विगत चार-पाँच वर्षों से भारतीय अर्थव्यवस्था विकेन्द्रीकरण की जो
प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है उससे एक बात तो साफ जाहिर है कि यदि हम विकास
में जिसमें सामाजिक-आर्थिक विकास प्रमुख है, गति चाहते हैं तो सत्ता का
विकेन्द्रीकरण अनिवार्य है अर्थव्यवस्था के द्रुुत गति से विकास के लिए
लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ आर्थिक विकेन्द्रीकरण भी अनिवार्य
है, क्योंकि राजनीतिक स्वतंत्रता तभी सार्थक होती है जब आर्थिक स्वतंत्रता
हो और आर्थिक स्वतंत्रता तभी सार्थक होती है जब राजनीतिक स्वतंत्रता दी
जाए। इस कड़ी में 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, जिसमें जिला, उपजिला
(जनपद), और ग्रामस्तर पर स्थानीय स्वशासी पंचायती राज संगठन के जरिए
विकेन्द्रित प्रशासन का प्रावधान है, एक महत्त्वपूर्ण कदम है जिससे एक ओर
तो इक्कीसवीं सदी में भारत की तस्वीर एक अलग रूप में प्रस्तुत होगी, दूसरी
ओर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के इस कथन की सच्चाई भी सामने आएगी कि ‘‘अगर
हिन्दुस्तान के हर एक गाँव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी उस
तस्वीर की सच्चाई साबित कर सकूँगा जिसमें सबसे पहला एवं सबसे आखिरी दोनों
बराबर होंगे या यूँ कहिये कि ना कोई पहला होगा, न को आखिरी।’’
73वें संविधान संशोधन अधिनियम को यदि सही ढँग से क्रियान्वित किया जाए तो
निश्चित रूप से सत्ता में आम आदमी की भागीदारी बढ़ेगी जो लोकतंत्र का
वास्तविक सार है। सत्ता में आम आदमी की भागीदारी बढ़ने से स्थानीय स्वशासन
प्रणाली मजबूत होगी और ग्रामीण स्तर पर लोकतंत्र और स्थानीय स्वशासन के सफल
क्रियान्वयन से विकास की गति बढ़ेगी क्योंकि प्रो. हेनरी मैड्रिक के
अनुसार ‘‘स्वशासन, लोकतंत्र व विकास के बीच त्रिपक्षीय सम्बन्ध है।’’
मध्यप्रदेश 73वें संविधान संशोधन अधिनियम को लागू करने में सम्पूर्ण
भारतवर्ष में सबसे अग्रणी राज्य के रूप में सामने आया है। 25 जनवरी, 1994
को म.प्र. पंचायती राज अधिनियम संस्थापित करके 23 एवं 30 मई तथा 7 जून 1994
को पूरे प्रदेश में तीनों स्तर पर (30,922 ग्राम पंचायतें, 459 जनपद
पंचायतें एवं 45 जिला पंचायतें) चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं और उनके
कार्यकाल को दो वर्ष पूरे हो चुके हैं।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोध-पत्र की पृष्ठभूमि में यह जिज्ञासा थी कि स्थानीय स्वशासन
प्रणाली को मजबूत बनाने का उद्देश्य किस हद तक और कहाँ तक सार्थक हो रहा
है? विशेषकर 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के पहले इनकी स्थिति कैसी और
क्या थी और इसके बाद इन स्थितियों में परिवर्तन कितना और कहाँ-कहाँ हो रहा
है? यह नई व्यवस्था कहाँ तक सार्थक सिद्ध हो रही है और होने वाली है, यह तो
भविष्य ही बताएगा लेकिन ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर अनुमान तो लगाया ही
जा सकता है। ग्राम पंचायतें, जबकि उन्हें और मजबूत बनाया जा रहा है, किस ओर
आगे बढ़ रही हैं, इन्हीं सब प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए प्रस्तुत
शोध-पत्र का उद्देश्य निम्नलिखित निर्धारित किया गया हैः-
(1) ग्राम पंचायतों के आय-व्यय का आर्थिक विश्लेषण करना,
(2) ग्राम पंचायतों की प्रमुख आर्थिक एवं व्यावहारिक समस्याओं का पता लगाना, तथा
