुम्हारे प्रथम आचार्य अग्नि हैं, दूसरा आचार्य मैं हूं। मैं तुम्हें प्रजापति, सकवता, औषधि, द्यावापृथिवी, विश्वेदेवा व समस्त भूतों के लिये रक्षार्थ समर्पित करता हूं”। इस तरह उपनयन संस्कार का अनुष्ठान संपन्न होता।





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