Bharateey Samvidhan Ki Prastavna Ka Mahatva भारतीय संविधान की प्रस्तावना का महत्व

भारतीय संविधान की प्रस्तावना का महत्व



Pradeep Chawla on 31-10-2018


मूल संविधान की प्रस्तावना 85 शब्दों से निर्मित थी। 1976 में संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा उसमें समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष और अखण्डता शब्दों को जोड़ दिया गया। इस संशोधन के बाद संविधान की प्रस्तावना का वर्तमान स्वरूप निम्नवत है –

‘‘हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों कोः

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास धर्म और उपासना की स्वतत्रता
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त करने के लिए
तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता
बढाने के लिए

दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

सत्ता का स्रोत:


इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। इससे इस तथ्य का बोध होता है कि संविधान किसी वैदेशिक सत्ता या किसी वर्ग विशेष द्वारा भारतवासियों पर आरोपित नहीं किया गया है वरना जनता ने स्वयं इसे बनाया है, इसे स्वीकार किया है और स्वयं अपने को दिया है अर्थात् अपने ऊपर लागु किया है। दूसरे शब्दों में जनता शासक भी है और शासित भी।


राज्य और सरकार का स्वरूप


प्रस्तावना का दूसरा भाग इस बात को निश्चित करता है कि राज्य और सरकार का स्वरूप क्या होगा। इसे बताने के लिए प्रस्तावना में पाँच शब्दों का प्रयोग किया गया है। संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य।


न्याय-सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक


प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया हे। सामाजिक न्याय का अर्थ यह है कि सभी नागरिकों को उनके धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर भेदभाव किए बिना, अपने विकास के समान अवसर उपलब्ध हों और समाज के दुर्बल वर्गो का शोषण न किया जाए। आर्थिक न्याय से अभिप्राय यह है कि उत्पादन के साधनों का इस तरह वितरण किया, जाए कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण न कर सके और उत्पादन के साधनों का सार्वजनिक हित में प्रयोग किया जाए। सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 38 और 39) में विशेष रूप से निर्देश दिए गए हैं। अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना और संरक्षण करके लोक-कल्याण की उन्नति का प्रयास करेगा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनेतिक न्याय भविष्य की सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करे।


संविधान का अधिनियमन


प्रस्तावना के अन्त में संविधान को अंगीकृत करने का उल्लेख किया गया है। इसमें कहा गया है कि (हम भारत के लोग.) …दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 …… को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि संविधान 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत किया गया था और उसी दिन अनुच्छेद 394 तथा उसमें उल्लिखित 15 अन्य अनुच्छेद लागु कर दिए गए थे। संविधान के शेष उपबन्ध 26 जनवरी 1950 को लागु किए गए ।


उद्देशिका का महत्व


भारतीय संविधान की प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा गया है। संविधान को प्रस्तावना संविधान की व्याख्या का आधार प्रस्तुत करती है। यह संविधान का दर्पण है जिसमें पूरे संविधान को तस्वीर दिखाई देती है, यह संविधान का चेहरा है जिससे संविधान की पहचान होती है।


संविधान की प्रस्तावना संविधान का अंग है या नहीं, इस प्रश्न पर काफी विवाद रहा है। संविधान-निर्मात्री सभा की कार्यवाही को देखने से यह पता चलता है कि संविधान-निर्माताओं ने इसे संविधान के अंग के रूप में स्वीकार किया था। यह उल्लेखनीय है कि पूरे संविधान पर विचार करने के बाद अन्त में उददेशिका पर विचार किया गया था।


1976 में केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने यह दृष्टिकोण प्रतिपादित किया कि प्रस्तावना संविधान का अंग है और इसमें संविधान की मूल विशेेषताएँ उल्लिखित हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘संविधान की मूल संरचना सिद्धान्त’ का प्रतिपादन करते हुए यह निर्णय दिया कि संसद पूरे संविधान में संशोधन कर सकती है किन्तु वह संविधान के मूल ढाँचे को नहीं बदल सकती।




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