(3) समस्याओं के निराकरण तथा वित्तीय व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु उपयुक्त एवं व्यावहारिक सुझाव प्रस्तुत करना।
लेखक ने रायपुर जिला के फिंगेश्वर, अभनपुर, सरायपाली और बसना विकासखण्ड के 5
ग्राम पंचायतों से आँकड़े एकत्रित कर ग्राम पंचायतों के आर्थिक विश्लेषण
का प्रयास किया। उसने अपने शोध-पत्र में आय-व्यय की संयुक्त वृद्धिदर
निकाली तथा तुलनात्मक विश्लेषण के लिए प्रतिशत विधि का प्रयोग किया।
शोध-पत्र में लेखक इस नतीजे पर पहुँचा कि ग्राम पंचायतों का कार्य निष्पादन
विगत पाँच वर्षों से (चाहे वह नई पंचायती राज व्यवस्था 73वें संविधान
संशोधन अधिनियम से गठित हो या उसके पहले की पंचायती राज व्यवस्था से गठित
हो) जब से भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, बाजारीकरण, विकेन्द्रीकरण,
आधुनिकीकरण एवं विश्वव्यापीकरण प्रारम्भ हुआ है, संतोषजनक नहीं है।
संतोषजनक इस मायने में कि पंचायतें बजाय ‘आत्मपोषित’ बनने के ‘परजीवि’ बनती
जा रही हैं, आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के बजाय पर-निर्भरता की प्रवृत्ति
लगातार बढ़ रही है; पंचायतों के अपनी आय के स्थानीय मदों की संख्या एवं
प्रकार में लगातार कमी होती जा रही है। कुल मिलाकर पंचायतों की
‘स्वयंपोषित’ आर्थिक स्थिति क्रमशः गिर रही है जो कि ‘विकेन्द्रीकरण के
सार’ के बिल्कुल विपरीत है।
1990-91 में ग्राम पंचायतों को जो आय प्राप्ति अपने स्थानीय स्रोतों जैसे
अनिवार्य कर (भवन, भू-उपकर, भू-सम्पत्ति कर, प्रकाश कर) वैकल्पिक कर (जल
कर, सफाई कर, जल प्रदाय शुल्क, कांजी हाउस शुल्क) ठेके से प्राप्त आय
(तालाब दैनिक साप्ताहिक बाजार, खदान, नदियों में रेती) तथा अन्य मदों
(ब्याज, किराया, राशनकार्ड, व्यवसाय कर आदि) से होती थी, और जो कुछ आय का
70 या उससे भी अधिक प्रतिशत रहती थी, वह 1994-95 तक घटकर लगभग आधी यानि 40
प्रतिशत या उससे भी कम रह गई है जब कि इन स्थानीय साधनों-सेवाअें के सुधार,
देखरेख एवं अनुरक्षण पर व्यय की प्रतिशत राशि लगातार बढ़ती जा रही है। इन
स्थानीय स्रोतों में अनिवार्य करों की राशि में संयुक्त वृद्धिदर
(सी.जी.आर.) मात्र छह प्रतिशत है जिसका कारण वसूली की लापरवाही या कड़ाई से
वसूली नहीं करना है कुछ पंचायतों में तो यह राशि एक हजार रुपये से भी कम
हो गई है। अन्य करों से प्राप्त आय की वृद्धि दर और भी दयनीय स्थिति में
पहुँच गई है तथा आयकर के कई अन्य स्रोत बंद हो चुके हैं जिसके कारण इसकी
संयुक्त वृद्धि दर ऋणात्मक (-.23) में पहुँच चुकी है। पंचायतों के कुल
स्थानीय स्रोतों की आय की संयुक्त वृद्धि दर +18.85 प्रतिशत की तुलना में
इन पर व्यय की संयुक्त वृद्धि दर +30 से +62 प्रतिशत तक है। दूसरी तरफ
सरकारी सहायता, अनुदान व विभिन्न मदों से पंचायतों को दी जाने वाली राशि
में 1990-91 की तुलना में 1994-95 में तीन गुना से भी अधिक की वृद्धि होकर
वह कुल आय के 13 प्रतिशत से बढ़कर 45 या उससे अधिक तक पहुँच चुकी है।
चिंताजनक स्थिति यह है कि आपसी मतभेद, राजनीतिक गुटबाजी और अपर्याप्त
समन्वय के कारण सरकारी सहायता राशि भी पूरी खर्च नहीं हो पा रही है। कई
पंचायतों में तो स्थिति यह है कि सरकार का पूरा पैसा खर्च न कर पाने की वजह
से वापिस चला जाता है, और पंचायतों का निर्माण तथा विकास कार्य अधूरा पड़ा
हुआ है।
ग्राम पंचायतों की समस्याएँ
i. ग्राम पंचायतों के स्थानीय स्रोत दिनोंदिन समाप्त होते जा रहे हैं और
स्थानीय स्रोतों से शुल्कों/करों आदि की वसूली राशि क्रमशः घटती जा रही है।
ii. विभिन्न योजनाओं के तहत ग्राम पंचायतों को सरकार विकास एवं निर्माण
कार्यों के लिए जो राशि आवंटित कर रही है, वह व्यय नहीं हो पा रही है और कई
बार पैसा वापिस चला जाता है।
iii. पंचायत प्रतिनिधि आय के नए स्रोतों को लागू करने या करों की कड़ाई से
वसूली करने के प्रति उदासीन हैं, या किसी तरह का झंझट मोल नहीं लेना चाहते।
iv. ग्रामीण विकास, आर्थिक विकास या रचनात्मक कार्यों के प्रति पंचायत प्रतिनिधियों में कोई उत्साह नहीं है।
v. ग्रामीण क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक गुटबाजी के कारण और प्रतिनिधियों के
स्वार्थपरक मनमानीपूर्ण रवैये के कारण जनता की सहभागिता अपर्याप्त है।
vi. पंचायत प्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों के मध्य उचित तथा आवश्यक समन्वय का अभाव है।
vii. अवांछित एवं गैर-राजनीतिक तथा राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है।
viii. पंचायतों क अधिकारों का दुरुपयोग हो रहा है और महिला तथा जातिगत
आरक्षण व्यवस्थापन्न लाभ पुरुष प्रधान, सम्पन्न एवं धनी वर्ग के लोगों को
ही मिल रहा है।
ix. प्रशिक्षण जानकारी के अभाव में आम जनता और पंचायत प्रतिनिधियों में तालमेल का सर्वथा अभाव है।
x. ग्रामीण क्षेत्र का कुशल नेतृत्व राजनीतिक व आर्थिक स्वार्थ से प्रेरित होकर गलत दिशा में जा रहा है।
सुझाव
ग्रामीण अंचलों में विकासोन्मुख कार्यक्रमों को गति देने, सत्ता का
विकेन्द्रीकरण करते हुए सत्ता में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और
बढ़ाने तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़, आत्मपोषित बनाने के जिस
उद्देश्य से पंचायतीराज व्यवस्था को मजबूत किया जा रहा है, वह अभी तक असफल
है। ग्रामीण अंचल या गाँव के लोग आज भी उन प्राथमिक सुविधाओं के लिए मोहताज
हैं जो जीवन के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी हैं। लोगों की आकांक्षाओं
को पूरा करने में पंचायतें असफल रही हैं जैसे सफाई, स्वास्थ्य, पीने का
पानी, अच्छी चिकित्सा, गलियों में प्रकाश व्यवस्था, नाली-निर्माण, वाचनालय,
मनोरंजन खेल-सुविधा किसी भी प्रकार की सुविधाएँ संतोषजनक नहीं हैं। सड़क,
बिजली, स्कूल, सिंचाई, पानी, मनोरंजन आदि जो थोड़ी-बहुत सुविधाएँ उपलब्ध भी
हैं, वे पंचायतों द्वारा नहीं बल्कि सरकार द्वारा पहले ही उपलब्ध कराई जा
चुकी हैं और पंचायतें इनका सही सुधार, देखभाल एवं अनुरक्षण तक नहीं कर पा
रही हैं। ऐसी बात नहीं है कि पंचायतें विकास नहीं कर रही हैं या उनमें
परिवर्तन, नहीं आ रहा है। हाँ, विकास और परिवर्तन उतना और उस दिशा में नहीं
हो रहा है, जितना होना चाहिए। पंचायती राज व्यवस्था में कमी नहीं है बल्कि
समस्या व्यवस्था को कड़ाई से एवं नियमबद्ध ढँग से लागू करने की है। यदि
वर्तमान स्थिति को यूँ ही छोड़ दिया जाता है तथा इन समस्याओं एवं कमजोरियों
की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है तो आने वाले समय में निश्चित रूप
से इस व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है और व्यवस्था के उद्देश्य की
सार्थकता गलत भी सिद्ध हो सकती है। इसलिए समय रहते पंचायतों को सुदृढ़,
अर्थपूर्ण, मजबूत और स्वयंपोषित बनाने के लिए निम्न सुझाव सहायक सिद्ध हो
सकते हैं-
आर्थिक
(1) स्थानीय स्रोत के करों की वसूली दृढ़ता एवं कड़ाई से की जाए। (2) करों
का निर्धारण नए सिरे से तथा वर्तमान मूल्यों (भवन, भूमि, सम्पत्ति) के आधार
पर किया जाए। (3) व्यवसाय, वाणिज्य, व्यपार, आजीविका आदि पर कर लगाए जाएँ।
(4) सराय, धर्मशाला, विश्रामगृह, वधशाला, पड़ाव स्थल आदि के उपयोग हेतु
फीस ली जाए। (5) साप्ताहिक बाजार बैठा कर ठेके से बहुत बड़ी राशि प्राप्त
की जा सकती है। (6) साप्ताहिक या पाक्षिक पशु बाजार आयोजित कर पशु
रजिस्ट्रीकरण शुल्क आदि प्राप्त किया जा सकता है। (7) इन साप्ताहिक बाजारों
में वाहन स्टैण्ड बनाकर उसे ठेके पर दिया जा सकता है। (8) तालाब ठेका सभी
तालाबों का दिया जाए। (9) नदियों की रेती, मिट्टी तथा खदान आदि पर रायल्टी
वसूली जाए। (10) सार्वजनिक कॉम्पलेक्स बनाकर उसे किराये पर दिया जाए। (11)
अनावश्यक एवं अनुत्पादक खर्चों में कटौती की जाए। (12) बड़े-बड़े
पूँजीपतियों से दान, अंशदान आदि एकत्र करके भी सार्वजनिक कार्यों के लिए आय
जुटाई जा सकती है।
सामान्य
(1) पंचायत प्रतिनिधियों के लिए अनिवार्य रूप से उचित एवं व्यावहारिक
प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए। (2) समुचित वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता
सुनिश्चित करते हुए स्थानीय स्रोत बढ़ाने के लिए पंचायतों को पर्याप्त
अधिकार प्रदान किए जाएँ। (3) आम जनता को विकास रणनीति से जोड़ा जाए। (4)
पंचायत-स्तर पर विकास कार्यक्रम तैयार कर क्रियान्वयन से यथासम्भव समन्वय
किया जाए एवं इस सम्बन्ध में मौलिक अधिकार दिये जाएँ। (5) पंचायत
प्रतिनिधि, आम जनता और प्रशासनिक अधिकारियों से यथासम्भव समन्वय स्थापित कर
निर्णय आम सहमति से लिए जाएँ ताकि विरोध का स्वर असहयोग में न बदल सके।
(6) पंचायतों को राजनीतिक से दूर रखें : पंचायत प्रतिनिधि राजनीतिक
विचारधारा की हों लेकिन ग्रामीण विकास में ग्रामीण स्तर पर उसे बाधक न बनने
दें। (7) परिवार नियोजन कार्यक्रम, सामाजिक वानिकी एवं वृक्षारोपण, कृषि
एवं उन्नत सुधार हेतु वैज्ञानिक कृषि प्रशिक्षण, पशुपालन, मत्स्य-पालन,
ग्रामीण, लघु एवं कुटीर उद्योगों के विभिन्न कार्यक्रमों एवं योजनाओं को
पंचायतें संचालित करें तथा लोगों को प्रशिक्षण, प्रोत्साहन सुविधाएँ एवं
जानकारी पंचायतों के माध्यम से दी जाए।
विशेष
पंचायतों में लागू आरक्षण व्यवस्था केवल लिंग एवं जाति तक सीमित न हो बल्कि
जनसंख्या एवं शिक्षा सम्बन्धी आरक्षण व्यवस्था लागू की जाए। आरक्षण में
लिंग एवं जाति के साथ-साथ आर्थिक आधार को भी ध्यान रखा जाए। जनसंख्या एवं
शिक्षा सम्बन्धी आरक्षण के तहत ग्राम स्तर, जनपद स्तर एवं जिला स्तर पर एक
न्यूनतम शिक्षा की अर्हता एवं परिवार में बच्चों की संख्या को भी निर्धारित
कीया जाए। इससे साक्षरता एवं जनसंख्या समस्या दोनों पर काबू पाया जा सकता
है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यदि इन सुझावों को अमल में लाया जाए
तो निश्चित रूप से पंचायती राज व्यवस्था में निहित विकेन्द्रीकरण की
अवधारणा सार्थक और सफल सिद्ध होगी।
निष्कर्ष
किसी भी व्यवस्था की सफलता के लिए जनमानस में शिक्षा का प्रसार-प्रचार कर
जागरुकता लाना और उनकी मानसिकता और मनोवृत्ति में परिवर्तन करना जरूरी है
क्योंकि मानसिकता एवं मनोवृत्ति में परिवर्तन ही वह सशक्त माध्यम एवं उपाय
है जो सभी समस्याओं का हल है और यह बात पंचायतीराज व्यवस्था के सन्दर्भ में
भी उतनी ही प्रासंगिक है।
Suchi dekhae